Thursday 29 September 2016

मूल्य – मानवीय श्रम का भौतिक स्वरूप से वैचारिक स्वरूप में रूपांतरण

मूल्य – मानवीय श्रम का भौतिक स्वरूप से वैचारिक स्वरूप में रूपांतरण
(सुरेश श्रीवास्तव)

            मानवीय मस्तिष्क की यह विशिष्ट क्षमता है कि वह न केवल इंद्रियों से बाह्य जगत के बारे में सूचना ग्रहण कर प्रतिबिंबों का निर्माण करता है बल्कि पहले से मौजूद सूचना के द्वारा भी प्रतिबिंबों का निर्माण कर सकता है और इसी क्षमता के कारण सपने भी देख सकता है और ऐसी चीजों की कल्पना भी कर सकता है जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। अन्य जीवों के पास यह क्षमता नहीं है इस कारण वे न सपने देख सकते हैं और न ही भविष्य की कल्पना कर सकते हैं। जो कुछ भी मनुष्य के मस्तिष्क के बाहर है वह भौतिक या स्थूल या मूर्त है और जो मस्तिष्क के अंदर की प्रक्रिया है वह वैचारिक या सूक्ष्म या अमूर्त कहलाता है।
भौतिक जीवन के निर्माण के दौरान, इंद्रियों के द्वारा भौतिक जगत के संज्ञान से, व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना का विस्तार होता है। तर्कबुद्धि तथा कल्पना के आधार पर भविष्य के लिए भौतिक जीवन के निर्माण की रूप रेखा तैयार करना तथा उस रूपरेखा के आधार पर सजग चेतना के साथ अंगों द्वारा शारीरिक श्रम से भौतिक जीवन का निर्माण करना मानव का प्राकृतिक गुण है। विचार-व्यवहार के बीच का यह द्वंद्वात्मक संबंध मानवीय चेतना का विशिष्ट गुण है। इसी गुण के कारण मानव प्रकृति में उपलब्ध पदार्थों को श्रम द्वारा उपयोगी वस्तुओं में परिवर्तित कर उनका उपभोग करता है।
प्राकृतिक रूप में उपलब्ध पदार्थों को उपभोग के लायक बनाने की पूरी प्रक्रिया में अलग-अलग उत्पादों में लगे हुए अलग-अलग कुशलता के श्रमउत्पाद की पूर्णता मेंकुशल श्रमिक के विशिष्ट-श्रम के रूप में नजर आते हैं पर असल में हर विशिष्ट-श्रम अनेकों छोटे-छोटे समरूप-श्रमों से मिल कर बनता है। समरूप-श्रम को मानव कीबिना किसी कुशलता के,मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित, अंगों द्वारा की जा सकने वाली निम्नतर स्तर की प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है जिसकी क्षमता हर मानव को प्राकृतिक रूप से हासिल है। अलग-अलग चित्रकारों द्वारा बनाये गये सभी चित्र एक दूसरे से पूरी तरह अलग और विशिष्ट चित्र होते हैं पर हर चित्रकूँची के अनेकों छोटे-छोटे एक जैसे स्ट्रोकों का योग होता है। कुशल बढ़ई के औज़ार कीलकड़ी की हर छोटी-छोटी तराशएक दूसरे के समरूप होती है पर अनेकों तराशों के योग से बनी मेज़ या कुर्सीविशिष्ट-श्रम के रूप में एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न होती हैं। मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन का द्वंद्व का नियम।
पूरी तरह से जंगली अवस्था में एक ही व्यक्ति उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों होता थापर जंगली से सभ्य मानव की ओर विकास यात्रा में धीरे-धीरे, बढ़ती उत्पादकता तथा श्रम विभाजन के कारण, उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं के बीच वस्तुओं का आदान प्रदान होने लगा। जब वस्तुओं का आदान प्रदान केवल उपभोग की दृष्टि से किया जाता था तो एक ही समय पर एक चीज का उत्पादक किसी दूसरी चीज का उपभोक्ता भी होता था और चीजों का आदान प्रदान उपभोग के उद्देश्य से किया जाता था। दो वस्तुओं की अदला-बदली उपभोग के लिए किये जाने की स्थिति में दोनों वस्तुओं के मालिकों की रुचिहासिल की जाने वाली तथा दी जाने वाली वस्तुओं की उपयोगिता में होती थी और अदला-बदली में उनकी मात्रा का निर्धारण स्वत: ही आवश्यकता तथा उपयोगिता के आधार पर हो जाता था। आवश्यकता से अधिक वस्तु हासिल करने में कोई रुचि न होने के कारण अदला-बदली में दोनों वस्तुओं की मात्रात्मक तुलना के आंकलन का कोई औचित्य नहीं होता था और न ही विभिन्न उत्पादों  में किसी ऐसी समरूप चीज की ओर उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं का ध्यान जाता था जिसके आधार पर विभिन्न उपयोग की चीजों के आदान-प्रदान में उनकी मात्रा की तुलना की जाय। इसलिए विशिष्ट-श्रम और समरूप-श्रम का भेद अप्रकट रहता था।
पर समाज के विकास और विस्तार के साथ उत्पादों की संख्या भी बढ़ने लगी और उत्पादों का आदान प्रदान केवल उपभोग के लिए न होकर विनिमय के लिए भी होने लगा। हर व्यक्ति जहाँ उत्पादक के रूप में एक ही प्रकार की वस्तु का उत्पादक होता थावहीं उपभोक्ता के रूप में उसकी रुचि अलग-अलग वस्तुओं में होने लगी थी। इस कारण हर व्यक्ति के लिए जरूरी होने लगा कि उत्पादक के रूप में विनिमय में दी जाने वाली अपनी वस्तु की मात्रा काविनिमय में हासिल की जाने वाली विभिन्न वस्तुओं की मात्रा के साथ तुलनात्मक आंकलन करेऔर अनजाने ही वह अपने उत्पाद तथा हासिल किये जानेवाले उत्पाद के बीचमात्रात्मक तुलना, उनमें लगे श्रमकाल के आधार पर करने लगा। परंतु प्रत्यक्ष में दोनों उत्पादों में लगे श्रम की कुशलता भिन्न होने के कारण चिंतकों तथा अर्थशास्त्रियों को तार्किक तौर पर उनकी मात्रात्मक तुलना उनके श्रमकाल के आधार पर किया जाना असंगत नजर आता था। जहां अपनी भाववादी सोच और चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध की समझ न होने के कारण चिंतक तथा अर्थशास्त्री यह नहीं समझ पाते हैं कि वास्तव में विशिष्ट-श्रम भी छोटे-छोटे समरूप-श्रम के परिणामों का समुच्चय ही होता हैवहीं उत्पादकों की अवचेतना में यह तथ्य,विनिमय में उनकी भूमिका के कारणस्वत: ही घर कर जाता है। अन्य चिंतक और अर्थशास्त्री अपनी निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता के कारण जिस तिलस्म को समझ पाने में असमर्थ थेउस तिलस्म को मार्क्स ने, अपनी वैज्ञानिक मानसिकताऔर चेतना तथा अस्तित्व के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ के आधार परबेनकाब कर उस मूलाधार को उजागर किया जिस पर सारी विनिमय आधारित बाज़ार व्यवस्था विकसित हुई, तथा टिकी हुई है।
विनिमय में हासिल की जानेवाली तथा दी जानेवाली चीजों के प्रति अपनी मनस्थिति के कारणहर व्यक्ति दोनों चीजों का मूल्याँकन अलग-अलग आधार पर करता है। बेचने के लिए उत्पन्न की गई चीजों में उत्पादक को अपने लिए कोई उपयोगी मूल्य नजर नहीं आता है सिवाय इसके कि अपने द्वारा पैदा की गई चीजों के बदले में वहख़रीदार के रूप में,अपने लिए उपयोगी अन्य उत्पादकों द्वारा पैदा की गई विभिन्न वस्तुएं हासिल कर सकता है। उसके लिए अपने कुशल विशिष्ट-श्रम तथा अकुशल समरूप-श्रम में कोई अंतर नहीं होता है। वह अपने द्वारा उत्पन्न किये गये उत्पाद की विनिमय-क्षमता या विनिमय-मूल्य को, न केवल अपने द्वारा लगाये गये अकुशल समरूप-श्रम काल के आधार पर करने लगता है, बल्कि उस औसत समरूप-श्रम काल के आधार पर जो उसके आस-पास के समाज में उसके जैसे अन्य श्रमिक उस जैसी चीजों को बनाने में आम तौर पर खर्च कर रहे होते हैं । अर्थात वह देने वाली या बेचने वाली वस्तु के सापेक्ष-मूल्य को देखता है।
इसके उलट हासिल किये जाने वाले उत्पाद की उपयोगिता में रुचि होने के कारण वह हासिल किये जाने वाले उत्पाद के विनिमय-मूल्य का आंकलन, उसमें दूसरे कुशल उत्पादक द्वारा वास्तव में लगाये गये श्रम-काल के आधार पर न करके, उसकी उपयोगिता के आधार पर करता है। हासिल किये जाने वाले उत्पाद के विनिमय-मूल्य का आंकलन वह उस औसत समरूप-श्रम काल के आधार पर करता है जो उसकी अपनी समझ के अनुसार उसे करना पड़ता, अगर हासिल किये जाने वाले उत्पाद को उसे स्वयं बनाना पड़ता तो। अपने आस-पास के समाज में अपने जीवन स्तर के अनुरूप, अपने लिए हासिल की जाने वाली सभी उपयोगी वस्तुओं के विनिमय-मूल्य का आंकलन वह अपने दिन भर के श्रम से तुलना के आधार पर करता है। उन सभी वस्तुओं, जिनके उपभोग के द्वारा वह अपने दिन भर काम करने की क्षमता हासिल करता है, के विनिमय-मूल्य को वह अपने दिन भर के श्रम के मूल्य के समतुल्य देखता है अर्थात दूसरी, हासिल की जानेवाली या खरीदी जानेवाली उपयोगी वस्तुओं में, उनके बनाने में लगे हुए वास्तविक समरूप-श्रम अर्थात सापेक्ष-मूल्य को न देखकर, वह उनके विशिष्ट-श्रम के समतुल्य-मूल्य को देखता है। 
जहाँ उत्पादक की रुचि वस्तु की उपयोगिता में न होकर उसकी विनिमय क्षमता में होती हैवहीं उपभोक्ता की रुचिवस्तु कीउपभोग के ज़रिए मांग संतुष्ट कर सकने की क्षमता में होती है जिसके कारण वस्तु में अंतर्निहित श्रम का दोहरा चरित्र प्रकट होने लगता है - मांग संतुष्ट कर सकने की क्षमता उत्पन्न करने में श्रम का विशिष्ट चरित्र, और साथ ही विनिमय क्षमता उत्पन्न करने में श्रम का समरूप चरित्र। इस तरह एक ओर उत्पादक के लिए उत्पादन का उद्देश्य उपभोग के लिए न होकर विनिमय के लिए होने लगा तो दूसरी ओर एक ही उत्पाद एक ही समय पर दो अलग-अलग व्यक्तियों की चेतना में अलग-अलग मूल्य प्रतिबिंबित करने लगा और उत्पादन में लगे हुए मानवीय श्रम का दोहरा चरित्र परोक्ष से प्रत्यक्ष मेंऔर निष्क्रिय से सक्रिय भूमिका में आ गया - मानवीय श्रम की दोहरा मूल्य पैदा करने की क्षमता, समरूप-श्रम के रूप में सापेक्ष-मूल्य और विशिष्ट श्रम के रूप में समतुल्य-मूल्य पैदा करने की क्षमता। दोहरे चरित्र के मूल्य को पैदा करने की मानवीय श्रम की यह क्षमता प्रकृति प्रदत्त है, पर यह दोहरा चरित्र उजागर होता है, उत्पन्न की गई उपयोगी चीज द्वारा विनिमय-उत्पाद का रूप धारण कर लेने पर, जहां उत्पादक तथा उपभोक्ता अपनी अलग अलग मानसिकता के कारण एक ही उत्पाद में अलग अलग मूल्य देखते हैं। संचित मानवीय श्रम का भौतिक या मूर्त रूप है, उपभोग योग्य वस्तु, और वैचारिक या अमूर्त रूप है मूल्य। मानवीय श्रम-शक्ति द्वारा छोटे-छोटे टुकड़ों में पैदा किया गया अमूर्त समरूप-श्रम, संचित होकर गुणात्मक रूप से भिन्न विशिष्ट-श्रम में परिवर्तित होता है तथा उपयोगी उत्पाद के रूप में मूर्त रूप धारण करता है, और उपभोग के द्वारा अपने उत्पादनकर्ता – श्रम-शक्ति – को पुनर्जीवित करता है। समरूप-श्रम अपने अमूर्त रूप से, विशिष्ट-श्रम के मूर्त रूप में रूपांतरित होकर, उत्पाद का स्वरूप पाता है। समरूप-श्रम उत्पाद के अंदर अप्रत्यक्ष रूप में अंतर्निहित रहता है। प्रतिदिन श्रम-शक्ति को पुनर्जीवित करने वाले उपभोग योग्य उत्पादों के लिए विनिमय की परिस्थितियां पैदा होने पर, उत्पाद में अंतर्निहित अमूर्त समरूप-श्रम, विनिमय-मूल्य के वैचारिक-सामाजिक स्वरूप में रूपांतरित हो जाता है। मानवीय श्रम का अमूर्त से मूर्त और फिर मूर्त से अमूर्त स्वरूप में रूपांतरण।           
हर उत्पादकउपभोक्ता भी होता है। अनेकों उत्पादक कघ आदि अपने-अपने उत्पादों चझ आदि के साथ विनिमय के लिए बाज़ार में मौजूद होते हैं। उत्पादक क को अपने उत्पाद की आवश्यकता नहीं है पर उत्पाद छ की आवश्यकता है और वह अपने उत्पाद के बदले उत्पाद छ हासिल करना चाहता हैलेकिन उत्पादक ख को उत्पाद च की आवश्यकता नहीं है पर उत्पाद ज की आवश्यकता है। अनेकों उत्पादों तथा उपभोक्ताओं की मौजूदगी से परिदृष्य पूरी तरह बदल जाता है। न तो उत्पादक के लिए अनेकों उपभोक्ताओं के साथ सीधा संपर्क रख पाना संभव रह जाता हैऔर न ही उपभोक्ता के लिए यह संभव हो पाता है कि वह अलग-अलग अत्पादों को अलग-अलग उत्पादकों से हासिल कर सके। ऐसे में बीच में आ जाता है गैर-उत्पादक बिचौलियों का एक समूह जो स्वयं उत्पादक नहीं होता है पर जो सकल उत्पादों का संग्रहकर्ता भी होता है और आपूर्तिकर्ता भी। हर उत्पादक बिचौलिये को अपना उत्पाद सौंपता है और बदले में अपनी ज़रूरत के अनुसार अलग अलग उत्पाद हासिल कर लेता है। और इस तरह वस्तुओं का आदान प्रदान बिचौलिये के ज़रिये विनिमय के रूप में किया जाने लगा। और विनिमय आधारित बाजार व्यवस्था में वस्तुओं की मात्रात्मक तुलना स्वत: ही, मूल्य के रूप में उनमें अंतर्निहित समरूप-श्रम के आधार पर होने लगी।
किसी उत्पाद का, उत्पादक के लिए, सापेक्ष-मूल्य उसमें अंतर्निहत वास्तविक समरूप-श्रम होता है, पर उसी उत्पाद का उपभोक्ता के लिए, समतुल्य-मूल्य उसमें अंतर्निहत वास्तविक समरूप-श्रम न होकर आभासी-श्रम होता है जो उपभोक्ता के आंकलन में, वस्तु के उत्पादन में तथा उस तक पहुंचाने में लगा होगा।    
समय के साथ उत्पादक की कुशलता तथा श्रम के औज़ारों में उन्नति के कारणश्रमशक्ति की उत्पादकता बढ़ती है तथा एक उत्पादक निश्चित समय में पहले के मुकाबले अधिक उत्पाद बनाने लगता हैअर्थात उत्पाद के हर नग में समरूप-श्रम का हिस्सा घट जाता है और उत्पादक के लिए उसके उत्पाद का बेचने में सापेक्ष-मूल्य पहले के मुकाबले घट जाता है। इससे अलग उपभोग के लिए आवश्यक उत्पादों की मात्रा वही रहने के कारण उपभोक्ता के लिए उनका समतुल्य-मूल्य या उनमें लगने वाला आभासी-श्रम वही रहता है। इस प्रकार बढ़ती उत्पादकता के साथ, किसी भी उत्पाद के सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य मूल्य का अंतर बढ़ता जाता है। चूंकि उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच सीधा संपर्क नहीं रह जाता है और सभी उत्पादों का क्रय-विक्रय बिचौलिये के माध्यम से होने लगता है, इस कारण सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य-मूल्य के अंतर को बिचौलिये की सेवा का मूल्य मान लिया जाता है, जब कि यथार्थ में इसके दो भाग होते हैं। एक भाग तो बिचौलिए की उस सेवा का मूल्य होता है जो कि उत्पाद की संरचना में अंतर्निहित नहीं होत है, बल्कि उसकी संरचना से अलग, उसे उपभोक्ता तक पहुंचाने में लगने वाली सेवा होती है। और दूसरा भाग होता है, मुनाफे के रूप में वह अतिरिक्त मूल्य जो उत्पाद के समतुल्य-मूल्य तथा सापेक्ष-मूल्य के बीच का अंतर होता है। वह अंतर, जो उत्पादक-बिचौलिया-उपभोक्ता की अपनी-अपनी चेतना के कारण, विनिमय संबंध के दौरान, उजागर होता है। समतुल्य-मूल्य तथा सापेक्ष-मूल्य के बीच का यह अंतर अर्थात अतिरिक्त मूल्य भी उत्पाद की भौतिक संरचना में अंतर्निहित नहीं होता है। यह अंतर एक सामाजिक परिस्थिति से उपजता है, और जो विकास के एक स्तर पर उत्पादन की विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों के कारण सामूहिक चेतना में उत्पन्न होता है। विशिष्ट सामाजिक परिस्थिति जिसमें किसी भी उत्पादक के लिए यह संभव नहीं रह जाता है कि जीवन के लिए आवश्यक सभी चीजों का उत्पादन वह अकेले  स्वयं पैदा कर सके। 
किसी वस्तु के बनाने में, किसी कामगार द्वारा निश्चित समय तक खर्च की गई श्रमशक्ति के द्वारा उत्पन्न किये गये कार्य या श्रम के दो पहलू होते हैं। विशिष्ट-श्रम के रूप में उत्पाद में पैदा किया गया गुण जो किसी मांग की पूर्ति करता है अर्थात उपयोगी-मूल्य, तथा समरूप-श्रम के रूप में पैदा किया गया विनिमय-मूल्य जिसके आधार पर विनिमय के दौरान उत्पाद की मात्रा की तुलना अन्य उत्पादों की मात्रा से की जाती है। श्रमकाल के आधार पर तुलना की जाये तो उत्पाद के उपयोगी-मूल्य के रूप में लगी हुई विशिष्ट श्रमकाल की तथा विनिमय-मूल्य के रूप में लगी समरूप श्रमकाल की मात्रा में कोई फर्क नहीं होता है। विनिमय रहित उत्पादन-वितरण व्यवस्था अर्थात लेन-देन आधारित सामाजिक व्यवस्था में न ही विनिमय-मूल्य की कोई भूमिका होती है और न ही वह कहीं उजागर होता है। विनिमय-मूल्य अपने दोनों स्वरूपों, सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य-मूल्य के साथ सामाजिक विकास के एक विशिष्ट स्तर पर ही सामाजिक चेतना में उजागर होता है, और इसलिए मूल्य (मार्क्स ने विनिमय-मूल्य के लिए मूल्य शब्द का ही प्रयोग किया है क्योंकि विनिमय के बिना मूल्य जैसी चीज का कोई अर्थ नहीं है) तथा अतिरिक्त-मूल्य भी, एक वैचारिक सामाजिक उत्पाद है न कि भौतिक व्यक्तिगत उत्पाद।
जो वामपंथी, अतिरिक्त मूल्य को कामगार के व्यक्तिगत श्रम द्वारा अतिरिक्त समय तक श्रम कर के पैदा किया गया मूल्य दर्शाते हैं तथा उस आधार पर पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को कामगार के व्यक्तिगत शोषण का आधार दर्शाते हैं, वे न तो मार्क्सवाद को समझते हैं और न ही कामगार का विश्वास हासिल कर पाते हैं। 
मूल्य का अपना कोई भौतिक स्वरूप नहीं हैवह एक वैचारिक वस्तु है पर विनिमय में उत्पाद के भौतिक हस्तांतरण के साथ उसके मूल्य के समतुल्य भौतिक पदार्थ का हस्तांतरण भी आवश्यक है। किसी उत्पाद  के विनिमय में खरीदनेवाले की रुचि तो उत्पाद  में होती है, पर संभावना है कि  को बेचने वाले उत्पादक की रुचि, उस समय  को खरीदनेवाले के पास मौजूद  किसी भी उत्पाद में न हो। विकसित होते समाज में बाजार के विस्तार के साथ ऐसी परिस्थितियां आम हो चली थीं, इसलिए आवश्यकता थी एक ऐसे उत्पाद की जिसकी थोड़ी सी मात्रा में अधिक समरूप-श्रम निहित हो, जिसको आसानी से टुकड़ों में बांटा जा सके तथा जो मूल्य के मापक के रूप में सर्वमान्य हो ताकि उसका उपयोग केवल विनिमय के दौरान उत्पाद के मूल्य के मापक के रूप में किया जा सके न कि उपभोग वस्तु के रूप में।
अपने बहुमूल्य गुणों के कारण सोने-चांदी ने मूल्य के मापक की भूमिका निभाना शुरू कर दिया। सोने-चाँदी की एक निश्चित मात्रा में अंतर्निहित मूल्य को ईकाई के रूप में मानकर विनिमय में सभी उत्पादों के मूल्य का निर्धारण, सोने-चांदी की अनुपातिक मात्रा के आधार पर किया जाने लगा। सोने-चांदी की एक निश्चित मात्रा द्वारा, सामाजिक चेतना में, मूल्य की इकाई के रूप में घर कर लेने के बाद उचित मात्राओं के छोटे बड़े सिक्के भी ढाले जाने लगे। अब यह व्यावहारिक रूप से संभव हो गया था कि जिस किसी के भी पास सोने-चांदी को सिक्के हों वह उनके बदले में उचित मात्रा में अपनी पसंद का उत्पाद बाजार से हासिल कर सकता था। इसके साथ ही समरूप-श्रम का, मूल्य के वैचारिक सामाजिक अमूर्त रूप से रूपांतरण भौतिक मूर्त रूप में हो गया। सिक्कों में सोने चांदी की एक निश्चित मात्रा, उनके अंदर अंतर्निहित समरूप-श्रम काल की एक निश्चित अवधि का पर्याय हो गई, और विनिमय में अलग अलग उत्पादों में लगे हुए समरूप-श्रमकाल को इन्हीं सिक्कों की संख्या के रूप में दर्शाया जाने लगा। व्यवहार में सिक्कों के घिसने, उनकी धातु की शुद्धता, अलग अलग खदानों से निकलने वाले सोने-चांदी के बनाने में लगनेवाले श्रमकाल में होने वाले बदलाव आदि के कारण होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए राजसत्ता ने अपनी मुद्रा के साथ सिक्कों को ढालना शुरु कर दिया, जिनके प्रत्यक्ष रूप से दर्शित मूल्य का उनके अपने उत्पादन मूल्य से कोई संबंध नहीं था। सिक्कों के प्रदर्शित मूल्य के, सिक्कों के वास्तविक मूल्य से असंबद्ध होने के कारण शुरू में सिक्के लोगों को स्वीकार्य नहीं थे, पर राज्य द्वारा मुद्रित सिक्कों को इनकार करना गैरकानूनी घोषित कर देने के बाद, अपने वास्तविक मूल्य से पूरी तरह असंबद्ध राज्य द्वारा सत्यापित सिक्के, समय के साथ, सामाजिक चेतना में मूल्य का पर्याय बन गये। समयांतर में सिक्कों के साथ, राज्य द्वारा सत्यापित काग़ज़ी मुद्रा या करार-पत्र भी मूल्य के रूप में स्वीकार्य हो गये। हर उत्पाद की एक इकाई का मूल्य, मुद्रा की इकाई की संख्या के रूप में दर्शाया जाने लगा तथा मुद्रा में दर्शायी जानेवाली कीमत ही मूल्य का पर्याय बन गई। और इसके साथ ही समरूप-श्रम का, मूल्य के अमूर्त रूप में रूपांतरण पूरा हो गया। 

सुरेश श्रीवास्तव
30 सितंबर, 2016
(यह लेख, सोसायटी फॉर साइंस की, 2 अक्टूबर 2016 को होने वाली विमर्श-गोष्ठी के लिए आधार-विचार के रूप में लिखा गया है। विमर्श में भागीदारी के लिए आप आमंत्रित हैं।)

Monday 5 September 2016

भारतीय वामपंथ - संशोधनवादी अंतर्वस्तु पर मार्क्सवादी अधिरचना

भारतीय वामपंथ - संशोधनवादी अंतर्वस्तु पर मार्क्सवादी अधिरचना
सोसायटी के व्हाट्सएप ग्रुप पर दुर्गेश कुमार ने, सुरेश श्रीवास्तव से एक प्रश्न पूछा था। प्रश्न आज के संदर्भ में अत्याधिक महत्वपूर्ण है, इसलिए उस प्रश्नोत्तर को सब के साथ साझा करने के उद्देश्य से उसे सोसायटी के ब्लॉग तथा फेसबुक ग्रुप पर भी पोस्ट किया जा रहा है। जिन विद्यार्थियों को इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है कि पश्चिम बंगाल में, वामपंथी मोर्चा 35 साल के शासन के बाद क्यों हार गया, उन्हें भी इसका उत्तर मिल जायेगा, जब वे इस बात पर ग़ौर करेंगे कि, 'ज़मीन जोतनेवाले की' के नारे के नाम पर भूमिहीन किसानों को ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़ों का स्वामित्व सौंप कर उनमें कौन सी चेतना के बीज बोये गये थे।
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दुर्गेश -
सर जी आपके ब्लॉग के कई लेखों में लेनिन की यह नसीहत को रेखांकित किया गया है | 👉🏼युवावर्ग के लिए आज भी सार्थक है लेनिन की नसीहत, ‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूर-वर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।’ 👈🏼 ये पूरी बातें हमें बिल्कुल भी समझ नहीं आ रही हैं | जैसे कि बुर्जुआ प्रजातंत्र और संसदवाद के आंतरिक अंतर्विरोध क्या हैं, जिनके कारण समाधान उग्र तथा हिंसात्मक होते हैं❓यहाँ मजदूर वर्ग के किस फैसले के बारे में बात हो रही है❓और फिर अंत में संसदवाद के कौन से आधार की बात हो रही है, जिसके समझे बिना कोई भी उसूल सम्मत प्रचार और आंदोलन नहीं हो सकता है❓🙏🏼😔
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सुरेश -
राज्य भी एक सामाजिक व्यवस्था, एक वैचारिक संरचना है जो व्यापक समाज के अंदर ही विकसित हुई है न कि समाज के बाहर से लाकर समाज के ऊपर थोपी गई कोई व्यवस्था। वह समाज के आर्थिक विकास के एक निश्चित स्तर पर पैदा हुई जब उत्पादन-वितरण संबंधों के आधार पर, समाज वर्गों में विभाजित हो कर, परस्पर अनन्य (mutually exclusive) हितों के कारण, ऐसे अंतर्विरोधों में फँस गया जिनका समाधान कर पाना उस समय मौजूद व्यवस्था की सामर्थ्य के बाहर था। परस्पर हितों की टकराहट के कारण होने वाली हिंसा में ये वर्ग कहीं समाज को ही ध्वस्त न कर दे, इस कारण इस संघर्ष की तीव्रता को कम करने और उसे व्यवस्था की सीमा में बाँधकर रखने के लिए ही इस शक्ति - राजसत्ता - का जन्म हुआ। राज्य व्यापक समाज के अंदर ही पैदा होने के बावजूद, समय के साथ, वर्ग-विभाजित समाज में संघर्षरत वर्गों से अपने आप को अलग करते हुए वर्ग-विभाजित समाज के ऊपर एक स्वायत्त रूप धारण कर लेता है।
न्याय तथा दंड प्रणाली, सामूहिक सेवा प्रणाली और कर प्रणाली राज्य का मूर्त रूप दर्शाते हैं, जब कि वर्ग संघर्ष की तीव्रता को कम करने के लिए, राज्य द्वारा किये जानेवाले हस्तक्षेप का दिशा निर्देशन करनेवाली विचारधारा या वैचारिक चेतना, उसका अमूर्त रूप है। विचारधारा राज्य की अंतर्वस्तु है तो राज्य के द्वारा तय किये गये नियमों को पालन कराने के लिए, राज्य के अनेकों संगठन उसकी अधिरचना हैं।
शुरू में सकल उत्पाद मुख्यत: कृषि आधारित था, तथा कुशल-श्रम आधारित गैर-कृषि उत्पाद की संपूर्ण सकल उत्पाद में भागीदारी बहुत कम थी। उत्पादन के साधन के रूप में प्रकृति प्रदत्त भूमि ही प्रमुख स्रोत थी जिसके ऊपर नियंत्रण चंद निजी हाथों में ही होता था और इसीलिए सामंतवादी समाज में राज्य के लिए, ईश्वर द्वारा प्रतिपादित धर्म के रूप में विचारधारा के द्वारा तथा ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में राजशाही के द्वारा, अपनी सत्ता को वर्ग-विभाजित समाज के ऊपर लागू करना संभव था। पर जैसे जैसे उत्पादक शक्तियों का विकास होता गया, गैर-कृषि उत्पादों का कुल सकल उत्पाद में भाग भी बढ़ता गया, और इसके साथ ही मुद्रा, पूंजी तथा बिचौलियों या मध्यवर्ग का प्रभाव भी बढ़ता गया। वाणिज्यिक पूँजी के प्रभाव के कारण, भूमि भी सामूहिक स्वामित्व से निकल कर निजी स्वामित्व में आ गई। मध्यवर्ग द्वारा, वाणिज्यिक पूँजी के कृषि तथा गैर कृषि क्षेत्र में निवेश के कारण, विज्ञान, तकनीक तथा उत्पादक शक्तियों का विकास अभूतपूर्व गति से होने लगा।
प्राकृतिक शक्ति के नियंत्रण, तथा स्वचलित मशीनों के विकास के कारण औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव आ गया जिससे संपत्ति के स्वरूप तथा स्वामित्व में भी अभूतपूर्व विविधता आ गई। पहले सीमित उत्पादन संबंधों के आधार पर समाज उत्पादक तथा गैर-उत्पादक वर्गों में विभाजित था। पर अब उत्पादों तथा संपत्ति के विविध स्वरूपों के स्वामित्व के कारण समाज पूरी तरह विखंडित हो गया है।
अठारहवीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित होने वाली पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में, बढ़ती उत्पादकता के साथ बढ़नेवाले अतिरिक्त मूल्य के आधिपत्य के लिए विभिन्न समूहों के बीच हितों की टकराहट भी तीव्र होती जाती है। बढ़ती टकराहट के बीच राज्य के लिए ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में राजशाही के द्वारा, अपनी सत्ता को वर्ग-विभाजित समाज के ऊपर लागू करना संभव नहीं रह गया था। इसलिए आवश्यक हो गया कि संघर्षों को सीमा के भीतर रखने के लिए, राज्य की सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में, राजशाही के स्थान पर आम लोगों के बीच से प्रतिनिधियों का ऐसा समूह विकसित हो जो सभी वर्गों के हितों की रक्षा करता नजर आए। और राजशाही की जगह अस्तित्व में आया जनवादी जनतंत्र।
एंगेल्स लिखते हैं, 'राज्य चूँकि वर्ग-विरोध पर अंकुश रखने के लिए पैदा हुआ था और साथ ही चूँकि वह इन वर्गों के संघर्ष के बीच पैदा हुआ था, इसलिए वह अनिवार्य रूप से सबसे अधिक शक्तिशाली, आर्थिक क्षेत्र में प्रभुत्वशील वर्ग का राज्य होता है।' वे आगे लिखते हैं, 'राज्य का सबसे ऊँचा रूप, यानि जनवादी जनतंत्र, जो समाज की आधुनिक परिस्थितियों में अनिवार्यत: आवश्यक बनता जा रहा है और जो राज्य का वह एकमात्र रूप है, जिसमें ही सर्वहारा वर्ग तथा पूँजीपति वर्ग का अंतिम और निर्णायक संघर्ष लड़ा जा सकता है - यह जनवादी जनतंत्र औपचारिक रूप से संपत्ति में अंतर का कोई ख़याल नहीं करता। उसमें धन-दौलत अप्रत्यक्ष रूप से, पर और भी ज्यादा कारगर ढंग से, अपना असर डालती है। एक तो, सीधे-सीधे राज्य के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के रूप में, जिसका ठेठ उदाहरण अमेरिका है। दूसरे, सरकार तथा स्टॉक एक्सचेंज के बीच गठबंधन के रूप में। जितना ही राजकीय क़र्ज़ बढ़ता जाता है और जितनी ही अधिक ज्वाइंट स्टॉक कंपनियाँ स्टॉक एक्सचेंज को अपना केंद्र बनाती हुईं न केवल यातायात को, बल्कि उत्पादन को भी अपने हाथ में केंद्रित करती जाती हैं, उतनी ही अधिक आसानी से यह गठबंधन होता जाता है। ................. अंतिम बात यह है कि संपत्तिवान वर्ग सार्विक मताधिकार के द्वारा सीधे शासन करता है। जब तक कि उत्पीड़ित वर्ग - इस मामले में सर्वहारा वर्ग - इतना परिपक्व नहीं हो जाता है कि अपने को स्वतंत्र करने के योग्य हो जाये, तब तक उसका अधिकांश भाग वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को ही एकमात्र संभव व्यवस्था समझता रहेगा और इसलिए वह राजनीतिक रूप से पूँजीपति वर्ग का दुमछल्ला, उसका उग्र वामपक्ष बना रहेगा।' (मार्क्स दर्शन, वर्ष 1: अंक 4, जुलाई-सितम्बर 2011)
वयस्क मताधिकार के द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधियों के आधार पर गठित प्रतिनिधि सभा या संसद द्वारा नियंत्रित राजसत्ता ही, विभिन्न वर्गों के बीच होने वाले संघर्ष को नियंत्रित करने के लिए, सर्वोत्तम राजनैतिक व्यवस्था हो सकती है क्योंकि प्रत्यक्ष तौर पर वह भेदभाव नहीं करती है और सर्वमान्य होती है। पर यथार्थ में सभी वर्गों के बीच सबसे अधिक शक्तिशाली वर्ग का ही राजसत्ता पर नियंत्रण होता है।
उत्पाद को पैदा करने में तीन चीजें लगती हैं। पहला है श्रम का लक्ष्य अर्थात वह चीज या चीजें जिनको विभिन्न प्रक्रियाओं के द्वारा उपयोगी उत्पाद में बदला जाता है। इसमें प्राकृतिक रूप से उपलब्ध कच्चे माल से लेकर वे अर्धनिर्मित चीजें हैं जिनमें पहले से कोई श्रम लगाया जा चुका होता है। इनमें वे सभी पदार्थ भी शामिल होते हैं जो सीधे उत्पाद का हिस्सा नहीं बनते हैं पर अनुपातिक रूप में खर्च होते हैं और उनका मूल्य उत्पाद के मूल्य में जुड़ता है। दूसरा है श्रम के साधन जिनके द्वारा मानवीय श्रम, लक्ष्य को उत्पाद में बदलता है। इसमें सभी प्रकार की स्वचलित या हस्तचालित मशीनें, भूमि-भवन, औज़ार आदि होते हैं जिनके जरिए, मानवीय श्रम, लक्ष्य में अंतरित होकर उसे उत्पाद में परिवर्तित करता है। जहाँ लक्ष्य का मूल्य पूरी तरह सीधे-सीधे उत्पाद में जुड़ जाता है वहीं साधनों में घिसावट के कारण उनके मूल्य में होने वाली कमी ह्रास-मूल्य के रूप में, उत्पाद के मूल्य में जुड़ती है। तीसरा है कामगार की श्रमशक्ति जो पूरी उत्पादन प्रक्रिया का संचालन तथा नियंत्रण करती है। उत्पादन प्रक्रिया में खर्च की गई श्रमशक्ति, संचित श्रम के रूप में उत्पाद में जुड़ जाती है, और संचित श्रम ही है जो उत्पाद को उपभोग योग्य बनाता है। संचित श्रम ही मूल्य का माप है। पहली दो चीजों से नया मूल्य पैदा नहीं होता है। वह तो भूतकाल में किये गये श्रम का संचित जीवाश्म है जो संपत्ति के मूल्य के रूप में पहले से मौजूद होता है। उत्पादन प्रक्रिया के दौरान उसका पुराने उत्पाद से नये उत्पाद में केवल हस्तांतरण होता है। नये मूल्य का निर्माण तो उत्पादन के दौरान खर्च की गई जीवंत श्रमशक्ति से ही पैदा होता है। श्रमशक्ति का मूल्य भी उन उत्पादों के मूल्य से निर्धारित होता है जिनका उपभोग कामगार अपनी चुकी हुई श्रमशक्ति को पुनर्जीवित करने के लिए करता है।
संपत्ति संचित श्रम का निष्क्रिय रूप है, जबकि श्रमशक्ति संचित श्रम का जीवंत सक्रिय रूप है जो निष्क्रिय संचित श्रम  (संपत्ति) का उपभोग कर नये अतिरिक्त संचित श्रम (अतिरिक्त मूल्य) को जन्म देने में सक्षम है। पूँजी, संपत्ति के स्वामित्व की सामाजिक चेतना है जो श्रमशक्ति और संपत्ति के मिलन को प्रेरित करती है तथा उस मिलन से पैदा हुए नये अतिरिक्त संचित श्रम को हासिल कर अपनी संपत्ति का विस्तार करती है।
मूल्य तथा अतिरिक्त मूल्य केवल मानवीय श्रमशक्ति के द्वारा ही पैदा किया जा सकता है। यह सामान्य ज्ञान की बात है कि सभी श्रमिकों द्वारा व्यक्तिगत तौर पर पैदा किये गये सारे उत्पादों के मूल्यों का कुल योग ही समाज में पैदा किये गये सकल उत्पाद का मूल्य होगा। पर मार्क्स ने समझाया था कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियमों के अनुरूप, पूंजीवाद की विकसित अवस्था में, जब हजारों की संख्या में सर्वहारा श्रमिक, अपनी श्रमशक्ति को मजूरी के बदले, एकीकृत पूंजी के द्वारा नियंत्रित एक औद्योगिक संगठन को सौंपकर, विशालकाय स्वचलित मशीन के पुर्जों के रूप में उत्पादन प्रक्रिया में श्रम करते हैं, तो उनकी सामूहिक-श्रमशक्ति एक उन्नत महाकाय श्रमशक्ति का रूप धारण कर लेती है जो व्यक्तिगत श्रमशक्तियों से गुणात्मक रूप से भिन्न होती है। सामूहिक-श्रमशक्ति की उत्पादकता, व्यक्तिगत श्रम-शक्तियों की उत्पादकता के कुल साधारण योग से कई गुना अधिक हो जाती है। इस कारण सामूहिक श्रमशक्ति द्वारा पैदा किया गया मूल्य, उन्हीं श्रमिकों के व्यक्तिगत श्रम द्वारा पैदा किये गये मूल्य के साधारण जोड़ से कई गुना अधिक होता है। इसीलिए सामूहिक श्रमशक्ति अपने लागत मूल्य से कहीं अधिक मूल्य पैदा करती है। सामूहिक मानवीय श्रम शक्ति का यही प्राकृतिक गुण है जो पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है।
पूँजीवादी औद्योगिक उत्पादन प्रक्रिया में, उत्पाद की लागत मूल्य की गणना में तो, श्रमशक्ति के लिए चुकाया गया मूल्य ही, लागत मूल्य में जुड़ता है, पर अंतिम उत्पाद के विक्रय मूल्य की गणना में, सामूहिक श्रमशक्ति द्वारा पैदा किया गया मूल्य जुड़ता है। चूँकि व्यक्तिगत श्रमशक्ति की कीमत का भुगतान श्रमिक को पूँजी द्वारा किया जा चुका होता है इसलिए उत्पन्न किये गये अतिरिक्त मूल्य का श्रेय पूँजी को ही मिलता है।
पूँजीवाद के अंतर्गत बाज़ार व्यवस्था की, क्रय-विक्रय प्रक्रिया में, उत्पादों की क़ीमत के निर्धारण में व्यक्तिगत प्राथमिकताओं का कोई महत्व नहीं रह जाता है, और हर चीज उसके अपने लागत मूल्य पर ही बिकती है, सर्वहारा की श्रमशक्ति भी। उपभोक्ता, अपने उत्पाद का उपयोगी मूल्य, उत्पाद का उपभोग करके ही वसूल कर पाता है। पूँजी, हर श्रमिक की श्रमशक्ति को, उसका लागत मूल्य चुका कर, निश्चित समय के लिए ख़रीद लेती है। उत्पाद के लागत मूल्य में, अन्य दो अवयवों की तरह ख़रीदी गई श्रमशक्ति की कीमत भी सीधे जुड़ जाती है। पर उत्पाद के विक्रय मूल्य में जुड़ता है वह मूल्य, जो पूँजी द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर ख़रीदी गयी श्रमशक्ति के सामूहिक उपभोग या खर्च करने से पैदा होता है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में, कुशलता आधारित श्रम विभाजन समाप्त हो जाता है, इसलिए लागत मूल्य पर ख़रीदी गई श्रमशक्ति, पूरी तरह चुक जाने पर व्यक्तिगत स्तर पर केवल अपना लागत मूल्य ही पैदा करती है, कोई अतिरिक्त मूल्य पैदा नहीं करती है। सामूहिक श्रमशक्ति की उत्पादक शक्ति, व्यक्तिगत श्रमशक्तियों की उत्पादक शक्ति से गुणात्मक रूप से भिन्न उनके कुल योग से कई गुना अधिक होती है। इसीलिए सामूहिक श्रमशक्ति अपने लागत मूल्य से कहीं अधिक मूल्य पैदा करती है। सामूहिक मानवीय श्रम शक्ति का यही प्राकृतिक गुण है जो पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अतिरिक्त मूल्य पैदा करता है।
अधिकांश लोग, अमूर्त चिंतन के आदी न होने के कारण, अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध को, या व्यक्तिगत चेतना तथा सामूहिक चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध को नहीं समझ पाते हैं। वे वैचारिक चीजों का संज्ञान, उनके मूर्त रूपांतरण के ऐंद्रिक ज्ञान बिना नहीं ले पाते हैं। वे मूल्य को उत्पाद के, या मुद्रा को करेंसी के, या पूँजी को पूँजीपति के संदर्भ से ही समझ पाते हैं। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ से अनभिज्ञ, वे समाज को व्यक्तियों के जमावड़े के रूप में ही देखते हैं, वे समाज को गुणात्मक रूप से भिन्न जैविक संरचना के रूप में नहीं देख पाते हैं। वे सामूहिक हित में अपने व्यक्तिगत हित को, सामूहिक संपत्ति या सेवाओं में अपने निजी स्वामित्व या निजी उपभोग के रूप में ही देख पाते हैं। हजारों साल पहले उपजा, संपत्ति के निजी स्वामित्व का विचार, सामाजिक चेतना में इतनी गहराई तक घर कर चुका है कि आम आदमी उसे मानव का नैसर्गिक गुण मानने लगा है। यहाँ तक कि अवचेतन स्तर पर हर व्यक्ति सामूहिक संपत्ति में भी औरों के भाग से अपने व्यक्तिगत भाग को अलग कर के देखता है और व्यक्तिगत हित साधने के लिए, सामूहिक हित को नुकसान पहुंचाने में भी कोई बुराई नहीं देखता है।  
वर्ग विभाजित समाज की अर्थ व्यवस्था में उत्पादन संबंध भी संपत्ति के निजी स्वामित्व से ही परिभाषित होते हैं। उत्पादन में लगने वाले तीनों अवयवों के निजी स्वामित्व से। सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था में श्रम के औज़ार तथा श्रमशक्ति दोनों श्रमिक के स्वामित्व में होते हैं इस कारण पैदा किया गया उत्पाद और उसमें निहित लागत मूल्य तथा अतिरिक्त मूल्य का स्वामित्व भी श्रमिक के पास ही होता है, और इसीलिए अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे की प्रक्रिया पूँजीवादी व्यवस्था से भिन्न होती है। विकसित पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में, पूंजीपति के नियंत्रण में मुद्रा होती है जिसके बदले वह उत्पादन प्रक्रिया के दौरान तीनों अवयवों का स्वामित्व अपने हाथों में ले लेता है। श्रमशक्ति का स्वामित्व भी, उत्पादन प्रक्रिया के दौरान, पूँजीपति के पास ही होता है क्योंकि उसे वह सर्वहारा से मजूरी के बदले हासिल कर चुका होता है। इसलिए तीनों अवयवों का मूल्य उनके बाजार मूल्य पर चुकता कर देने के बाद पैदा किये गये उत्पाद का और उसमें निहित अतिरिक्त मूल्य का स्वामित्व पूँजीपति के पास ही होता है। समाज में सारा संघर्ष इसी अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे को लेकर होता है। संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा, समाज की चेतना में पूरी तरह व्याप्त होने के कारण, इस बँटवारे के लिए नीतियां, व्यक्तिगत हितों के आधार पर तय की जाती हैं, जिन्हें निर्धारित करने का अधिकार राज्य के पास होता है। हर व्यक्ति इन नीतियों को अपने हितों के अनुरूप प्रभावित करने का प्रयास करता है। जो जितना शक्तिशाली होता है, वह उतना ही अधिक लाभ पाता है।
जनवादी जनतंत्र में राजसत्ता का नियंत्रण चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथों में होता है, इस कारण लोग अपने जैसे समान हित वाले लोगों के साथ संगठित हो कर, प्रतिनिधि सभा में ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधि भेजने का प्रयास करते हैं। राष्ट्र राज्य के अंतर्गत सकल घरेलू उत्पाद में भागीदारी के लिए समान हितों के आधार पर लोगों को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक वे जिनकी श्रमशक्ति से अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, और दूसरे वे जो संपत्तियों के मालिक हैं। कामगार और बुर्जुआ। राजसत्ता के सभी अंग राज्य की विचारधारा से नियंत्रित होते हैं इस कारण विचारधारा के आधार राज्य के चरित्र को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। संपत्ति के निजी स्वामित्व के विचार पर आधारित बुर्जुआ-जनवाद, संपत्ति के सामूहिक स्वामित्व पर आधारित सर्वहारा-जनवाद। सर्वहारा जनवाद इसलिए क्योंकि सर्वहारा ही संपत्ति विहीन वर्ग होता है, अन्य कामगारों के पास श्रम के औजारों का तथा श्रमशक्ति का स्वामित्व होता है और वे अनजाने ही संपत्ति के निजी स्वामित्व की चेतना के वाहक बने रहते हैं। कहने को जनवाद के अंतर्गत राज्य बिना किसी आर्थिक भेदभाव के शासन करता है, पर वर्गों के बीच न सुलझ सकने वाले अंतर्विरोधों के कारण राज्य कमजोर वर्ग के विरोध को दबा कर ही शासन कर सकता है। इसलिए राज्य का चरित्र या तो बुर्जुआ तानाशाही होता है या सर्वहारा तानाशाही।
संसदवाद अर्थात संसदीय प्रणाली में राजसत्ता या सरकार, प्रतिनिधि सभा के आधीन और उसके प्रति उत्तरदायी होती है। प्रतिनिधिसभा के सदस्यों का चुनाव आम जनता द्वारा मतदान के आधार पर किया जाता है। प्रतिनिधि सभा का कार्यकाल निश्चित अवधि के लिए होता है और संविधान तथा क़ानून के आधार पर हर किसी को बिना भेदभाव के अपनी राजनैतिक पार्टी बनाने, जनता के बीच अपने विचारों का प्रचार करने तथा अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है।
बुर्जुआ प्रजातंत्र तथा संसदवाद का आंतरिक अंतर्विरोध यह है कि एक ओर तो वह सबको, बिना किसी आर्थिक भेदभाव के, समान अवसर तथा अधिकार देने की बात करता है ताकि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच कोई कलह न हो, और ऐसी नीतियों को तय करने तथा लागू करने का दावा करता है जो सामूहिक श्रम द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का उपयोग सामूहिक हित तथा समावेशी विकास के लिए सुनिश्चित कर सकें, पर साथ ही वह संपत्ति के निजी स्वामित्व को भी सुनिश्चित करता है जो उसके, समान अधिकार की बात तथा सामूहिक हित तथा समावेशी विकास के दावे को असंभव बनाता है। जिसके पास जितनी अधिक निजी संपत्ति होती है वह आर्थिक रूप से, और इसीलिए राजनीतिक तथा सामाजिक रूप से भी, उतना ही अधिक शक्तिशाली होता है। और जो जितना अधिक शक्तिशाली होता है, वह सामूहिक श्रम द्वारा पैदा किए गये अतिरिक्त मूल्य तथा संपत्ति का उतना ही बड़ा हिस्सा हड़पने में कामयाब होता है। और इसीलिए संपत्तिवान तथा संपत्तिविहीन के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ता जाता है।
समय के साथ लोग समझने लगते हैं कि संसदीय व्यवस्था में, सरकार की नीतियों को अपने फायदे के लिए प्रभावित करने के लिए संख्याबल बहुत आवश्यक है इसलिए दूसरों के साथ एकजुटता आवश्यक हो जाती। चूँकि निजी संपत्ति का विचार अवचेतना में गहरे बैठा होता है इस कारण, आर्थिक आधार पर लोगों के बीच एकजुटता बहुत मुश्किल होती है, पर सामाजिक जीवन में समान हितों के अनेकों आधार हो सकते हैं, जैसे कि धर्म, संप्रदाय, नस्ल, जाति, लिंग, भाषा, क्षेत्रीयता आदि। इस कारण निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी, कामगारों को धर्म, संप्रदाय, नस्ल, जाति, लिंग, भाषा, क्षेत्रीयता आदि के आधार पर एकजुट करने का प्रयास करते हैं। पर सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का व्यक्तिगत रूप से बँटवारे का कई भी फ़ॉर्मूला लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकता है और संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा से उपजे इस अंतर्विरोध का समाधान, बुर्जुआ जनवाद के पास नहीं है। विभिन्न संगठनों के बीच हितों की टकराहट को नियंत्रित करने के लिए राजसत्ता को हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। प्रतिक्रिया स्वरूप जन संगठन भी हिंसा का सहारा लेने लगते हैं। हिंसा-प्रतिहंसा के इस अनवरत चक्र के चलते 'मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते जात हैं। लेनिन ने आगाह किया था, 'पहले जनता का जितना हिस्सा राजनैतिक घटनाओं में भाग लेता था उसके मुकाबले में जनता के कहीं व्यापक हिस्से को जागरूक तथा संगठित करने में सहायता कर, लोकतंत्रवाद संकट को दूर करने तथा राजनैतिक क्रांति के लिए नहीं बल्कि ऐसी क्रांतियों की दशा में गृहयुद्ध को अत्याधिक प्रचंड करने के लिए भूमि तैयार करता है।' (मार्क्स दर्शन, वर्ष 1: अंक 4, जुलाई-सितम्बर 2011)
सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य तथा संपत्ति के, निजी स्वामित्व की, अवधारणा से उपजे अंतर्विरोध का समाधान वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित वैज्ञानिक समाजवाद के पास ही है क्योंकि उसकी मूल अवधारणा है 'सामूहिक श्रम द्वारा पैदा किये गये, अतिरिक्त मूल्य तथा संपत्ति का, सामूहिक स्वामित्व'। संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण, अनेकों गैर-आर्थिक हितों के आधार पर, विभिन्न गुटों में बँटे लोगों के बीच, होनेवाले संघर्षों का समाधान कर, प्रतिनिधि सभा के अंदर अपनी भागीदारी बढ़ाने के लिए, रणनीतिक फ़ैसले करते समय, मजदूरवर्ग, निम्न मध्यवर्ग के दृष्टिकोण पर आधारित काल्पनिक समाजवाद  को अपनाये या वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित वैज्ञानिक समाजवाद को अपनाये, यह निर्भर करेगा मजदूरवर्ग की जागरूकता पर।
लेनिन ने समझाया था कि वैज्ञानिक समाजवाद, सर्वहारा चेतना में आर्थिक संघर्षों के दौरान स्वत: नहीं आता है। उसे तो बाहर से ही लाना होता है। सर्वहारा चेतना में काल्पनिक समाजवाद, बुद्धिजीवियों द्वारा बाहर से लाया गया था, और वैज्ञानिक समाजवाद भी आर्थिक संघर्ष के बाहर से ही लाना होगा। वामपंथी संशोधनवादियों की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा है, 'पूँजीवादी समाज में विज्ञान तथा तकनीकी की हर प्रगति अनिवार्य रूप से बिना किसी मुरव्वत के लघु-उत्पादन के आधार को खोखला करती है, और यह समाजवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री का दायित्व है कि इस प्रक्रिया, अक्सर क्लिष्ट तथा पेचीदी, की उसके सभी रूपों में पड़ताल करे और लघु उत्पादक को दर्शाए कि पूँजीवाद के तहत उसका अपने बल पर बचे रहना असंभव है, पूँजीवादी व्यवस्था के तहत कृषक आधारित कृषि-उत्पादन का कोई भविष्य नहीं है और किसान के लिए सर्वहारा के दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। इस प्रश्न पर संशोधनवादियों ने अपराध किया है, वैज्ञानिकता के अर्थ में, एकपक्षीय तथ्यों को चुनकर और संपूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था के संदर्भ से काटकर सतही तौर पर सर्वव्यापी दिखाकर। राजनैतिक दृष्टिकोण से उन्होंने अपराध किया है इस तथ्य के आधार पर कि चाहे या अनचाहे उन्होंने किसानों को, क्रांतिकारी सर्वहारा के नजरिये की जगह छोटे मालिकों के नजरिये को (अर्थात बुर्जुआ नजरिये को) अपनाने का आग्रह कर। (मार्क्स दर्शन, वर्ष 1: अंक 4, जुलाई-सितम्बर 2011)
उम्मीद है आपको अपने प्रश्नों का उत्तर मिल गया होगा।
सुरेश श्रीवास्तव
5 सितंबर, 2016