Monday 8 September 2014

दर्शन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अमूर्त चिंतन

दर्शन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अमूर्त चिंतन

(सुरेश श्रीवास्तव की आने वाली 'पुस्तक मार्क्सवाद को कैसे समझें' से उद्धृत)

सिद्धांत, प्रकृति के किसी भी आयाम की वह समझ है जो उस आयाम की सभी प्रकार की परिस्थितियों, न केवल मौजूदा बल्कि उन सभी जिनकी कि कल्पना की जा सकती है, की व्यापक तौर पर सही-सही व्याख्या कर सके। जाहिर है सही सिद्धांत के प्रतिपादन के लिए, प्रकृति के नियमों सही-सही समझ अनिवार्य शर्त है। मार्क्स की तलाश एक ऐसे सिद्धांत के लिए थी जो मानव समाज के हर आयाम तथा हर दौर की सही-सही व्याख्या कर सके, और भविष्य के लिए जनता का मार्ग दर्शन कर सके। जाहिर है इसके लिए प्रकृति के उन मूलभूत नियमों की समझ जरूरी थी, जो न केवल भौतिक आयाम बल्कि वैचारिक आयाम पर भी पूरी तरह लागू होते हों। सभ्यता के तीन हजार सालों में मानव समाज ने ज्ञान का अथाह भंडार इकट्ठा कर लिया था। प्रकृति विज्ञान ने भौतिक आयाम से संबंधित, मानव समाज से सरोकार रखने वाले, लगभग सभी क्षेत्रों में नियमों का सत्यापित ज्ञान हासिल कर लिया था, विशेषकर उन क्षेत्रों में जो मनाव समाज के भौतिक उत्पादन-उपभोग से संबंधित हैं। पर विचार तथा चेतना से संबंधित बहुत कुछ अनबूझ पहेली बना हुआ था। और विचार तथा चेतना से संबंधित नियमों का सही-सही ज्ञान तथा उनके आधार पर मानव समाज की व्याख्या करना तथा उस समझ के आधार पर सुखी भविष्य के निर्माण के लिए मार्ग दर्शाना, मार्क्स का एकमात्र उद्देश्य था।         
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, पूँजी के 1867 के जर्मन संस्करण की प्रस्तावना में, मार्क्स लिखते हैं, 'विनिमय-मूल्य, जिसका पूर्ण विकसित स्वरूप मुद्रा है, प्रारंभिक तथा अत्याधिक सरल स्वरूप है। फिर भी मानव मस्तिष्क, 2000 साल तक उसकी तह में पहुँचने के के लिए असफल प्रयास करता रहा है, जब कि दूसरी ओर, वह और अधिक संयोजित तथा क्लिष्ट स्वरूपों को समझने में कुछ हद तक कामयाब रहा है।' जिन चीजों या प्रक्रियाओं का संज्ञान मनुष्य सीधे अपनी इंद्रियों के द्वारा कर लेता है, उनको समझना कहीं अधिक आसान है, बनिस्पत उनके जिनका संज्ञान सीधे इंद्रियों द्वारा नहीं हो पाता है जैसे एक संपूर्ण जैविक संरचना के रूप में, मानव शरीर की संरचना का अध्ययन कहीं अधिक आसान है, बनिस्पत शरीर की कोशिकाओं के अध्ययन के, जिसके लिए अत्यंत सूक्ष्मदर्शी यंत्रों तथा रासायनिक प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। सामाजिक तथा आर्थिक स्वरूपों का अध्ययन तो और भी जटिल है जिसमें किसी भी प्रकार के सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से काम नहीं चलता है। उनके स्थान पर, पूरी तरह अमूर्त चिंतन (Theoretical thinking) पर निर्भर रहना होता है। बुर्जुआ समाज में, मानवीय-श्रम के परिणाम का पण्य-स्वरूप (Commodity form), या पण्य का मूल्य-स्वरूप (Value form), सामाजिक-आर्थिक संरचना की कोशिकाएँ हैं। सतही पाठक क इन स्वरूपों का अध्ययन अनावश्यक मालूम हो सकता है पर जो पाठक संसार की सही-सही व्याख्या के साथ उसे बदलने का दायित्व अपने कंधों पर उठाना चाहते हैं, उनके लिए इन अमूर्त स्वरूपों को समझना आवश्यक है, क्योंकि इन कोशिकाओं का स्वरूप वैचारिक है जो सामाजिक चेतना के गठन का मूल आधार है। और वे अमूर्त चिंतन से किनारा नहीं कर सकते हैं।
मानवीय चेतना की विशिष्टता है, संचित ज्ञान तथा तर्कशक्ति के आधार पर ऐसी चीजों की कल्पना कर सकना जिनका प्रकृति में कोई अस्तित्व नहीं है, तथा उस कल्पना के आधार पर नयी चीजों का निर्माण कर सकना, और यही विशिष्टता, उत्पादन के साधनों के विकास का आधार है। कल्पनाशक्ति तथा तर्कशक्ति के अनवरत विकास के साथ मानव की, अपने स्वयं के जन्म, जीवन तथा मृत्यु और संपूर्ण जगत की उत्पत्ति के बारे में पड़ताल जोर पकड़ती गयी। अपने हाथों द्वारा अपने भौतिक जीवन के निर्माण के यथार्थ ने मानव की इस कल्पना को आधार प्रदान किया कि संपूर्ण जगत तथा प्रकृति का निर्माता भी मनुष्य की ही तरह है पर अत्याधिक सक्षम  है। इस कारण सभी प्रचीन धर्मों में ईश्वर तथा देवताओं की कल्पना मानव शरीर के अनुरूप ही की गयी है।
जंगली अवस्था से सभ्यता के द्वार तक आते-आते, उत्पादकता उस स्तर पर पहुंच गयी कि वस्तुओं का उत्पादन, विनिमय उत्पादों के रूप में होने लगा तथा श्रम का विभाजन, कुशलता के आधार पर शारीरिक श्रम तक ही सीमित नहीं रह गया, बल्कि पूरी तरह विकसित होकर, मानसिक तथा शारीरिक श्रम के बीच भी हो गया। मानव समाज के गठन में, कबीलों की जगह, एकनिष्ठ शादी आधारित परिवार तथा राज्य ने ले ली, तथा समाज, संपन्न तथा विपन्न, शासक तथा शासित वर्गों के बीच, और ज्ञान का क्षेत्र दर्शन तथा प्रकृति विज्ञान के बीच, बंट गया। मानवीय चेतना उस स्तर तक विकसित हो चुकी थी कि, मानव के लिए अपनी चेतना तथा अस्तित्व के संबंध की पड़ताल भी उतनी ही अहम हो गयी थी जितनी कि अपने अस्तित्व के लिए जरूरी वस्तुओं का उत्पादन तथा उपभोग।
प्रकृति में किसी चीज या प्रक्रिया की सही-सही खोज और समझ ही विज्ञान है। सही समझ के लिए किसी प्रक्रिया के न केवल आंतरिक अवयवों और उनके आपसी संबंधों को समझना आवश्यक है, बल्कि उनका बाह्य अवयवों और प्रक्रियाओं के साथ अंतर्व्यवहार समझना भी उतना ही आवश्यक है। प्रकृति में हो रही अनगिनत प्रक्रियाओं की यही समझ मानव समाज के हाथों में वह अस्त्र है जिसके द्वारा मानव समाज प्रक्रियाओं की दिशा मानव जाति के लिए बेहतर और आरामदायक सुविधाएं जुटाने के लिए, अपनी सुविधा के अनुसार बदल पाता है। यदि प्रक्रियाओं की समझ सही नहीं है तो अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होंगे।
  सभ्यता के विकास के साथ ही ज्ञान भी दो धाराओं में बंट गया और मध्यकाल आते-आते ज्ञान अर्जन पूरी तरह दर्शन तथा प्रकृति विज्ञान के बीच बंट गया। प्रकृति विज्ञान, अपनी अनेक उपशाखाओं के साथ, भौतिक स्तर पर प्रकृति के हर आयाम की पड़ताल के लिए उत्तरदायी हो गया। वैचारिक स्तर पर, मानवीय चेतना तथा अस्तित्व की पड़ताल का दायित्व दर्शन के हिस्से में ही रह गया।
विकास के साथ ही प्रकृति विज्ञान में सभी कुछ की सही-सही पड़ताल करने की पद्धति, जिसे वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है, भी विकसित हो गयी। चीजों तथा प्रक्रियाओं की खोज की वैज्ञानिक पद्धति के तीन चरण हैं।
1.    निरीक्षण
2.    विश्लेषण और नियमों की व्याख्या
3.    प्रयोग
अगर प्रयोग में अपेक्षित परिणाम नहीं आता है तो विश्लेषण तथा व्याख्या में तार्किक बदलाव किये जाते हैं और प्रयोग दुहराये जाते हैं। जब प्रयोग में अपेक्षित परिणाम आने लगते हैं तो विश्लेषण तथा व्याख्या को मान्यता प्राप्त हो जाती है।प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र का ज्ञान सीधे-सीधे उत्पादन प्रक्रियाओं को बेहतर बनाने में उपयोगी होने के कारण, प्राकृतिक नियमों के बारे में अवधारणाओं का विकास तथा सत्यापन स्वतः ही हो जाता है। विकास के निचले स्तर पर, भौतिक जगत के बारे में, दार्शनिकों द्वारा की गयी अनेकों व्याख्याएं, जो पूरी तरह कल्पना पर आधारित थीं, प्रकृति विज्ञान के विकास के साथ-साथ खारिज होती चली गयीं।
पड़ताल का आयाम पूरी तरह वैचारिक होने के कारण, दर्शन के क्षेत्र में पड़ताल का तरीका भी तर्क आधारित विचार-विमर्श ही हो सकता था और उसी आधार पर विकसित भी हुआ। वैचारिक प्रक्रिया पूरी तरह व्यक्ति के मस्तिष्क के अंदर होने के कारण दर्शन के क्षेत्र में पड़ताल पूरी तरह व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करती है, और व्याख्याओं की वस्तुपरकता या सार्थकता केवल विचार-विमर्श के जरिए ही परखी जा सकती है। किसी व्यख्या में परस्पर विरोधी विचारों की पहचान करके, उनके अंतर्विरोध को दूर करके नये विचार को विकसित कर के ही सही विचार पर पहुंचा जा सकता है। विचारों के विकास की यह प्रक्रिया सभी सभ्यताओं में आदिकाल से चली आ रही है और इसी प्रक्रिया को यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने सुव्यवस्थित रूप में द्वंद्व के नाम से आगे बढ़ाया।             
ज्ञानोदय के दौर में प्रकृति विज्ञान ने तथा वैज्ञानिक ज्ञान आधारित उत्पादन प्रक्रिया ने अभूतपूर्व प्रगति की है, जिसके कारण, मानव की शारीरिक संरचना तथा जीवन प्रक्रिया के बारे में नये अर्जित ज्ञान के साथ, मानव अस्तित्व से संबंधित अनेकों अवधारणाएं, जो धर्म से प्रभावित थीं, खारिज हो गयीं, तथा दर्शन का क्षेत्र पूरी तरह मानवीय विचारों, चेतना तथा अस्तित्व पर केंद्रित रह गया। विश्व के रचयिता के रूप में, मानव सदृश्य सर्वशक्तिमान परमेश्वर की अवधारणा की जगह, निराकार ब्रह्म या सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी चेतन शक्ति की अवधारणा ने ले ली। दर्शन के क्षेत्र में मानव समाज की पड़ताल का मुख्य विषय हो गया, मानव के अस्तित्व तथा उसकी चेतना या विचार के बीच का संबंध। और विश्व के अस्तित्व की पड़ताल का मुख्य विषय हो गया, सर्वव्यापी चेतना या विचार तथा विश्व के भौतिक अस्तित्व के बीच का संबंध। सभ्यता के विकास के साथ, जिस तरह आर्थिक क्षेत्र में मानवीय श्रम, मानसिक तथा शारीरिक श्रम के बीच, तथा एक की दूसरे की तुलना में वरीयता के बीच बंट गया, उसी तरह दर्शन के क्षेत्र में पड़ताल, मूल अवधारणाओं में मौलिक अंतर के साथ दो धाराओं में बंट गयी - भौतिक जगत चेतना या विचार का आधार है, या चेतना या विचार भौतिक जगत का आधार है।  
आदिकालीन सभ्यता का इतिहास, विश्व के अलग-अलग हिस्सों में, बिखरे केंद्रों के रूप में विकसित हुई सभ्यताओं का इतिहास है, तो मध्यकालीन सभ्यता का इतिहास राज्यों के बीच युद्धों तथा राज्यों के विस्तार का इतिहास है। ऐतिहासिक तथा भौगोलिक कारणों से, यूनानी सभ्यता आदिकालीन सभ्यता के शीर्ष पर पहुंची जहां ज्ञान की सभी शाखाओं में अभूतपूर्व प्रगति हुई, पर उसके बाद मध्यकालीन इतिहास के लगभग एक हजार वर्षों में (500 ई. से 1500 ई.), जहां ज्ञान का विकास वहुत ही धीमी गति से हुआ, वहीं बिखरी हुई सभ्यताओं के बीच संघर्षों तथा अंतर्व्यवहार में वृद्धि के कारण, टुकड़ों में बंटा मानव समाज, मध्यकाल के अंत तक वैश्विक रूप ले चुका था।
तीन हजार पहले, सभ्यता के द्वार तक आते-आते मानवीय चेतना तथा ज्ञान उस स्तर तक पहुंच चुके थे, जहां यूनानी दार्शनिक यह समझने लगे थे कि जब हम, संपूर्ण प्रकृति या मानव समाज के इतिहास या स्वयं की बौद्धिक गतिविधि पर, ध्यान केंद्रित करते हैं तथा विश्लेषण करते हैं, तो सबसे पहले, एक विस्तृत तस्वीर के रूप में, हम चीजों तथा प्रक्रियाओं के आपसी संबंधों का अंतहीन जाल देखते हैं और पाते हैं, कि कुछ भी - जो भी वह था, जहां भी वह था तथा जैसा भी वह था – उसी स्थिति में नहीं रहता है, वरन हर चीज निरंतर गति में है, निरंतर परिवर्तनशील है, अस्तित्व में आती है तथा नष्ट होती है। यह आदिकालीन समझ, सतही मालूम होने पर भी, मूल रूप में विश्व की सही अवधारणा, यूनानी दार्शनिकों की ही देन है जिसे सबसे पहले ढाई हजार साल पहले हेराक्लिटस ने स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया था, "हर चीज बदलती है और कुछ भी स्थिर नहीं रहता है .... तथा ..... आप पुनः उसी धारा में दोबारा पैर नहीं रख सकते हैं।"
पर यह विस्तृत तस्वीर विषमांगी है, अर्थात अनेकों टुकड़ों से बनी है, जिनको अलग-अलग समझे बिना पूरी तस्वीर को समझना मुमकिन नहीं है। हर टुकड़े को अलग-अलग समझने के लिए उसको, बाकी सबसे अलग करके, उसकी अंतर्वस्तु, उसकी आंतरिक प्रक्रियाओं तथा आंतरिक संबंधों की पड़ताल करना आवश्यक है। शुरू में प्रकृति के विभिन्न आयामों के बारे में परिकल्पना करना यूनानी दार्शनिकों के कार्य क्षेत्र में ही था पर विकसित होते ज्ञान के साथ, प्रकृति के हर आयाम की गहन पड़ताल की आवश्यकता ने, प्रकृति विज्ञान को अनेकों शाखाओं में बांट दिया। प्रकृति के अलग-अलग आयामों का अध्ययन अलग-अलग दायरों में सिमट गया तथा प्रकृति वैज्ञानिकों की सोच की विशिष्टता अपने दायरे तक ही सीमित रहने लगी, और सिकंदर के काल तक आते-आते प्रकृति के विभिन्न आयामों की सही-सही पड़ताल, वैज्ञानिक पद्धति के रूप में विकसित हो गयी। पर वास्तव में प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में स्पष्ट उछाल पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में नजर आयी, जब प्रकृति के विभिन्न आयामों में प्रक्रियाओं तथा अवयवों को विशिष्ट वर्गों में बांट कर तथा जैविक संरचनाओं की आंतरिक रचना का अध्ययन कर प्रकृति की पड़ताल की जाने लगी, और जिसने प्रकृति विज्ञान के विकास को नई गति प्रदान की।
परंतु प्रकृति विज्ञान की इस पद्धति ने, चिंतन में एक नयी परंपरा को जन्म दिया; प्राकृतिक अवयवों तथा प्रक्रियाओं को, संपूर्ण प्रकृति के साथ उनके संबंधों से काट कर, अलग कर के देखना; उनको गति में न देख कर, ठहराव में देखना; उनको निरंतर परिवर्तित होते रूप में न देखकर, स्थिर रूप में देखना; उनको जीवित रूप में न देखकर, मृत रूप में देखना। और जब बेकन तथा लोक जैसे दार्शनिकों ने इस पद्धति को विज्ञान के क्षेत्र से दर्शन के क्षेत्र में आयात कर लिया तो चिंतन में द्वंद्वात्मक पद्धति का स्थान तत्त्ववादी चिंतन (Metaphysical mode of thinking) ने ले लिया।
तत्त्ववादी चिंतक के लिए विचार या चेतना, भौतिक जगत से अलग और उससे पूरी तरह असंबद्ध है, या फिर उनके बीच कारण तथा परिणाम का आगे-पीछे का सीधा संबंध है, चेतना तथा अस्तित्व को समझने के लिए उन्हें एक दूसरे से अलग करके देखना चाहिए। उसके लिए  चीजें या तो हैं या नहीं हैं, उनका एक ही समय पर होना तथा न होना संभव नहीं है। उसके लिए कोई भी चीज एक ही समय पर स्वयं तथा स्वयं से अलग नहीं हो सकती है। मूर्त रूप में प्रकृति के किसी भी आयाम का संज्ञान इंद्रियों, जिनकी अपनी सीमाएं हैं, के द्वारा ही लिया जा सकता है। अपने मूर्त चिंतन की इसी आदत के कारण वह अपने अमूर्त चिंतन में भी इन सीमाओं के पार नहीं जा पाता है। किसी भी आयाम की अपनी सीमाएं होती हैं और उन सीमाओं के अंदर यह तत्त्ववादी पद्धति कुछ हद तक आवश्यक भी है और संतोषजनक व्याख्या कर सकती है, पर उन सीमाओं के बाहर, कुछ नये नियमों के सक्रिय होने के कारण व्याख्या सार्थक नहीं रह जाती है। एक ही विषय पर ध्यान करते हुए वह संपूर्ण प्रकृति के साथ उसके संबंधों को नजरंदाज कर देता है। पेड़ों पर ध्यान केंद्रित करते हुए वह जंगल को नजरंदाज कर देता है, मानव के व्यक्तिगत व्यवहार की पड़ताल करते हुए वह सामूहिक व्यवहार के नियमों को नजरंदाज कर देता है।
चौदहवीं शताब्दी में इटली से शुरू हुए पुनर्जागरण ने सत्रहवीं शताब्दी तक सारे यूरोप को विकास के नये दौर के लिए जागृत कर दिया। कागज तथा मुद्रण के व्यवसायिक विकास के कारण ज्ञान के आदान-प्रदान तथा विकास में क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया। उत्पादों के व्यापार ने वैश्विक आयाम हासिल कर लिया तथा व्यक्तिगत उत्पादन का स्थान सामूहिक उत्पादन ने ले लिया।
सत्रहवीं सदी के अंत से अठाहवीं सदी के अंत तक के ज्ञानोदय काल में औद्योगिक उत्पादन में क्रांति के साथ-साथ बौद्धिक जगत में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। दर्शन के क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान को तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा और अतार्किक अवधारणाओं को खारिज किया जाने लगा। उत्पादन तथा व्यापार का अनुसांगी हो जाने के कारण, प्रकृति विज्ञान में अभूतपूर्व प्रगति हुई, जिसने उत्पादन के क्षेत्र में मशीनों के प्रयोग के आधार पर मजदूरी आधारित श्रम के उपयोग के जरिए क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया।
पारंपरिक दर्शन में, सृष्टि का निर्माण सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी चेतन सत्ता द्वारा किया गया, माना जाता है, और वही सृष्टि में होने वाले सभी कुछ का नियंत्रण करती है। इसी भाववादी दार्शनिक दृष्टि से, प्रकृति के भौतिक और मानव के वैचारिक अस्तित्व की भी, कल्पना आधारित व्याख्या की जाती थी। प्रकृति विज्ञान और उत्पादन तकनीक के विकास के साथ दर्शन में भौतिकवादी दृष्टि भी विकसित होती गयी, जिसमें भौतिक जगत को अनादि-अनंत समझा गया तथा माना गया कि प्रकृति में होने वाली सभी प्रक्रियाएं, प्रकृति के कुछ विशिष्ट नियमों के अंतर्गत ही होती हैं।
प्रकृति विज्ञान के क्षेत्र में, पड़ताल भौतिक जगत के सीमित क्षेत्र पर केंद्रित होती है, इसके साथ ही पड़ताल की विषयवस्तु का अस्तित्व मनुष्य की व्यक्तिगत चेतना से बाहर होता है, इस कारण विश्लेषण, मनोगत न होकर वस्तुगत होते हैं, और निष्कर्षों पर मतैक्य में कोई परेशानी नहीं होती है। इस कारण तत्त्ववादी पद्धति से सही परिणाम हासिल करने में सफलता प्राप्त हो जाती है। पर दर्शन के क्षेत्र में विषयवस्तु का अस्तित्व मानवीय चेतना में होता है, और विश्लेषण में व्यक्ति की मानसिकता की भूमिका प्रमुख होती है, जिसके कारण विश्लेषण वस्तुगत न होकर मनोगत होते हैं तथा निष्कर्षों में मतभेद दूर करने में अड़चन होती है। जिस प्रकार व्यक्ति की मानसिकता व्यक्ति के अवचेतन मस्तिष्क की, भौतिक जगत के संज्ञान आधारित प्रक्रियाओं का पर्याय है, उसी प्रकार दर्शन, उत्पादन संबंधों तथा उत्पादन-वितरण संबंधित कार्य-कलापों का प्रतिबिंब है और समाज की भौतिक-चेतना का पर्याय है। आर्थिक हित, जो व्यक्ति के अस्तित्व से संबंधित हैं, के आधार पर वर्गों में बंटे समाज में, ज्ञान तथा दर्शन अर्थात चेतना भी वर्ग हितों के अनुरूप, शाखाओं में बंटी हुई है।
उन्नीसवीं सदी तक आते-आते दर्शन की दोनों शाखाएं, भाववादी तथा भौतिकवादी, परस्पर विरोधी, पूरी तरह विकसित हो कर अपने चरम पर पहुंच चुकी थीं। भौतिकवादी दर्शन, जिसका प्रतिनिधित्व कांत करते हैं, पूरी तरह प्रकृति विज्ञान की परंपना के अनुरूप सारी चीजों तथा प्रक्रियाओं की, सामाजिक चेतना तथा विचार सहित सभी की, कारण तथा प्रभाव के तार्किक संबंध के आधार पर व्याख्या करता है, तथा उसी के आधार पर समाज के विकास के इतिहास की व्याख्या तथा  भावी दिशा का आंकलन करता है। कांत के अनुसार, मानवीय विचार, बाह्य जगत का, ऐंद्रिक अनुभव तथा तर्कबुद्धि आधारित, संज्ञान है। बाह्य जगत का निर्माण किसी सर्वव्यापी चेतना द्वारा नहीं किया गया है। चेतना तथा अस्तित्व के संबंध में वे अस्तित्व को प्राथमिक मानते हैं। पर वे यह समझा पाने में नाकाम रहे कि चीजें या प्रक्रियाएं क्यों होती हैं। विचारों तथा नैतिकता के मानदंडों में बदलाव क्यों होता है। वे चीजों को कारण या प्रभाव के रूप में ही देख पा रहे थे, उनकी गति को समझाने में नाकाम थे।
दूसरी ओर भाववादी दर्शन, जिसका प्रतिनिधित्व हेगेल करते हैं, सर्वव्यापी सर्वभौमिक चेतना के अस्तित्व की पारंपरिक मान्यता के आधार पर विश्व की व्याख्या करता है। उनके अनुसार बाह्य जगत, सर्वव्यापी विचार या चेतना का प्रकटीकरण है। मानव समाज का लक्ष्य उस अंतिम आदर्श विचार या चेतना को प्राप्त करना है। हेगेल के अनुसार, चेतना में निरंतर विकास, अच्छे और बुरे विचार के बीच संघर्ष के कारण है। हेगेल ने विचारों में परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने के लिए यूनानी दार्शनिकों की विचार-विमर्श की द्वंद्वात्मक पद्धति को अपनाया और विकसित किया। विपरीत विचारों का संघर्ष तथा सह-अस्तित्व; मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन के आधार पर संघर्ष की परिणति नये विचार में; तथा नये विचार के साथ ही नये विरोधी का अस्तित्व में आना; यही विचार के अनवरत विकास की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है। वे मानव समाज के इतिहास की व्याख्या, नैतिकता के आधार पर विचारों में संघर्ष के आधार पर करते हैं, और उसी के आधार पर समाज की भावी दिशा का आंकलन करते हैं।
पर दोनों ही दार्शनिक समझा पाने में असमर्थ थे कि, क्यों चिंतकों द्वारा समाजवाद का विचार विकसित कर देने के बाद भी यथार्थ के धरातल पर सामाजिक तथा आर्थिक समस्याएं बार-बार, पहले की अपेक्षा कहीं अधिक विकराल रूप में सामने आती जा रही थीं, तथा क्यों सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवी, सदिच्छा के बावजूद भी, समस्याओं का समाधान करने में नाकाम थे। मार्क्स की उत्सुकता थी, प्रकृति के उस सर्वव्यापी नियम को समझने की जिसके आधार पर, समाज की गतिकीय को समझा जा सके, जो समाज के इतिहास की व्याख्या तथा भावी दिशा का आंकलन सही-सही कर सके, ताकि सही रणनीति निर्धारित की जा सके जो किसी भी प्रयास के अपेक्षित परिणाम सुनिश्चित कर सके।
मार्क्स ने, पिछले तीन हजार सालों में, दुनिया भर के दार्शनिकों द्वारा विकसित किये गये, दोनों धाराओं के दर्शन का गहन अध्ययन किया, और उसके आधार पर भौतिक जगत तथा वैचारिक जगत में सक्रिय प्रकृति के नियमों का ज्ञान हासिल किया। प्रकृति की तस्वीर के दोनों हिस्सों की सही-सही समझ हासिल करने के बाद, मार्क्स के लिए पूरी तस्वीर की समझ हासिल करना आसान था। मार्क्स ने निष्कर्ष निकाला, कि हेगेल द्वारा दर्शाये गये द्वंद्व के नियम, न केवल वैचारिक जगत पर लागू होते हैं, बल्कि भौतिक जगत पर भी पूरी तरह लागू होते हैं, परंतु भौतिक जगत वैचारिक जगत का प्रकटीकरण न हो कर, इसके पूरी तरह उलट, वैचारिक जगत भौतिक जगत का मानव मस्तिष्क में प्रतिबिंब है, जैसा कि कांत ने कहा था। और कांत ने जैसा दर्शाया था, प्रकृति में सभी कुछ भौतिक है, परंतु विकास कारण-प्रभाव के आधार पर सीधी दिशा में न होकर, कारण-प्रभाव के द्वंद्वात्मक संबंध के अनुसार होता है। कारण जिस प्रभाव को पैदा करता है, वही प्रभाव उलट कर कारण को प्रभावित करता है। एक ही समय पर कर्त्ता, कर्म भी है, और कर्म कर्त्ता भी है। मानव समाज के संदर्भ में भौतिक जगत मानवीय चेतना का निर्माण करता है, तो मानवीय चेतना भौतिक परिवेश का निर्माण करती है।
मार्क्सवाद के अनुसार चेतना व्यक्ति के कार्यकलापों को नियंत्रित करती है, जो उसके भौतिक वातावरण को प्रभावित करते हैं। और भौतिक जगत व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करता। यही व्यक्ति की चेतना और अस्तित्व के बीच का द्वंद्वात्मक संबंध है। व्यक्तिगत मनसिकता, व्यक्ति के अवचेतन मस्तिष्क की प्रक्रिया है, जो उसके चेतन मस्तिष्क की प्रक्रियाओं को परोक्ष तौर पर निर्देशित करती है, और जो चेतन मस्तिष्क के संज्ञान में नहीं होता है।  चेतन मस्तिष्क, अवचेतन मस्तिष्क को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करता है, जो चेतन मस्तिष्क के संज्ञान में होता है। व्यक्ति की चेतना, इसी चेतन-अवचेतन की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है।     
जीवनयापन के साधनों को हासिल करने के लिए भौतिक स्तर पर किये गये सामूहिक कार्यकलापों के दौरान अवचेतन स्तर पर, उत्पादन संबंधों के आधार पर विकसित विचार, सामूहिक तौर पर समाज की भौतिक-चेतना का गठन करते हैं। और चेतन स्तर पर, उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किये गये सामूहिक कार्य कलापों– राजनैतिक आर्थिक – के दौरान विकसित सामूहिक विचार समाज की वैचारिक-चेतना का गठन करते हैं। समाज की भौतिक-चेतना तथा वैचारिक-चेतना, मिलकर सामाज की चेतना बनते हैं। सामाजिक चेतना, सभी भौतिक परिस्थितियों का, उत्पादक शक्तियों सहित सभी का, निर्माण करती है। उत्पादक शक्तियां तथा उत्पादन संबंध पलट कर भौतिक-चेतना को प्रभावित करते हैं। सामाजिक चेतना तथा भौतिक उत्पादन के बीच द्वंद्वात्मक संबंध ही समाज के विकास को तय करता है।     
शैशवकाल में तर्कबुद्धि पूरी तरह विकसित होने से पहले, सामाजिक परिवेश के साथ अंतर्व्यवहार के कारण, व्यक्ति के अवचेतन मन में अनेकों धारणाएं घर कर लेती हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ, अपने स्वयं के अस्तित्व से संबंधित कार्य-कलापों के अनुसार, निजी पूर्वाग्रह भी अवचेतन में घर कर लेते हैं। चेतन प्रक्रिया के साथ, अवचेतन में अवस्थित धारणाएं तथा पूर्वाग्रह भी, व्यक्ति के कार्य-कलापों तथा विचारों को प्रभावित करते हैं। अवचेतन में अवस्थित धारणाएं तथा पूर्वाग्रह ही व्यक्ति की मानसिकता तथा प्रकृति के किसी भी आयाम को देखने का दृष्टिकोण या नजरिया, निर्धारित करते हैं। वर्ग विभाजित समाज में परस्पर विरोधी आर्थिक हितों के कारण, सामाजिक नियमों तथा प्रक्रियाओं के बारे में, आमतौर पर धारणाएं पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहती हैं।  
चीजों या परिस्थितियों को बदलने के लिए कुछ भी करने से पहले, उनके अवयवों की प्रकृति, उनके आंतरिक संबंधों तथा बाहरी परिवेश के साथ संबंधों के ऊपर, लागू होने वाले नियमों के बारे में सही-सही ज्ञान हासिल होना आवश्यक है, और उसके लिए आवश्यक है कि मानसिकता को व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से पूरी तरह आजाद कर के, चीजों को वस्तुपरक नजरिए से देखा जाय। किसी भी पड़ताल के, वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार सही-सही निरीक्षण तथा विश्लेषण करने के लिए, आवश्यक है कि पड़ताल में लगे हुए व्यक्ति की मानसिकता पूर्वाग्रहों से पूरी तरह मुक्त हो। पूर्वाग्रहों से मुक्त मानसिकता को वैज्ञानिक मानसिकता कहा गया है। और ऐसी मानसिकता के साथ किसी आयाम की समझ वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहा गया है।      
सजग बुद्धिजीवी मानव समाज का स्नायु तंत्र हैं, जो उन विचारों तथा विचारधाराओं का निर्माण करते हैं जो समाज को दिशा देते हैं। आम जनता विचारकों तथा सजग बुद्धिजीवियों का अनुसरण करती है। कई सजग बुद्धिजीवी ईमानदार इरादों के साथ समाज सुधार की कोशिश करते हैं, पर उनकी सामाजिक विकास प्रक्रिया की समझ सही नहीं होने के कारण अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होते हैं। वे विभिन्न तरीकों से ईमानदारी के साथ कोशिश करते रहने के बावजूद, पूर्वाग्रहों के चलते वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में विकास प्रक्रियाओं की सही समझ हासिल नहीं कर पाते हैं।
भौतिक उत्पादन-वितरण के लिए किये गये दैनिक कार्य-कलापों के, भौतिक आयाम के दायरे में होने के कारण, आम तौर पर व्यक्ति की आदत, सभी चीजों को भौतिक चीजों के रूप में ही देखने-समझने की हो जाती है। भौतिक आयाम मानव के स्वयं के अस्तित्व के बाहर है, इस कारण उसके बारे में सामूहिक पड़ताल और चिंतन तथा विमर्श के, वस्तुपरक होने में कोई समस्या नहीं होती है। दायरे के सीमित होने के कारण, तत्त्ववादी पद्धति भी उसकी पड़ताल में, संतोषजनक नतीजे देने में सक्षम है।          
मानव समाज चेतना के रूप में एक वैचारिक संरचना है, और उसका हर आयाम वैचारिक है। उसका अस्तित्व सिर्फ मानवीय चेतना में है। उसका प्रकटीकरण मनुष्यों के द्वारा किये गये कार्य-कलापों द्वारा होता है। हर सामाजिक आयाम का अस्तित्व पूरी तरह वैचारिक होने के कारण उसकी पड़ताल पूरी तरह चिंतन के आधार पर ही करनी होगी। उसकी सही पड़ताल केवल मानव द्वारा किये गये कर्म के आधार पर नहीं की जा सकती है। सामाजिक संरचना के किसी भी आयाम की सही-सही समझ, केवल उसके भौतिक प्रकटीकरण के आधार पर नहीं की जा सकती है, उसके विश्लेषण तथा समझ का एक मात्र रास्ता है, अमूर्त-चिंतन। मूल्य, मुद्रा, पूंजी सभी कुछ पूरी तरह वैचारिक अस्तित्व है। अमूर्त चिंतन में निपुण न होने के कारण आम बुद्धिजीवी मूल्य और कीमत में भेद नहीं कर पाता है या मुद्रा और करार-पत्रों में भेद नहीं कर पाता है। वह पूंजी को मशीन या संपत्ति के रूप में ही देख पाता है, वह पूंजी के वैचारिक स्वरूप से पूरी तरह अनभिज्ञ रहता है। समाज के विकास के नियमों को समझने के लिए, अमूर्त चिंतन में कुशलता आवश्यक है। सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवी, जो समाज को बदलने का दायित्व लेना चाहते हैं, के लिए आवश्यक है कि वह अमूर्त चिंतन में निपुणता हासिल करे।
विडंबना यह है कि अधिकांश बुद्धिजीवी मध्यवर्ग से आते हैं, जो अपनी युवावस्था में, अति सक्रियता के कारण, अमूर्त चिंतन की क्षमता अच्छी तरह विकसित किये बिना, अन्याय को समाप्त करने के लिए क्रांति का बीड़ा उठा लेते हैं। वे मार्क्स की राजनैतिक अर्थशास्त्र की व्याख्या को ही मार्क्सवाद, और कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो को क्रांति का दस्तावेज समझ लेते हैं। मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को समझे बिना, वे रूढ़ीवादी तरीके से, अपनी अधकचरी समझ को ही मार्क्सवाद मानते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। रूसी क्रांति से डेढ़ दशक पहले बोल्शेविक पार्टी के गठन से पहले लिखे, अपने महत्वपूर्ण दस्तावेज, ‘क्या किया जाय’, में लेनिन ने लिखा था, काफी तादाद में लोग सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं’, ‘और कुछ भी नहीं किया जा सकता है जब तक कि इस दौर का खात्मा नहीं कर दिया जाता है।
मार्क्स की मृत्यु के बाद किसी ने एंगेल्स से पूछा कि आप मार्क्सवादी किसे कहेंगे तो एंगेल्स का उत्तर था, मार्क्सवादी वह नहीं जो मार्क्स को उद्धृत कर सके। मार्क्सवादी वह है जो किसी भी दी हुई परिस्थिति में उसी तरह सोचे जिस तरह मार्क्स ने उस परिस्थिति में सोचा होता।ड्युहरिंग मत का खंडन की प्रस्तावना में एंगेल्स ने लिखा था, अमूर्त चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण, केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में ही है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और इसके परिष्कार का और कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन किया जाय।’                              

************************************************************

सुरेश श्रीवास्तव
9 सितंबर, 2014