Saturday 8 September 2018

जीएसटी, आयकर तथा अधिशेष-मूल्य का दर्शन

जीएसटी, आयकर तथा अधिशेष-मूल्य का दर्शन

आम धारणा है कि जिस दिक-काल में मार्क्स ने राज्य तथा पूँजी की व्याख्या की थी तब से समय बहुत बदल चुका है और आज की भारतीय राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के संदर्भ में मार्क्स तथा उनका दर्शन अप्रासंगिक हो गये हैं। कुछ लोग जो अपने आप को मार्क्सवादी मानते हैं, उनकी धारणा है कि मार्क्सवाद हर चीज को परिवर्तनशील तथा दिक-काल के सापेक्ष मानता है, इसलिए स्वयं मार्क्सवाद को आज की भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप विकसित किये जाने की आवश्यकता है। यह आलेख कर प्रणाली के अवयवों के रूप में जीएसटी तथा आयकर की पड़ताल के ऐंद्रिक आयाम तक सीमित नहीं है बल्कि उनकी अंतर्वस्तु को भी उजागर करता है। आलेख का मकसद यह समझना है कि क्या मार्क्सवाद मूलरूप से, जैसा कि लेनिन ने कहा था, सर्वशक्तिमान शाश्वत सिद्धांत है, जो सामाजिक समस्याओं को समझने तथा उनका समाधान करने में आज भी उतना ही सक्षम है जितना कि वह दो सौ साल पहले या किसी और काल में था, या उसमें किसी बदलाव की जरूरत है।
पूँजी या मूल्य वैचारिक कोटियाँ हैं और अमूर्त चिंतन में कुशल होने के कारण आम तौर पर बुद्धिजीवी उन्हें समझने में नाकाम रहते हैं, और वे उनके भौतिक आधार को ही उनका मूर्त स्वरूप समझने की ग़लती करने लगते हैं। वे धन-संपत्ति को ही पूंजी तथा कीमत को ही मूल्य समझने की ग़लती कर बैठते हैं। इसी कारण वे धन-संपत्ति के मालिक को ही पूँजीपति या पूँजी के मालिक के रूप में देखने लगते हैं।  
संचित मानवीय श्रम उत्पादों में निष्क्रिय अवस्था में मौजूद रहता है जो उत्पादों के विनिमय के दौरान, क्रेता तथा विक्रेता की अलग-अलग मानसिक स्थिति के कारण, मूल्य के रूप में रूपांतरित होकर उनकी चेतना में सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य-मूल्य के रूप में प्रतिबिंबित होता है। क्रेता-विक्रेता के बाजार का विस्तार होने पर, गुणात्मक परिवर्तन के साथ, धन-संपत्ति के रूप में मौजूद निष्क्रिय श्रम, विस्तृत बाजार आधारित विनिमय के दौरान पूँजी की भूमिका में सक्रिय रूप धारण कर लेता है और विनिमय के चक्र के जरिए अधिशेष-मूल्य हड़प कर स्वविस्तार करता है। संपत्ति के निजी स्वामित्व की चेतना के साथ बिचौलिया व्यापारिक-पूँजी का नियंत्रण करता है। एकत्रीकरण के द्वारा किए गये संपत्ति के विस्तार के साथ अवर भूमिका से व्यापारिक-पूँजी, मजदूर की श्रमशक्ति ख़रीदकर उसके द्वारा नया मूल्य पैदा करने के लिए, औद्योगिक-पूँजी की प्रवर भूमिका में जाती है। पूँजी (औद्योगिक-पूँजी तथा व्यापारिक-पूँजी), उत्पादन-उपभोग के चक्र को पूरा करके ही अतिरक्त मूल्य को हड़प सकती है। M-C-M’ के चक्र को पूरा करने के लिए, पूँजी के अमूर्तरूप से, उत्पाद के मूर्तरूप में, तथा उत्पाद के मूर्तरूप से पुन: पूँजी के अमूर्तरूप में रूपांतरण की दोनों प्रक्रियाएँ आवश्यक हैं। दोनों प्रक्रियाओं में उत्पाद के हस्तांतरण का स्वरूप भौतिक होने तथा उत्पाद के निजी स्वामित्व की अवधारणा होने के कारण, सामूहिक चेतना में पूँजी के व्यक्तिगत स्वामित्व की चेतना घर कर लेती है, और आम धारणा बन जाती है कि पूँजीपति पूँजी का स्वामी होता है।
बाज़ार आधारित उत्पादन-वितरण व्यवस्था के विस्तार के साथ पूँजी अपने नये स्वरूप, वित्तीय-पूँजी के रूप में प्रकट होती है। वित्तीय-पूँजी, औद्योगिक-पूँजी तथा व्यापारिक-पूँजी को भी जिंस में बदल देती है। मुद्रा से उत्पाद तथा उत्पाद से मुद्रा के चक्र M-C-M’ के समानांतर वित्तीय-पूंजी से पूँजी और पूंजी से पुन: वित्तीय-पूंजी का चक्र  M-M’ भी सक्रिय हो जाता है। छोटे-छोटे स्वामियों की धन-संपत्ति को बैंकों के जरिए बटोर कर उसे M-M’ के चक्र में शामिल करके वित्तीय पूँजी, पूंजी के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन कर देती है। पूंजी का चरित्र व्यक्तिगत स्वामित्व से बदल कर सामूहिक स्वामित्व का हो जाता है, जो निजी स्वामित्व की मानसिकता पर आधारित सामंतवादी-चेतना से, सामूहिक स्वामित्व की मानसिकता पर आधारित समाजवादी-चेतना में रूपांतरण के लिए आधार प्रदान करता है।
पूँजी पूरी तरह वैचारिक चीज है जो मुद्रा के रूप में, मजदूरों की चेतना को नियंत्रित कर उनकी श्रमशक्ति को नियंत्रित करती है, पूंजी का प्रबंधन करने वाले पूंजीपति की बुद्धि को भी नियंत्रित करती है और उपभोक्ता की मांगों को वैचारिक रूप से प्रभावित कर विनिमय चक्र को पूरा करती है।
सामूहिक उत्पादन के प्रारंभिक दौर अर्थात बुर्जुआ उत्पादन के दौर में, धन-संपत्ति का मालिक ही अपनी धन-संपत्ति को पूँजी की तरह उपयोग करके मजूरी आधारित उत्पादन व्यवस्था को आधार प्रदान करता है और पूँजी को नियंत्रित करता है। पर पूँजी-मजूरी आधारित उत्पादन व्यवस्था के विकास के साथ पूँजी, सामाजिक-चेतना के रूप में अर्थव्यवस्था के नियंत्रक की भूमिका में जाती है और बुर्जुआ, पूँजीपति तथा सर्वहारा सभी को नियंत्रित करने लगती है। पूँजी स्वविस्तार के लिए सामूहिक रूप से पैदा किये गये अधिशेष-मूल्य को व्यक्तिगत मुनाफे में परिवर्तित कर संपत्ति के रूप में निजी स्वामित्व में सौंप देती है, और पुन: नये सिरे से M-M’ का चक्र शुरू कर देती है। सामूहिक-श्रम से पैदा किये गये अधिशेष-मूल्य का व्यक्तिगत-स्वामित्व में हस्तांतरण पूँजीवादी-चेतना का आंतरिक अंतर्विरोध है जो पूँजीवादी व्यवस्था में निरंतर असमाधेय संकटों को जन्म देता रहता है, जिनका समाधान अंतत: पूँजीवाद के विनाश और समाजवाद से साम्यवाद के रूपांतरण में होता है। 
सामूहिक श्रम द्वारा पैदा किये गये अधिशेष-मूल्य को क़ब्ज़ाने की प्रवृत्ति, समाज को, उत्पादक-उपभोक्ता वर्गों तथा मध्यवर्गीय बिचौलिया वर्गों के बीच विभाजित कर देती है। वर्ग विभाजित समाज में, आपसी हितों की टकराहट निरंतर नये हिंसक संघर्षों को जन्म देती रहती है। इन हिंसक संघर्षों में समाज अपने आपको ध्वस्त कर ले इससे बचने के लिए समाज के अंदर ही राजसत्ता का जन्म होता है जो अपने विभिन्न अंगों के जरिए संगठित हिंसा का एकाधिकार हासिल कर वर्ग संघर्षों को नियंत्रण में रखती। समय के साथ राजसत्ता संघर्षरत वर्गों से ऊपर समाज से अलग एक स्वायत्त चेतना का रूप धारण कर लेती है। जैसे जैसे उत्पादक शक्तियों का विकास होता जाता है पूँजीवादी चेतना का भी विकास होता जाता है। पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था में पहुंचने के साथ, राज्य भी वर्ग निरपेक्ष, सार्विक मताधिकार आधारित जनवाद का रूप हासिल कर लेता है। 
एक वैचारिक जैविक संरचना के रूप में राज्य को भी अपने लिए भौतिक संसाधनों की आवश्यकता होती है जिसके लिए आवश्यक धन वह टैक्स के रूप में अधिशेष-मूल्य में से हासिल करता है। टैक्स वसूलने का अधिकार पाकर राज्य कर्मचारी, अधिशेष-मूल्य में से एक हिस्सा निजी उपभोग के लिए वसूलना अपना अधिकार समझने लगते हैं, पर जनता इसे भ्रष्टाचार समझती है। जो लोग, वर्ग विभाजित समाज तथा राज्य के रहते हुए बुर्जुआ जनवाद के अंतर्गत भ्रष्टाचार उन्मूलन की कामना करते हैं वे शेखचिल्ली-समाजवादी चेतना के कारण ही ऐसे सपने देखते हैं। प्रत्यक्ष में राज्य निरपेक्ष नजर आता है, पर यथार्थ में वह संपत्तिवान वर्गों के हितों की ही पूर्ति करता है क्योंकि वह अपने जीवन के भौतिक आधार के लिए उन्हीं वर्गों पर निर्भर रहता है।
विकसित अर्थव्यवस्था में, उत्पादन के लिए आवश्यक तीन अवयवों में से, प्रयोजित कच्चा माल तथा उत्पाद और श्रम के साधन बुर्जुआ या संपत्तिवान वर्ग के स्वामित्व में होते हैं, पर श्रमशक्ति श्रमिक के स्वामित्व में होती है। पूंजीपति, पहले दोनों अवयवों को दीर्घकाल के लिए किराये के आधार पर तथा श्रमशक्ति को मजदूरी देकर प्रतिदिन के आधार पर हासिल करता है और उत्पादन प्रक्रिया को पूरा करता है। उत्पाद को बेच कर हासिल होने वाले मूल्य में से, उत्पादन के लिए आवश्यक तीनों अवयवों का लागत मूल्य चुकता करने के बाद बचा हुआ अधिशेष या अतिरिक्त मूल्य औद्योगिक पूंजी तथा व्यावसायिक पूंजी के बीच मुनाफे के रूप में बंटता है। करों के रूप में राज्य पूंजी के साथ मुनाफे में अपना हिस्सा बंटाता है। 
अलग-अलग प्रकार के उत्पादों के उत्पादन में अधिशेष के उत्पादन की दर अलग-अलग होती है। पूँजीवादी विकास की निम्न अवस्था में, अलग-अलग क्षेत्रों में पूँजी बिखरी हुई अलग-अलग समूहों के नियंत्रण में होती है और हर समूह अपनी लागत पर मुनाफे की दर बढ़ाने की होड़ में रहता है, पर विकसित पूँजीवाद में एकीकृत वित्तीय पूँजी के कारण मुनाफे की दर समान होती जाती है और अलग-अलग क्षेत्रों में पूँजी निवेश उसी के अनुरूप होने लगता है। निम्न अवस्था में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार के कर तथा अलग-अलग दरें होती हैं पर उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ वित्तीय पूँजी का दायरा भी व्यापक होता जाता है और विकास के साथ करों की दरें भी समान होती जाती हैं।
  अतिरिक्त मूल्य के हस्तांतरण के आधार पर करों को मूल रूप से दो समूहों में बाँटा जा सकता है। अतिरिक्त उत्पाद का सृजन केवल श्रमशक्ति द्वारा ही किया जा सकता है इस कारण पहला कर, माल तथा सेवा के उत्पादन बिंदु पर लगता है। उत्पादक से वितरक के बीच विनिमय होने पर उत्पाद-कर और वितरक से उपभोक्ता के बीच विनिमय होने पर बिक्री-कर। सुविधानुसार इन करों को अलग-अलग नाम से अलग-अलग उपश्रेणियों में बाँटा जा सकता है पर मूल रूप से उनकी पहचान उनके उद्गम के आधार पर दो श्रेणियों में ही की जा सकती है। करों का दूसरा समूह आयकर की श्रेणी में आता है जो अतिरिक्त मूल्य के पूँजीपति से संपत्तिवान के बीच हस्तांतरण होने अर्थात मुनाफे के बंटवारे पर लगता है। मुनाफे का बँटवारा संपत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व के आधार पर होता है इस कारण आयकर की दरें व्यक्तिगत आमदनी के आधार पर तय होती हैं, परंतु उत्पादन तथा विनिमय सामूहिक आधार पर होता है इस कारण उत्पाद कर तथा बिक्री-कर की दरें उत्पादन तथा विनिमय के क्षेत्र तथा प्रकृति के आधार पर तय होती हैं। 
पूँजीवादी विकास कि शुरुआती अवस्था में उत्पादन, साधनों के निजी स्वामित्व के आधार पर ही होता है और फलस्वरूप सामाजिक चेतना मुख्यत: सामंतवादी होती है। विकास के साथ-साथ जैसे-जैसे वित्तीय पूंजी का वर्चस्व बढ़ता जाता है, लघु तथा मध्यम उत्पादन भी व्यक्तिगत स्तर पर नियंत्रित होने के बावजूद बड़े स्तर के उत्पादन के अनुषांगी के रूप में वित्तीय पूँजी के नियंत्रण में आता जाता है तथा उत्पादन संबंध भी पूँजीवादी उत्पादन संबंधों के अनुरूप होते जाते हैं। इसके साथ ही सामाजिक चेतना में सामंतवादी चेतना पूंजीवादी चेतना में रूपांतरित होती जाती है।
संगठित क्षेत्र में व्यक्तिगत आमदनी का स्तर असंगठित क्षेत्र में व्यक्तिगत आमदनी के मुकाबले कहीं अधिक होता है और वित्तीय पूँजी भी संगठित क्षेत्र में वर्चस्व पहले हासिल कर लेती है, इस कारण आयकर की दरें समान स्तर पर जल्दी जाती हैं, पर संगठित तथा असंगठित क्षेत्र में उत्पादन वितरण एक दूसरे में गुंथे हुए होते हैं और उत्पादकता के स्तर में बड़ा अंतर होने के कारण अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन की दरें लंबे समय तक असमान रहती हैं, और इसीलिए करों की दरें भी लंबे समय तक असमान बनी रहती हैं। जैसे जैसे वित्तीय पूंजी अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेती जाती है, करों की दरें भी समान होती जाती हैं। माल के उत्पादन-विनिमय पर लगने वाला उत्पाद बिक्रीकर तथा सेवाओं पर लगने वाला सेवाकर, एक ही GST कर प्रणाली के अंतर्गत जाता है। बैंकों के जरिये होने वाला कैशलेस व्यापार तथा GST एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। 
भारत की अर्थव्यवस्था अर्धसामंतवादी अर्धपूंजीवादी है, हालाँकि अधिकांश वामपंथी इस लेखक से सहमत नहीं हैं और मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से पूँजीवादी व्यवस्था है। भारतीय कम्युनिस्टों की संशोधनवादी समझ के चलते भारतीय आजादी के आंदोलन की बागडोर राष्ट्रीय बुर्जुआजी के हाथों में पहुँच गई थी, और 1947 में पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के निम्नतम स्तर के बावजूद, राष्ट्रीय बुर्जुआजी, समाजवाद की शेखचिल्ली समझ के साथ, सार्विक मताधिकार आधारित जनवाद के अनुरूप संविधान तथा सरकार को लागू करने में सफल रही। पर पिछले सत्तर साल में, उत्पादक शक्तियों को विकसित किये बिना जन आंदोलनों के जरिए समाजवाद लाने की शेखचिल्ली कोशिशों में वह पूरी तरह असफल रही है। लोकपाल जैसे क़ानून या नोटबंदी या कैशलैस जैसे अप्रत्याशित कार्यक्रम उन्हीं कोशिशों की श्रंखला में आते हैं। नोटबंदी और कैशलैस के सभी प्रयासों के बावजूद, अर्थव्यवस्था में पुन: उतना ही कैश गया है जितना नोटबंदी के पहले था क्योंकि सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 45% उत्पादन-विनिमय असंगठित क्षेत्र में सामंतवादी अर्थव्यवस्था के रूप में होता है जो पूरी तरह कैश पर निर्भर करता है। उत्पादन के भौतिक आधार को बदले बिना उत्पादक शक्तियों को विकसित किये बिना तथा पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को विकसित किये बिना, कृत्रिम तरीके से, सरकारी हस्तक्षेप के जरिए समाजवाद लाने की कोशिश शेखचिल्ली सपना ही रहेगा। इसी समझ के आधार पर, नोटबंदी के तुरंत बाद इस लेखक ने घोषित किया था कि नोटबंदी के कारण वित्तीय वर्ष 1916-17 में सकल घरेलू उत्पाद में 2% कि गिरावट होगी, और आज घोषित आँकड़े लेखक के पूर्वानुमान से अलग नहीं हैं। (http://marx-darshan.blogspot.com/2016/12/blog-post.html)
पूरी तरह विकसित पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था में, बड़े तथा छोटे सभी स्तर का उत्पादन वित्तीय पूँजी के नियंत्रण में जाता है और छोटे स्तर के उत्पादन का चरित्र भी असंगठित से संगठित में और सामंतवादी से पूँजीवादी में परिवर्तित हो जाता है।अमूर्त चिंतन में कुशलता के अभाव में, वामपंथी बुद्धिजीवी, छोटे स्तर के उत्पादन का, असंगठित से संगठित में तथा सामंतवादी से पूँजीवादी में संक्रमण नहीं देख पाते हैं।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के संदर्भ से माल तथा सेवा दोनों के वितरण को समान GST दायरे में लाने का प्रयास एक प्रगतिशील क़दम है, परंतु भारतीय अर्थव्यवस्था के आंतरिक अंतर्विरोध को देखते हुए इस प्रयास में आने वाले व्यवधान इसी प्रयास में अंतर्निहित हैं। सफलता तो उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही कालबद्ध है।

सुरेश श्रीवास्तव
8 सितंबर, 2018