Wednesday 27 September 2017

जनवादी केंद्रीयता की मार्क्सवादी समझ

जनवादी केंद्रीयता की मार्क्सवादी समझ

 (यह लेख जून 2010 में अंग्रेजी में लिखा गया था और 23 जून 2010 को अंग्रेजी ब्लॉग MarxDarshan में छपा था। इसका हिंदी अनुवाद त्रैमासिक मार्क्स दर्शन के वर्ष 1 : अंक 2, जनवरी-मार्च 2011 में छपा था। सात साल बाद आज भी यह लेख उतना ही प्रासंगिक है। व्याकरण तथा वाक्य विन्यास में कुछ सुधार के साथ यह लेख हिंदी ब्लॉग पर तथा सोसायटी फॉर साइंस के फेसबुक ग्रुप पर डाला जा रहा है। सोसायटी फॉर साइंस के कुछ सदस्य सोसायटी को सांगठनिक रूप दे कर उसके कार्यक्षेत्र का विस्तार करने का प्रयास कर रहे हैं। यह लेख विशेषकर उनको समर्पित करते हुए पुन: छापा जा रहा है।)
जून 2009 में मतदाताओं द्वारा खिंचाई किये जाने के बाद, वामदलों की टेक पर टिकी, यूपीए की छत्रछाया में चैन की बंसी बजा रहे वामपंथी बुद्धिजीवियों में भगदड़ मच गई है। सर्वहारा द्वारा वामदलों से किनारा किया जाना तो समझा जा सकता है पर बुद्धिजीवी जो वामदलों के कर्णधार बने हुए थे उनके द्वारा मैदान छोड़कर भाग जाना जरा समझ से परे है। भारत में सर्वहारा क्रांति की झंडाबरदार माकपा ने हमेशा की तरह सांप निकल जाने पर लकीर पीटने के अंदाज में आत्मालोचना की औपचारिकता पूरी कर डाली। भारत की जनता का दुर्भाग्य ही है कि अपने जन्म से लेकर अब तक भाकपा और उसके अंग-भंग से बने अनेकों गुट आज तक अंतर्निविष्ट (immanent) समस्या नहीं समझ पाये हैं। कर्ता द्वारा विचारांतर्गत कर्म या किसी दृग्विषय (phenomenon) की अंतर्वस्तु (content) का ज्ञान उसकी आकृति या स्वरूप के प्रत्यक्षण या इंद्रियबोध के आधार पर ही हासिल किया जा सकता है। केवल वैज्ञानिक मानसिकता तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस मस्तिष्क में ही, वस्तुनिष्ठ ज्ञान तथा इंद्रिय-बोध ज्ञान के विरोधाभास को दूर कर, संरचना का सही-सही ज्ञान हासिल कर सकने की क्षमता होती है।  'Marxist' के जनवरी-मार्च 2010 के अंक में प्रकाश करात ने, प्रभात पटनायक, जावीद आलम तथा प्रबीर पुरकायस्थ की 'जनवादी केंद्रीयता' की आलोचनाओं के उत्तर में 'On Democratic Centralism' शीर्षक से एक लेख लिखा था। प्रकाश करात को तीनों लेखों में अपनी पार्टी की कार्यप्रणाली जनवादी केन्द्रीयता की आलोचना नजर आई और इसी कारण उनका सारा ध्यान जनवादी केन्द्रीयता की हिमायत पर केन्द्रित रहा पर उनकी रक्षा का तरीका तात्त्विक (Metaphysical) ही रहा जिसके चलते पेड़ों की पहचान करते-करते उन्होंने जंगल की विशेषता नजरंदाज कर दी, मेरा मतलब विचारधारा की अनदेखी से है। पर मुझे तीनों लेखों में केवल जनवादी केन्द्रीयता की आलोचना भर नजर नहीं आई बल्कि नजर आई एक नये प्रकार के समाजवाद की मांग। उस समाजवाद, जिस पर सोवियत संघ में अमल किया गया था या जो आज चीन में अमल में लाया जा रहा है, से अलग एक समाजवाद की मांग। आदर्शवादी समाजवाद (Utopian Socialism) के तो अनेकों प्रकार हो सकते हैं पर वैज्ञानिक समाजवाद (Scientific Socialism) के भिन्न-भिन्न प्रकार मेरी समझ से परे है। (जहां तक मेरा मानना है तीनों लेखकों का मार्क्सवाद में विश्वास है और वे छद्म वामपंथी नहीं हैं।) उन्हें शायद एक समाजवाद 'सर्वहारा के अधिनायकत्व' (Proletarian Dicatorship) के रूप में नजर आता है तो दूसरा 'जनवादी जनतंत्र' (People’s Democracy) के रूप में नजर आता है। यहां भी समस्या वही मनोगत पूर्वाग्रह की ही है। तीनों लेखकों को सोवियत संघ के विघटन के लिए प्रत्यक्ष रूप से CPSU की 'जनवादी केन्द्रीयता' आधारित तथा सोवियत राज्य की 'सर्वहारा का अधिनायकत्व' आधारित कार्यप्रणालियां ही उत्तरदायी नजर आती हैं। यहां भी आलोचना का तरीका तात्त्विक ही है। इंद्रियग्रहीत स्वरूप को ही अंतिम सत्य मान लेना जिसके चलते उन्हें पार्टी का अंतर्वर्ती मार्क्सवादी विचारधारा से भटकाव नजर नहीं आ पाता है। बुर्जुआ जनवाद की अवधारणा से अभिभूत उनका सारा जोड़तोड़ इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए है कि समाजवाद की असफलता का मूल कारण अंकुसी नियंत्रण वाली व्यवस्था ही है और सफलता की एकमात्र कुंजी है जनवादी प्रथा का अनुसरण, बुर्जुआ जनवाद की अवधारणा के अनुसार, पार्टी द्वारा भी तथा राज्य द्वारा भी। प्रज्ञा (intellect) पूरी तरह पूंजीवादी चेतना के वशीभूत होने के कारण तीनों लेखकों को व्यापक अंतर्वर्ती कारण, मार्क्सवाद के विस्तार के बारे में गलत धारणा, नजर नहीं आता है। चूंकि उनकी पार्टी अभी राजसत्ता पर काबिज नहीं है इस कारण प्रकाश करात ने अपना दायित्व, पार्टी कार्यप्रणाली का गठन जनवादी केंद्रीयता की नीति के अनुसार किये जाने के औचित्य को सिद्ध करने तक ही सीमित रखा है, जिसे उन्होंने पूरी प्रतिबद्धता के साथ निभाया है, और राज्य को इस नीति से बाहर रखा है। असफलताओं का कारण उन्हें छिटपुट ढांचागत समस्याओं या विशेष तौर पर गुटबाजी में नजर आया है।  अब हम मार्क्सवाद के मर्मज्ञ चारों ज्ञानियों की अवधारणाओं पर एक एक कर विचार करते हैं।
प्रभात पटनायक के लेख का शीर्षक ही है समाजवाद की पुनर्व्याख्या ('Re-envisioning Socialism' (Economic & Political Weekly (EPW) November 3, 2007) ) और अपने लेख के द्वारा उन्होंने पाठकों को वह समझाने की कोशिश की है जिसके बारे में वह पूरी तरह आश्वस्त हैं यानि कि पूंजीवादी व्यवस्था इंसान को वस्तु में बदल देती है जबकि समाजवाद इंसान को आजाद करता है और इस कारण आम जनता की राजनीति में भागीदारी समाजवाद की आधारभूत विशेषता है। वह निष्कर्ष निकालते हैं कि 'अक्टूबर क्रांति का लक्ष्य एक ऐसी राजसत्ता था जो मजदूरवर्ग की राजनीति में भागीदारी को व्यापकता प्रदान करती लेकिन जो राजनैतिक व्यवस्था अस्तित्व में आई वह थी पार्टी की अत्याधिक केंद्रित तानाशाही जिसने अंततः न केवल मजदूरवर्ग को राजनीति से विमुख किया बल्कि पार्टी को भी राजनीति विहीन कर दिया' (The vision of the October revolution was a state that unleashed the political praxis of the working class but the actual political institution that came into being was highly centralized dictatorship of the party, which eventually brought about a depoliticisation not only of the working class but also of the party itself. (ibid, p-45)), इस कारण आज समाजवाद को नया आधार प्रदान करना होगा। और यह नया आधार क्या होगा, आमजन की राजनीति में भागीदारी और क्या? पर क्या वह बुर्जुआ जनवाद ही नहीं होगा? सर्वहारा क्रांति के बाद भी समाज अनेकों दशकों तक वर्ग विभाजित समाज ही रहता है, लोगों के कार्यकलापों में भी और विचारों में भी। वर्ग विभाजित समाज, जिसमें विशाल जनता अभी भी गरीब और अनपढ़ हो, आमजन की राजनीति में भागीदारी केवल साधन संपन्न की, साधन संपन्न के द्वारा, साधन संपन्न के लिए ही राजनीतिक भागीदारी हो सकती है और यह बुर्जुआ जनवाद ही तो होगा। और एक क्रांतिकारी पार्टी जो हरावल दस्ते के रूप में सर्वहारा क्रांति को सफलता पूर्वक संपन्न करने की क्षमता रखती है वह बुर्जुआ जनवाद की तर्ज पर आमजन की राजनीति में भागीदारी न तो स्वीकार करेगी न उसे करना चाहिए। इसलिए अपनी तात्त्विक (metaphysical) अवधारणा को जीवन प्रदान करने के लिए प्रभात पटनायक वैज्ञानिक विचार-विमर्श की प्राणवायु का सहारा लेते हैं। 'एक क्रांतिकारी पार्टी के लिए आजाद वैज्ञानिक विचार-विमर्श प्राणवायु की तरह है और ऐसे विचार-विमर्श के बिना वह जीवित नहीं रह सकती है' (Free scientific discussion is like oxygen for a revolutionary party, without discussion it ca not survive. (ibid, p-46)) विडंबना यह है कि उनके अनुसार आजाद वैज्ञानिक विमर्श के लिए वैज्ञानिक मानसिकता की जरूरत न होकर 'ऐसे आजाद विमर्श के लिए जरूरत है न केवल संपूर्ण बौद्धिक स्वतंत्रता की वरन विविध अभिमतों की (जिसका तात्पर्य है राजनैतिक दलों की विविधता)।' (But such free discussion in turn requires not just complete intellectual freedom, but also the existence of a multiplicity of opinions (which in turn entails a multiplicity of political parties). (ibid, p-46)) और विविध राजनैतिक दलों की मांग के साथ वह खुले तौर पर बुर्जुआ जनवाद के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।  जावीद आलम तो पहले ही निष्कर्ष पर पहुंचे हुए हैं कि जनवादी केंद्रीयता जनवाद का निराकरण करती है पर बहस में दिखावटी निष्पक्षता के लिए आधार-वाक्य प्रश्न के रूप में पेश करते हैं 'क्या जनवादी केंद्रीयता जनवाद की पोषक हो सकती है?' ("Can Democrtic Centralism be conducive to Democracy?" (EPW, September 19, 2009)) और फिर इधर-उधर के उदाहरण तथा दलीलें देकर वह उस निष्कर्ष पर पहुंचने का आडम्बर करते हैं जिस निष्कर्ष पर वह पहले से पहुंचे हुए हैं, पूरी तरह तात्त्विक पद्धति। वह भूतपूर्व समाजवादी राज्यों में जनवाद की गैरमौजूदगी एक सर्वव्यापी अवस्थिति (inherent) के रूप में देखते हैं फिर इसके कारण का पता लगाने के लिए वह जनवादी केंद्रीयता को एकमात्र कारण मानते हुए उसी पर ध्यान केंद्रित करते हैं। यहां पर वह बिल्कुल नहीं छुपाते हैं कि वह उस निष्कर्ष पर पहले ही पहुंचे हुए हैं जिसे वह कमजोर दलीलों के साथ सिद्ध करने का दिखावा कर रहे हैं, 'आमतौर पर सभी कम्युनिस्ट पार्टियां आंतरिक संगठन में जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत का पालन करती हैं इसलिए एकमात्र कारण के रूप में उसी पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। और मुझे यह बात अब साफ हो चुकी है कि जनवादी केंद्रीयता जिस रूप में लागू है वह एक संरचनात्मक परिस्थिति है जो कम्युनिस्ट पार्टियों में जनवाद को खत्म करने के लिए उत्तरदायी है' "Democratic Centralism (DC) being the generally accepted principle of the internal organization of CPs, needs to be singled out for a critical look. By now it seems to me quite clear, that DC, in the way it stands, provides one such structural condition for throttling of democracy inside the CPs.” (ibid, p-37) जावीद आलम प्रभात पटनायक का अनुगमन करते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों में नियंत्रण व्यवस्था ही केंद्रीयता का सार है। वह वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं और वही जानते हैं जो जानना चाहते हैं। उन्हें नहीं पता 'कि लेनिन ने कभी आवश्यक तथा व्यापक नीति के तौर पर जनवादी केंद्रीयता की पैरवी की थी या की होती' ("If Lenin did or would have recommended DC as a necessary and universal principle" (ibid, p-38)) पर लेनिन को पता था और हर मार्क्सवादी को पता होता है कि जनवादी केंद्रीयता की नीति के अनुसार कम्युनिस्ट पार्टी का गठन इस वैज्ञानिक समझ के आधार पर किया जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टी जैसी, अत्यन्त विकसित जैविक संरचना जनवादी केंद्रीयता के साथ ही कार्यरत तथा जीवित रह सकती है।  प्रबीर दुनिया के अनेकों हिस्सों में, भिन्न-भिन्न स्तरों - राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय निकाय - पर अनेकों समस्याओं से जूझ रहे वामपंथी आंदोलनों की लंबी-चौड़ी भूमिका के साथ सीधे-सीधे अपनी बात पर आ जाते हैं। 'और अंत में उस व्यवस्था, जो सोवियत संघ में असफल हुई या चीन में असफल होती नजर आ रही है, से अलग, वाम की नये समाजवादी राज्य की अवधारणा क्या है' ("And finally what is the left vision of a new socialist state, different from the one that failed in Soviet Union and that seems to be failing in China?" (The Journal, Vol. 1, Aug 15 2009, p-29)) वैज्ञानिक समाजवाद की मार्क्स तथा एंगेल्स की अवधारणा जिसे, लेनिन, स्टालिन तथा माओ ने व्यावहारिक रूप देकर सिद्ध किया, को गलत ठहराना उनकी मानसिकता दर्शाता है। एक नई तरह की समाजवादी व्यवस्था की मांग उनकी सतही समझ की उपज है न कि उत्पादन संबंधों की प्राकृतिक विकास प्रक्रिया की समझ की। प्रबीर की कामना है कि वाम शक्तियां एक हों जिसके लिए वे जनवादी केंद्रीयता की तिलांजली को आधार मानते हैं न कि वैचारिक अंतर्विरोधों की समाप्ति को।(“If a reunification of the left is to take place, as many have argued and some of the parties abroad have carried out, the problem is that different parties here have different operational structures.” (ibid. p32)) 
तीनों लेखकों के दृष्टिकोण का सार है कि जनवादी क्रांति की अवधारणा रुसी क्रांति की विशिष्ट परिस्थितियों के लिए ईजाद की गई थी जबकि आज समाजवाद की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता है तथा नये समाजवाद की अवधारणा के लिए जनवादी केंद्रीयता की तिलांजली पहली शर्त है।  माकपा के जनरल सेक्रेटरी के नाते प्रकाश करात के लिए जनवादी केंद्रीयता के बचाव में बीड़ा उठाना जरूरी था क्योंकि वही उनकी पार्टी की कार्यप्रणाली का आधार है और बचाव का काम उन्होंने पूरी प्रखरता के साथ किया है। पर बचाव में तर्क जुटाने में उन्होंने उसी तात्त्विक पद्धति का सहारा लिया है जिसका प्रयोग विरोधियों ने जनवादी केंद्रीयता को नकारने के लिए किया है - आकृति पर ध्यान केंद्रित करने में अंतर्वस्तु की अनदेखी।  पार्टी का चरित्र-चित्रण करते हुए उनकी टिप्पणी, कि 'पार्टी संगठन को शक्तिशाली राज्य व्यवस्था तथा दबंग शासकवर्ग के खिलाफ राजनैतिक, वैचारिक तथा संगठनात्मक संघर्ष के लिए संपन्न होना चाहिए' ("Party organization has to be one which is equipped to wage the political, ideological and organizational struggle against the powerful state and the dominant ruling classes" (The Marxist, XXVI 1, June-March 2010, p-5)) और इसलिए 'मुख्य मुद्दा होगा कि क्या पार्टी मजदूरवर्ग को एकजुट करने तथा उनका और क्रांतिकारी जन-आंदोलनों का नेतृत्व कर सकने में सक्षम है' ("The key issue would be whether the party is equipped to organize and lead the working class and the revolutionary mass movement?" (ibid)), दर्शाती है कि वे बाह्य स्वरूप से पूरी तरह सम्मोहित हैं। और इस प्रक्रिया में वे 'मजदूर वर्ग के उन्नत तबके जिन्हें राजनैतिक तौर पर जागरूक किया जा सके और हरावल दस्ते का अंग बनाया जा सके, को आंतरिक संरचना को गठित करने के लिए भरती करने' की भयंकर भूल करते हैं। ("Recruiting the advance sections of the working class into the party who could be made politically conscious and hence constitute the vanguard" (ibid))। हरावल दस्ते की अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी में भरती उच्चतम आदर्शों से प्रेरित, राजनैतिक तौर पर जागरूक तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस व्यक्तियों के लिए सीमित होना चाहिए क्योंकि जनवादी केंद्रीयता के लिए प्रतिबद्ध किसी भी जैविक संरचना के सुचारु कार्य निर्वहन के लिए यह न्यूनतम शर्त है।  और अपने तात्त्विक तरीके के कारण वे उस तत्त्व को पहचानने में असफल रहे हैं जो जनवादी केंद्रीयता में 'अल्पमत को बहुमत का निर्णय मानने के लिए बाध्य करता है' (‘minority to abide by the decision of the majority decision’) बुर्जुआ जनवाद में भी अल्पमत को बहुमत का निर्णय मानने की बाध्यता होती है पर यथार्थ में बाध्यता लागू करने में असफलता ही हाथ लगती है।  और जब विरोधी राग अलापते हैं कि जनवादी केंद्रीयता का सिद्धांत रूसी क्रांति के दौरान गढ़ा गया था और उसी प्रकार की परिस्थिति में ही लागू होता है तो प्रकाश करात जनवादी केंद्रीयता के मूलाधार के बारे में अपनी गलत धारणा के कारण उन्हीं की तर्ज पर नाचने लगते हैं। 'यह सच है कि जनवादी केंद्रीयता का सिद्धांत रूस की मजदूर पार्टी द्वारा विकसित किया गया था, लेकिन केवल रूसी पार्टी अकेली नहीं थी जिसे विदेशी ताकतों के हमले सहने पड़े थे और न ही रूसी क्रांति अकेली थी जिसे दबाने के लिए विदेशी ताकतों ने हस्तक्षेप किया हो। बीसवीं शताब्दी में हर क्रांति को उसी तरह के दमन, प्रतिक्रांति, गृहयुद्ध और विदेशी हस्तक्षेप का सामना करना पड़ा है' ("While it is true that Democratic Centralism was evolved by the Russian Socialist Democratic Labour Party ……… it is not the Russian party alone which faced the attack and it was not the Russian revolution alone which was sought to be suppressed by foreign intervention. Every revolution in the 20th century underwent the same process of repression, counter-revolution/civil war and foreign intervention" (ibid, p-7)) और विरोधियों का दावा स्वयंसिद्ध है।
            अनेकों उदाहरणों तथा दलीलों के बाद प्रकाश दर्शाते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी लगातार हर समय भौतिक तथा वैचारिक स्तर पर हमले में निशाने पर रहती है चाहे वह क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की स्थिति हो या जनवादी जनतांत्रिक संघर्ष की, और इस कारण जनवादी केंद्रीयता जिसे रूसी क्रांति के दौरान विकसित किया गया था एक कम्युनिस्ट पार्टी के लिए आवश्यक है। उन्होंने जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत की व्याख्या नहीं की है सिवाय इस दावे के कि 'जनवादी केंद्रीयता सामूहिक निर्णय तथा सामूहिक गतिविधि को बढ़ावा देती है, वह विचारों की आजादी तथा क्रियान्वयन में एकता की पक्षधर है'("Democratic Centralism promotes collective decision making and collective activity; it allows for freedom of thought and unity in action" (ibid, p-5)) पर यह दावा तो पूंजीवादी जनवादी पार्टियां भी अपनी जनवादी कार्यप्रणाली के बारे में करती हैं। कांग्रेस पार्टी भी विचारों की पूरी आजादी देती है यहां तक कि चप्पल फेंकने तथा हाथापाई की भी, विचार-विमर्श के दौरान, और हाई कमांड के निर्णय पर मुहर लगाने में पूरी एकता दर्शाती है। फिर दोनों में फर्क कहां हैचारों लेखकों की मूल गलती एक कम्युनिस्ट पार्टी की अवधारणा के बारे में है। वे कम्युनिस्ट पार्टी को भिन्न-भिन्न कारणों से प्रेरित लोगों के एक समूह के रूप में देखते हैं जो एक वर्गविहीन समाज के निर्माण के लिए एकजुट हुए हैं। प्रकाश लिखते हैं कि 'सल्किया प्लेनम में माकपा ने आमजन की क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का नारा दिया था। इसका गठन जनवादी केंद्रीयता के सिद्धांत पर किया जाना चाहिए। बिना जनवादी केंद्रीयता के सिर्फ आमजन की पार्टी ही चल सकती है' ("In the Salkia Plenum, the CPI(M) called for the development of a mass revolutionary party. This has to be built up on the basis of the principles of Democratic Centralism. Without Democratic Centralism only a mass party can exist." (ibid, p-17)) इस बात से अच्छी तरह अवगत कि आमजन की पार्टी जनवादी केंद्रीयता के साथ नहीं चल सकती है, प्लेनम ने आमजन की क्रांतिकारी पार्टी के गठन का नारा दिया। आमजन की पार्टी क्रांतिकारी पार्टी नहीं हो सकती है और एक क्रांतिकारी पार्टी आमजन की पार्टी नहीं हो सकती है। इस पर भी एक 'आमजन की क्रांतिकारी पार्टी', क्या भ्रामक धारणा है। सर्वहारा की क्रांति के बाद अनेकों दशकों तक आमतौर पर साधारण जनता न तो राजनीति में भाग लेती है और न ही उसमें कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बन सकने की योग्यता होती है। यह भारतीय सर्वहारा का, और आमजनता का भी, दुर्भाग्य है कि उनके हरावल दस्ते के जनरल सेक्रेटरी को अच्छी तरह मालूम है कि 'जनवादी केंद्रीयता का सही कार्यान्वयन पार्टी सदस्यों के राजनैतिक वैचारिक स्तर पर पूरी तरह निर्भर करता है' ("Proper exercise of Democratic Centralism depends crucially on the political-ideological level of the party members.") और कि 'इस स्तर में किसी प्रकार की कमी बहस और नीतिगत निर्णयों में जनवादी भागीदारी को सीमित कर देगी' फिर भी 'माकपा के लिए संशय रहित विकल्प साफ है : आमजन की क्रांतिकारी पार्टी जनवादी केंद्रीयता के बिना कतई नहीं'("Paucity in this level can result in limiting democratic involvement in discussions and policy making" (ibid, p-19) yet "for the CPI(M), the choice is stark : no mass revolutionary party without Democratic Centralism." (ibid, p20))  मार्क्सवाद के अनुसार और जैसा कि लेनिन, स्टालिन तथा माओ ने वास्तविक व्यवहार से दर्शाया है, कम्युनिस्ट पार्टी एक अत्यंत उन्नत जैविक संरचना है जिसके घटक अपने आप में अत्यंत सजग तथा अभिप्रेरित (motivated) इकाइयां हैं जो आपस में गुंथी हुर्इं वैज्ञानिक दृष्टिकोण यानि मार्क्सवाद की ताकत से संगठित रहती हैं और जिसका प्रयोजन मानव जाति की मुक्ति हेतु एक राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के आविर्भाव (genesis) के लिए हरावल दस्ता होना है। किसी भी उन्नत जैविक संरचना की तरह कम्युनिस्ट पार्टी के भी अपने जीवन, विकास तथा कार्यकलापों के लिए आंतरिक व्यवहार और बाह्य जगत के साथ अंतर्व्यवहार तथा परिगमन के नियम होते हैं। इस ज्ञान के आधार पर हम जनवादी केंद्रीयता के आधार तथा प्रणाली को समझ सकते हैं।  जैविक संरचना के अनुरूप कम्युनिस्ट पार्टी की भी अपनी वैचारिक प्रक्रिया होनी चाहिए जो ऐसे विचारों का निर्माण कर सके जो उसके दक्षतापूर्ण संचालन को सुगम बनाएं और उसके घटकों को पूरी तरह जीवंत समन्वित व्यवहार में मार्गदर्शन दे सकें। इकाइयों तथा घटकों के आपस में तथा बाह्य जगत के साथ सूचना तथा विचारों के आदानप्रदान के लिए उसकी अपनी व्यवस्थित संचार प्रणाली होनी चाहिए और इसके संचालन के लिए ऐसी व्यवस्था जो सूचना तथा विचारों के प्रसार प्रचार में होने वाले किसी भी तरह के प्रदूषण, विरूपण या क्षरण को रोकने में सक्षम हो। और अंत में चाहिए है उतनी ही सुचारु व्यवस्था जो विकसित किये गये विचारों को यानि रणनीतियों को विभिन्न घटकों तथा अवयवों के माध्यम से कार्यान्वित कर सके तथा क्रियान्वयन के परिणामों के बारे में पुनर्निवेश (feedback) दे सके ताकि निर्धारित मार्ग से होने वाले विचलन को ठीक करने के लिए उचित कदम उठाये जा सकें। जाहिर है इस अत्याधिक विकसित तथा प्रबुद्ध जैविक संरचना, कम्युनिस्ट पार्टी, की कार्यप्रणाली भी उसकी अति विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप अति विशिष्ट होनी जरूरी है। अति विशिष्ट कार्यप्रणाली को समझने के पहले एक नजर अति विशिष्ट आवश्यकताओं पर।  इस जैविक संरचना को अत्यंत क्लिष्ट वातावरण में कार्य करना होता है। एक ओर अति मित्रतापूर्ण से लेकर दूसरी ओर अति द्वेषपूर्ण तक। अति मित्रतापूर्ण जो उसके साथ पूरी तरह एकाकार होने के लिए तत्पर, अति द्वेषपूर्ण जो मरने-मारने के लिए तैयार और बीच में ढुल-मुल कभी इधर तो कभी उधर। महानतम उद्देश्य, मानव जाति की मुक्ति हेतु एक राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था का निर्माण, एक लंबी छलांग में हासिल नहीं किया जा सकता है। लंबे टेढ़े-मेढ़े दुर्गम पथ पर कदम-ब-कदम चलकर छोटे-बड़े अनेकों मील के पत्थर पार करते हुए ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। प्रगति के साथ ही रोड़े भी बड़े होते जाते हैं और इस कारण जैविक संरचना को छोटी-छोटी सफलताओं के जरिए हर समय अपनी ताकत बढ़ाते जाना होता है। इस सबके लिए फुर्तीली कुशल एकाग्रचित्त महाकाया, कम्युनिस्ट पार्टी, को जरुरत होती है स्पष्ट रणनीति निर्माण की, और क्रियान्वयन यानि स्पष्ट विचार विकसित करने के आधार की अर्थात, व्यक्तिगत तथा सामूहिक स्तर पर विहंगम दूरदर्शिता, नजदीकी एकाग्रता और उच्चतम स्तर की बौद्धिकता की।  पार्टी अपनी आंतरिक तथा बाह्य जरूरतों को किस प्रकार पूरा कर सकती है? एक ऐसी कार्य प्रणाली के जरिए जो यह सुनिश्चित करे कि उसकी इकाइयां एकक तथा सामूहिक तौर पर पार्टी की जरूरतों को पूरा करें। और चूंकि इकाइयां स्वयं ही प्रज्ञावान स्वतंत्र रूप से भौतिक तथा वैचारिक स्तर पर सक्रिय व्यक्ति हैं इसलिए आवश्यक है कि वे अपनी कर्तृपदीय तथा कर्मपदीय (subjective and objective) भूमिका के बारे में सचेत हों तथा हर समय अपनी व्यक्तिगत सोच तथा हित को सामूहिक सोच तथा हित के आधीन रखें और सामूहिक प्रक्रिया के साथ पूरी तरह एकाकार हों। तात्त्विक विचार संगृहीत हो कर अवैज्ञानिक मानसिकता बनते हैं जो संगठन में पूंजीवादी प्रवृत्तियों तथा गुटबाजी को जन्म देते हैं। बुर्जुआ जनवाद तरीके, अल्पमत को बहुमत का निर्णय मानने के लिए बाध्य करने, से गुटबाजी को नहीं रोका जा सकता है। एक वैज्ञानिक दर्शन के तौर पर मार्क्सवाद के विभिन्न आयामों के बारे में निरंतर विचार-विमर्श तथा तात्त्विक विचारों की निराई (weed out) के जरिए ही गुटबाजी का उन्मूलन किया जा सकता है। मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक दर्शन है और जैसा कि मार्क्स ने कहा था कि संसार की व्याख्या महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसे बदलना और इसीलिए उन्होंने बदलाव को संभव बनाने के लिए गाइडलाइन बनाई। लेनिन का मानवता के लिए सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने न केवल गाइडलाइन को सही-सही समझा बल्कि उसके आधार पर उस जैविक महाकाय की संरचना की जो उस बदलाव को व्यवहारिक रूप दे सके जो मार्क्स के विचारों में था। और यह भी कि उन्होंने इस संरचना के यथार्थ स्वरूप को उस वातावरण में मुकम्मिल किया जो इसमें कतई सहायक नहीं था यानि कि सामंतवादी व्यवस्था जहां पूंजीवाद शुरुआती अल्पविकसित दौर में ही था। उसकी कुशलता को निखारा और इस लायक बनाया कि वह भारी-भरकम सामंती पूंजीवादी राज्य को अपने प्रहार से  धराशायी कर सके। इसके साथ ही उन्होंने इस महाकाय के निर्माण, विकास तथा संचालन के लिए सिद्धांत बनाया ताकि उसके आधार पर और लोग ऐसे बदलावों को अंजाम दे सकें। और यही वह सिद्धांत है जिसे हम जनवादी केंद्रीयता कहते हैं और इसी सिद्धांत के आधार पर माओ ने और भी पिछड़े आदिम समाज में आवश्यक जैविक संरचना का निर्माण कर तथा भारी-भरकम सामंती औपनिवेशिक व्यवस्था को धराशायी कर जनवादी केंद्रीयता की सार्थकता सत्यापित की है। जनवादी केंद्रीयता के आधारभूत अनुच्छेद निम्न हैं।
            1. पार्टी को दिशा देने वाला दर्शन मार्क्सवाद है तथा हर सदस्य के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना अनिवार्य शर्त है ताकि वह मार्क्सवाद की गतिकी को समझ सके तथा उसका वास्तविक जीवन में इस्तेमाल कर सके। 
            2. सदस्य अत्याधिक अभिप्रेरित होना चाहिए ताकि वह अपने निजी हित तथा पसंद-नापसंद को संगठन के सामूहिक हितों के आधीन रख सके।
            3. संगठन का नजरिया, विचार तथा रणनीति विकसित करने में विचार-विमर्श की प्रक्रिया के दौरान सदस्यों को चाहिए कि वे पूरी आजादी तथा बिना किसी भय के अपने विचार प्रकट करें साथ ही इस बात के प्रति भी सचेत रहें कि विकसित तथा स्वीकृत किये गये नजरिया, विचार तथा रणनीति संगठन के होते हैं तथा उनके संदर्भ में मार्क्सवादी संगठन में अल्पमत या बहुमत जैसी कोई चीज नहीं होती है।
            4. हर सदस्य की व्यक्तिगत तथा सामूहिक जिम्मेदारी होती है कि वह प्रत्येक स्तर पर संगठन द्वारा लिये गये निर्णयों को लागू किया जाना सुनिश्चित करे तथा अगर कोई सदस्य महसूस करता है कि इसका अपना दृष्टिकोण या विचार संगठन के अनुरूप नहीं है तो उसकी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि उसके कार्य-कलाप किसी भी रूप में संगठन के निर्णयों के क्रियान्वयन के प्रतिकूल न हों।
            5. हर सदस्य का सतत प्रयास सर्वसम्मति विकसित करना होना चाहिए ताकि संगठन एकचित्त होकर अपना काम अंजाम दे सके।
            अगर माकपा भारत में हरावल दस्ते का झंडाबरदार रहना चाहती है तो उसके पास एक ही रास्ता है कि जनवादी केंद्रीयता को पूरी ईमानदारी के साथ, शब्द में भी और अर्थ में भी, लागू करे और माकपा के लिए संशय रहित विकल्प साफ है – सामंतवादी, पूंजीवादी तथा छद्म वामपंथी संशोधनवादी तत्त्वों की निराई।

सुरेश श्रीवास्तव
28 सितम्बर, 2017
+91-9810128813