Wednesday 17 February 2016

दिग्भ्रमित भारतीय वामपंथ

रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजा उन्माद अभी शांत भी नहीं हुआ था कि अफ़ज़ल गुरू की बरसी ने बुद्धिजीवियों की भावनाओं को भड़काये रखने के लिए नये ईंधन का काम कर दिया और उसका असर तीन दिन में ही कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी के रूप में नजर आ गया। तीनों मसलों में युवा छात्रों से लेकर परिपक्व बुद्धिजीवियों सहित पूरा बौद्धिक जगत, राष्ट्रभक्ति तथा राष्ट्रद्रोह के बीच दो फाड़ नजर आता है। प्रत्यक्ष में दोनों पक्ष, दो विपरीत ध्रुवीय विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते नजर आते हैं। दोनों पक्ष आमतौर पर स्वीकार्य एक जैसे नैतिक मानवीय मूल्यों से प्रतिबद्धता का दावा करने के साथ ही एक दूसरे पर उन्हीं मूल्यों के खिलाफ आचरण करने का आरोप भी लगाते हैं। दो ध्रुवीय नजर आने के बावजूद दोनों पक्षों की विचारधारा में परोक्ष में एक ही मूल विचार नजर आता है - विशिष्ट व्यक्ति ही इतिहास रचते हैं और उनका अनुगमन सफलता के लिए महत्वपूर्ण है - भाववादी दर्शन आधारित दृष्टिकोण की उपज। दोनों ही धाराओं के अनुयायी, विशिष्ट व्यक्तियों के आचरण के संदर्भ से ही अपनी-अपनी विचारधारा और आचरण को परिभाषित करने का प्रयास करते हैं, गांधी, नेहरू, पटेल, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, सावरकर, हेडगेवार, विवेकानंद, लोहिया, जेपी, इंदिरा या बाबा साहब भीमराव अंबेडकर आदि सभी नामों का, अपनी-अपनी सुविधानुसार उपयोग कर के । (क्या बी. आर. अंबेडकर के साथ साहब जोड़ने से औपनिवेशिक मानसिकता की झलक नहीं मिलती है?)
मैं व्यक्तिगत तौर से कन्हैया से परिचित हूँ। एआईपीएफ की मीटिंग्स में उससे मिलना होता था। 27-30 दिसंबर 2011 हैदराबाद में सीआरआर फाउंडेशन में 'भारत की समाजवाद की राह' कार्यशाला में हम चार दिन साथ रहे और मैंने उसके साथ बहुत से विषयों पर चर्चा की थी। मैंने उसे अन्य युवाओं की तरह, कर्मठ, महत्वाकांक्षी, अपने आदर्श के प्रति समर्पित पाया था, पर साथ ही क्रांति करने की हड़बड़ी में भी। मैंने उसे समझाने की कोशिश की थी कि उसे मुख्य धारा में सक्रिय होने से पहले मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ पुख्ता करनी चाहिए। दिल्ली आने के बाद भी उससे जेएनयू में संपर्क किया था कि स्टडी सर्किल शुरू किया जाय। पर वह जिस तरह के वामपंथी वातावरण में रह रहा था, उसके लिए उससे अलग सोच पाना शायद संभव नहीं हो पाया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ के बिना अति-सक्रियता में उसने अपने आप को उस चक्रव्यूह में फँसा लिया है जो उसके तथा उसके सामाजिक उद्देश्य के लिए घातक हो सकता है। इसकी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि उसके समर्थन में जितना व्यापक प्रचार हो रहा है उसके कारण उसे अगली पेशी पर ज़मानत मिल जाय, पर व्यवस्था का दमनचक्र शुरू हुआ है तो वह अपनी संतुष्टि के लिए किसी की आहुति तो लेगा। बाकी जिन विद्यार्थियों के नाम आगे आये हैं उनकी गिरफ़्तारी के बिना कन्हैया को ज़मानत मिलना मुश्किल है। मेरी सहानुभूति उन सभी विद्यार्थियों के साथ है क्योंकि मैं जानता हूँ कि उन सब का जज्बा केवल कमजोर के प्रति होने वाले अन्याय के खिलाफ है न कि किसी व्यक्ति, समूह या राष्ट्र के खिलाफ है। पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ न होने के कारण, न तो वे यह समझते हैं कि अन्याय की प्रक्रिया का मूल क्या है और न ये समझते हैं कि मनुष्य अपनी स्वयं की चेतना के अलावा सामूहिक चेतना का भी वाहक होता है, और वह समझ ही नहीं पाता है कि वर्ग विभाजित समाज में अनेकों समूहों के बीच संघर्ष में, वह अनजाने ही कब किस समूह की चेतना के नियंत्रण में पहुँच गया है। मैं केवल कामना कर सकता हूँ, और करता हूँ कि वे सब जल्दी ही इस विकट परिस्थिति से बाहर निकल आयें।
मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत तथा चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर समझाया था कि  व्यक्तिगत मानवीय-चेतना और सामूहिक सामाजिक-चेतना के बीच के संबंध में, संख्या बढ़ने के साथ गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। संख्या कम होने पर व्यक्ति विशेष की चेतना सामूहिक चेतना पर हावी होती है, पर संख्या बढ़ने के साथ सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतना को नियंत्रित करने लगती है। मार्क्स ने यह भी समझाया था कि उत्पादक शक्तियों का विकास करना मानव समाज का प्राकृतिक गुण है और पूँजी-मजूरी आधारित बड़े स्तर की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था, निम्न स्तर की बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था तथा स्वरोज़गार आधारित सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था से अधिक उन्नत होती है। मार्क्स ने यह भी समझाया था कि मानवीय श्रमशक्ति का उपभोग कर स्वविस्तार करना पूँजी का चरित्र है और उसका अंतर्विरोध है, सामूहिक श्रम द्वारा सामूहिक उत्पादन के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का सृजन, लेकिन निजी स्वामित्व के आधार पर अतिरिक्त मूल्य का व्यक्तिगत अंतरण और इस अंतर्विरोध का समाधान होता है समाजवादी व्यवस्था में जिसमें उत्पादन की प्रक्रिया वही रहती है पर अतिरिक्त मूल्य का अंतरण व्यक्तिगत की जगह सामूहिक होता है।
पिछली शताब्दी के अंत तक, सामंतवादी उत्पादक शक्तिओं और निम्न पूँजीवादी उत्पादक शक्तिओं की बीच होने वाले वर्ग संघर्ष में, निम्न मध्यवर्गीय अपने हितों के अनुरूप अपनी चेतना के अनुसार निम्न पूंजीवादी विकास के साथ एकजुट था इसलिए संघर्ष इतना तीव्र नहीं था। पर अब पूँजीवाद द्वारा अपना निम्नतम स्तर पार कर लेने बाद निम्न मध्यवर्गीय हितों और पूँजीवादी हितों की टकराहट के कारण संघर्ष अधिक तीव्र और हिंसक हो चले हैं।
नई पीढ़ी को मेरा सुझाव है कि राजनीति में सक्रिय भागीदारी से पहले वे मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की पुख्ता समझ हासिल करें, पूँजीवाद के अंतर्गत अतिरिक्त मूल्य के सामूहिक उत्पादन की प्रक्रिया और, अतिरिक्त मूल्य के व्यक्तिगत अंतरण के भेद को समझें और अपने अस्तित्व की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करने के लिए सजग होकर अपने लिए उचित भूमिका चुनें। बड़े स्तर पर पूँजी निवेश के जरिए उत्पादक शक्तिओं को बढ़ाना और उसके जरिए लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाना समाज की नैसर्गिक प्रवृत्ति है, उसका समर्थन करना क्रांतिकारी क़दम है, उसका विरोध करना प्रतिक्रांतिकारी क़दम है।
सुरेश श्रीवास्तव
16 फ़रवरी 2016

Sunday 7 February 2016

रोहत वेमुला की आत्महत्या से सबक़

रोहत वेमुला की आत्महत्या से सबक़

व्यक्तियों द्वारा प्रदर्शित की जाने वाली असहिष्णुता, यथार्थ में उस समूह की चेतना का मूर्त रूप होती है जिस समूह के वे सदस्य होते हैं। जिस प्रकार व्यक्तियों की चेतना समूह की चेतना का हिस्सा होती है उसी प्रकार किसी समूह की चेतना, उस व्यापक समाज की चेतना का हिस्सा होती है जिस व्यापक समाज का हिस्सा वह समूह होता है। असहिष्णुता का स्वरूप मतभेद, रंगभेद, नस्लभेद, लिंगभेद, धर्मभेद, पंथभेद कुछ भी हो सकता है पर उनका मूल उद्गम हमारी वही व्यापक सामाजिक चेतना है जो व्यक्तिगत हितों की टकराहट से लबरेज़ है। रोहित की आत्महत्या, नवकरण की आत्महत्या, प्रकाश साव की आत्महत्या, तंज़ानिया की महिला को नग्न करना, कलबुर्गी की हत्या, अख़लाक़ की हत्या, गुजरात नरसंहार, सिखों का नरसंहार, बंबई धमाके या बंबई के होटलों में दहशतगर्दी, सब उसी व्यापक सामाजिक असहिष्णु चेतना की अभिव्यक्ति हैं जो आये दिन हड़तालों और धरनों में नजर आती है।
मार्क्स ने चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर समझाया था कि हर वर्ग अपने आर्थिक आधार पर विचारों का एक तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके आधार से असंबद्ध नजर आता है। गैरमार्क्सवादी, विचार और चेतना को भौतिक जगत से अलग, दैवीय मानते हैं जिसके कारण वे असहिष्णुता का कारण व्यक्तिगत असंवेदना में ढूँढते हैं और इसीलिए सामाजिक या व्यक्तिगत हिंसा के कारण और निदान ढूँढने में असमर्थ हैं। पर जब नवयुवकों के बीच पुख्ता मार्क्सवादी छवि रखने वाले, मार्क्सवादी संगठनों तथा आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले, समस्या का कारण, द्वंद्वात्मक पद्धति द्वारा विश्लेषण के आधार पर न कर तात्त्विक पद्धति के आधार पर करते हैं तो मामला थोड़ा गंभीर हो जाता है और मार्क्सवाद में रुचि रखने वालों को ख़तरे का संकेत देता है।
हमारी आबादी के बहुत बड़े हिस्से का दैनिक जीवन धार्मिक आस्था के प्रभाव में है इसलिए राजनीति भी दो खेमों में बंटी हुई है, धार्मिक कट्टरवादी और धार्मिक उदारवादी। अगर किसी व्यक्ति या समूह का किसी भी मसले पर सीधा-सीधा टकराव प्रशासन से होता है तो उसे सांप्रदायिकतावादी-गैरसांप्रदायिकतावादी या ब्राह्मणवादी-जातिवादी शोषण या दमन के रंग में रंग कर प्रचारित करना, चुनावी दृष्टि से हितकर होता है। ऐसे मसले लंबे अरसे तक सार्वजनिक बहस में नजर आते हैं, अन्य सभी एक ख़बर बन कर रह जाते हैं।
रोहित और नवकरण दोनों के, आत्महत्या से पहले लिखे गये पत्र दर्शाते हैं को दोनों आत्महत्या के समय मानसिक रूप से संतुलित थे और उनकी आत्महत्या के कारण व्यक्तिगत नहीं थे। उन दोनों की समतामूलक सामाजिक मूल्यों में आस्था थी और वे इन मूल्यों के लिए लड़ रहे संगठनों के सक्रिय सदस्य थे। उनकी लड़ाई व्यक्तिगत न हो कर सामूहिक थी। अपने संघर्ष के दौरान किन्हीं कारणों से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि, उन आदर्शों तथा मूल्यों को, जिनके लिए वे जी रहे थे, हासिल करना उनके लिए असंभव हो गया था और इस कारण उनके जीवन का कोई मूल्य भी नहीं रह गया था और उनके लिए आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प रह गया था।
रोहित के मामले में, कांग्रेस सहित सभी वामपंथी पार्टियां इस बात पर एकमत हैं कि रोहित की अत्महत्या के लिए, हिंदुत्ववादी भाजपा की केंद्रीय सरकार के दो मंत्री तथा केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति जिम्मेदार हैं। उनके लिए राजनैतिक रूप से यही व्यावहारिक है, और उनसे संबद्ध विद्यार्थी संगठन अपने अपने अपने बैनर तले या फिर साझा तौर पर प्रदर्शन, धरने तथा आंदोलन कर रहे हैं कि रोहित का मसला जातिभेद का मसला है। पर नवकरण का मामला दूसरा है। उसके मामले में किसी सरकारी संस्था को दोष देना संभव नहीं है इस कारण वामपंथी आपस में एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं कि उसके संगठन में उसके दलित होने के नाते भेदभाव किया जाता था जिसके कारण वह अवसादग्रस्त हो गया था।
रोहित और नवकरण का मसला, मार्क्सवादी होने के नाते इस लेखक के लिए इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों ही विज्ञान के विद्यार्थी रहे थे और मार्क्सवादी विद्यार्थी संगठनों जुड़े रहे थे। दोनों ही होनहार विद्यार्थी थे, शोषण के खिलाफ संघर्ष की भावना से ओतप्रोत, मार्क्सवाद से प्रभावित और मार्क्सवादी संगठनों के जुझारू कार्यकर्ता। परिस्थितियों के कारण रोहित की आत्महत्या को, मौजूदा सरकार तथा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा दलित उत्पीड़न का परिणाम दर्शाने के लिए पर्याप्त सामग्री हासिल थी इसलिए उसको व्यापक प्रचार मिल रहा है जब कि नवकरण की आत्महत्या की चर्चा कुछ वामपंथी संगठनों के बीच सिमट कर रह गयी है।
इस लेखक का मानना है कि मार्क्सवाद की सही समझ, चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध की सही-सही समझ पर आधारित होती है, इस कारण एक, शारीरिक रूप से स्वस्थ नौजवान मार्क्सवादी, आत्महत्या करने का निर्णय कभी नहीं ले सकता है। संघर्ष के दौरान वह ऐसी कोई ग़लती तो कर सकता है जो उसकी मौत का सबब बन जाये, पर वह आत्महत्या नहीं होती है। वह यथार्थ के धरातल पर ही रह कर अपनी क्षमता और आकांक्षाओं को विकसित होने देगा और सजग रूप से अपने लिए वे ही लक्ष्य निर्धारित करेगा जिन्हें हासिल करना उसके जैसे व्यक्ति के लिए संभव हो। वह काल्पनिक रूप से ऐसे लक्ष्य निर्धारित नहीं करेगा जो एक मुक़ाम पर जा कर उसे असंभव नजर आने लगें। रोहित और नवकरण की आत्महत्याएँ दर्शाती हैं कि उनका मार्क्सवाद से लगाव रूमानियत थी, उन्हें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ हासिल नहीं थी। उनका समाजवाद काल्पनिक था, उन्हें काल्पनिक समाजवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के बीच के अंतर का का पता नहीं था। उन्होंने सैद्धांतिक समझ विकसित किए बिना, अति सक्रियता में अपनी व्यक्तिगत क्षमता से कहीं अधिक बड़ी भूमिका अपने लिए निर्धारित कर ली थी। उन्हें अपने अपने संगठनों और साथियों की समझ और ईमानदारी में अटूट आस्था थी, पर शीघ्र ही उनका मोह भंग हो गया जब उन्होंने पाया कि संगठन के अंदर उनके साथी उसी सामंतवादी और निम्न मध्यवर्गीय बुर्जुआ मानसिकता में जकड़े हुए हैं, जिसमें व्यापक समाज जकड़ा हुआ है, और उसी मानसिकता के अनुरूप उनकी कथनी और करनी में दो ध्रुवीय अंतर है।जाहिर है जिन वामपंथी संगठनों से वे जुड़े रहे थे उन संगठनों की चेतना में भी न तो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ मौजूद थी और न ही वैज्ञानिक समाजवाद की।
नवकरण अतिवामपंथी सक्रियता के कारण अपने अस्तित्व की सुरक्षा मौजूदा व्यवस्था के अंतर्गत न देखकर संगठन के अंतर्गत देखने लगा था। वह संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बन गया था और पूरी ईमानदारी और लगन के साथ संगठन के घोषित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए काम कर रहा था। धीरे-धीरे उसका मोह भंग हो गया जब उसने पाया कि संगठन जिस जनवादी संवैधानिक व्यवस्था को शोषण के लिए उत्तरदायी ठहराता है, उसी व्यवस्था से अपनी जीवनशक्ति हासिल करता है।  शीघ्र ही वह अपने आपको संगठन में अपेक्षित और अवांछित महसूस करने लगा। अपनी नैतिक ईमानदारी के साथ अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा था।
रोहित उस मधमार्गी वामपंथी धारा से जुड़ा था जो मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के कारण स्पष्ट नहीं कर पाती है कि शोषण का आधार आर्थिक है या सामाजिक है। इसी कारण मध्यमार्गी पार्टियाँ मार्क्स और अंबेडकर की राजनीति को एक ही खाँचे में फ़िट कर देती हैं। अपनी अस्पष्ट रणनीति के कारण वे कभी आर्थिक मोर्चे पर एक क़दम आगे बढ़ाती हैं, फिर दो क़दम पीछे खींच कर सामाजिक मोर्चे पर सांप्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ लड़ने लगती हैं। इसी एक क़दम आगे दो क़दम पीछे की रणनीति ने रोहित को ऐसऐफआई के खेमे से निकालकर एऐसए के खेमे में पहुँचा दिया। अपने जुझारूपन और अतिसक्रियता में रोहित उसी तरह की ग़लती कर बैठा जिस तरह की ग़लती भगत सिंह ने सॉंडर्स को मार कर की थी। रोहित ने रात में अभाविप के छात्र के कमरे पर जा कर और धमकी के द्वारा माफ़ीनामा लिखवाकर, व्यवस्था को मौक़ा दे दिया कि वह रोहित को राजनैतिक दायरे से बाहर खींच कर क़ानूनी दायरे में सबसे अलग-थलग कर उसके अस्तित्व पर हमला करे। रोहित ने पाया कि वह बिना किसी राजनैतिक संरक्षण, व्यवस्था के सामने अकेला है। याकूब मेमन और राजेश तलवार के मामले उसके सामने थे कि बुर्जुआ जनवादी व्यवस्था का सबसे बड़ा हथियार है व्यक्ति की आजादी छीन लेना। 18 जनवरी को हाईकोर्ट में ऐफआईआर दर्ज करने के मामले में सुनवाई के बाद अंतहीन बंदीजीवन के मुक़ाबले, 17 जनवरी की शाम जीवन समाप्त करने का विकल्प रोहित को बेहतर लगा।
मार्क्सवादियों का नैतिक दायित्व है कि वे नई पीढ़ी को, इससे पहले कि वह अतिसक्रियता के रोमांस में मुख्यधारा की राजनीतिक भँवर में फँस जाय, मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की सही समझ से लैस करें ताकि नौजवान अंधानुकरण की प्रवृत्ति को छोड़ कर वैज्ञानिक मानसिकता के साथ परिस्थितिओं का विश्लेषण कर हर क़दम पर सही निर्णय ले सकें।            
सुरेश श्रीवास्तव
7 फ़रवरी, 2016