Friday 7 August 2015

अयोध्या विवाद - एक समाधान यह भी

अयोध्या विवाद - एक समाधान यह भी
(यह लेख उद्भावना के नवंबर 2010 के अंक में छपा था)

            पूंजीवादी जनतंत्रों (शोषक वर्ग की तानाशाही) में अदालतें राज्य व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग होती हैं क्योंकि वर्ग संघर्ष की तीव्रता कुंठित करने हेतु वर्ग निरपेक्षता के आडंबर के लिए न्यायिक प्रणाली सबसे कारगर मुखौटा साबित हुआ है। किसी भी राजनैतिक, आर्थिक या सामाजिक समस्या (एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के अधिकारों का अतिक्रमण) के निराकरण के लिए उच्च तथा उच्चतम न्यायालय अंतिम व्यवस्था के रूप में सर्वमान्य हैं क्योंकि वे आमतौर पर निरपेक्ष न्याय प्रदान करते हैं। साधारणतया विवाद पूंजीवादी जनतंत्र के मूल आधार के लिए संकट पैदा नहीं कर रहे होते हैं इस कारण न्यायालयों के लिए निरपेक्ष होकर न्याय प्रदान करने में कोई समस्या नहीं होती है। पर अगर किसी विवाद का न्यायपूर्ण हल पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था के मूल आधार के लिए खतरा पैदा कर सकता है तो न्यायालयों के लिए निरपेक्ष रहना असंभव हो जाता है क्योंकि ऐसा न्याय आत्मघाती होगा।
            दुर्भाग्य से अयोध्या एक ऐसा मसला है जिसमें निरपेक्ष न्याय भारतीय पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। इसे पूरी तरह समझने के लिए यह समझना जरूरी है कि अयोध्या विवाद क्या है, कब शुरु हुआ तथा कौन से तथ्य सर्वमान्य हैं, कौन से विवादग्रस्त हैं और इस विवाद में सही-सही पक्ष कौन से हैं, न केवल अदालत के समक्ष बल्कि अदालत के बाहर भी और निरपेक्ष न्याय किस रूप में व्यवस्था के मूल आधार के लिए घातक है।
            समस्या का एक आयाम ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है इस कारण समस्या का विश्लेषण करते समय दो बातों को ध्यान में रखना होगा। एक तो यह कि समाज का जीवन तथा विकास निरंतर तार्किक प्रक्रिया है और दूसरा सामाजिक परिवर्तन प्रक्रिया में अनेकों संभावनाएं निहित होती हैं और तथ्य तथा संभावना में भेद न कर पाना गलत होता है। इस कारण अगर किन्हीं तथ्यों पर आधारित किसी ऐतिहासिक अवधारणा में निरंतरता खंडित या तार्किकता असंबद्ध नजर आती है तो ऐसे तथ्यों तथा ऐसी अवधारणा का पुनर्मूल्यांकन तथा पुनव्र्याख्या आवश्यक हो जाते हैं।
            समस्या का एक आयाम हिंदू तथा मुसलमानों की धार्मिक आस्था से भी संबंधित है इस कारण यह भी ध्यान रखना होगा कि व्यापक हिंदू और मुसलमान समाज अपने आप में, न केवल विभिन्न देवी-देवताओं, पैगम्बरों तथा धार्मिक नेताओं में आस्था के कारण अनेकों संप्रदायों में बंटे हैं बल्कि राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक निजी स्वार्थों के कारण भी अनेकों समुदायों तथा समूहों में बंटे हैं। इस कारण कुछ-एक व्यक्तियों या समूहों का दावा कि वे अपने-अपने व्यापक समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं सिद्धांततः गलत है तथा समस्या का विश्लेषण करते समय उनके सुझाव और मांगें दावे के रूप में अमान्य होने चाहिए।
            अयोध्या-समस्या का आधार है वह भूमि है जिस पर लगभग साढ़े चार सौ साल पुरानी ऐतिहासिक इमारत जिसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था और जिसके, कुछ हिंदू संगठन, भगवान राम के जन्म स्थान होने का दावा करते हैं, खड़ी थी और जिसे, उस समय की केंद्रीय तथा राज्य सरकारों के उच्चतम न्यायालय को दिये गये आश्वासनों के बावजूद, गैर-कानूनी तथा अलोकतांत्रिक तरीके से 6 दिसम्बर 1992 को जमींदोज कर दिया गया।
            आमतौर पर समस्या अधिकारों के अतिक्रमण को लेकर होती है और यहां भी समस्या भूमि के स्वामित्व को लेकर ही है। जहां कुछ हिंदू संगठनों का दावा है कि भगवान राम उसी जगह पैदा हुए थे, उस स्थान पर प्राचीन काल से मंदिर बना हुआ था तथा शाहंशाह बाबर के शासन में मंदिर गिरा कर उस जगह मस्जिद का निर्माण किया गया था वहीं मुसलमान संगठनों का दावा है कि बाबर के शासनकाल में मस्जिद का निर्माण खाली जगह पर किया गया था न कि किसी धार्मिक स्थल को गिराकर।
            ऐतिहासिक इमारत का निर्माण 1528 में बाबर के शासनकाल में हुआ था इस बारे में सभी पुरातत्त्ववेत्ता तथा इतिहासकार एकमत हैं। लगभग साढ़े तीन सौ साल 1528 से 1885 के बीच कोई भी साक्ष्य या दस्तावेज नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि इमारत तथा भूमि को लेकर हिंदू तथा मुसलमानों के बीच कोई मतभेद था या और किसी रूप में धार्मिक आसहिष्णुता थी। बल्कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू मुसलमान एक साथ मिलकर लड़े थे तथा उत्तर मध्य भारत में बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट भी स्वीकार किया गया था।
            विवाद को कानूनी दायरे में 29 जनवरी 1885 में पहली बार लाया गया जब महंत रघुबर दास द्वारा अदालत के सामने रामजन्मस्थान के लिए दावा पेश किया गया। सब-जज पंडित हरिकिशन ने मूल दावे में तथा जिलाधीश चामियर ने अपील में हिंदू पक्षकार को राहत देने से इनकार कर दिया पर आश्चर्यजनक रूप से दोनों ने अपने अपने आदेशों में टिप्पणी शामिल कर दी कि हिंदुओं के पूजास्थल को गिराकर उस स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया था बावजूद इसके कि दावे में ऐसा कोई भी दस्तावेज पेश नहीं किया गया था जो हिंदुओं के पूजास्थल को गिराकर उस स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किये जाने के दावे को तथ्य के रूप में दर्शाता। पर इस एक टिप्पणी से मजबूत हिंदू-मुसलमान एकता में ऐसा पच्चर ठोंक दिया गया जिसने आने वाले दिनों में हिंदू-मुसलमान एकता को ध्वस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की आजादी की लड़ाई के तीव्र होने के साथ-साथ हिंदू-मुसलमान वैमनस्यता ने इतना कटु रूप धारण किया कि लाखों लोगों की कुर्बानियों के साथ-साथ देश के बंटवारे की कीमत भी भारत की जनता को चुकानी पड़ी, उस आजादी के लिए जिसमें 90 प्रतिशत जनता की आर्थिक आजादी आज भी संदेह के कटघरे में खड़ी है। आजादी मिलने के बाद 22-23 दिसम्बर 1949 की रात चोरी-छिपे रामलला की मूर्तियां ऐतिहासिक इमारत के अंदर रख दी गयी थीं। 1986 में ताले खुलवाने से पहले तक पूजा-अर्चना गैर-कानूनी तरीके से की जाती रही थी, 6 दिसम्बर 1992 में उच्चतम न्यायालय को दिये गये आश्वासनों के बावजूद केंद्रीय तथा राज्य सरकारें उन्मादी हिंदू कार-सेवकों की भीड़ द्वारा ऐतिहासिक इमारत को गिराये जाने से रोकने में असफल रहीं और गैर-कानूनी तरीके से किये गये विध्वंस के प्रतिकार स्वरूप ध्वस्त की गई ऐतिहासिक इमारत के पुनर्निर्माण की दिशा में सरकार ने कोई पहल नहीं की है ये ऐतिहासिक तथ्य हैं जिन्हें सभी इतिहासकार निर्विवाद रूप से मानते हैं और आम जनता भी जानती है। और अब धर्मनिरपेक्ष संविधान तथा कानून को नजरअंदाज कर हिंदू पक्षकारों के आस्था के दावे के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ द्वारा दिये गये निर्णय ने हिंदुओं के धार्मिक उन्माद और हिंदू-मुसलमान वैमनस्यता को नये शीर्ष पर पहुंचा दिया है।
            आज अयोध्या विवाद को समझने के लिए उस समय के कुछ और तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
            1857 में शुरु हुए विद्रोह को काबू में करने के बाद 1858 में बर्तानवी साम्राज्य ने भारतीय उपनिवेश की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली। साम्राज्य ने सबसे पहला काम किया कंपनी की सेना जिसमें मुख्यतया मध्यभारत के अवध राज्य के ब्रााहृण तथा मुसलमान थे, को विघटित कर सेना का क्षेत्रीय तथा जातीय आधार पर पुनर्गठन करना। दूसरा महत्वपूर्ण काम था भारतीय दंड संहिता (IPC1860) को लागू करना। तीसरा महत्वपूर्ण काम था इंपीरियल पुलिस सर्विस तथा इंपीरियल सिवल सर्विस का गठन जो आज के स्वतंत्र भारत में आई. पी. एस. तथा आई. ए. एस. के नाम से जानी जाती हैं। इसके साथ ही एक और नीतिगत निर्णय भी लिया गया। जहां कंपनी ने धार्मिक रूढ़िवादिता को समाप्त करने के लिए सती-प्रथा पर पाबंदी लगाने जैसे प्रगतिशील काम किये थे वहीं साम्राज्य ने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का निर्णय कर धार्मिक रूढ़िवादिता तथा धर्मांधता को बढ़ावा देने के लिए उपयुक्त माहौल प्रदान किया। इस प्रकार साम्राज्य ने जहां आई.पी.सी., आई.पी.एस. तथा आई.ए.एस. के जरिए धर्मनिरपेक्षता का चेहरा दर्शाया वहीं सेना के पुनर्गठन तथा नीतिगत निर्णयों के जरिए हिंदू-मुसलमान एकता को ध्वस्त करने की परोक्ष रणनीति अपनाई।
            साम्राज्य को अपनी औपनिवेशिक नीतियां लागू करने के लिए एक ऐसे संगठन की आवश्यकता थी जो दिखावटी तौर पर भारतीय राष्ट्रीयता से प्रेरित नजर आये पर वास्तव में साम्राज्य के हितों के अनुरूप काम करे और इसके लिए 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई। संस्थापक थे लॉर्ड ए. ओ. ह्रूम। वही ए. ओ. ह्रूम जो 1857 में इटावा के कलेक्टर थे और जिन्होंने विद्रोह को कुचलने के लिए हजारों निरीह आदमियों, औरतों और बच्चों को गांव-गांव में जाकर कत्ल किया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल किये गये भारतीय उस वर्ग से थे जो कंपनी राज में कंपनी की दलाली का काम किया करते थे और भद्रलोग कहलाते थे। इस प्रकार धर्म निरपेक्ष नजर आने वाली पर वास्तव में भारतीय अवाम को तकसीम करने वाली साम्राज्य की औपनिवेशिक नीतियों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को। यह महज संयोग नहीं है कि हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग जैसे कट्टर धार्मिक संगठनों को आधार प्रदान करने वाले पं. मदन मोहन मालवीय तथा मुहम्मदअली जिन्ना जैसे लोग किसी समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर काबिज थे। अनेकों राष्ट्रभक्त नेताओं की मौजूदगी के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज भी अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से छुटकारा नहीं पा पाई है। 1949 दिसम्बर में आधी रात ऐतिहासिक इमारत के अंदर रामलला की मूर्तियां रखवाकर पूजा शुरु करवाना, 1984 में सिख विरोधी दंगों का नेतृत्व, 1986 में शाहबानो मामले में संविधान संशोधन तथा रामलला की पूजा के लिए ऐतिहासिक इमारत का ताला खुलवाना जैसे उदाहरण, भारतीय अवाम को सांप्रदायिक वैमन्स्य के आधार पर बांटने की अंग्रेजों की रणनीति तथा मानसिकता की निरंतरता के ही द्योतक हैं।
            उपर्लिखित ऐतिहासिक तथ्यों के अलावा कुछ और संभावनाएं तथा सामाजिक यथार्थ हैं जिन्हें तार्किक आधार पर इस मामले में ऐतिहासिक तथ्यों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
            पूर्व-आधुनिक काल से पहले यानि सोलहवीं शताब्दी की शुरुआत तक राजसत्ता पूरी तरह धर्म के आधीन होती थी और राज्यों के बीच के झगड़े सीधे-सीधे युद्ध के द्वारा निपटाए जाते थे इस कारण पराजित पक्ष को मानसिक रूप से पंगु तथा प्रतिरोध के अयोग्य बनाने के लिए विजयी पक्ष द्वारा परास्त पक्ष के प्रमुख धार्मिक प्रतीकों तथा पूजा स्थलों को नष्ट करने के अभियान सामान्य बात थी।
            आदिकाल में एक राज्य का जीवन कुछ शताब्दियों का ही होता था। इसी प्रकार इमारतों का जीवनकाल भी कुछ शताब्दियों का होता था। आबादी का विस्थापन भी अनहोनी बात नहीं थी। इस कारण कुछ सहस्त्राब्दियों में एक ही स्थान पर अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायियों तथा भिन्न-भिन्न धर्मों के पूजास्थलों के होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
            तुलसीदास द्वारा रामचरितमानस अवधी में लिखे जाने से पहले तक रामकथा के भिन्न-भिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप थे इस कारण राम व्यापक हिंदू समाज के आराध्यदेव नहीं थे। कृष्ण और शिव के भक्त भी लगभग उतने ही थे जितने राम के थे और तीनों के बीच व्यापक सामन्जस्य का भी अभाव था। तुलसीदास द्वारा अवधी, जो कि मध्यभारत में आमभाषा थी, में लिखे जाने के कई दशकों बाद ही राम आम हिंदू के आराध्यदेव और कृष्ण-भक्तों तथा शिव-भक्तों के लिए भी उतने ही पूज्यनीय बन सके थे।          
            राजा दशरथ के आदिकाल से लेकर कंपनी राज के आधुनिक काल के बीच मध्य भारत में हिंदू, बौद्ध, जैन और इस्लाम धर्मानुयायी राजाओं ने राज किया है। सभी धर्मों के पूजा स्थल या उनके अवशेष अयोध्या में अनेकों जगह आज भी मौजूद हैं।
            अब हम ऊपर लिखे ऐतिहासिक तथ्यों तथा संभावनाओं और तर्कों के आधार पर अयोध्या विवाद का विश्लेषण कर सकते हैं।
            अयोध्या में विवादित भूमि के बारे में हिंदू पक्षकारों का दावा है कि उस स्थान पर भगवान राम का जन्म हुआ था और आदिकाल से वहां राममंदिर बना हुआ था जिसे मुगल शासक बाबर के सेनापति मीर बकी ने गिरवाकर उस स्थान पर मस्जिद का निर्माण करवाया था। चूंकि राम सारे हिंदू समाज के आराध्य तथा आस्था के प्रतीक हैं इस कारण गुलामी के दौर में किये गये उस अपकार का स्वाधीन भारत में प्रतिकार किया जाना अनिवार्य है। और इस प्रक्रिया में ऐतिहासिक इमारत का ढहाया जाना भी अपराध नहीं माना जाना चाहिए।
            दूसरी ओर मुसलमान पक्षकारों का दावा है कि जिस स्थान पर मस्जिद बनाई गई थी वह खाली स्थान था, उस स्थान पर हिंदुओं का या किसी और धर्म का कोई भी पूजा स्थल नहीं था क्योंकि किसी भी धार्मिक स्थल को तोड़कर उसी स्थान पर मस्जिद तामीर करना इस्लाम के अनुसार नाजायज है। उनके अनुसार अगर रामजन्म मंदिर या कोई और पूजास्थल रहा भी होगा तो वह बाबरी मस्जिद की भूमि से हटकर कहीं और रहा होगा इस कारण हिंदू पक्षकार रामजन्म मंदिर बनाना ही चाहते हैं तो बाबरी मस्जिद की भूमि छोड़कर कहीं भी बना सकते हैं।
            अयोध्या विवाद का बीजारोपण तो 1885 में महंत रघुबर दास के दावे के साथ ही कर दिया गया था पर अयोध्या विवाद अपने मौजूदा स्वरूप में 1949 में खड़ा किया गया था। यह महज इत्तेफाक नहीं था कि 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा द्वारा भारत के संविधान, जिसमें भारत के सभी नागरिकों को अपनी-अपनी आस्था तथा पूजा-पाठ के लिए पूरी आजादी की गारंटी की गयी थी, को पारित करने के एक महीने के भीतर ही 22-23 दिसम्बर 1949 की रात में चोरी-छिपे रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी गयी जिसे तुरंत हटाये जाने के पंडित नेहरू के आदेश के बाद भी नहीं हटाया गया। 1986 में पूजा-अर्चना के लिए ताले खुलवाने तथा 6 दिसम्बर 1992 में ऐतिहासिक इमारत के ढहाये जाने और अब धर्मनिरपेक्ष संविधान तथा कानून को नजरअंदाज कर हिंदू पक्षकारों के आस्था के दावे के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ द्वारा दिये गये निर्णय ने हिंदुओं के धार्मिक उन्माद और हिंदू-मुसलमान वैमनस्यता को नये शीर्ष पर पहुंचा दिया है।
            विवाद के लिए तो अनगिनत मुद्दे खड़े किये गये हैं और किये जा सकते हैं पर मुख्य मुद्दा है कि क्या 1528 में वहां राम या सीता के नाम से कोई मंदिर मौजूद था क्योंकि अगर वहां पर कोई मंदिर था तो फिर उस को गिराकर बाबरी मस्जिद तामीर की गई थी यह तार्किक तौर पर संभावना से बढ़कर तथ्य हो जाता है। पर कई हजारों साल पहले पैदा हुए राम से संबंधित लगभग सभी बातें तथ्यों से अधिक आस्था पर आधारित हैं वहीं पिछली दो-तीन सहस्त्राब्दियों से पिछली कुछ शताब्दियों के बीच अनेकों हिंदू, बौद्ध, जैन धर्माबलंबी राजसत्ताओं का अस्तित्व में होना तथ्यों पर आधारित है। साथ ही कुछ शताब्दियों पहले अगर मंदिरों तथा अन्य पूजास्थलों को ध्वस्त करना इस्लामी कट्टरता का अंग था तो गिराये गये पूजास्थल पर मस्जिद का निर्माण न करना उसी इस्लाम कट्टरता में शामिल है। ऐसी स्थिति में इस बात की अधिक संभावना है कि किसी भी पूजास्थल को ध्वस्त कर उसके स्थान पर मस्जिद नहीं बनायी गयी थी बल्कि बाबरी मस्जिद पहले से खाली जगह पर ही बनाई गयी थी।
            अदालत के समक्ष जो पक्षकार हैं उनका दावा है कि वे व्यापक हिंदू तथा मुसलमान जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि यथार्थ में व्यापक हिंदू तथा मुसलमान समाज को अयोध्या विवाद में किसी पक्ष के साथ सहानुभूति से अधिक उससे दहशत है। आम हिंदू को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि राम ठीक उसी जगह पैदा हुए थे जहां ऐतिहासिक इमारत खड़ी थी या उससे कुछ सौ मीटर या कुछ किलोमीटर दूर पैदा हुए थे। उसके लिए तो सारी अयोध्या तथा वहां मौजूद सभी मंदिर समान रूप से पूज्यनीय हैं। इसी प्रकार सारे भारत के आम मुसलमानों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उस ऐतिहासिक इमारत में रामलला की मूर्तियां रखी हैं या उसमें अयोध्या के मुसलमान नमाज पड़ते हैं। उसे तो फर्क तब पड़ता है जब रामजन्मभूमि की आड़ में उसके जीवन तथा रोजी-रोटी के साधनों पर हमला किया जाता है।
            भारतीय संविधान जहां व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार की तथा धार्मिक आजादी की सुरक्षा सुनिश्चित करता है वहीं पर कुछ समूहों द्वारा धर्म के आधार पर सार्वजनिक संपत्ति पर अधिकार के तथा धार्मिक उन्माद फैलाने के कुटिल प्रयासों को रोकने के लिए सरकार के अधिकार तथा दायित्व को भी सुनिश्चित करता है। भारतीय राष्ट्र-राज्य का दायित्व है कि वह ईमानदारी से, भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त सभी नागरिकों के मौलिक अधिकारों की तथा सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करे और संविधान सभा द्वारा भारतीय संविधान पारित करने के बाद किये गये किसी भी गैर-कानूनी काम का प्रतिकार करे।
            निरपेक्ष न्याय की कसौटी होगी हिंदू तथा मुसलमानों की व्यापक आबादी के बीच धार्मिक सौहार्द के वातावरण की सुनिश्चिति ताकि उनके जीवन तथा जीवन-यापन के साधनों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
            अयोध्या विवाद हल करने के लिए सरकार को चाहिए कि सारी विवादित तथा गैर विवादित 67 एकड़ जमीन जिसके लिए 1993 में कानून बनाया गया था अपने कब्जे में ले, हिंदू तथा मुसलमान दोनों समुदायों से संविधान के अनुपालन तथा आपसी सौहार्द की व्यापक अपील करे, 1992 में गिरायी गयी ऐतिहासिक इमारत का पुनर्निर्माण करवाये, इमारत के ऐतिहासिक महत्व को सुरक्षित रखते हुए रामलला की मूर्तियों की स्थापना तथा पूजा-अर्चना की व्यवस्था करे, ऐतिहासिक इमारत की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए आस्था के अनुरूप हिंदुओं के लिए मंदिर तथा मुसलमानों के लिए मस्जिद निर्माण की व्यवस्था करे। इस प्रकार का हल व्यापक तौर पर हिंदू तथा मुसलमानों के बीच सौहार्द, परस्पर विश्वास तथा एकता सुनिश्चित करेगा इसलिए दोनों समुदायों का बहुमत इसका स्वागत करेगा। न केवल सारे देश के आम मुसलमान बल्कि अयोध्या के मुसलमान भी अपने जीवन तथा रोजी-रोटी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ऐतिहासिक इमारत को हिंदुओं को सौंपने के लिए सहर्ष तैयार हो जाएंगे क्योंकि वे जानते हैं कि जिस प्रकार मक्का उनके लिए पवित्र और महत्वपूर्ण है उसी प्रकार हिंदुओं के लिए राम संबंधित सभी चीजें हैं।          
            पर ऊपर सुझाया गया समाधान जहां हिंदू-मुसलमान एकता का वातावरण तैयार करेगा वहीं वर्ग संघर्ष में शोषित वर्ग की एकजुटता का मार्ग भी प्रशस्त करेगा और यही बात सामंती तथा बुर्जुआ हितों की हिमायती व्यवस्था के लिए घातक है। जाहिर है व्यवस्था में बैठे सामंती तथा बुर्जुआ हितों के पैरोकारों के लिए सुझाया गया समाधान स्वीकार्य नहीं होगा। पर जो लोग शोषित वर्ग के हिमायती होने का दावा करते हैं उनका नैतिक दायित्व है कि इस प्रकार के समाधान को लागू करने की मांग करें।
सुरेश श्रीवास्तव
(9810128813)

अक्टूबर 2010