Thursday 30 April 2015

वामपंथी आंदोलन में विचारधारा का संकट

वामपंथी आंदोलन में विचारधारा का संकट


अभी हाल ही में माकपा की पार्टी की 21वीं कांग्रेस संपन्न हुई है जिसमें सीताराम येचुरी को महासचिव चुना गया है। उन से एक इंटरव्यू में पूछा गया कि क्या कारण है कि उनकी पार्टी आदिवासी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पकड़ नहीं बना पाई है तो उनका जवाब था कि मार्क्सवाद को समझने के लिए एक न्यूनतम शिक्षा का स्तर चाहिए। और माकपा के पूर्ववर्ती महासचिव प्रकाश करात ने कुछ दिन पहले भाकपा की 22वीं कांग्रेस के समक्ष अपने अतिथि वक्तव्य में रेखांकित किया था कि वाम के एक अंश के सशक्तीकरण के फलस्वरूप सारा वाम सशक्त होगा। (We need to acknowledge that the strengthening of one part of the Left will result in the strengthening of the Left as a whole.) दोनों महासचिवों की टिप्पणियाँ माकपा की सामूहिक सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं और तथाकथित मार्क्सवादियों की मार्क्सवाद के बारे में नासमझी को दर्शाती हैं।
कार्ल मार्क्स तथा फ़्रेडेरिक एंगेल्स ने सर्वहारा वर्ग की चेतना की जिस अंतर्वस्तु की पहचान मार्क्सवाद के रूप में की थी, और जिसे परिभाषित करते हुए एंगेल्स ने कहा था कि मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो किसी भी परिस्थिति में उसी तरह सोचे जिस तरह उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता, और जिस मार्क्सवाद के लिए लेनिन ने कहा था कि मार्क्सवाद का सिद्धांत सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है, उस सिद्धांत की व्यावहारिक समझ के लिए औपचारिक स्कूली शिक्षा को आवश्यक मानना, निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता को दर्शाता है। लेनिन ने संशोधनवाद के खिलाफ अपने संघर्ष को केंद्रित करते हुए 1902 में लिखे गये महत्वपूर्ण आलेख, ‘क्या किया जाय’ (What is to be done) में रेखांकित किया था, “काफी तादाद में लोग सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण, उसमें शामिल हो गये हैं” और 1908 में उन्होंने मार्क्स की 90वीं वर्षगाँठ के अवसर पर लिखा था, "कहने की ज़रूरत नहीं है कि सरकारी प्रोफ़ेसरों द्वारा आधिकारिक तौर पर पढ़ाया जानेवाला, विज्ञान तथा दर्शन, सरमायेदारों की युवा पीढ़ी को बहकाने तथा उन्हें बाहरी तथा अंदरूनी दुश्मनों के ख़िलाफ़ तैयार करने के उद्देश्य से पढ़ाया जाता है।" कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन जिसकी नींव निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने देश के बाहर रखी थी शुरू से ही संशोधनवाद के दलदल में फँस गया था जिससे वह आज तक नहीं निकल पाया है।
माकपा की आवधिक पत्रिका The Marxist में, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, समाजवाद, जनवादी केंद्रीयता जैसे सैद्धांतिक विषयों पर छपे अनेकों लेखों से पार्टी की, निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता तथा अवैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित, मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ साफ़ नजर आती है। मार्क्सवाद और समाजवाद में समय के अनुसार बदलाव की ज़रूरत और उन्हें भारतीय परिस्थिति के अनुसार विकासित किये जाने की आवश्यकता पर हर स्तर पर ज़ोर दिया जाता है पर बदलाव या बदले हुए स्वरूप की रूप-रेखा के बारे में संदर्भ पूरी तरह नदारद है। पार्टी के चिंतक, मार्क्सवाद या समाजवाद की संरचना और स्वरूप से पूरी तरह अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। मार्क्सवाद की अंतर्रचना और अधिरचना के द्वंद्वात्मक संबंध को समझे बिना यह समझ पाना या समझा पाना, कि बदलाव आंतरिक संरचना में होना है या बाहरी स्वरूप में, असंभव है।
पिछले 25 वर्षों से जब से भाजपा, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरी है, तथाकथित मार्क्सवादी पार्टियों के लिए जनवाद और गैर-सांप्रदायिकता की सुरक्षा-असुरक्षा भारतीय समाज का मुख्य अंतर्विरोध बन गया है और उनके सारे आंदोलन जनवाद और गैर-सांप्रदायिक मूल्यों की रक्षा पर ही केंद्रित हो गये हैं। लोहियावादी और जयप्रकाशवादी समाजवाद के नाम पर खड़ी की गयीं अनेकों क्षेत्रीय पार्टियां तो हमेशा से ही इन्हीं मूल्यों की दुहाई देती रही हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि वैज्ञानिक-समाजवाद विहीन, सभी तरह के काल्पनिक-समाजवादों की खिचड़ी ही, जनता की नजरों में वामपंथी आंदोलन का पर्याय बन गयी है । कम्युनिस्ट पार्टियां भी अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की तरह कभी कांग्रेस या भाजपा के साथ तो कभी विरोध में खड़ी दिखायी देती हैं, और जनता कांग्रेस तथा भाजपा के विकल्प के रूप में माकपा या भाकपा की जगह आआपा को देखने लगी है । जनमानस के बीच वामपंथ के बारे में व्याप्त भटकाव के इस माहौल में करात का दावा, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के बारे में उनकी नासमझी को जाहिर करता है। वामपंथ के एक अंश का सशक्तीकरण, वामपंथ के अन्य अंशो के निर्बलीकरण या पूरे वाम के निर्बलीकरण के बावजूद भी हो सकता है। अन्ना आंदोलन तथा आआपा के उभरने के साथ कम्युनिस्ट पार्टियों का अपनी जमीन खोना यही दर्शाता है।      
राजनैतिक अर्थव्यवस्था सामाजिक जीवन का आधार है और उसमें सार्थक हस्तक्षेप, सही विचारधारा से लैस एक राजनैतिक पार्टी ही कर सकती है। विभिन्न वर्गों में बंटे समाज में, अपनी परिस्थिति के कारण निम्न मध्यवर्ग के बीच से ही सामाजिक सरोकार रखनेवाले बुद्धिजीवी आते हैं। उन्हीं के बीच से जनता को भ्रमित करने वाले आते हैं  तो उन्हीं के बीच से सर्वहारा वर्ग को मार्क्सवाद के बारे में जागरूक करने और वैज्ञानिक समाजवाद के बारे में शिक्षित करने का दायित्व निबाहने वाले आते हैं। दायित्व का निर्वहन करने के लिए आवश्यक है कि युवा बुद्धिजीवी स्वयं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनायें, अमूर्त चिंतन की क्षमता विकसित करें और मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की और वैज्ञानिक समाजवाद की सही-सही समझ हासिल करें। जैसा कि एंगेल्स ने समझाया था, अमूर्त चिंतन विकसित करने का एक ही रास्ता है, और वह है कि पुराने दर्शन को बार-बार पढ़ा जाय। यहां इस छोटे से लेख में मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम को विस्तार से समझाना संभव नहीं है पर लेखक का प्रयास है कि युवा पाठकों के सामने कुछ मूलभूत बातें और प्रश्न रखे जायें ताकि उनके उत्तर ढूँढने के प्रयास में जागरूक युवा पाठक अपना रास्ता ख़ुद ढूँढ सके।
प्रकृति में किसी भी चीज़ को पूरी तरह समझने के लिए आवश्यक है कि उसकी अंतर्वस्तु अर्थात आंतरिक संरचना तथा अधिरचना अर्थात बाहरी स्वरूप की सही-सही पहचान की जाय और उनके बीच के द्वंद्वात्मक संबंध को ठीक-ठीक समझा जाय। अंतर्वस्तु गुण निर्धारित करती है तो अधिरचना परिवेश के साथ अंतर्व्यवहार को तय करती है। और इस प्रक्रिया में दोनों द्वंद्वात्मक रूप से एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अधिरचना में परिवर्तन मात्रात्मक होते हैं तो अंतर्वस्तु में परिवर्तन गुणात्मक होता है।
चेतना के दो आयाम होते हैं। चेतना की अंतर्वस्तु अवचेतना है तो सजग चेतना अधिरचना दर्शाती है। चेतना का बाहरी जगत के साथ संपर्क इंद्रियों के ज़रिए होता है। बाहरी जगत के बारे में विचार या उसका ज्ञान, मस्तिष्क में बाह्य जगत का प्रतिबिंब होता है। मानवीय चेतना अन्य जीवों की चेतना से गुणात्मक रूप से भिन्न होती है। अमूर्त चिंतन के द्वारा ऐसी चीज़ों की कल्पना कर सकना जिनका अस्तित्व ही नहीं है और उस कल्पना को मूर्त रूप प्रदान कर सकना, मानवीय चेतना का विशिष्ट गुण है।
किसी चीज़ का अस्तित्व भौतिक हो सकता है अर्थात उसका अस्तित्व चेतना के बाहर और चेतना से  निरपेक्ष तथा स्वतंत्र हो सकता है, या वैचारिक हो सकता है अर्थात मस्तिष्क के अंदर होने वाली प्रक्रिया जो बाह्य जगत का सटीक या विकृत प्रतिरूप हो सकता है।
व्यक्ति एक जैविक संरचना है जिसका भौतिक अस्तित्व है और जिसकी इकाइयाँ, जीवित कोशिकाएं, भौतिक रूप से एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। समाज एक जैविक संरचना है, जिसका अस्तित्व भौतिक न होकर वैचारिक  है क्योंकि उसकी इकाइयाँ एक दूसरे से भौतिक रूप से संबद्ध न होकर वैचारिक रूप से संबद्ध होती हैं। सामाजिक चेतना का वास व्यक्तियों के मस्तिष्क में ही होता है, पर सामाजिक चेतना व्यक्तिगत चेतना से पूरी तरह भिन्न होती है। इस प्रकार व्यक्ति न केवल अपनी व्यक्तिगत चेतना का वाहक होता है बल्कि सामूहिक चेतना का भी वाहक होता है।
व्यक्तियों की आवश्यकताएँ न केवल शारीरिक होती हैं, बल्कि मानसिक भी होती हैं और माँगों की पूर्ति के लिए उत्पादों की ज़रूरत होती है। लोगों के बीच चीज़ों का आदान-प्रदान भौतिक और वैचारिक दोनों स्तरों पर होता है और उत्पादों के अस्तित्व का आयाम भौतिक और सामाजिक दोनों होता है। किसी भी उत्पाद के इंद्रियगम्य स्वरूप का अस्तित्व भौतिक है पर उसमें अंतर्निहित मूल्य का स्वरूप सामाजिक है। सिक्का या करेंगी नोट भौतिक उत्पाद हैं तो मुद्रा सामाजिक उत्पाद है। मशीन और संपत्ति भौतिक उत्पाद हैं तो पूंजी का स्वरूप पूरी तरह वैचारिक है, और सरमायेदार तथा पूँजीपति दो अलग-अलग व्यक्ति हैं। किसी उत्पादन व्यवस्था में श्रम-संबंधों और उत्पादन संबंधों को समझे बिना न तो सामंतवाद और पूँजीवाद के भेद को समझा जा सकता है और न ही समाजवाद के विकास में पूँजीवादी श्रम-संबंधों के योगदान को समझा जा सकता है।
जिन्हें द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ नहीं है, वे चेतना और अस्तित्व के संबंध को नहीं समझ सकते हैं। वे एक राजनैतिक दल को व्यक्तियों के समूह के रूप में ही देख पाते हैं जिसमें हर व्यक्ति अपने विचार और व्यवहार में पूरी तरह सजग और स्वतंत्र है। वे संगठन को एक ऐसे जैविक अस्तित्व के रूप में नहीं देख पाते हैं, जिसकी अवयव इकाइयाँ प्रत्यक्ष रूप में स्वतंत्र इकाइयाँ हैं, पर जो परोक्ष में, संगठन के सामूहिक उद्देश्य के दायरे में, एक स्वतंत्र जैविक अस्तित्व के, वैचारिक स्तर पर सुसंगठित अवयव हैं, जिनके माध्यम से संगठन एक जीवंत व्यवस्था के रूप में व्यवहार करता है। चीजों या प्रक्रियाओं की सही समझ के लिए उनकी आंतरिक संरचना तथा अधिरचना के भौतिक या वैचारिक स्वरूपों तथा उनके बीच के द्वंद्वात्मक संबंध को समझना आवश्यक है और जिनको समझे बिना सार्थक हस्तक्षेप असंभव है। पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अपनी भूमिका के कारण सर्वहारा, अपनी वर्ग चेतना के आधार पर श्रम, मूल्य, अतिरिक्त मूल्य तथा मुद्रा जैसी चीजों और अपने शोषण में उनकी भूमिका को सहज ही समझ लेता है। विडंबना ही है कि अधिकांश वामपंथी बुद्धिजीवी अपनी मध्यवर्गीय भूमिका के कारण, उत्पाद, मूल्य और मुद्रा के भौतिक और वैचारिक स्वरूपों को नहीं समझ पाते हैं, और इसलिए उनके लिए अतिरिक्त मूल्य और शोषण को समझना तथा समझाना असंभव है। इसी तरह अतिरिक्त मूल्य, संपत्ति तथा पूंजी के भौतिक तथा वैचारिक स्वरूपों तथा श्रम के साथ उनके संबंधों को समझे बिना सामंतवादी और पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के भेद को समझना असंभव है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ ही, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों को, भारतीय समाज के अंतर्विरोधों की सही-सही समझ हासिल करने और सार्थक हस्तक्षेप करने में मदद कर सकती है।
मौजूदा राजनैतिक अर्थव्यवस्था में, व्यक्तिगत हितों की टकराहट के चलते विभिन्न गुटों में बँटीं क्रांतिकारी शक्तियों को, सामूहिक हित के लिए दीर्घकालीन संघर्ष में एकजुट रखने तथा उनको मार्गदर्शन प्रदान करने का दायित्व, एक संगठित राजनैतिक दल  ही पूरा कर सकता है। और बिना किसी अपवाद के यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत आकांक्षाओं तथा निहित स्वार्थों और दल के उद्देश्यों तथा सांगठनिक हितों के बीच उचित सामंजस्य के बिना दीर्घकालीन एकजुटता असंभव है। उचित सामंजस्य के लिए सही विचारधारा की सही समझ पहली और अनिवार्य शर्त है।
युवावर्ग के लिए आज भी सार्थक है लेनिन की नसीहत, ‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूर-वर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।’

सुरेश श्रीवास्तव
1 मई 2015

Wednesday 29 April 2015

पार्टी, विचारधारा तथा लोकतंत्र

पार्टी, विचारधारा तथा लोकतंत्र

कुछ दिन पहले एक गोष्ठी की पूर्व-सूचना मिली थी। विषय था 'पार्टी, विचारधारा तथा लोकतंत्र'। आजकल गोष्ठियों में जाना लगभग बंद कर रखा है क्योंकि अधिकांश में सैद्धांतिक विमर्श पूरी तरह नदारद होता है और विमर्श के नाम पर होता है, मंचस्थ वक्ताओं का, आयोजकों की आकांक्षाओं के अनुकूल, एकतरफ़ा संवाद या आपसी आरोप-प्रत्यारोप। और एकाध अपवाद को छोड़कर, श्रोतागण भी आयोजकों तथा वक्ताओं की तर्ज पर ही होते हैं, जिनकी रुचि प्रश्नों के ज़रिए अपनी उपस्थति दर्ज कराने में ही होती है न कि सैद्धांतिक समझ विकसित करने में। विषय के तीनों अवयवों के महत्व को समझते हुए मैंने विचार गोष्ठी में शामिल होने का निर्णय किया पर गोष्ठी के अंत में हताशा के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगा।
सभी वक्ताओं और श्रोताओं का संवाद, किसी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन को अंजाम दे सकने में सक्षम होने के लिए एक पार्टी की मूलभूत संरचना के गठन में आवश्यक अभिलक्षणों (Characteristics) की सैद्धांतिक पड़ताल की जगह, पूरी तरह आआ पार्टी के संदर्भ से, राजनैतिक परिवेश पर सतही टिप्पणियों तक ही सीमित था। सभी वक्ताओं का दावा था कि आआपा का गठन जनतांत्रिक और नैतिक मूल्यों में आस्था रखनेवाले आम कार्यकर्ताओं की पहल व भागीदारी से, आम सहमति के आधार पर हुआ था और पार्टी में निर्णय प्रक्रिया सामूहिक नेतृत्व आधारित थी, पर चुनावी सफलता के बाद, कुछ लोगों की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण पार्टी में संकट पैदा हुआ है और पार्टी विभाजन के कगार पर पहुँची है। प्रमुख अतिथि के रूप में प्रोफ़ेसर आनंद कुमार सहित सभी वक्ताओं का कहना था कि आआपा के गठन का वैचारिक आधार बिल्कुल सही था और पार्टी में आज जो भी संकट है वह अरविंद केजरीवाल की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण है। प्रोफ़ेसर आनंद कुमार का दावा था कि पार्टी की विचारधारा में कोई कमी नहीं है और आंतरिक संघर्ष के ज़रिए पार्टी को सही राह पर लाया जा सकता है। परंतु भ्रष्टाचार तथा सांप्रदायिकता विरोध के अलावा वे आआपा की विचारधारा के विभिन्न आयामों की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं कर सके, विशेषकर संसाधनों के उपयोग और अर्थव्यवस्था से संबंधित विषयों पर, सिवाय लोहियावादी समाजवाद के नारे के।
प्रश्नोत्तर काल में इस लेखक ने पूछा था,  कि सभी वामपंथी, मध्यमार्गीय तथा दक्षिणपंथी पार्टियां संगठन के मार्गदर्शन में अपनी-अपनी विचारधारा का दावा करती हैं, और कार्यप्रणाली में जनवाद की दुहाई देती हैं, पर व्यावहारिक तौर पर सभी किसी न किसी दौर में, नेतृत्व के अधिनायकवादी रवैये के विरोध में विखंडन के दौर से गुजरती रही हैं। पर संघ परिवार अपने अनेकों संगठन-सदस्यों के बीच वैचारिक मतभेद और नेतृत्व के अधिनायकवादी रवैये के बावजूद, न केवल अपने आप को एकजुट रख सका है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के विकल्प के रूप में अपनी पहचान बनाने में भी सफल रहा है। इसका क्या कारण है। पर किसी भी वक्ता ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास नहीं किया।
कुछ दिन बाद आनंद कुमार का एक लेख ' राजनीति का सत और असत ' जनसत्ता में छपा जिसमें उन्होंने व्यक्ति की राजनैतिक भागीदारी को, विशिष्ट व्यक्ति, विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण अथवा विरोध, अर्थात आठ स्वतंत्र प्रेरकों से प्रेरित, पूरी तरह ऐच्छिक कर्म माना है। उनका लेख, दर्शाता है कि वे विचारधारा की संरचना तथा महत्व से अनभिज्ञ हैं। वे इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि विचार किसी एक चीज़ या परिस्थिति पर ही केंद्रित होता है, जब कि विचारधारा कई संबद्ध चीज़ों तथा परिघटनाओं के अपेक्षत: अधिक व्यापक आयाम के बारे में तार्किक रूप से सुसंगठित विचारों की श्रंखला होती है।
निम्न मध्यवर्गीय चेतना व्यक्ति केंद्रित होती है इस कारण निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का, विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण उसकी अपनी निजी महत्वाकांक्षा का ही विस्तार होता है और विशिष्ट व्यक्ति के प्रति निष्ठा में वह अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति होते देखता है। इसीलिए आंतरिक जनवादी कार्यशैली के दावे के बावजूद हर संगठन में व्यक्ति ही संगठन का पर्याय बन जाता है। अगर हम कम्युनिस्ट पार्टियों, कांग्रेस पार्टियों तथा सोशलिस्ट पार्टियों के गठन, कार्यशैली तथा विघटन पर नजर डालें तो प्रत्यक्ष में हमें आनंद कुमार का निष्कर्ष ही सही नजर आयेगा। विचार, कार्यक्रम या संगठन के प्रति आकर्षण या विरोध की परिणति भी अंततः विशिष्ट व्यक्ति के प्रति आकर्षण या विरोध में ही होती है।
आर्थिक रूप से वर्ग विभाजित समाज में, राजनैतिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक संगठनों में भी, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं तथा आर्थिक हितों की टकराहट के चलते अगर संगठन का सामूहिक नेतृत्व अपने आप को एकजुट नहीं रख पाता है तो सदस्य भी विरोधी गुटों में बंट जाते हैं और अंततः संगठन भी टुकड़ों में बंट जाता है। संघ परिवार की विचारधारा धर्म आधारित है और उसका सामूहिक नेतृत्व निरंतर, आत्म-मंथन के ज़रिए धर्म और विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करता रहता है। धार्मिक आस्था, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रण में रखने में सहायक होती है, और संघ परिवार का नेतृत्व अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सजगता के साथ, अपने आप को राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक मंचों से दूर रख कर, संघ के अंदर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पनपने का मौक़ा नहीं देता है।
व्यक्ति के मस्तिष्क के अंदर होने वाली वैचारिक प्रक्रिया ही व्यक्ति के आचरण को संचालित करती है, और लोग किसी व्यक्ति के विचारों का आंकलन उसके आचरण के आधार पर ही करते हैं। इसी प्रकार संगठन के कार्य-कलाप उसकी विचारधारा से ही संचालित होते हैं और लोग किसी संगठन की विचारधारा का आंकलन उसके कार्य-कलापों के आधार पर ही करते हैं। कांग्रेस तथा भाजपा की पहचान सरमायेदारों की राजनैतिक पार्टियों के रूप में करने के बाद, अटकलों और अनुभव के आधार पर, मेहनतकश जनता, कभी जेपी, कभी वीपी और कभी अन्ना के पीछे चल पड़नेवाली, वामपंथी पार्टियों सहित, क्षेत्रीय पार्टियों के बीच ही एक विकल्प की तलाश में भटकती रहेगी, जब तक की वह इतनी जागरूक नहीं हो जाती है कि सर्वहारा के नेतृत्व में अपनी स्वयं की पार्टी का गठन कर सके। विडंबना है कि 90-95 साल पहले चंद निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने, रूमानियत में, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विचारधारा की अधकचरी समझ के साथ, एक पार्टी का गठन किया था, जो आज भी अनेकों टुकड़ों में बिखरने के बावजूद विचारधारा की वह सैद्धांतिक समझ विकसित नहीं कर सकी है जो उसे सर्वहारा का नेतृत्व कर सकने की क्षमता प्रदान कर सके। तलाश अभी जारी है।

सुरेश श्रीवास्तव
28 अप्रेल, 2015