Thursday 9 November 2017

महान अक्टूबर क्रांति के सबक


(एंगेल्स ने समझाया था कि मार्क्सवादी वह नहीं जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो किसी दी हुई परिस्थिति में उसी तरह सोचे जिस तरह उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता। सामूहिक चेतना, व्यक्तिगत चेतना से स्वायत्त होती है इसलिए मार्क्सवादी विशिष्ट नामों के संदर्भ से सामूहिक चेतना को देखता है, कि विशिष्ट व्यक्तित्वों को) 

जिस एक घटना ने सारी दुनिया के मेहनतकशों के संघर्ष में प्रकाशस्तंभ का काम किया है, आज 7 नवंबर 1917 (जूलियन कैलेंडर के अनुसार 25 अक्टूबर) को सोवियत रूस में हुई उस घटना के सौ वर्ष पूरे हो गये हैं और सारी दुनिया में अलग-अलग तरह के वामपंथियों द्वारा अलग-अलग तरीके से इस दिन को एक पर्व के रूप में मनाया जा रहा है। कुछ के लिए यह एक औपचारिकता है और वे इसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा उस घटना के महिमामंडन के साथ मना रहे हैं। उस घटना का नेतृत्व मार्क्सवाद से प्रेरित था इसलिए, कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी, इन सौ सालों में वामपंथी आंदोलन में आए भटकाव के कारणों को, उस घटना के अनुवर्ती कार्यक्रमों की रणनीतियों में की गई ग़लतियों के नाम पर मार्क्सवाद की मूलभूत अवधारणाओं में कमी के रूप में दर्शाते रहे हैं तथा नई पीढ़ी के सामने उनमें संशोधन कर उत्तर-आधुनिक या उत्तर-उत्तर-आधुनिक मार्क्सवाद के नाम पर पेश करते रहे हैं, और शतवार्षिकी के संदर्भ से पिछले एक साल से की जा रही गोष्ठियों में भी वे यही करते रहे हैं। वामपंथी विचारक जिस प्रकार से मार्क्स के लेखन और प्रस्थापनाओं के समय अनुकूल होने की दलीलें दे रहे हैं और उनके संशोधित संस्करण पेश कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि उनका पूर्वाग्रह है कि मार्क्सवाद मूलत: शाश्वत तथा अपरिवर्तनीय नहीं है और वे उसे परिवर्तनीय मानते हुए उसमें निरंतर संशोधन करते रहे हैं। 
जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ है वे जानते हैं कि अक्टूबर क्रांति के बाद पिछले सौ साल में वैज्ञानिक समाजवाद के विकास की दिशा, ऐतिहासिक भौतिकवाद के नियमों के अनुरूप ही है, और सभी मजदूर आंदोलनों के उतारों-चढ़ावों की तथा अलग-अलग देशों में समाजवाद की विकास यात्राओं की सही-सही व्याख्या करने में मार्क्सवाद का सिद्धांत पूरी तरह सक्षम है। मार्क्सवाद के बारे में लेनिन ने लिखा था, ‘मार्क्सवाद का सिद्धांत सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है। वह सर्वव्यापी तथा समदर्शी है और मानव को एक सर्वांगींण वैश्विक दृष्टिकोण प्रदान करता है जो किसी भी अंधविश्वास, प्रतिक्रियावादिता या बुर्जुआ उत्पीड़न से पूरी तरह असंगत है।’ 
वे आगे लिखते हैं, ‘मार्क्स का दर्शन एक संपूर्ण दार्शनिक भौतिकवाद है जिसने मानवजाति को, और विशेष तौर पर मजदूर वर्ग को ज्ञान का शक्तिशाली औजार प्रदान किया है।……..जब सामंतवाद उखाड़ फेंका गया था और आजाद पूंजीवादी समाज का इस दुनिया में पदार्पण हुआ था तभी यह साफ हो गया था कि इस आजादी का मतलब था कामगरों के दमन तथा शोषण का एक नया निजाम। तुरंत ही अनेकों समाजवादी सिद्धांत उभर आये, इस दमन के प्रतिबिंब स्वरूप तथा उसके प्रतिरोध के रूप में। पर पिछला समाजवाद कल्पनालोकी समाजवाद ही था। वह पूंजीवादी समाज की आलोचना तो करता था, उसको धिक्कारता था तथा खारिज करता था, वह उसके विनाश का सपना देखता था, उसके पास एक बेहतर निजाम की कल्पना थी और वह संपन्नों को शोषण की अनैतिकता के बारे में विश्वास दिलाने का प्रयास करता था।…... पर कल्पनालोकी समाजवाद वास्तविक समाधान से नावाकिफ़ था। वह पूंजीवाद के तहत मजदूरी की गुलामी के वास्तविक चरित्र को नहीं समझा सकता था, वह पूंजीवादी विकास के नियमों को उजागर नहीं कर सकता था, और ही समझा सकता था कि किस सामाजिक शक्ति में नये समाज का निर्माता बन सकने की क्षमता है।और यही वह काल्पनिक समाजवाद है जिससे अभिभूत वामपंथी बुद्धिजीवी, इसके व्यावहारिक स्वरूप को ही मार्क्सवाद समझते हैं क्योंकि मार्क्स ने कहा था, ‘दार्शनिकों ने अनेकों तरह से विश्व की व्याख्या की है, सवाल है बदलने का।और इसी पूर्वाग्रह के कारण वे पिछले सौ सालों में वामपंथी आंदोलनों में तथा समाजवाद के विकास में होने वाले उतारों-चढ़ावों को ऐतिहासिक भौतिकवाद के विचलनों तथा मार्क्सवाद की अपरिपक्वता के रूप में देखते हैं।
हर प्रकार से लगता है कि ऐतिहासिक घटनाएँ अनायास ही होती हैं। परंतु जहाँ प्रत्यक्ष में अनिश्चय का नियम लागू होता नजर आता है, वहाँ वास्तव में आंतरिक रूप से परोक्ष में चीज़ें अदृश्य नियमों से ही संचालित होती हैं। और जरूरत है केवल इन नियमों को उजागर करने की, कि अपने पूर्वाग्रहों को प्राकृतिक नियम सिद्ध करने के लिए, अनायास लगने वाली घटनाओं में से सुविधानुसार चुनकर, उन्हें ही इतिहास की सहज दिशा दर्शाना। मार्क्सवाद प्रकृति के शाश्वत सर्वशक्तिमान नियम द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर इन नियमों को उजागर करता है और उनके आधार पर समाज के विकास की ऐतिहासिक भौतिकवाद के रूप में व्याख्या करता है। समाजवाद की विकास यात्राओं की सही-सही व्याख्या करने में ऐतिहासिक भौतिकवाद के रूप में मार्क्सवाद का सिद्धांत पूरी तरह सक्षम है, और इसी के आधार पर महान अक्टूबर क्रांति के सौ सालों का आंकलन किया जाना चाहिए।
अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर मार्क्स ने समझाया था कि सामाजिक चेतना, उत्पादन के भौतिक आधार पर विकसित होती है और विकास की दिशा है, उत्पादक शक्तियाँ —> उत्पादन संबंध—> भौतिक-सामाजिक-चेतना—> तर्कशक्ति —> वैचारिक-सामाजिक-चेतना —> उत्पादक शक्तियाँ —> उत्पादन संबंध ………. कानिरंतर ऊर्धगामी सर्पिल चक्र जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ है वे वैज्ञानिक समाजवाद की इस प्रक्रिया को समझते हैं और उत्पादन संबंधों में सजग हस्तक्षेप के लिए उत्पादक शक्तियों के विकास को अनिवार्य पूर्वशर्त मानते हैं। शेखचिल्ली समाजवादी सोचते हैं कि कुछ लोगों द्वारा अपनी तर्कशक्ति के द्वारा चेतना में वैचारिक हस्तक्षेप करते हुए, उत्पादक शक्तियों के विकास को नजरंदाज करते हुए सीधे उत्पादन संबंधों को प्रभावित किया जा सकता है, और प्रकृति के शाश्वत नियम के विपरीत सर्पिल चक्र की दिशा उलट कर समाजवाद लाया जा सकता है। वे भूल जाते हैं कि सर्पिल चक्र की दिशा उलटने से विकास की दिशा भी अधोगामी हो जायेगी। और अक्टूबर क्रांति के सौ साल का आंकलन इसी पूर्वाग्रह के साथ करने का कारण वे सही आंकलन करने में असफल हैं। वे मानते हैं कि सोवियत संघ का विघटन दर्शाता है कि अक्टूबर क्रांति का प्रयोग असफल रहा है और मार्क्सवाद में संशोधन की आवश्यकता है। 
आम बुद्धिजीवी क्रांति का मतलब समझते हैं हिंसक सत्ता परिवर्तन, जबकि मार्क्सवाद के अनुसार क्रांति का अर्थ है गुणात्मक परिवर्तन। अक्टूबर क्रांति के बाद के सौ सालों में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन की विकास यात्रा के सही आंकलन के लिए कुछ पड़ावों को रेखांकित किया जा सकता है, जिनकी पहचान गुणात्मक परिवर्तन के प्रस्थान बिंदुओं के रूप में की जा सकती है और जो तय करने में मदद करेंगे कि विकास यात्रा ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुरूप है या नहीं।
लेनिन लिखते हैं, ‘जहां बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की नजर वस्तुओं के अंतर्संबंधों (एक उत्पाद का दूसरे उत्पाद के साथ विनिमय) पर टिकी वहीं मार्क्स ने मानवीय अंतर्संबंधों को उजागर किया। उत्पादों का विनिमय, बाजार के माध्यम से, व्यक्तिगत उत्पादकों के बीच के रिश्ते को ही अभिव्यक्त करता है। मुद्रा व्यक्त करती है कि रिश्ता नजदीक से नजदीकतर होता जा रहा है, उत्पादकों के संपूर्ण आर्थिक जीवन को अविच्छिन्न रूप से एक संपूर्ण में एकीकृत कर रहा है।
सत्रहवीं सदी में, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के विस्तार के साथ ब्रिटेन में वाणिज्यिक पूंजी के एकत्रीकरण ने बुर्जुआवर्ग का विस्तार किया। जिस रफ्तार से उत्पादक शक्तियों का विकास हुआ, पारंपरिक सामंतवादी संबंधों के लिए उसके साथ विकसित हो पाना संभव नहीं था। पारंपरिक सामंतवादी संपत्ति संबंधों तथा विकसित होते बुर्जुआवर्ग के हितों के अंतर्विरोध का समाधान क्रांतिकारी परिवर्तन के साथ ही हो सकता था। उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों के अंतर्विरोध के कारण हुई राजनैतिक क्रांति ने राजशाही की शक्तियां खत्म कर सीमित बुर्जुआ जनवाद की नींव रखी।
बुर्जुआ जनवाद ने ब्रिटेन को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के शीर्ष में ला दिया। इसके साथ ही सामाजिक चेतना का विस्तार भी सीमा पार कर फ्रांस में पहुँच गया और अठारहवीं सदी में फ्रांस में दार्शनिकों ने समाजवाद की अवधारणा प्रतिपादित की जिसने सदी के उत्तरार्ध में फ्रांस में राजनैतिक क्रांति के जरिए राजशाही का अंत कर गणराज्य की स्थापना की।
अगली एक सदी में, ब्रिटेन में हुए पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ विकसित हुई पूँजीवादी चेतना का भी विस्तार सारे विश्व में हो गया और किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं के अंदर सर्वहारा वर्ग के बिना सर्वहारा चेतना की मौजूदगी कोई अनहोनी बात नहीं रह गई, जिसके कारण अनेकों राज्यों में उत्पादक शक्तियों के सामंतवादी दौर में होने के बावजूद जनवादी तथा गणतंत्रवादी क्रांतियाँ संभव हो सकीं। अमेरिका में तो गुलामी प्रथा की समाप्ति के साथ जनवादी गणतंत्र की स्थापना के लिए क्रांति 1861 में हुई। बढ़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय भौतिक-सामाजिक-चेतना के कारण दर्शन के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। फ्रांस में भौतिकवादी दर्शन ने काल्पनिक समाजवाद की अवधारणा के लिए आधार प्रदान किया तो जर्मनी में द्वंद्वात्मक भाववाद ने मार्क्सवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद के लिए आधार प्रदान किया।
बीसवीं सदी के आते आते मुद्रा स्वयं जिंस में रूपांतरित हो गई। उत्पादक शक्तियों का आधार भौतिक होने के कारण बुर्जुआवर्ग तथा कामगारों के हित भौगोलिक सीमाओं के अंदर राजसत्ता द्वारा बनाये नियमों से परिभाषित होते हैं। परंतु चेतना का स्वरूप वैचारिक होने के कारण वर्गचेतना सीमाओं से आजाद होती है। पारंपरिक रूप से विकसित राष्ट्रों ने अविकसित दुनिया को उपनिवेशों में बांट लिया था पर नये विकसित राज्यों की पूँजी को भी नये बाजार चाहिए थे इस कारण अलग-अलग राज्यों के बुर्जुआवर्गों के बीच हितों की टकराहट अनिवार्य थी। इसके साथ ही राज्यों के अंदर संपन्नों तथा विपन्नों के बीच हितों की टकराहट के कारण जन आंदोलन भी अपरिहार्य थे।  
मार्क्सवाद के आधार पर लेनिन ने समझाया था कि कामगारों की चेतना में समाजवाद स्वत: नहीं आता है, उसे बाहर से लाना होता है, और यह काम सजग तौर पर, अत्याधिक जागरूक बुद्धिजीवियों के संगठन को क्रांतिकारी सिद्धांत के आधार पर करना होता है। और ऐसे संगठन की संरचना के लिए उन्होंने मार्क्सवाद की समझ के आधार पर जनवादी केंद्रीयता की अवधारणा विकसित की। इसी पर अमल करते हुए सामंतवादी रूसी साम्राज्य में आर.ऐस.डी.एल.पी. ने 1905 में बुर्जुआवर्ग के साथ समझौता कर सीमित जनवाद की स्थापना की। और बोल्शेविक पार्टी ने 1917 में, रूस में पूंजीवादी उत्पादक शक्तियों के प्रारंभिक स्तर और अल्प संख्यक सर्वहारा वर्ग के बावजूद, सर्वहारा जनवाद या सर्वहारा अधिनायकवाद की स्थापना की और वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणा के आधार पर उत्पादक शक्तियों के विकास की रणनीति तय की।  
पूरी दुनिया की सामंतवादी और पूँजीवादी ताक़तों के विरोध के बावजूद, सी.पी.ऐस.यू. ने स्टालिन के नेतृत्व में, वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणाओं के अनुरूप उत्पादक शक्तियों का अभूतपूर्व विकास किया और आम जनता का जीवन स्तर उन्नत किया। उत्पादक शक्तियों के अभूतपूर्व विकास का ही नतीजा था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ अकेले दम पर जर्मनी-इटली धुरी का सफलता पूर्वक मुक़ाबला कर युद्ध जीतने में सफ़ल रहा।
20वीं सदी की शुरुआत से ही उपनिवेशों में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगे थे। 1917 की सोवियत क्रांति के बाद सारी दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन निरंतर फैलती हुई समाजवादी चेतना से प्रभावित होने लगे थे। द्वितीय विश्वयुद्ध ने विकसित पूँजीवादी राष्ट्रों में आर्थिक संकट को गहरा दिया था और उन्हें अपने-अपने उपनिवेशों को राजनैतिक रूप से आजाद करना पड़ा जिनमें अधिकतर में बुर्जुआ पार्टियों के नेतृत्व में बुर्जुआ जनवाद की स्थापना हो गई। लेकिन बुर्जुआ वर्ग ने अपने चरित्र के अनुरूप, मेहनतकश जनता के साथ ग़द्दारी करते हुए अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवाद के साथ गठजोड़ कर लिया और नवोदित राष्ट्र राज्यों में जनता की आर्थिक गुलामी पुन: स्थापित हो गई। दूसरी ओर 1917 की सोवियत क्रांति के बाद सर्वहारा चेतना का स्वरूप भी वैश्विक हो गया था और इसी लिए चीन तथा पूर्वी यूरोप के अनेकों राष्ट्रों सहित क्यूबा, उत्तरी कोरिया तथा वियतनाम में भी देर सबेर कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में सर्वहारा जनवाद की स्थापना हो गई।
द्वितीय विश्वयुद्ध का ख़ामियाज़ा सोवियत संघ तथा सी.पी.ऐस.यू. को भी भुगतना पड़ा। छह साल के युद्ध ने, जहाँ अरबों डालर के नुकसान से अर्थव्यवस्था को चरमरा दिया, वहीं 20 करोड़ की आबादी वाले देश की, 65 लाख की महिला आबादी के साथ 2 करोड़ पुरुष आबादी के प्राणों की आहुति भी ले ली। 2 करोड़ पुरुष आबादी में 70% 20-50 वर्ष की आयु वर्ग में थे, अर्थात वे नौजवान जिन्होंने 1917 की क्रांति में सक्रिय भाग लिया था या उसके बाद पैदा हुए थे, और इसलिए,जाहिर है, सर्वहारा चेतना से लैस थे। इस आयु वर्ग में मरने वाली स्त्रियों का अनुपात भी 50% था। इनमें से अधिकांश मार्क्सवाद की समझ रखने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे होंगे और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य संख्या आबादी की 10% रही होगी तो अनुमान लगाया जा सकता है कि 75% पार्टी युद्ध की भेंट चढ़ गई थी।
युद्ध के बाद बदली हुई परिस्थिति में, वैश्विक अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के पूर्वानुमान के अनुरूप एकीकृत पूँजी की जरूरतों को पूरा करने के लिए 44 मित्र राष्ट्रों के द्वारा ब्रैटनवुड समझौते के साथ, आयात निर्यात को सुगम बनाने के लिए डालर को सर्वमान्य वैश्विक मुद्रा मान लिया गया और वैश्विक पूँजी निवेश को सुगम बनाने के लिए आईबीआरडी तथा आईएमएफ़ के गठन का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया गया। मित्र राष्ट्र के रूप में सोवियत संघ के प्रतिनिधि भी शामिल हुए पर बाद में सोवियत संघ ने आईबीआरडी तथा आईएमएफ़ में शामिल होने से इनकार कर दिया।
स्टालिन तथा उनके साथी जानते थे कि, सोवियत संघ में पुनर्निर्माण की चुनौतियाँ, सीपीऐसयू में बड़ी संख्या में परिपक्व मार्क्सवादी सदस्यों की मृत्यु से उपजा संकट, पूर्वी यूरोप के नवोदित समाजवादी राष्ट्रों की कम्युनिस्ट पार्टियों के सदस्यों की अपरिपक्वता, वैश्विक वित्तीय पूँजी का एकीकरण, परमाणु हथियारों से लैस अमेरिका द्वारा चीन, कोरिया तथा वियतनाम के राष्ट्रीय आंदोलनों में हस्तक्षेप और नाटो का गठन, वे भौतिक परिस्थितियाँ थीं जिनके बीच रहते हुए, सीपीएसयू के अंदर सेंध लगाने वाले संशोधनवाद से निपटना दुसाध्य कार्य था, और जो स्टालिन की मृत्यु के बाद असंभव हो गया। पर जहाँ पूँजीवादी चेतना, राष्ट्र राज्य की सीमाओं को नकारते हुए विश्वव्यापी हो गई थी, वहीं अक्टूबर क्रांति के साथ सर्वहारा चेतना भी विश्व व्यापी हो गई थी। 
माओ ने 1940 में अपने प्रसिद्ध पर्चेन्यू डेमोक्रेसीमें अक्टूबर क्रांति के संदर्भ से लिखा था, ‘बहरहाल, 1914 में पहला साम्राज्यवादी युद्ध होने के उपरांत तथा 1917 में रूस की महान अक्टूबर क्रांति के फलस्वरूप विश्व के छठवें हिस्से में स्थापित समाजवादी राज्य की स्थापना होने के बाद, चीन की बुर्जुआ जनवादी क्रांति में एक बदलाव हो गया है।वे आगे लिखते हैं कि, ‘ इन घटनाओं के बाद से चीन की जनवादी क्रांति का चरित्र बदल गया है, वह बुर्जुआ जनवादों की नई श्रेणी में शामिल हो गई है, तथा जहाँ तक क्रांतिकारी शक्तियों के एलाइनमेंट का सवाल है वह सर्वहारा की वैश्विक समाजवादी क्रांति का हिस्सा बन गई है।वे लिखते हैं कि, ‘बहुत पहले 1924-27 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने घोषणा की थी कि, ‘चीनी क्रांति विश्व क्रांति का हिस्सा है।चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा घोषित यह अवधारणा स्टालिन के सिद्धांत पर आधारित है। अरसा पहले 1918 में अक्टूबर क्रांति की पहली वर्षगाँठ के अवसर पर स्टालिन ने लिखा था, ‘इस प्रकार इस घटना ने समाजवादी पश्चिम तथा औपनिवेशित पूर्व के बीच एक सेतु का निर्माण कर दिया है जिसने विश्व साम्राज्यवाद के खिलाफ, पश्चिम के सर्वहारा से लेकर रूसी क्रांति से होते हुए पूर्व के दमितों तक, क्रांतियों की एक दीवार खड़ी कर दी है’ 
स्टालिन की मृत्यु के बाद, सीपीऐसयू की बीसवीं कांग्रेस में स्पष्ट हो गया था कि संशोधनवाद, सोवियत संघ की वामपंथी चेतना में गहरी जड़ें जमा चुका है। 1963 में सीपीएसयू तथा सीपीसी के बीच चलीमहान बहसने स्पष्ट कर दिया था  कि विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में संशोधनवाद तथा मार्क्सवाद के बीच विभाजन रेखा स्पष्ट हो चुकी है और संशोधनवाद के खिलाफ लड़ाई संशोधनवाद के केंद्र रूस की ज़मीन पर से नहीं बल्कि चीन की ज़मीन पर से लड़ी जायेगी। 
पिछले पचास साल के इतिहास में चीन द्वारा पार किये गये पड़ाव - सैकड़ों फूलों को खिलने दो, लंबी छलाँग, सांस्कृतिक क्रांति, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, आर्थिक सुधार, आर्थिक उदारीकरण, क्षेत्रीय आर्थिक संगठन आदि दर्शाते हैं कि केवल सीपीसी की मार्क्सवाद की समझ पुख्ता है, बल्कि यह कि दुनिया के मजदूरों के बीच सर्वहारा चेतना निरंतर विकसित हो रही है। मार्क्सवाद के सर्वशक्तिमान शाश्वत होने का यह व्यावहारिक सबूत है।  
सुरेश श्रीवास्तव
7 नवंबर, 2017 
महान अक्टूबर क्रांति की सौवीं वर्षगाँठ