Thursday 24 September 2015

बाबा साहब किसके?

कल 20 सितंबर 2015, भाकपा द्वारा लखनऊ में सोशल मीडिया पर कार्यशाला तथा मथुरा में अंबेडकर समारोह और माकपा द्वारा दिल्ली में दलित संसद। शोषण के विरुद्ध संघर्ष के संदर्भ में, भारतीय वामपंथी एक लंबे अरसे से अंबेडकर और मार्क्स को एक ही खाँचे में फ़िट करने की कोशिश करते आ रहे हैं। वामपंथी इस कोशिश से होने वाले नुकसान का आंकलन क्यों नहीं कर पा रहे हैं, मेरी लिए समझ से परे है। मैं मार्क्स को वैज्ञानिक-समाजवाद का जनक मानता हूँ और अंबेडकर को काल्पनिक-समाजवाद का एक अध्येता, उस काल्पनिक-समाजवाद का जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने निम्न-मध्य-वर्गीय बुद्धिजीवी की, कल्पना की उड़ान कहा था। उनकी कोशिश मुझे गोल छेद में चौकोर खूँटी ठोकने की कोशिश की तरह ही लगती है।
 बचपन में मेरे पिता जी ने एक कहानी सुनाई थी जो यहाँ प्रासंगिक है। एक किसान सारा साल मेहनत करता था और अपनी जरूरतों के लिए साहूकार से पैसे उधार लेता रहता था। फ़सल आने पर उसे बेचकर हासिल पैसे से साहूकार का क़र्ज़ चुकाता था और बचे पैसों से कुछ दिन तक अपनी ज़रूरतें पूरी कर पाता था, पर फिर महाजन से उधार लेने के लिए मजबूर हो जाता था। एक दिन उसने महाजन से पूछा, " मैं सारा साल मेहनत करता हूँ फिर भी मुझे पैसों की कमी रहती है और तुम कुछ भी नहीं करते हो फिर भी तुम्हें पैसे की कमी नहीं होती है, ऐसा क्यों?" साहूकार ने जवाब दिया, " मेरे पास पैसा है और पैसा पैसे को खींचता है।" कुछ दिन बाद किसान सुबह सुबह शहर पहुँचा और एक दुकान के सामने खड़ा हो गया। दुकान खुलने पर दुकानदार ने भगवान की पूजा की और अपना कैशबाक्स खोल कर उसकी भी पूजा करने लगा। किसान ने दूर से ही एक रुपये का सिक्का कैशबाक्स में उछाल दिया। दुकानदार ने किसान की तरफ़ देखा और चुपचाप अपना काम करने लगा। किसान सारा दिन वहीं खड़ा रहा। शाम को जब दुकान बंद करने का समय आया तो दुकानदार ने किसान से पूछा कि वह किस चीज का इंतज़ार कर रहा था। किसान ने कहा, " मैंने सुना था पैसा पैसे को खींचता है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि मेरा पैसा कब तुम्हारे पैसे को खींच कर लाता है।" दुकानदार ने जवाब दिया, " तुम्हें अभी भी समझ नहीं आया। मेरे पैसे ने तुम्हारे पैसे को पहले ही खींच लिया है अब तुम घर जाओ।"
 कहानी सुनाने के बाद पिता जी ने समझाया था कि अपनी फ़सल बोने के लिए अपनी ख़ुद की ज़मीन तैयार करना चाहिए। अगर दूसरे की ज़मीन में फ़सल बोने की कोशिश करोगे, तो फ़सल तैयार होने पर फ़सल काटने का अधिकार भी उसी का होगा जिसकी ज़मीन है। मार्क्स ने समझाया था कि शोषण का आधार है सामूहिक श्रम द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का व्यक्तिगत अधिकार में हस्तांतरण, और शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए आवश्यक है कि मज़दूर वर्ग को समझाया जाय कि शोषण का आधार आर्थिक संबंधों में निहित है और उत्पादन प्रक्रियाओं के बदलने के साथ-साथ अतिरिक्त मूल्य के हस्तांतरण की प्रक्रिया भी किस प्रकार बदलती है। अगर वामपंथी, शोषण का आधार जाति प्रथा में ढूंड़ेंगे तो राजनैतिक फ़ायदा तो मायावती, रामविलास और माँझी ही उठायेंगे, और अगर सांप्रदायिकता में ढूँढेंगे तो फ़ायदा, कांग्रेस, मुलायम और लालू उठायेंगे।
 पर 20 सितंबर का वामपंथियों के लिए क्या महत्व है, यह मुझे समझ नहीं आया है। बुर्जुआ पार्टियों के लिए तो इसलिए महत्वपूर्ण है कि 1932, के इसी दिन गांधी जी ने आमरण अनशन की घोषणा कर, अंबेडकर को मना लिया था कि वे दलितों को सामूहिक सशक्तीकरण की ओर ले जाने वाली, अलग चुनाव क्षेत्र की मांग को छोड़कर, सम्मिलित चुनाव क्षेत्र के अंतर्गत सीटों के आरक्षण (पूना पैकेट) को मान लें। इसके जरिए शोषक वर्ग ने सुनिश्चित कर लिया था कि दलितों में से सक्षम व्यक्तियों को निजी हितों की पूर्ति के जरिए शोषण व्यवस्था का ही मोहरा बना दिया जाय। अंबेडकर को संविधान सभा में महत्वपूर्ण पद देना और आजाद भारत में स्वयं चुनाव न जीत सकने पर राज्यसभा में भेजना इसी रणनीति का हिस्सा था। शायद व्यक्तिगत रूप से अंबेडकर इसको न समझ पाये हों, पर क्या सामूहिक रूप से वामपंथी भी इसको नहीं समझ पा रहे हैं या यहाँ भी व्यक्तिवादी सोच ही हावी है।

सुरेश श्रीवास्तव
21 सितंबर, 2015

माँस खाने पर पाबंदी क्यों?

माँस खाने पर पाबंदी क्यों?
खाद्य-चक्र पृथ्वी पर जीवन का आधार है। कार्बन-डाई-आक्साइड, पानी तथा सूर्य की रोशनी से सरलतम एंज़ाइम तथा प्रोटीन का निर्माण करने की क्षमता केवल वनस्पतियों में ही है, विकास के निम्नतम स्तर पर जीवों को शारीरिक रचना तथा जीवन के लिए आवश्यक एंज़ाइम तथा प्रोटीन के लिए वनस्पति जगत पर निर्भर रहना पड़ता है, पर विकास के साथ नई प्रजातियों की, अपनी क्लिष्ट शारीरिक संरचना तथा मानसिक क्षमता के लिए आवश्यक एंज़ाइम तथा प्रोटीन की ज़रूरत पूरी करने के लिए परस्पर निर्भरता बढ़ती गयी।
अपनी विकास यात्रा में मानव ने समाज के गठन के साथ कृषि तथा पशुपालन के जरिए, वनस्पतियों तथा पालतू पशुओं की अनेकों नई प्रजातियों को विकसित किया है जो उसकी अनेकों विशिष्ट एंज़ाइम तथा प्रोटीन की आवश्यकताएँ पूरी करते हैं तथा जिनका विकास मानवीय हस्तक्षेप के बिना असंभव था।
हाल के 10 हज़ार साल का समय,  जिसमें मानव ने पशुपालन तथा कृषि का विकास किया, बंदर से मानव बनने की 35 लाख साल की विकास यात्रा की तुलना में एक क्षण मात्र है। मानव मस्तिष्क की विशिष्ट संरचना था चिंतन की प्रक्रिया, जिसने भाषा तथा समाज के गठन को संभव बनाया है, के लिए आवश्यक क्लिष्टतम एंज़ाइम तथा प्रोटीन की पूर्ति, पशुपालन तथा कृषि विकास से पहले, केवल तरह-तरह के माँस भक्षण से ही संभव थी।
जो प्रकृति के विकास के नियम को नहीं मानते, उनके लिए अपने पूर्वाग्रह, कि मानव हमेशा से ही शाकाहारी रहा है तथा मांसाहार मानव की प्रकृति नहीं है, से छुटकारा पा पाना असंभव है। माँसाहार पर किसी भी प्रकार की पाबंदी लगाने का कोई औचित्य नहीं है सिवाय पूर्वाग्रह के।
25 सितंबर, 2015

Thursday 3 September 2015

आरक्षण : व्यक्तिगत न्याय की ओट में सामूहिक अन्याय

आरक्षण : व्यक्तिगत न्याय की ओट में सामूहिक अन्याय
(सुरेश श्रीवास्तव का यह लेख 'मार्क्स दर्शन' के अप्रैल-जून 2011 के अंक में छपा था और आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था)

            व्यक्तियों से समाज बनता है या व्यक्ति समाज का अंग है। ये दोनों कथन समानार्थी प्रतीत होते हैं पर अर्थ का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर अंतर समझना कठिन नहीं है। अंतर्निहित अति सूक्ष्म अंतर के कारण इन दोनों कथनों पर आधारित विचार विस्तरण पर परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों का निर्माण करते हैं।
            पहली धारणा में ध्यान व्यक्ति पर केंद्रित होने के कारण अंतर्सम्बंधों का और उनके अंतर्विरोधों तथा परिवर्तनों का सही आंकलन संभव नहीं है। किसी समाज के सभी व्यक्तियों की प्रवृत्ति और मानसिकता को एकसा मान लिया जाता है। व्यक्ति के विकास और परिवर्तन को समाज के विकास और परिवर्तन का पर्याय मान लिया जाता है। एक व्यक्ति की उपलब्धि को सारे समाज की उपलब्धि मान लिया जाता है। एक व्यक्ति की प्रगति को समाज की प्रगति मान लिया जाता है।
            दूसरी धारणा में ध्यान समाज पर केंद्रित होने के कारण अंतर्सम्बंधों और उनके अंतर्विरोधों तथा परिवर्तनों का सही आंकलन संभव हो सकता है। समाज का विकास समय काल पर निर्भर करता है न कि व्यक्ति विशेष पर। समकालीनों के संदर्भ में व्यक्ति विशिष्ट नजर आ सकते हैं पर समाज के संदर्भ में व्यक्ति विशेष की उपस्थिति या अनुपस्थिति गौण हो जाती है। सामाजिक विकास की दिशा और गति प्राकृतिक नियमों से निर्धारित होती है न कि विशिष्ट व्यक्तियों की इच्छा से।
            वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में, सामाजिक न्याय की व्याख्या, पहली धारणा के आधार पर करने के कारण व्यक्तिगत न्याय को सामाजिक न्याय का पर्याय मान लिया जाता है। निहित स्वार्थ के चलते कुछ व्यक्तियों के न्याय की चादर से सारे समाज के साथ किये जा रहे अन्याय को ढक दिया जाता है। भारतीय समाज में पिछड़ों को आरक्षण सामाजिक न्याय की अवधारणा के अनुकूल है या विपरीत है यह दृष्टिकोण भी इस पर निर्भर करेगा कि आरक्षण का विचार ऊपर दिए गए पहले कथन पर आधारित है या दूसरे पर।
            सदियों से भारतीय समाज कई छोटे-छोटे समाजों, जिनके अपने सदस्यों में, कुछ मानदंडों पर, समानता है पर दूसरे समाजों के साथ भिन्नता और टकराहट है, में बंटा नजर आता है परंतु यथार्थ में सारा भारतीय समाज और उसके छोटे-छोटे समाज मुख्यतः दो परस्पर विरोधी वर्गों में बंटे हैं। एक वर्ग वह है जिसका प्राकृतिक संसाधनों, सामाजिक परिसंपत्ति और उत्पादन के साधनों पर आधिपत्य, उस वर्ग के सदस्यों के व्यक्तिगत या सामूहिक स्वामित्व के रूप में, है और इस वर्ग के सदस्य अपने आर्थिक तथा सामाजिक हितों की पूर्ति के लिए इन्हीं साधनों का प्रयोग करते हैं। दूसरा वर्ग वह है जो अपने सदस्यों के व्यक्तिगत या सामूहिक श्रम द्वारा साधनों का उपयोग कर प्राकृतिक संसाधनों को उपयोगी उत्पाद में परिवर्तित करता। जाहिर है उत्पाद पर स्वामित्व पहले वर्ग का ही होता है। दूसरे वर्ग को उत्पाद के अंदर निहित उसके श्रम के तुल्य मुआवजा मिला है या नहीं यह आंकलन इस बात पर निर्भर करेगा कि आंकलन का दृष्टिकोण ऊपर लिखे दोनों कथनों में किस पर आधारित है।
            सामाजिक परिसंपत्ति में सदियों में हुई वृद्धि दर्शाती है कि सामूहिक रूप से समाज ने खर्च से अधिक उत्पादन किया है। तकनीक के विकास के साथ उत्पादकता बढ़ती है जिसके फलस्वरुप वेतन और लाभ में वृद्धि अवश्यंभावी है। ऊपरी तौर पर श्रमिक को उसके श्रम का उचित मुआवजा दिया जाता है पर वास्तव में मुआवजा उसके मूल्य से कम होता है। उत्पाद में श्रम के मूल्य और श्रम के मुआवजे का अंतर (अतिरिक्त श्रम), बचत के रूप में सदियों से संचित होता रहा है। चूंकि संसाधनों पर स्वामित्व वाले वर्ग का ही उत्पाद पर अधिकार होता है इस कारण संचित बचत पर भी उसी का स्वामित्व होता है। यही कारण है कि तकनीक के विकास के साथ उत्पादकता और सामूहिक संपत्ति बढ़ने के बावजूद संपन्न और विपन्न वर्गों के बीच की खाई बढ़ती जाती है। अगर भिन्न वर्गों के वेतनभोगियों के वेतन और उद्यमियों के लाभ का विश्लेषण किया जाए तो यह बात साफ-साफ देखी जा सकती है कि जहां उत्पाद के मूल्य में उत्पादक श्रम के योगदान के मुकाबले उत्पादक श्रम का मुआवजा या वेतन कम होता है वहीं गैर-उत्पादक श्रम का मुआवजा अधिक होता है जबकि सामाजिक न्याय का तकाजा है कि श्रम का मुआवजा उत्पादन में मूल्य के अनुपात में होना चाहिए।
            समाज और अर्थव्यवस्था में आर्थिकोपार्जन करने वाले विभिन्न व्यक्तियों को उत्पादन में योगदान के आधार पर मुख्य रूप से तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। एक वे जिनका श्रम सीधे-सीधे उत्पादन में काम आता है या उससे सीधे-सीधे जुड़ा होता है। दूसरे वे जिनके पास संसाधनों का प्रत्यक्ष या परोक्ष स्वामित्व होता है। तीसरे वे जो विभिन्न प्रकार की सेवाएं प्रदान करते हैं। सेवाएं भी उनकी प्रकृति के आधार पर दो भागों में बांटी जा सकती हैं, पहली वे जो उत्पादन, उसके संसाधनों के विकास और उसके वितरण को सुगम बनाती हैं तथा दूसरी वे जो संसाधनों के स्वामित्व की देख-रेख करती हैं और उसे मान्यता प्रदान करती हैं।
            तकनीक के विकास के साथ अनुपातिक वृद्धि के क्रम में सबसे नीचे उत्पादन से जुड़े श्रम का वेतन, फिर उससे जुड़ी सेवाओं का वेतन, उससे ऊपर स्वामित्व से जुड़ी सेवाएं और सबसे ऊपर स्वामित्व से अर्जित लाभ। जहां सबसे नीचे के क्रम पर वार्षिक वृद्धि दर बमुश्किल दस प्रतिशत होती है वहीं सबसे ऊंचे क्रम पर वृद्धि दर दसियों प्रतिशत से लेकर कई सौ प्रतिशत तक है। सामूहिक साधनों और सुविधाओं का उपभोग भी इसी क्रम में है।
            शुरू में हर व्यक्ति उत्पादक श्रम करता था और उत्पादन उत्पादकों के उपभोग के लिए किया जाता था। परंतु तकनीक के विकास के साथ श्रम की उत्पादकता बढ़ी और उसके साथ उपभोग से अधिक उत्पादन भी। यहीं से समाज का दो वर्गों में विभाजन शुरू हुआ। एक वर्ग जो उत्पादन में जुटा था दूसरा जो अतिरिक्त उत्पादन पर आधिपत्य हासिल करने में व्यस्त था। अतिरिक्त उत्पादन पर आधिपत्य के साथ दूसरे वर्ग की ताकत बढ़ती गई और जहां शुरू में आधिपत्य हासिल करने और उसकी रखवाली करने में उसे श्रम करना पड़ता था वहीं ताकत बढ़ने के साथ उसने पहले वर्ग के कुछ लोगों का श्रम अपना आधिपत्य हासिल करने और उसकी रखवाली करने के लिए खरीदना शुरू कर दिया। शुरू में जहां दूसरा वर्ग पहले वर्ग पर अपनी पकड़ बनाने के लिए शारीरिक बल का प्रयोग करता था वहीं अब तकनीक के विकास और संसाधनों पर अपने आधिपत्य के कारण वैचारिक और मानसिक स्तर पर पकड़ बनाना संभव हो गया। धर्म और जाति आधारित विचारधाराओं के प्रादुर्भाव से यह पकड़ व्यक्तिगत स्तर से उठकर सामाजिक और सामूहिक स्तर पर पहुंच गई। वर्चस्व शारीरिक स्तर पर कम और मानसिक स्तर पर अधिक होने के कारण दूसरे वर्ग का संसाधनों पर आधिपत्य और पहले वर्ग पर पकड़ अधिक कारगर और मान्य हो गई।
            संसाधन सदियों से संचित अतिरिक्त श्रम है और नैतिक तौर पर सारे समाज का उस पर अधिकार है। संसाधनों पर जब तक एक वर्ग विशेष का आधिपत्य है तब तक सामाजिक न्याय की बात बेमानी है। सामाजिक न्याय तभी संभव है जब संसाधनों का स्वामित्व सामूहिक रूप से समाज के पास होगा न कि एक वर्ग विशेष के पास और उत्पादन सामाजिक उपयोग और उपभोग के लिए होगा न कि चंद विशिष्ट व्यक्तियों की हवस और तृष्णा पूर्ति के लिए। जाहिर है विशिष्ट वर्ग को यह स्थिति किसी भी हाल में स्वीकार नहीं है जबकि सामाजिक न्याय और आम जन के लिए यही अनिवार्य है। इस कारण दोनों वर्गों के बीच टकराव और सामाजिक न्याय की दिशा में समाज को ले जाने के लिए आम जन का संघर्ष अपरिहार्य है। कोई भी कदम जो इस संघर्ष को आगे ले जाता है या तीव्र करता है, स्वागत योग्य है।
            सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है कि दलित और पिछड़े वर्ग के सदस्यों की क्षमता इस प्रकार विकसित की जाए कि वे एक बड़ी संख्या में, न कि सीमित संख्या में, उच्च जातियों के सदस्यों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए समाज के विकास में योगदान दे सकें। जाहिर है कम उम्र से क्षमताएं विकसित करने की आवश्यकता है न कि स्पर्धा का मानदंड नीचा करने की। चूंकि बच्चों की क्षमताएं विकसित होने में दस से बीस वर्ष लगते हैं, अंतरिम दौर में जब कि एक पूरी पीढ़ी विकसित हो रही है, आरक्षण का प्रावधान, यह सुनिश्चित करते हुए कि सामाजिक न्याय की प्रक्रिया किसी भी प्रकार से क्षीण न हो, किया जा सकता है।
            आरक्षण की अवधारणा है कि जो सदियों के सामाजिक शोषण और वर्जना के कारण दलित और पिछड़े हुए हैं उनके पिछड़ेपन की उचित क्षतिपूर्ति की जाए इस कारण आरक्षण का उद्देश्य उचित स्पर्धा के लिए, वंचना के कारण उपजी, अक्षमता को निरस्त करने की कोशिश करना है। इस संदर्भ में एक व्यक्ति, जिसके कम-से-कम एक अभिभावक को आरक्षण का लाभ लेते हुए एक दशक से अधिक हो गया है, उस व्यक्ति, जिसके किसी भी अभिभावक को आरक्षण का लाभ नहीं मिला है, की तुलना में दलित या पिछड़ा नहीं माना जा सकता है। अगर मलाईदार तबके को आरक्षण के लाभ से वंचित नहीं किया जाता है तो सामाजिक न्याय का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
            किसी भी वर्ग में व्यक्तियों की व्यक्तिगत, शारीरिक और मानसिक क्षमता बराबर नहीं होती है। संघर्षरत वर्ग में कुछ व्यक्ति संघर्ष को दिशा देने और उसकी धार तेज करने में और सदस्यों की तुलना में अधिक सक्षम होते हैं। ऐसे व्यक्ति जहां शोषित वर्ग के लिए मूल्यवान होते हैं वहीं शोषक वर्ग के लिए राह के रोड़े होते हैं। शुरू में विद्रोह की आवाज दबाने के लिए शारीरिक बल का खुला प्रयोग किया जाता था पर कालांतर में विद्रोहियों को बीन कर संघर्ष की धार कुंद करने में प्रलोभन ज्यादा आसान और कारगर होने लगे।
            वर्तमान में सरकारी नौकरियों में और उच्च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा संस्थानों में दलित और पिछड़ों के लिए आरक्षण की मांग इस धारणा पर आधारित है कि सदियों से दबी कुचली जाति के लोगों से सीमित अवसरों को हासिल करने के लिए ऊंची जाति के लोगों के साथ बराबरी से प्रतियोगिता की मांग करना न्यायोचित नहीं है और उनको मुख्य धारा में लाने के लिए और उनकी क्षमता बढ़ाने के लिए, उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक कमजोरी को देखते हुए, यह आवश्यक है कि उनके लिए कुछ स्थान आरक्षित कर दिए जाएं ताकि उनको गैर-बराबर प्रतियोगिता का सामना न करना पड़े। अवसर मिल जाने पर समय के साथ वे क्षमताएं हासिल कर लेंगे और इस प्रकार यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक कारगर कदम होगा।
            इस धारणा में मूलभूत गलती यह है कि दलित और पिछड़ी जाति के कुछ लोगों को पूरे वर्ग का पर्याय मान लिया गया है, उन्हें प्राप्त अवसरों का सारे वर्ग को प्राप्त अवसरों से घालमेल कर दिया गया है। उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार को सारे दलित और पिछड़े वर्ग की क्षमता और सामाजिक स्थिति में सुधार का पर्याय मान लिया गया है।
            दूसरी गलती -मात्रात्मक परिवर्तन ही गुणात्मक परिवर्तन में बदल जाते हैं- के सिद्धांत को लागू करने में है। छोटे-छोटे परिवर्तन मिलकर क्रांतिकारी परिवर्तन लाते हैं, थोड़े-थोड़े लोगों की स्थिति में सुधार लाकर अंततः सारे समाज में सुधार लाया जा सकता है, कदम-ब-कदम चल कर मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन का सिद्धांत तब लागू होता है जब मात्रात्मक परिवर्तन जुड़ते जाते हैं और कदम-ब-कदम चल कर मंजिल पर तब पहुंचा जा सकता है जब अगला कदम पिछले कदम से आगे ले जाए। अगर पिछला मात्रात्मक परिवर्तन अगले मात्रात्मक परिवर्तन का विरोधी हो जाए तो मात्रात्मक परिवर्तन कभी भी गुणात्मक परिवर्तन में परिवर्तित नहीं हो सकता है। एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलकर कभी भी मंजिल पर नहीं पहुंचा जा सकता है।
            जिन लोगों को आरक्षण का लाभ मिल जाता है वे यह भूलकर, कि उनके दलित और पिछड़े होने का एकमात्र कारण संसाधनों और परिसंपत्तियों का सामूहिक स्वामित्व न होकर व्यक्तिगत स्वामित्व होना है, स्वयं व्यक्तिगत स्वामित्व के न केवल पैरोकार हो जाते हैं बल्कि स्वयं भी उस होड़ में शामिल हो जाते हैं। अपनी सुधरी स्थिति का लाभ उठाकर गैरबराबरी की प्रतियोगिता में अपने ही वर्ग के अन्य पिछड़ों को उनके अवसरों से वंचित कर देते हैं। इस कारण वर्तमान आरक्षण प्रक्रिया सामाजिक न्याय के संघर्ष में मारीचिका के सिवाय कुछ भी नहीं है।
            दलित और पिछड़े वर्ग के दस क्षमतावान व्यक्तियों, जो सामाजिक न्याय को समझ और उसके लिए संघर्ष कर सकते हैं, में से एक को आरक्षण का लाभ दे कर सामाजिक न्याय की दुहाई दी जाती है और उस दिशा में इसे एक कदम बताया जाता है। पर यह एक आरक्षण बाकी नौ के लिए प्रलोभन का काम करता है। वे एक झूठी आशा के साथ, कि शायद कभी उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिल जाए, आरक्षण की मारीचिका के पीछे दौड़ते रह जाते हैं। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण वे समझ नहीं पाते कि जहां एक को आरक्षण का लाभ मिलना तय है वहीं नौ को न मिलना भी तय है। समय के साथ उनके दिलों में जल रही विद्रोह की ज्वाला शांत हो जाती है। यह एक आरक्षण न केवल सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष की धार कुंद कर देता है बल्कि संघर्ष को दस कदम पीछे धकेल देता है।
'जाहिर है मलाईदार तबके के पार्थक्य बिना आरक्षण सामाजिक न्याय के लिए घातक है।'

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Wednesday 2 September 2015

(प्रसिद्ध टीवी एंकर रवीश कुमार के नाम खुला पत्र)

(प्रसिद्ध टीवी एंकर रवीश कुमार के नाम खुला पत्र)
प्रिय रवीश जी,
19 अगस्त 2015 को मैंने निम्नलिखित टिप्पणी की थी,
"रवीश जी, आप एंकर हैं। आप और आपके साथियों अभिज्ञान, निधी, नग़मा आदि की एंकर की भूमिका से मैं एक हद तक संतुष्ट हूँ। आप लोग आगंतुक वक्ताओं को घेरने और उन्हें बहस को विषय से भटकाने के प्रयास में सफल न होने देने में काफ़ी हद तक कामयाब रहते हैं। पर बहस के निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले ही आप अपनी पकड़ छोड़ देते हैं। आप लोगों की मजबूरी समझ सकता हूँ। आप आगंतुक वक्ताओं को पूरी तरह ध्वस्त हो जाने देंगे तो फिर वे आपके मंच पर आएँगे क्यों और फिर आपकी टीआरपी का क्या होगा। पर आप थोड़ा और सजग प्रयास करें तो आप वक़्ता को असहज किये बिना सैद्धांतिक धुंध को साफ़ करने में और अधिक योगदान दे सकते हैं।"
मैं जानता हूँ कि आपको मेरी टिप्पणी देखने का अवसर भी नहीं मिला होगा क्योंकि आपके दोस्तों की संख्या हज़ारों में पहुँच चुकी है और चाहनेवालों की संख्या लाखों में। आपको टिप्पणियां पढ़ने की ज़रूरत भी नहीं है। आपके लिए लाइक तथा कमेंट्स की संख्या में विस्तार होते रहना ही काफी हैं क्योंकि लोकप्रियता का वही पैमाना है। आपको पता है अधिकांश में आपके व्यक्तित्व और टीवी प्रोग्राम की आकर्षकता के बारे में ही टिप्पणी की गयी होगी और किसी भी निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी के लिए इस प्रकार की लोकप्रियता पा लेना अत्याधिक संतोषजनक होना चाहिए। पर जैसा मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में रेखांकित किया था, मैं आपको सूचना प्रसारक से उपर चिंतक के रूप में भी देखता हूँ जो स्वयं की उपलब्धि, अपनी लोकप्रियता में न देखकर, नई पीढ़ी को सामाजिक परिवर्तन के लिए रास्ता तलाशने के प्रयासों में मार्ग दर्शन कर सकने की अपनी परिस्थिति और क्षमता के उपयोग में देखता है। पर पिछले दिनों फ़ेसबुक पर आपकी पोस्ट देखकर निराशा हुई है। सामूहिक समस्याओं के मूल को समझने में मदद देने वाले बौद्धिक चिंतन की जगह, व्यक्तिगत आलोचनाओं पर आप ज़्यादा तवज्जों देते नजर आ रहे हैं। शायद अपने प्रशंसकों के क्रश के दबाव से आप मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।
कोई अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को अधिक महत्व दे या समाजिक सरोकारों को, इसका चुनाव तो उस व्यक्ति को ही करना होता है पर मार्क्सवादी होने के नाते मेरा मानना है कि व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित एक दूसरे के पूरक हैं और उनके द्वंद्वात्मक संबंध को ठीक से तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को पूरी तरह आत्मसात न कर लिया जाय। मुझे नहीं पता कि आप मार्क्सवाद से किस हद तक सहमत हैं, पर आपकी टिप्पणियों से एक बात साफ़ है कि मार्क्सवाद के बारे में आपका ज्ञान भी अधिकांश मार्क्सवादियों की तरह सतही है। मार्क्स ने समझाया था कि 'सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है और पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब वह तब करता जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल से समझना।' पिछले 90 साल से भारत में वामपंथी आंदोलन का जो हाल है उसका एक ही कारण है कि अधिकांश को मूल्य तथा मुद्रा का, या पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया तथा पूँजीवादी उत्पादन-व्यवस्था का, या काल्पनिक-समाजवाद तथा वैज्ञानिक-समाजवाद का अंतर ही नहीं पता है। एंगेल्स ने समझाया था, ' अमूर्त चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण, केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में ही है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और इसके परिष्कार का और कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन किया जाय।' और इन मूल श्रेणियों से संबंधित विषयों पर सार्वजनिक विमर्श करने पर कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने सदस्यों के ऊपर कर्फ़्यू लगा रखा है। शायद, सदस्य संख्या बढ़ाने के लिए, उन्हें लोक लुभावन नारे तथा तात्कालिक आंदोलन ज़्यादा कारगर नजर आते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि कारगर आंदोलन चलाने के लिए उनके सदस्यों की, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विश्लेषण की क्षमता विकसित होना आवश्यक है, ये ख़तरा अवश्य है कि ये बात अंधानुकरण की प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ जाती है। पर आपके लिए तो ऐसा कोई ख़तरा नहीं है। सैद्धांतिक विषयों को सार्वजनिक विमर्श के दायरे में लाना आपके व्यावसायिक हितों के ख़िलाफ़ भी नहीं जाता है।
मार्क्स ने पी. अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र में लिखा था, “……निम्न मध्यवर्गीय आनेवाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।” तथा “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न-मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च वर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी।” आप युवा वर्ग में लोकप्रिय भी हैं और अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सजग भी हैं। आप ज़िंदगी के उस मुक़ाम पर पहुँच चुके हैं जहाँ आप अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों से संतुष्ट महसूस कर अपने प्रयासों को या तो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की अगली सीढ़ी ओर मोड़ सकते हैं या सामाजिक दायित्व निर्वहन की ओर। यह, ऐतिहासिक भूमिका निभाने के लिए वक़्त के द्वारा आपको दिया गया मौक़ा है, चुनाव आपको करना है।
शुभकामनाओं सहित
सुरेश श्रीवास्तव
3 सितंबर, 2015