Saturday 24 May 2014

सोलहवीं लोकसभा में प्रत्याशित जनादेश

सोलहवीं लोकसभा में प्रत्याशित जनादेश
(सुरेश श्रीवास्तव)
24 अप्रैल 2014 के लेख सोलहवीं लोकसभा के चुनाव पर भारतीय जनवाद का प्रभाव में लेखक ने निष्कर्ष निकाला था कि सोलहवीं लोकसभा में न तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे और न ही ऐसी सरकार बनेगी जिसको कांग्रेस का अनुमोदन न हो। आत्मालोचना के साथ लेखक स्वीकार करता है कि बावजूद एक सही वस्तुपरक विश्लेषण के, अपने निष्कर्ष में अपनी निम्नमध्यवर्गीय चेतना के कारण लेखक व्यक्तिपरकता का शिकार हो गया था जिसके कारण उसका निष्कर्ष पूरी तरह गलत साबित हुआ है।
अपने निष्कर्ष पर पहंचने की जल्दी में लेखक ने लेनिन तथा माओ की नसीहतों की अनदेखी की है जिसके कारण लेखक के आंकलन में गलती हुई है। मार्क्स ने उत्पाद तथा पूंजी की पहचान समाजिक चेतना के मूर्त रूप में की थी और दर्शाया था कि पूंजीवाद के अपनी उच्चतम अवस्था, साम्राज्यवाद, में पहुंचने के बाद मजदूर वर्ग की चेतना के लिए भौगोलिक सीमाएं बेमानी हो गई थीं और इसीलिए उन्होंने दुनिया के मजदूरों से एक होने के लिए आह्वान किया था। मार्क्सवाद की इसी समझ के आधार पर लेनिन इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि आर्थिक रूप से कम विकसित पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के बावजूद किसी भी देश के कामगारों को राजनैतिक रूप से जागृत कर सर्वहारा की पार्टी राजसत्ता पर कब्जा कर सकती है, और सर्वहारा चेतना में समाजवाद को प्रविष्ट कराने का काम निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को ही करना होता है। लेनिन का कहना था कि काल्पनिक समाजवाद को मजदूरवर्ग की चेतना में लाने का काम निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने किया था और वैज्ञानिक समाजवाद को लाने का काम भी निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को ही करना होगा।
माओ ने नये जनवाद को परिभाषित करते हुए कहा था कि रूस में समाजवादी क्रांति की सफलता के बाद जनवाद का स्वरूप अविकसित देशों में, विकसित देशों के मुकाबले भिन्न होगा। जहां यूरोप तथा अमरीका जैसे विकसित देशों में सामंतवादी राजसत्ता के खिलाफ संघर्ष में बुर्जुआ पार्टियों ने जनता का नेतृत्व कर जनवाद की स्थापना की थी वहीं रूसी क्रांति के बाद अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा चेतना में वैज्ञानिक समाजवाद के घर करने के बाद किसी भी देश में मजदूरवर्ग की पार्टी के लिए अब यह संभव हो गया है कि अत्याधिक पिछड़े सामंती उपनिवेशों में भी वह संघर्ष में मजदूरवर्ग का नेतृत्व कर जनवाद की स्थापना कर सके और राजसत्ता को मजदूर वर्ग के नियंत्रण में रखते हुए पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया को विकसित करते हुए समाजवाद का मार्ग प्रशस्त कर सके।
सत्तर साल पहले जहां अपनी मार्क्सवादी समझ के कारण चीन की कम्युनिस्ट पार्टी, चीन के मजदूरवर्ग को वैज्ञानिक समाजवाद की चेतना से जागृत करने और चीन की जनवादी क्रांति का नेतृत्व अपने हाथ में रखने तथा क्रांति की सफलता के बाद जनवादी जनतंत्र की स्थापना के लिए राजसत्ता का नियंत्रण अपने हाथ में रखने में सफल रही है, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपनी गैर-मार्क्सवादी समझ तथा निम्न-मध्यवर्गीय चेतना के कारण भारत के आजादी के संघर्ष में मजदूर वर्ग का नेतृत्व करने तथा आजादी के बाद जनवादी जनतंत्र का नियंत्रण अपने हाथ में लेने में असफल रही है। अपनी अधकचरी मार्क्सवादी समझ के कारण भारतीय मार्क्सवादी पार्टियां न तो काल्पनिक समाजवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के अंतर को समझती हैं, और न ही वे भारतीय समाज में वर्गों की भौतिक-सामाजिक-चेतना तथा वैचारिक-सामाजिक-चेतना के द्वंद्वात्मक संबंधों तथा प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों को समझ पाती हैं। लेनिन ने रेखांकित किया था, जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।
भारत में कुछ इलाकों में पूंजीवादी उत्पादन-वितरण व्यवस्था विकसित हो चुकी है, पर आर्थिक व्यवस्था में एक बड़े क्षेत्र में उत्पादन-वितरण व्यवस्था अभी भी सामंती चरित्र की है। व्यापक मजदूरवर्ग तो सामंती चेतना में ही जकड़ा हुआ है, सर्वहारा वर्ग की चेतना भी काल्पनिक समाजवाद से आगे नहीं आ पायी है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों की वैचारिक चेतना भी मार्क्सवादी न होकर निम्न-मध्यवर्गीय चेतना है जिसके कारण न तो वह काल्पनिक समाजवाद से बाहर आ पायी है और न ही वह सर्वहारा वर्ग को उससे आगे जागृत कर पायी है। इस कारण मजदूर वर्ग की छटपटाहट सिर्फ लोकहितकारी रियायतों तक ही सीमित है। आर्थिक समस्याओं से निजात पाने के लिए अपने सभी आंदोलनों के लिए मजदूर वर्ग हमेशा की तरह निम्नमध्यवर्ग के नेतृत्व की ओर ही ताकता है। वामपंथी पार्टियों सहित सभी केंद्रीय तथा क्षेत्रीय पार्टियों में वर्चस्व निम्न-मध्यवर्ग का ही है। जैसा कि एंगेल्स ने पूंजीवादी व्यवस्था में जनवादी जनतंत्र के बारे में रेखांकित किया था, भारत में फिलहाल मजदूर वर्ग की जागरूकता जिस स्तर पर है उसमें वह अपनी पार्टी और अपना हरावल दस्ता गठित करने की स्थिति में नहीं है, इस कारण वह संपन्न वर्ग के प्रतिनिधियों को ही चुनता रहेगा। क्षेत्रीय स्तर पर वह क्षेत्रीय पार्टियों का पिछलग्गू बना रहेगा और राष्ट्रीय स्तर पर वह राष्ट्रीय पार्टियों का पिछलग्गू बना  रहेगा। क्षेत्रीय स्तर पर वह भाकपा, माकपा, तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद, जदयू, डीएमके, अन्नाडीएमके, तेलुगु देसम, शिव सेना आदि के बीच विकल्प ढूंढता रहेगा और राष्ट्रीय स्तर पर वह कांग्रेस तथा भाजपा के बीच ही डोलता रहेगा।
जनता, कांग्रेस तथा भाजपा के बीच कोई भेद नहीं करती है। आर्थिक क्षेत्र में दोनों ही पार्टियां सत्तानशीन होने पर अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद की पैरोकारी करती हैं और विपक्ष में रहने पर लोकहितकारी राज्य की मांग करती हैं। दोनों पार्टियों में सामंती चेतना का ही वर्चस्व है इस कारण सामाजिक क्षेत्र में दोनों के लिए जनता की जाति या धर्म पहली प्राथमिकता है। एक का रुझान कुछ अधिक कट्टरवादी है तो दूसरे का कुछ अधिक उदारवादी है। इस लेखक का यह आंकलन गलत था कि इस देश में पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता केवल कांग्रेस पार्टी में ही है। पार्टी पूंजीवाद का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, पूंजीवाद पार्टी का उपयोग करता है। पूंजीवाद किसी भी संरचना का उपयोग पूंजी के विस्तार के लिए कर सकता है, शर्त केवल एक ही है कि संरचना की चेतना की अंतर्वस्तु सम्पत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा पर आधारित होनी चाहिए। सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था में मजदूर वर्ग भी अपने तथा अपने परिवार के जीवन की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए निजी सम्पत्ति को अनिवार्य मानता है और इस कारण उत्पादन संबंधों में सम्पत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा का समर्थन करता है। इसीलिए भारत में मौजूदा परिस्थिति में पूंजी के लिए, राजसत्ता को अपने विस्तार की नीतियों को लागू करने के लिए प्रभावित कर सकने के लिए, किसी भी क्षेत्रीय या केंद्रीय राजनैतिक पार्टी को अपने प्रभाव में लेकर अपने लिए उपयोग करना न केवल संभव है बल्कि तब तक ऐसा ही होगा भी जब तक मजदूरवर्ग जागरूक होकर अपनी खुद की पार्टी गठित नहीं करता है।
धर्मभीरुता और ईश पूजा तथा व्यक्ति पूजा, सामंतवादी चेतना का एक प्रमुख गुण है, जिसके कारण जनता संगठन से अधिक महत्व नेतृत्व को देती है। जनता किसी भी संगठन या राजनैतिक पार्टी की पहचान उसकी विचारधारा से नहीं करती है बल्कि उसके नेतृत्व से करती है। प्रसिद्ध दार्शनिक हेगेल का कहना था कि एक राजा, राजा इसलिए होता है क्योंकि प्रजा उसे राजा मानती है। लोग अपने धर्मगुरु, अपने आंदोलन के नेता या अपने राजनेता की रचना स्वयं करती है। महात्मा गांधी से आजादी के बाद उनके अंतिम समय में जब पत्रकार उनसे प्रश्न करते थे, कि बावजूद इसके कि वे कहते थे कि देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा उन्होंने देश का बंटवारा स्वीकार कर लिया और अपनी बात देश के सामने रखने के लिए उन्होंने न कोई सत्याग्रह किया और न ही अनशन किया, तो गांधीजी का उत्तर होता था कि मैं तीस साल तक गलतफहमी में जीता रहा कि देश मुझे सुनता है, देश मुझे नहीं कांग्रेस को सुनता है और आज जब कांग्रेस में ही मुझे कोई नहीं सुनता है तो देश मुझे कैसे सुनेगा।इतिहास गवाह है कि हर पीढ़ी में जनता ने अपनी समस्यायों से निजात पाने के लिए इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायन और वी.पी. सिंह जैसों को मसीहा बनाया, और फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में उनको असफल पाकर उनको नकार कर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया। मौजूदा दौर में भी जनता ने अन्ना हजारे, फिर अरविंद केजरीवाल और अंत में मोदी को अपना मसीहा बनाया है। जनता मसीहा ढूंढ रही थी, भाजपा अपनी आंतरिक कलह के बीच राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए पार्टी के लिए नया चेहरा ढूंढ रही थी। नरेंद्र मोदी में भाजपा को अपना चेहरा मिल गया और जनता को अपना मसीहा। हाल फिलहाल जनता खुशफहमी में है कि नया मसीहा उसे निजात दिलायेगा। हमें वक्त का इंतजार करना होगा और नये मसीहा को समय देना होगा कि इतिहास उसका मूल्यांकन करे।      
नतीजों से साफ है कि पंद्रहवीं लोकसभा के मुकाबले सोलहवीं लोकसभा में भाजपा ने उतनी ही अधिक सीटें हासिल की हैं जितनी कि कांग्रेस ने खोई हैं। पूरे देश में जहां भाजपा ने 166 नई सीटें हासिल की हैं वहीं कांग्रेस ने 162 सीटें खोई हैं।  अगर केवल हिंदी भाषी राज्यों की बात करें तो कांग्रेस तथा उसे समर्थन दे रहीं पार्टियों ने 2009 में हासिल 124 के मुकाबले 2014 में केवल 14 सीटें हासिल की हैं अर्थात 110 सीटें खोई हैं, वहीं भाजपा ने 2009 में 42 के मुकाबले 2014 में 132 सीटें हासिल की हैं अर्थात 90 सीटें नई हासिल की हैं। प्रत्यक्ष में लड़ाई कांग्रेस तथा भाजपा की है, पर वास्तव में लड़ाई अनेकों हिस्सों में विभाजित जनता के अलग-अलग हिस्सों की अपने-अपने आंकलन और अपनी-अपनी सोच के बीच है।
ऐसी स्थिति में कोई ताज्जुब नहीं कि केंद्र में विकल्प की तलाश में जनता हर पांच-दस साल बाद कांग्रेस और भाजपा को ही बारी-बारी से आजमाती रहे, जब तक कि, वे निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी, जिनके ऊपर मजदूर वर्ग को जागरूक करने तथा वैज्ञानिक समाजवाद उनकी चेतना में लाने का दायित्व है, अपनी जिम्मेदारी को पहचान कर अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए मजदूर वर्ग को अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए संगठित नहीं करते हैं। सोलहवीं लोकसभा में जनता के सामने नरेंद्र मोदी के रूप में भाजपा को चुनना ही एकमात्र विकल्प था। मार्क्सवादी पार्टियों के पास एक ही विकल्प है कि आत्मालोचना करें, मार्क्सवाद की सही समझ हासिल करें और सत्रहवीं लोक सभा के चुनाव में जनता के सामने एक विकल्प पेश करें जो एक मोर्चे के रूप में न होकर मजदूर वर्ग की एक पार्टी के रूप में हो।           
सुरेश श्रीवास्तव
24 मई,  2014               

9810128813, 
(लेखक सोसायटी फॉर साइंस का अध्यक्ष है।)