Thursday 24 April 2014

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव पर भारतीय जनवाद का प्रभाव

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव पर भारतीय जनवाद का प्रभाव
सुरेश श्रीवास्तव

आजकल मोदी की आंधी चाहे न भी चल रही हो पर हवा तो बह ही रही है। मीडिया में तो पिछले कुछ महीनों से नमो-नमो का ही जाप हो रहा है, बहरहाल चुनाव शुरू होने के बाद कांग्रेस भी नजर आने लगी है। प्रिंट की वास्तविक दुनिया में तथा मीडिया की आभासी दुनिया में हर जगह बौद्धिक जगत के दिग्गज भावी प्रधानमंत्री के भूत और भविष्य की चर्चा में मल्ल युद्ध करते नजर आते हैं। अलग अलग चैनल अपने-अपने सर्वेक्षणों द्वारा मोदी के प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। समर्थक, सक्षम मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात के अभूतपूर्व विकास के कसीदे काढ़ रहे हैं और वर्तमान नकारा प्रधान मंत्री के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था का मर्सिया पढ़ रहे हैं। आलोचक गुजरात नरसंहार का राग अलापते हुए मोदी की कट्टर सांप्रदायिक छवि को ध्वस्त करने और भारत की अखंडता को अक्षुण्ण रखने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, सम्पन्न-विपन्न के बीच बढ़ती खाई, स्त्रियों तथा कमजोरों के प्रति हिंसा आदि आर्थिक तथा सामजिक समस्याओं के कारणों और निदान पर बहस कहीं नहीं है। चुनावी घोषणा पत्रों में बड़े बड़े दावों के बावजूद नेताओं की तकरीरों में आरोप प्रत्यारोप की भरमार है, मूल सरोकारों पर बहस नदारद है। सारे चुनावी समारोहों तथा सभाओं में, सोशल मीडिया में, चाय की प्याली पर बहसों में, सब जगह मध्यवर्ग की ही मौजूदगी है, 80 प्रतिशत गरीब जनता पूरे तमाशे में कहीं नहीं है।
मध्यवर्ग की सारी बहस और सत्ता हासिल करने की सिद्धांत तथा नीति विहीन कवायद, व्यक्ति केंद्रित है, यहां तक कि नई पार्टी आआपा भी सारी समस्याओं के समाधान अरविंद केजरीवाल के, भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर राहुल गांधी तथा नरेंद्र मोदी के विरोध में ही देख रही है। भारतीय समाज में, समस्याओं के समाधान ढूंढ सकने तथा लागू कर सकने से पहले, मध्यवर्ग में व्याप्त राजनीतिक-आर्थिक विभ्रम को समझना और उससे निजात पाना जरूरी है।
एंगेल्स ने दर्शाया था कि वर्ग विभाजित समाज में टकरावों की भीषणता को कम करने के लिए तथा मौजूदा व्यवस्था को बनाये रखने के लिए राज्य नामक संस्था का जन्म हुआ है जो समय के साथ समाज से अलग और उसके ऊपर एक सत्ता के रूप में विकसित होती गई है। राज्य में निहित सत्ता तथा उत्पादन संबंधों के कारण, व्यवस्था में भ्रष्टाचार अपरिहार्य है। जनवादी जनतंत्र राज्य की उच्चतम अवस्था है क्योंकि इसमें राजसत्ता प्रत्यक्ष रूप से बिना किसी आर्थिक-सामाजिक भेदभाव के जनप्रतिनिधियों के जरिए शासन करती है। और शोषण के खिलाफ अंतिम लड़ाई जनवादी जनतंत्र में ही लड़ी जा सकती है।
भारत राष्ट्र, भौगोलिक विस्तार तथा प्राचीनतम संस्कृति के कारण अनेकों राष्ट्रीयताओं का मिला-जुला संस्करण है जिसके कारण अत्याधिक रूढ़िवादी से लेकर अत्याधिक आधुनिक विचार जनमानस में व्याप्त हैं। आर्थिक तथा सामाजिक हितों के अनुरूप लोग अनेकों समाजों में बंटे हुए हैं तथा अपने-अपने हितों को साधने के लिए नाना प्रकार के गुटों में संगठित हैं और ठीक इसी के अनुरूप अनेकों राजनैतिक पार्टियां राजसत्ता में भागीदारी के लिए सिद्दांतविहीन उठा-पटक में लगी हुई हैं।
वर्ग विभाजित समाज में, उत्पादन संबंधों में मध्यवर्ग की स्थिति बिचौलिए की होती है। प्रूधों की पुस्तक दर्शन की दरिद्रता के ऊपर टिप्पणी करते हुए मार्क्स ने पी. अन्नानिकोव को लिखा था, एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर अर्थवादी, दूसरे शब्दों में वह उच्चमध्यवर्ग की संपन्नता से चुंधियाया होता है और विपन्नों के दुखों से द्रवित होता है। वह एक ही समय पर सरमायेदार और आमजन दोनों होता है। वह स्वयं क्रियारत सामाजिक अंतर्विरोध का मूर्त रूप है और सामाजिक अंतर्विरोध के सिवाय कुछ भी नहीं है। पर इसके साथ ही निम्न पूंजीपति सभी होनेवाली सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा
ब्राजील हो या वेनेजुएला, ट्युनीशिया हो या मिस्र, फ्रांस हो या यूक्रेन, या फिर भारत में जेपी का आंदोलन हो या अन्ना हजारे का, सभी के केंद्र में मध्यवर्ग ही रहा है। पर निम्न बुर्जुआ मानसिकता तथा अंतर्विरोधों के समाधान में असफल रहने के कारण मध्यवर्ग किसी भी आंदोलन को उसकी अंतिम परिणति तक पहुंचाने में असफल रहता है।
अधिकांश राजनैतिक पार्टियों में बहुमत निम्न मध्यवर्गीयों का होने के कारण उनकी विचारधारा भी अंतर्विरोधी विचारों का घालमेल ही होती है। भारत जैसे विशाल देश में भौगोलिक तथा ऐतिहासिक विविधता के कारण विभिन्न उत्पादन पद्धतियां तथा उनमें अंतर्निहित उत्पादन संबंध मौजूद हैं। इन्हीं उत्पादन संबंधों के आधार पर विभिन्न, शोषक तथा शोषित वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करनेवाली अनेकों राजनैतिक पार्टियां भी हैं। हर पार्टी एक ओर तो अपनी-अपनी संबद्धता के अनुरूप अपने-अपने वर्ग के हितों की पैरोकारी करती है तो दूसरी ओर दूसरे वर्गों के हितों की रक्षा करने का दावा भी करती हैं। मार्क्स ने अठारहवाँ ब्रुमेयर में लिखा है, “संपत्ति के विभिन्न रूपों के ऊपर, अस्तित्व की सामाजिक परिस्थितियों के ऊपर, स्पष्ट तथा विशिष्ट रूप से निर्मित भावनाओं, भ्रांतियों, वैचारिक पद्धति और जीवन के प्रति दृष्टिकोण की संपूर्ण अधिरचना खड़ी हो जाती है। पूरा वर्ग इसकी, अपनी भौतिक बुनियाद तथा उसके अनुरूप सामाजिक संबंधों के आधार पर, संरचना तथा निर्माण करता है।इस कारण विभिन्न वर्गों की उनकी अपनी अपनी राजनैतिक गतिविधियों का विश्लेषण करते समय, इन वर्गों के भौतिक आधार को, ख़ासकर भौतिक वस्तुओं के उत्पादन तथा वितरण के दायरे में उनकी सामाजिक स्थिति को, नज़रअंदाज़ करना भयंकर भूल होगी।
शोषण व्यवस्था का आधार है श्रमविभाजन और उस पर आधारित यह सोच कि मानसिक श्रम शारीरिक श्रम से अधिक मूल्यवान है। उत्पादन संबंधों में अपनी परिस्थिति के कारण निम्न मध्यवर्गीय इसी मानसिकता का कायल होता है। इसी मानसिकता से उपजती है यह भ्रमित सोच कि समाज में कुछ व्यक्ति विशिष्ट होते हैं और उनका महत्व समाज से अधिक होता है, समूह में नेता का महत्व समूह के सदस्यों से अधिक होता है, विशिष्ट व्यक्तियों की समझ, अनुयायियों की समझ से ऊपर होती है। पर इसके साथ ही यथार्थ के धरातल पर, औद्योगिक पूंजीवाद के विकास के कारण, सामाजिक जीवन में सामूहिक ज्ञान तथा सामूहिक सहयोग हर क्षेत्र में नजर आता है। निम्न मध्यवर्गीय अपनी परिस्थिति के कारण यथार्थ तथा कल्पना के इस अंतर्विरोध के साथ ही जीता है और अपनी अंतर्विरोधी बुर्जुआ मानसिकता के कारण इसका समाधान ढूंढने में असमर्थ रहता है।
एंगेल्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'परिवार, निजी संपत्ति और राजसत्ता' में रेखांकित किया था कि जनवादी जनतंत्र राज्य का सबसे ऊंचा स्वरूप है जो पूंजीवाद की विकसित अवस्था में अनिवार्य है। निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी राजसत्ता के गठन के लिए तो जनवादी पद्धति की पैरोकारी करता है, पर अच्छे प्रभावी शासन के लिए एक सशक्त अधिनायक का शासन तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण अपरिहार्य मानता है। सामंती तथा निम्न पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के नुमाइंदों के रूप में भाजपा तथा उसके सहयोगी दल और अनेकों निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी तो बेहिचक मानते ही हैं कि अधिनायक जैसी छवि वाले नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना ही भारतीय राष्ट्र के विकास का एकमात्र रास्ता है, पर संघ परिवार तथा नरेंद्र मोदी की सांप्रदायिक कट्टर छवि के आलोचक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी भी दावा करते हैं कि यूपीए सरकार की नाकामी का कारण, मनमोहन सिंह का कमजोर व्यक्तित्व तथा सोनिया गांधी की शक्ति के दूसरे केंद्र के रूप में मौजूदगी, ही है, यहां तक कि वे इसे संविधानेतर शक्ति करार देने से भी नहीं हिचकिचाते हैं।
भारतीय संविधान की कटु आलोचना करने वाले भी बहुत हैं, पर सारी दुनिया में माना जाता है कि आजादी के तुरंत बाद की परिस्थितियों में अपनाया जानेवाला भारतीय संविधान, सारे देश के जाने माने चिंतकों-विचारकों के संविधान सभा में किये गये सामूहिक गहन विचार विमर्श के फल स्वरूप उपजा उत्कृष्टतम दस्तावेज है। भारतीय लोकसभा तथा विधानसभाओं में शिरकत करने वाले सदस्य सारी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं, तथा सामूहिक तौर पर जनता के प्रति पूरी तरह जवाबदेह होते हैं और हर पांच साल बाद जनता सामूहिक तौर पर उनके कार्यकलापों के आधार पर उन्हें प्रतिनिधित्व का पुनः मौका देती है या नकार देती है। मत के प्रतिशत के आधार पर प्रतिनिधि चाहे अल्पमतों द्वारा चुनकर क्यों न आया हो, पर चुने जाने के बाद वह अपने क्षेत्र की पूरी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। लोकसभा में सबसे बड़ा दल या गठजोड़, प्रधानमंत्री पद के लिए अपना प्रतिनिधि तय करता है जिसे, प्रधानमंत्री के रूप में, राष्ट्रपति शपथ दिलाते हैं। यह आवश्यक नहीं कि जिस राजनैतिक पार्टी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्ताव करने का अधिकार मिला है उसका अध्यक्ष या नेता ही प्रधानमंत्री नियुक्त हो। प्रधानमंत्री तथा मंत्रिमंडल के सदस्य चाहे अल्पमत वाले दल या गठजोड़ से संबंध रखते हों और उसी की सहमति से शासन चलाने का अधिकार पाते हों, पर वे सारे सदन का और सदन के जरिए सारी जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनके के प्रति उत्तरदायी होते हैं।        
अधिकांश बुद्धिजीवी अपनी अंतर्विरोधी सोच के कारण सदन के गठन और प्रधानमंत्री के चयन तथा मंत्रीमंडल के गठन तक तो सामूहिक प्रक्रिया का समर्थन करते हैं पर शासन संचालन में अधिनायिक प्रवृत्ति का समर्थन करते हैं, यहां तक कि अमरीकी व्यवस्था का अंधानुकरण करते हुए, सामूहिक प्रतिनिधित्व आधारित प्रधानमंत्री प्रणाली के स्थान पर अधिनायकत्व आधारित राष्ट्रपति प्रणाली की पैरवी करते हैं। यही तबका है जो मनमोहन सिंह को मौनी बाबा तथा सोनिया गांधी की कठपुतली जैसे विश्लेषणों से अलंकृत करता है, तथा जनवादी जनतंत्र के लिए आवश्यक, पार्टी तथा सरकार के रूप में सोनिया गांधी तथा मनमोहन सिंह के बीच के समन्वय तथा सामूहिक उत्तरदायित्व को पूरी तरह नकार देता है। इसी सोच के कारण वे जाने अनजाने अधिनायिक प्रवृत्ति वाले नरेंद्र मोदी को एकमात्र विकल्प के रूप में जनता के बीच प्रचारित करते हैं। महान जर्मन दार्शनिक हेगेल ने कहा था एक राजा, राजा होता है क्योंकि लोग सोचते हैं कि वह राजा है, और मध्यवर्गीय, अपनी मानसिकता – जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब धर्म की पुनर्स्थापना के लिए ईश्वर अवतार लेते हैं - के कारण, किसी एक अधिनायक को भगवान का अवतार मानने लगता है। सुना है अब तो मोदी स्वयं कहने लगे हैं कि उन्हें ईश्वर ने भेजा है भारत की बुराइयों को दूर करने के लिए।         
एंगेल्स ने बहुत सटीक तरह से प्रतिनिधि आधारित जनवाद के अंतर्गत राज्य के वास्तविक चरित्र को इस प्रकार परिभाषित किया था। "और अंतिम बात यह है कि संपत्तिवान वर्ग सार्विक मताधिकार के द्वारा सीधे शासन करता है। जब तक कि उत्पीड़ित वर्ग - इस मामले में सर्वहारा वर्ग इतना परिपक्व नहीं हो जाता है कि अपने आप को स्वतंत्र करने के योग्य हो जाये, तब तक उसका अधिकांश भाग वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को ही एकमात्र संभावित व्यवस्था समझता रहेगा और इसीलिए वह राजनैतिक रूप से पूंजीपति वर्ग का दुमछल्ला, उसका उग्र वामपक्ष बना रहेगा। लेकिन जैसे-जैसे यह वर्ग परिपक्व होकर स्वयं अपने को मुक्त करने के योग्य बनता जाता है, वह अपने को खुद अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता है और पूंजीपति के नहीं, बल्कि अपने प्रतिनिधि चुनता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में उत्पादन संबंधों के आधार पर अनेकों वर्गों में बंटे समाज में, सामंत तथा निम्न बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा के अलावा अनेकों क्षेत्रीय पार्टियां हैं, पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस है पर सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी कोई नहीं है। तथाकथित वामपंथी तथा कम्युनिस्ट पार्टियां मूलतः निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का गठजोड़ भर हैं। 1920 में ताशकंद में जिन मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने कम्युनिस्ट पार्टी गठित की उन्हें मार्क्सवाद की कितनी समझ थी यह लेनिन के इन शब्दों से समझा जा सकता है। जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़े भी परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ-साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं। अपनी निम्न बुर्जुआ मानसिकता तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत की अधकचरी समझ के कारण वामपंथी पिछले 90 सालों से न तो सर्वहारा वर्ग को जागरूक करने के लिए सही आंदोलन चला पा रहे हैं और न ही उसे खुद अपनी पार्टी के रूप में संगठित करने के लिए परिपक्व बना पा रहे हैं।
पर भारत में पूंजीवाद का विकास उस स्तर पर पहुंच चुका है जहां वह अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के साथ बराबरी की शर्तों पर गठजोड़ कर सके। विकास के इस स्तर पर भारत में जनवादी जनतंत्र के लिए प्रतिनिधित्व आधारित सामूहिक प्रणाली से कदम पीछे हटाकर अधिनायिक प्रणाली के निचले स्तर पर जाना संभव नहीं है। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पाने की कोशिश में, अपनी स्थापित कट्टर हिंदुत्ववादी छवि को उदारवादी छवि में बदलने की कितनी भी सजग कोशिश कर लें पर, उम्र के इस पड़ाव में वे न तो अपनी कट्टर मानसिकता के कारण अपना व्यवहार बदल पायेंगे और न ही उनका हिंदू परिवार इसके लिए उन्हें उपयुक्त वातावरण प्रदान करेगा। इसलिए जब तक कि उत्पीड़ित वर्ग - इस मामले में सर्वहारा वर्ग परिपक्व नहीं हो जाता है वह राजनैतिक रूप से पूंजीपति वर्ग का दुमछल्ला, उसका उग्र वामपक्ष बना रहेगा, और इस देश में पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता केवल कांग्रेस पार्टी में ही है।
इस लेखक का आंकलन है कि सोलहवीं लोक सभा में न तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे और न ही ऐसी सरकार बनेगी जिसको कांग्रेस का अनुमोदन न हो।

सुरेश श्रीवास्तव
24, अप्रैल 2014               
9810128813
Suresh_stva@hotmail.com
(लेखक सोसायटी फॉर साइंस का अध्यक्ष है।)