Friday 14 February 2020

शाहीन बाग़ियो के नाम

शाहीन बाग़ियो के नाम 

प्रिय शाहीन बाग़ियो,
प्रेम तथा मैत्री का संदेश देनेवाले वेलेंटाइन दिवस पर आप सब को हार्दिक बधाई तथा शुभकामनाएँ।
मैं शाहीन बाग़ी संबोधन का इस्तेमाल व्यापक अर्थ में कर रहा हूँ, कि केवल दिल्ली के शाहीनबाग में धरने पर बैठी महिलाओं के लिए। बल्कि उन सभी के लिए जो देश के किसी भी हिस्से में, सीएए के खिलाफ, अपना प्रतिरोध दर्ज कर रहे हैं। शाहीन का अर्थ होता है बाज़। जिस तरह जानवरों में शेर अत्यंत दक्ष शिकारी तथा जंगल का शाहंशाह होता है उसी तरह पक्षियों में बाज़ सबसे अधिक दक्ष शिकारी तथा आकाश का शाहंशाह होता है। दिल्ली के शाहीनबाग में धरने पर बैठी महिलाओं ने सीएए का विरोध करने में जिस प्रकार की एकजुटता दिखाई है और देशभर के मेहनतकशों को सीएए के विरोध के लिए प्रेरित किया है वह उनकी परिपक्वता तथा सर्वहारा चेतना को दर्शाता है। इसलिए वे शाहीन बाग़ी कहलाये जाने की अधिकारी हैं। वे सीएए, एनपीआर तथा एनआरसी की कानूनी भाषा को चाहे समझती हों पर अपनी सहजबुद्धि से वे यह आसानी से समझ गईं हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्हें जनता ने एकजुट होकर आर्थिक विकास के मुद्दे पर बहुमत दिया था, वह अर्थव्यवस्था की समस्याओं पर ध्यान देकर हिंदू मुसलमानों के धार्मिक मुद्दों पर ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं और मेहनतकशों की एकजुटता को ध्वस्त करने की नीतियाँ लागू कर रहे हैं। मार्क्स ने स्त्री को पहला सर्वहारा कहा था, और सर्वहारा भौतिक-सामाजिक-चेतना जहाँ पुरुषों में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के आधार पर विकसित होती है, वहीं वह स्त्रियों के सहजज्ञान में ही बसती है। यह अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध के अनुरूप ही है।
वर्ग विभाजित समाज की बुर्जुआ जनवादी राजनीतिक व्यवस्था इतनी क्लिष्ट होती है कि व्यवस्था परिवर्तन की कोई भी लड़ाई सहजज्ञान के आधार पर नहीं लड़ी जा सकती है, और लड़ाई के लिए कामगारों की सैद्धांतिक एकजुटता अनिवार्य शर्त है। किसी भी लड़ाई में दोस्तों तथा दुश्मनों की पहचान तथा उनके बीच भेद कर सकने की क्षमता लड़ाई जीतने के लिए एक आवश्यक गुण है।
वर्ग विभाजित समाज में व्यक्तिगत आर्थिक हित सर्वोपरि होता है क्योंकि व्यक्ति का अस्तित्व व्यक्तिगत आर्थिक हितपूर्ति पर निर्भर करता है। राजनीतिक-अर्थव्यवस्था में सभी किरदारों को आर्थिक हितों के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। संपत्तिवान वर्ग जिसका संसाधनों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से क़ब्ज़ा होता है जिसके जरिए वह मेहनतकश द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को हथियाता है, मेहनतकश या श्रमिक वर्ग जो अपनी श्रमशक्ति से सामूहिक रूप से जीवन के साधन उत्पन्न करता है, और मध्यवर्ग जो उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं के बीच उत्पादों के वितरण को अपने श्रम तथा सेवाओं से संभव बनाता है। वर्गों के बीच हितों की टकराहट को नियंत्रित करने तथा सामाजिक व्यवस्था को बरक़रार रखने के लिए राजसत्ता भी अपने आप को समाज से अलग एक वर्ग के रूप में स्थापित कर लेती है। जीवन के साधनों के उत्पादन और वितरण में, एक वर्ग के रूप में भूमिका के अनुसार, राजसत्ता की चेतना मध्यवर्गीय चेतना का ही विस्तार होती है।
मार्क्सवाद समझाता है कि अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण निम्न मध्यवर्गीय मक्कार होता है। वह संपन्न की संपन्नता से लालायित भी होता है और विपन्न की विपन्नता से द्रवित भी। श्रमिक वर्ग के साथ सहानुभूति तथा एकजुटता दर्शाना, उसका अपनी सुख-सुविधा के साधन हासिल करने की रणनीति का हिस्सा होता है। दुर्जेय दुश्मन के रूप में संपन्नवर्ग के खिलाफ लड़ाई में, निम्न मध्यवर्गीय जनता को संगठित करता है और लोगों की एकजुटता बढ़ने पर, पाला बदल कर दुश्मन के साथ मिल जाता है। लेकिन इसके साथ अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण ही वह हर सामाजिक क्रांति का अभिन्न अंग भी होता है।
देश की राजनीतिक तथा कानूनी व्यवस्था को समझने के लिए भारतीय संविधान तथा प्रतिनिधि सभा आधारित जनवादी शासन प्रणाली को उसके ऐतिहासिक संदर्भ के साथ समझना जरूरी है। भारत की आजादी सीमित अर्थ में ही क्रांतिकारी घटना है। 26 जनवरी 1950 के बाद भारत की शासन व्यवस्था, ब्रिटिश पार्लियामेंट के स्थान पर भारत की जनता के द्वारा चुनी गई प्रतिनिधिसभा के आधीन गई थी और क़ानून तथा शासन व्यवस्था का क्रियान्वयन भारतीय संविधान के अंतर्गत होने लगा था। पर भारतीय संविधान सभा का गठन और उसके द्वारा तैयार किया गया संविधान, ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित किये गये गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 तथा इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के प्रावधानों के अनुसार ही किया गया था। संविधान के अनुच्छेद 395 के अनुसार, ये दोनों एक्ट 26 जनवरी 1950 से निष्प्रभावी हो गये थे जब, ब्रिटेन की महारानी द्वारा नियुक्त किये गये गवर्नर जनरल द्वारा, भारतीय राज्य के शासन की बागडोर, नये संविधान के लागू होने के साथ अस्तित्व में आये नये राष्ट्राध्यक्ष को सौंप दी गई थी। पर अनुच्छेद 372 के प्रावधान के अनुसार, ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित भारत में लागू सभी क़ानून तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि भारतीय पार्लियामेंट उचित क़ानून पारित कर उन्हें निरस्त नहीं कर देती है। हम सभी जानते हैं कि ब्रिटिश पार्लियमेंट द्वारा पारित अनेकों कानून, अनेकों संशोधनों के साथ आज भी प्रभावी हैं। 
भारतीय नागरिकता कानून 1955 तथा हाल ही में पारित किये गये नागरिकता (संशोधन) क़ानून (CAA) 2019 में नागरिकता की परिभाषा मूल रूप से, पासपोर्ट तथा उसके आधार पर घुसपैठिये की परिभाषाएँ, ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित किये गये पासपोर्ट एक्ट 1920 तथा फॉरिनर्स एक्ट 1946, जो आज भी प्रभावी हैं, से निर्धारित होती हैं। साथ ही फॉरिनर्स एक्ट 1946 की धारा 9 के अनुसार, भारत में मौजूद किसी भी व्यक्ति की नागरिकता पर अगर प्रश्न उठाया जाता है तो यह सिद्ध करने का दायित्व कि वह घुसपैठिया नहीं है, स्वयं उसी व्यक्ति पर होगा। अर्थात भारत में मौजूद हर व्यक्ति को घुसपैठिया माना जायेगा जब तक कि वह प्रमाणित कर दे कि वह भारत का वैध नागरिक है, घुसपैठिया नहीं है। 
जाहिर है कि 15 अगस्त 1947 के बाद भारतीय राज्य का कलेवर तो बदल गया है पर उसकी आत्मा वही सामंतवादी उपनिवेशवादी है। जो प्रगतिशील बुद्धिजीवी संविधान को परमपावन तथा अलंघनीय मानते हैं, उन्हें संविधान के प्रावधानों को, जनमानस की आकांक्षाओं के अनुरूप बदलने से परहेज़ नहीं करना चाहिए। पर ये बदलाव अग्रगामी होना चाहिए कि प्रतिगामी। सरकारें जनमानस को उन्माद की स्थिति में रखना चाहती हैं ताकि बुद्धिजीवियों का विवेक कुंठित रहे और वे तर्क पूर्वक सोच सकें।
CAA के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों के ऊपर गृह मंत्री तथा प्रधानमंत्री सहित सरकार तथा राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत बुद्धिजीवियों का दावा है कि विरोध का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि CAA नागरिकता देने का कानून है नागरिकता छीनने का नहीं। शब्दाडंबर में उनका दावा सही प्रतीत होता है पर शब्दाडंबर के पीछे की हक़ीक़त कुछ और है। मौजूदा प्रभावी सभी कानूनी प्रावधानों को एक साथ मिलाकर देखें तो धारा 9 के अनुसार नागरिकता तो पहले क़दम पर ही छीन ली जाती है उसके बाद नागरिकता क़ानूनों के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत दी गई छूट के अनुसार नागरिकता प्रदान की जाती है। कोई व्यक्ति छूट पाने का अधिकारी है यह सिद्ध करने का दायित्व स्वयं व्यक्ति पर है। इसे सरल भाषा में एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
आजकल सभी बड़े रेलवे स्टेशनों पर सामान की जांच के लिए एक्स रे मशीन लगी होती है। प्लेटफ़ॉर्म पर घुसने से पहले हर व्यक्ति को अपना सामान एक्स-रे मशीन में डालकर स्वयं जांच प्रवेश द्वार से अंदर जाना होता है। अंदर जाकर, हर नागरिक एक्स-रे मशीन से बाहर आते हुए सामान में से अपना अपना सामान पहचान कर उठा लेता है और आगे बढ़ जाता है। यह प्रक्रिया इतने सुचारू तौर पर चलती रहती है कि यह अहसास ही नहीं होता है कि सभी का सामान सुरक्षा जाँच एजेंसी के क़ब्ज़े में सौंप दिया गया है, और दूसरी ओर पहुँचने पर सुरक्षा जांचकर्मी निर्धारित शर्तों के पूरा हो जाने के बाद ही आपको सामान दे रहा है। वह आपको आपका सामान नहीं भी दे सकता है अगर उसको संदेह है कि आप किसी शर्त को पूरा नहीं कर रहे हैं, जैसे कि, आपके पास टिकट या वैध यात्रा दस्तावेज नहीं है या फिर आपके सामान के अंदर गैर कानूनी पदार्थ मौजूद है, या फिर किसी अपराधिक मामले में पुलिस को आपसे कुछ पूछताछ करनी है। शर्तों को पूरा करने का दायित्व आपके ऊपर है। कहने को सुरक्षा जाँच की प्रक्रिया आपको सामान देने के लिए है, सामान छीनने के लिए नहीं है जबकि स्टेशन परिसर में आपकी मौजूदगी का मतलब है कि आपका सामान छीना जा चुका है। उसके बाद सामान देना या देना सुरक्षा जाँच एजेंसी या सरकार की मर्जी पर है।
अन्य यात्रियों की सुरक्षा के नाम पर, सुरक्षाकर्मी किसी भी यात्री को संदिग्ध क़रार दे सकता है, जैसे कि उसे आपकी वेशभूषा या पहनावा देखकर लग सकता है कि आप असली यात्री नहीं हो, और अपनी संतुष्टि के लिए वह आपसे पूछ सकता है कि आपका सूटकेस कब तथा किस दुकान से ख़रीदा गया था और प्रमाण के तौर पर आपसे रसीद मांग सकता है। या कि आपके सूटकेस का ठीकठीक वज़न कितना है। या कि आप जिस टैक्सी से स्टेशन पहुँचे उसका नंबर क्या था। और आपके द्वारा उचित प्रमाण देने पर सामान देने से इनकार कर सकता है।
कहने को एक्स-रे मशीन सामान देने के लिए है छीनने के लिए नहीं, पर यथार्थ में वह छीनने के लिए ही है कि देने के लिए। अगर यह हो और स्टेशन परिसर में अपने सामान के साथ मौजूद हर व्यक्ति वैध यात्री माना जाये, तो किसी भी यात्री को कोई समस्या नहीं होगी।
नागरिकता कानून पूरी तरह सुरक्षा जाँच प्रक्रिया की तरह है जिसमें संशोधित प्रावधान CAA, एक्स-रे मशीन की तरह है जिसमें केवल किसी एक विशिष्ट वेश-भूषा वाले व्यक्ति का सामान अर्थात नागरिकता छिन जाने का डर है, बल्कि हर उस व्यक्ति, जो आवश्यक प्रमाण उपलब्ध कराने की स्थिति में नहीं है, का सामान या नागरिकता छिन जाने का डर है।                  
सीएए पर, अपने वर्गीय हितों के अनुरूप हर वर्ग समर्थन या विरोध कर रहा है।
शासक दल, नौकरशाही तथा समर्थक सीएए का पूरी तरह समर्थन कर रहे हैं तथा गृह मंत्री तथा प्रधानमंत्री की दलील, कि सीएए नागरिकता देने का का कानून है छीनने का नहीं, को प्रसारित प्रचारित कर रहे हैं। यह बुर्जुआ जनवाद के तानाशाही चरित्र के अनुरूप है जो आम आदमी की सुरक्षा के नाम पर उसकी आजादी को पूरी तरह नियंत्रित करना चाहता है।
मध्यवर्गीय सरकार की दलील को मान रहे हैं पर मांग कर रहे हैं कि सरकार आश्वासन दे कि एनपीआर तथा एनआरसी लागू नहीं किये जायेंगे। यह उस वर्ग के मक्कार चरित्र के अनुरूप ही है। यह वर्ग संपन्न तथा विपन्न दोनों के साथ खड़ा दिखना चाहता है ताकि मौक़े के अनुसार इस या उस पाले में शामिल हो सके।
शाहीनबागियों की मांग है कि सीएए को पूरी तरह वापस लिया जाय ताकि सभी मेहनतकशों के लिए, इस देश में, इस देश के क़ानूनों के अनुसार मेहनत कर अपनी आजीविका अर्जित करने की आजादी में कोई व्यवधान पैदा किया जा सके। यह पूरी तरह सर्वहारा चेतना के अनुरूप है जो दुनिया भर के मेहनतकशों के बीच कोई भेद नहीं करती है। 
देश भर के सभी मेहनतकशों का दायित्व है कि, सर्वहारा चेतना से लैस शाहीनबाग की महिलाओं के नेतृत्व में चलाये जा रहे आंदोलन के साथ एकजुट हों। विशेष रूप से वामपंथियों का दायित्व है कि किसी भी और तरह के नारों को इस संघर्ष के साथ शामिल कर इस संघर्ष को कमजोर करें।

सुरेश श्रीवास्तव

14 फरवरी, 2020