Tuesday 13 December 2016

मुद्रा तथा करेंसी का विमुद्रीकरण

मुद्रा तथा करेंसी का विमुद्रीकरण
(9 नवंबर 2016 के बाद अनेकों साथी अनेकों प्रश्न पूछते रहे हैं, शायद उनकी शंका के समाधान में मदद मिले)

प्र. अर्थव्यवस्था का आधार क्या है?
उ. मनुष्य का निजी जीवन तथा सामूहिक जीवन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जीवन की निरंतरता के लिए, प्राकृतिक पदार्थों को, व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम के द्वारा उपभोग योग्य वस्तुओं में बदलना तथा उपभोग करना ही मानव जीवन का मूल आधार है। श्रम विभाजन आधारित समाज में, उपभोग योग्य वस्तुओं का उत्पादन तथा विनिमय ही अर्थव्यवस्था का आधार है।
प्र. अर्थव्यवस्था में मुद्रा की क्या भूमिका है?
उ. राज्य द्वारा सत्यापित मुद्रा, मूल्य का मानक होती है। जीवन के लिए आवश्यक भौतिक वस्तुओं का विनिमय ही, श्रम विभाजित समाज की अर्थव्यवस्था का आधार है और विनिमय में उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच भौतिक वस्तुओं का आदान प्रदान विनिमय-उत्पादों के रूप में होता है न कि उपयोगी उत्पादों के रूप में। उत्पादों के रूप में आदान प्रदान का अर्थ है, अलग-अलग वस्तुओं की मात्राओं का, निश्चित अनुपातों में व्यक्तियों के बीच हस्तांतरण होना, और यह अनुपात निर्धारित होता है उनके उत्पादन में खर्च किये गये उस समरूप औसत श्रम के आधार पर जिसे मूल्य कहा जाता है, न कि उस विशिष्ट श्रम के आधार पर जो चीज़ों को उनका उपभोग योग्य स्वरूप प्रदान करता है। चूँकि मूल्य का, उत्पाद से अलग कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता है, इस कारण उसे नापने का कोई प्रत्यक्ष तरीका नहीं हो सकता है। सामाजिक विकास के साथ, व्यावहारिक तौर पर, सोने जैसी बहुमूल्य धातु की एक निश्चित मात्रा का मूल्य स्वत: ही, मूल्य की इकाई के रूप में सामाजिक रूप से सर्वमान्य हो गया था। सोने की मात्रा को बार-बार तौलने की परेशानी तथा अन्य समस्याओं के समाधान के रूप में, राज्य सोने की निश्चित मात्रा पर अपनी मुहर लगा कर उसे सत्यापित करने लगा जिसने कालांतर में मुद्रा का रूप ले लिया। इंग्लैंड में धातुओं के वज़न की इकाई पौंड होती थी, जो आज भी कई जगह प्रचलन में है और इसीलिए एक पौंड सोने के सिक्के पर राज्य की मुहर लगाये जाने के कारण ब्रिटेन की मुद्रा का नाम ब्रिटिश पौंड पड़ा है। इसी प्रकार ब्रैटनवुड एग्रीमैंट, जिसके अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए अमेरिकी डालर को सर्वमान्य मुद्रा स्वीकार किया गया था, के समय 1 डालर का मूल्य 1/35 आउंस सोने के बराबर होता था। कालांतर में आम जनता की चेतना में राज्य द्वारा ढाले गये सिक्कों में सोने की मात्रा कम होने तथा छापे गये करेंसी नोटों में कोई भी उपभोग योग्य वस्तु न होने के बावजूद, सरकार द्वारा प्रत्याभूत होने के तथा सभी प्रकार के लेन-देन में कानूनी रूप से बाध्यकारी होने के कारण, मूल्य की इकाई के रूप में मुद्रा सर्वमान्य बन गई। मूल्य की तरह मुद्रा का स्वरूप भी वैचारिक है पर व्यावहारिक जरूरतों के अनुरूप, राज्य के आश्वासन के साथ एक सिक्का या करेंसी नोट मूल्य की इकाई का पर्याय बन जाता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण मुद्रा का चरित्र भी बदल गया है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हर राष्ट्र की मुद्रा स्वयं एक विनिमय उत्पाद बन गयी है। राज्य की सीमाओं के अंदर सभी उत्पादों का मूल्य राज्य की मुद्रा के सापेक्ष ही दर्शाया जाता है तथा राज्य द्वारा जारी की गई मुद्रा अभी भी राज्य प्रत्याभूति के रूप में आम जनता के लिए मान्य तथा बाध्यकारी है पर अपनी सीमाओं के बाहर दूसरे राज्यों की सीमाओं में वह बाध्यकारी नहीं है। अब सभी देशों की मुद्राओं का सापेक्ष मूल्य तथा सोने का औसत मूल्य, पूंजीधारक अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख बैंकों तथा व्यापार प्रतिष्ठानों के समूहों के द्वारा, अंतर्राष्ट्रीय सकल उत्पाद तथा विनिमय के आधार पर तय किया जाता है। इस प्रकार जैसे-जैसे पूँजी का वर्चस्व बढ़ता जाता है, लोगों की बीच मूल्य के  हस्तांतरण में क़रार-वायदों के रूप में, सरकार द्वारा प्रत्याभूत मुद्रा का स्थान, बैंकों के पी नोट, क़रार पत्र, चेक, प्रतिभूतियां और इलेक्ट्रॉनिक हस्तांतरण आदि ले लेते हैं।  
प्र- राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में राज्य की क्या भूमिका है?
उ- जीवन के रख-रखाव तथा पुनर्जीवन के लिए आवश्यक चीज़ों के दिन भर के उपभोग के रूप में औसत में एक व्यक्ति जितना मूल्य खर्च करता है, उससे अधिक मूल्य वह उपयोगी चीज़ों के उत्पादन के रूप में पैदा कर सकता है, यह मानव का प्रकृति प्रदत्त गुण है। इसी गुण के कारण हजारों सालों में मानव समाज द्वारा पैदा किया गया अतिरिक्त मूल्य संचित की गई संपत्ति के रूप में पृथ्वी पर नजर आता है। ऐतिहासिक कारणों से वर्गों में विभाजित हो चुके मानव समाज में, सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के निजी बँटवारे के लिए होनेवाले संघर्ष जब विकराल होने लगे तो संघर्षों को नियंत्रण में रखने तथा सामाजिक व्यवस्था को बचाये रखने के लिए, समाज के अंदर ही राज्य व्यवस्था विकसित हुई है। संघर्ष को नियंत्रण में रखने के लिए राज्य व्यवस्था क़ानून बनाती है तथा अपनी हिंसक शक्ति की ताक़त के बल पर उन क़ानूनों को बाध्यकारी बनाती है। व्यवस्था को सहज स्वीकार्य बनाने के लिए राज्य, उत्पादन तथा वितरण के लिए ऐसे नियम क़ानून बनाता है जो वर्ग निरपेक्ष तथा जनहितकारी नजर आयें ताकि पैदा किये गये मूल्य का व्यक्तिगत बँटवारा, खर्च किये गये श्रम के अनुपात में उचित नजर आये। इसीलिए सार्विक मताधिकार आधारित जनवाद, राज्य के सर्वोच्च स्वरूप के तौर विकसित हुआ है। अपनी सेवाओं के बदले राजसत्ता टैक्स वसूलती है जिसे वह व्यवस्था बनाये रखने तथा सामूहिक सुविधाओं पर खर्च करती है।
प्र- अर्थव्यवस्था तथा राज्य-व्यवस्था की अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे में क्या भूमिका है?
उ- अर्थव्यवस्था, उत्पादन के साधनों तथा तकनीक से परिभाषित नहीं होती है बल्कि मानवीय श्रमशक्ति की भूमिका से परिभाषित होती है क्योंकि, मानवीय श्रमशक्ति, उत्पादन प्रक्रिया में न केवल कच्चे माल, मशीनों, श्रम के औजारों तथा श्रम (स्वयं) पर खर्च किये गये मूल्य की भरपाई करती है, बल्कि अतिरिक्त मूल्य भी पैदा करती है। अतिरिक्त मूल्य पैदा तो उत्पादन के स्रोत पर होता है, पर हासिल अंतिम रूप से उपभोक्ता द्वारा उत्पाद का उपभोग कर लेने पर ही होता है। उत्पादन-उपभोग प्रक्रिया को पूरी करने में पूँजी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उत्पादन के लिए, कच्चे माल, उत्पादन के साधनों तथा श्रम को एकजुट करने के लिए हर स्तर पर, विनिमय के लिए मूल्य के सार्वजनिक रूप से मान्य स्वरूप अर्थात मुद्रा की आवश्यकता होती है। सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था में श्रमिक स्वयं उत्पादन के साधनों को जुटा कर व्यक्तिगत श्रम द्वारा उत्पाद पैदा करता है इस कारण उत्पाद के साथ उसके अंदर अंतर्निहित अतिरिक्त मूल्य भी उसी के क़ब्ज़े में होता है पर प्राकृतिक  संसाधन तथा वितरण व्यवस्था का नियंत्रण संपन्न वर्ग के हाथों में होता है इस कारण श्रमिक को अपना उत्पाद वितरण के लिए संपन्न वर्ग के हाथों में, बाजार की शर्तों पर सौंपना पड़ता है। एक ही प्रकार के उत्पादों का लागत मूल्य अलग अलग उत्पादकों के लिए अलग अलग हो सकता है पर उन सभी उत्पादों का औसत विक्रय मूल्य एक ही होता है। व्यापारी उपभोक्ता को उत्पाद उसके उपयोगी मूल्य पर बेच कर, अपना लागत मूल्य निकालने के साथ ही अतिरिक्त मूल्य भी मुनाफे के रूप में हथिया लेता है। उत्त्पादन-वितरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए, मुद्रा के रूप में जुटाया गया लागत मूल्य ही पूँजी कहलाता है जो मुनाफे के रूप में अतिरिक्त मूल्य को समेट कर उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा करती है। प्राकृतिक संसाधनों को जुटाने से लेकर उत्पादों को उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए अनेकों चीज़ों का अनेकों क्रेताओं-विक्रेताओं के बीच विनिमय होता है जिसके लिए आवश्यक पूंजी मुद्रा के रूप में अलग-अलग तरह से सक्रिय होती है जो उत्पादन-वितरण का चक्र पूरा कर अतिरिक्त मूल्य के साथ वापस होती है। सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के अंतर्गत पूंजी मुख्य तौर पर वाणिज्यिक गतिविधि के जरिये एकत्रीकरण करती है। एकत्रीकरण के जरिए स्वविस्तार के एक स्तर पर पूँजी, वितरण के साथ-साथ उत्पादन में भी पैर पसारने लगती है। बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था पूँजी-मजूरी आधारित होती है। बुर्जुआ-पूँजीपति पूँजी के आधार पर उत्पादन के सभी साधन हासिल कर लेता है तथा मजदूरी के रूप में कीमत चुका कर मजदूर की श्रमशक्ति भी पूरे दिन के लिए ख़रीद लेता है। ख़रीदी गई श्रम शक्ति के द्वारा पैदा किया गया अतिरिक्त मूल्य उद्योगपति-पूँजीपति के नियंत्रण में होता है, पर वितरण व्यवस्था वाणिज्यिक पूँजीपतियों के नियंत्रण में होती है। वितरित सामंतवादी अर्थव्यवस्था में अधिकांश विनिमय व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग उद्योगपतियों तथा व्यापारियों के हाथों में होता है इस कारण बिखरी हुई पूँजी मुद्रा के भौतिक स्वरूप, करेंसी की शक्ल में होती है। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था विकसित पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था का रूप ले लेती है जिसमें एकीकृत पूंजी, बैंकों तथा स्टॉक एक्स्चेंजों के जरिए पूरे उत्पादन-वितरण चक्र को नियंत्रण में ले लेती है। बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था में पूँजी पूंजीपति के नियंत्रण में होती है, पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूंजीपति स्वयं पूँजीवादी चेतना का वाहक बन जाता है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित होती जाती है, अधिक से अधिक विनिमय एकेंद्रित पूँजी के नियंत्रण में आता जाता है और विनिमय, मुद्रा की जगह लेखा पुस्तकों के जरिए होने लगता है। विकसित पूँजीवादी व्यवस्था में, परिसंपत्तियों तथा मुद्रा के रूप में निष्क्रिय मूल्य, निजी स्वामित्व के रूप में अलग-अलग सरमायेदारों के नियंत्रण में होता है, पर एकेंद्रित पूँजी के रूप में मूल्य सक्रिय होकर एक स्वायत्त चेतन शक्ति बन जाता है और पूँजी-धारक पूँजीपतियों के माध्यम से सभी तरह की वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन तथा वितरण और उनके द्वारा पैदा होने वाले अतिरिक्त मूल्य का नियंत्रण करने लगता है। विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में, उत्पादन-वितरण का चक्र पूरा होने तक हर व्यक्ति को उसका लागत मूल्य पूरी पारदर्शिता के साथ मिल जाता है। कच्चा माल देनेवाले को उसका भुगतान तथा मजदूर को उसकी श्रमशक्ति का मूल्य मजदूरी के रूप में, बाजार की दर पर मिल जाता है। अचल संपत्ति के मालिक को किराया तथा मुद्रा मुहैया कराने वाले को ब्याज मिल जाता है। प्रबंधकों को भी उनकी तनख्वाहें पारदर्शी तरीके से मिल जाती हैं। आधारभूत सुविधाएँ जुटाने तथा क़ानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए सरकार को भी टैक्स के रूप में उसका उचित हिस्सा मिल जाता है।
पर सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का, व्यक्तिगत रूप में बँटवारा समस्या पैदा करता है, और इसके बँटवारे में लुका-छिपी का खेल चलता है। अतिरिक्त मूल्य के नियंत्रण तथा बँटवारे को प्रभावित कर सकने वाला हर व्यक्ति, अपनी क्षमता तथा हैसियत के अनुसार येन केन प्रकारेण, अपनी भूमिका को अधिक महत्वपूर्ण दर्शा कर, अतिरिक्त मूल्य का अधिक से अधिक हिस्सा हड़पने का प्रयास करता है। पूँजीपति बही-खातों में हेरा-फेरी के जरिए ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पने की कोशिश करता है जो राजसत्ता के अनुमोदन के बिना संभव नहीं हो सकता है। ब्याज और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों की दरें तय कर के राज्य, अतिरिक्त मूल्य के बंटवारे को संतुलित करने का प्रयास करता है। बुर्जुआ जनवाद में राज्य को प्रत्यक्ष तौर पर बिना किसी भेदभाव के शासन करने का दिखावा करना होता है इसलिए प्रत्यक्ष में शासकवर्ग हर निर्णय आमजन के लिए हितकारी दर्शाने का प्रयास करता है। पर पूँजी, परोक्ष में राजसत्ता को नियंत्रित करनेवाले जनप्रतिनिधियों तथा कर्मचारियों को रिश्वत के जरिए हिस्सा-बाँट में शामिल कर लेती है। जाहिर है राजसत्ता के नियंत्रण में जो जितना महत्वपूर्ण होता है रिश्वत के रूप में अतिरिक्त मूल्य में उसको उतना ही बड़ा हिस्सा मिलता है  
प्र- राजनैतिक-अर्थव्यवस्था में काले धन का स्वरूप तथा स्रोत क्या है?
उ- मानवीय श्रम द्वारा निर्मित वे चीज़ें जो भविष्य में उपभोग के लिए संचित की गयी हैं या उपभोग योग्य चीज़ों में परिवर्तित की जा सकती हैं, संपत्ति कहलाती हैं। सामाजिक व्यवहार के दायरे में लोग चीज़ों को निजी उपभोग के लिए इस्तेमाल करते हैं इस कारण सामाजिक व्यवहार के दायरे में संपत्ति का आंकलन उसकी वर्तमान या भविष्य के लिए उपयोगिता के आधार पर होता है न कि विनिमय मूल्य के आधार पर। पर राजनैतिक अर्थव्यवस्था के दायरे में संपत्ति का उपयोग विनिमय के लिए किया जाता है, इसलिए संपत्ति की पहचान उसके विनिमय मूल्य के आधार पर धन के रूप में की जाती है। विनिमय पूरी तरह एक सामाजिक प्रक्रिया है इसलिए किसी चीज का एक समय पर संपत्ति के रूप में उपभोग किया जा सकता है, तो उसी चीज को उसमें कोई बदलाव किये बिना, किसी और समय, धन के रूप में विनिमय के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। किसी संपत्ति की धन के रूप में पहचान केवल उसके मूल्य के वैचारिक स्वरूप से होती है, पर उसी संपत्ति की उपभोग योग्य वस्तु के रूप में पहचान उसके भौतिक स्वरूप से होती है। अमूर्त चिंतन की कुशलता न होने के कारण, आमजन द्वारा संपत्ति को ही धन का पर्याय मान लिया जाता है। मूल्य की ही तरह धन का भी अपना कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता है, उसका स्वरूप भी पूरी तरह काल्पनिक होता है। लोगों के बीच मूल्य के आदान प्रदान के लिए भौतिक चीजों की जरूरत होती है जो उत्पादों या करेंसी के रूप में होती हैं। इस प्रकार धन, जिसकी अंतर्वस्तु मूल्य है, उसकी भौतिक अधिरचना संपत्ति या करेंसी कुछ भी हो सकता है।
जनवादी जनतंत्रिक राज्य में अतिरिक्त मूल्य के बँटवारे के लिए नियम क़ानून बनाने तथा उन्हें लागू करवाने का  दायित्व तथा अधिकार जनप्रतिनिधियों द्वारा गठित की गई सरकार के पास होता है। सामूहिक रूप से पैदा किया गया अतिरिक्त मूल्य, जो धन के रूप में, पारदर्शी तरीके से लोगों के बीच आम सहमति के साथ, नियम क़ानून के अनुसार हस्तांतरित होता है, वह सफ़ेद धन कहलाता है। पर जो अतिरिक्त मूल्य, धन के रूप में, आम जनता की नज़रों से ओझल, नियम क़ानून की हेरा-फेरी के साथ हस्तांतरित होता है, वह कालाधन कहलाता है। पैदा होते समय अतिरिक्त मूल्य पूँजी के नियंत्रण में होता है पर उसके बँटवारे की नीतियों का नियंत्रण राज्य के नियंत्रण में होता है। जाहिर है कि अतिरिक्त मूल्य का, किसी भी स्तर पर हेरा-फेरी के साथ बँटवारा, पूँजीपतियों, जनप्रतिनिधियों तथा सरकारी कर्मचारियों की साँठ-गाँठ के बिना असंभव है। अर्थव्यवस्था में कोई भी धन, आदान प्रदान की अनेकों प्रक्रियाओं से गुज़रता रहता है जब तक कि उसका अस्तित्व उपभोग के कारण या अन्य किसी कारण से समाप्त नहीं हो जाता है। करेंसी, सरकार द्वारा प्रत्याभूत मूल्य का आश्वासन दर्शाता है जिसका उपयोग केवल विनिमय के लिए किया जा सकता है न कि किसी व्यक्तिगत उपभोग के लिए इस कारण धन के रूप में उसका अंत केवल सरकार द्वारा आश्वासन वापस लेने या अन्य किसी कारण से नष्ट हो जाने पर ही हो सकता है, न कि उपभोग के द्वारा।
इस प्रकार किसी भी धन की अंतर्वस्तु, उसका मूल्य या मुद्रा के सापेक्ष उसकी कीमत होती है, और उसकी अधिरचना संपत्ति या करेंसी कुछ भी हो सकती है। संपत्ति या करेंसी के रूप में किसी भी धन को काले धन या सफ़ेद धन के रूप में चिन्हित कर पाना असंभव है। उसका काला या सफ़ेद होना उस प्रक्रिया पर निर्भर करता है जिस प्रक्रिया के द्वारा उसे हासिल किया गया है। अगर हासिल करने की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी है तथा नियम क़ानून का सही पालन किया गया है तो हासिल किया गया धन सफ़ेद माना जाता है और अगर हासिल करने की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी नहीं है तथा नियम क़ानून का सही पालन नहीं किया गया है तो हासिल किया गया धन काला माना जाता है।
प्र- क्या 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों का विमुद्रीकरण काले धन को समाप्त करने में मददगार होगा?
उ- 8 नवंबर 2016 की रात से अचानक 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि यह क़दम काले धन को पकड़ने तथा सरकार के क़ब्ज़े में लाने के लिए उठाया गया है। प्रधानमंत्री का दावा कितना प्रभावी होगा यह समझने के लिए विमुद्रीकरण के लिए अपनाई गई प्रक्रिया तथा धारणाओं का तथ्यपरक विश्लेषण करना होगा। सबसे पहले यह मानना कि अधिकांश काला धन 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों के रूप में मौजूद है, गलत है। धन अर्जन की प्रक्रिया पर ध्यान दिये बिना आम जनता के बीच विनिमय के लिए 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों को खर्च करना ग़ैरक़ानूनी घोषित करना, पर साथ ही कुछ घोषित प्रतिष्ठानों की सेवाएं खरीदने के लिए उन्हीं करेंसी नोटों को कानूनी घोषित करना दर्शाता है कि करेंसी नोटों की पहचान काले-धन या सफ़ेद-धन के रूप में नहीं की जा सकती है। 31 दिसंबर 2016 के बाद 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोट पूरी तरह अमान्य हो जायेंगे। नोटबंदी से पहले 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोट जो सर्कुलेशन में थे उनका मूल्य 14 लाख करोड़ रुपये है तथा पहले वित्त मंत्रालय का अनुमान था कि लगभग 12 लाख करोड़ रुपये के मूल्य के करेंसी नोट रिज़र्व बैंक के पास सफ़ेद-धन के रूप में वापस आ जायेंगे जिसके बदले रिज़र्व बैंक को नये करेंसी नोट जारी करने पड़ेंगे। जो 2 लाख करोड़ रुपये मूल्य के नोट वापस नहीं आ पाएँगे, उनके बदले सरकार 2 लाख करोड़ की देनदारी से मुक्त हो जायेगी अर्थात सरकार को 2 लाख रुपये का शुद्ध मुनाफा हो जायेगा। पर वापस न हो पाने वाली रक़म का कितना हिस्सा काला धन है और कितना हिस्सा ग़रीब मेहनतकशों की ईमानदारी की कमाई का है, यह कभी पता नहीं लग पायेगा। अगर नये नोटों को छापने और पुराने नोटों को ठिकाने लगाने पर कुछ हज़ार करोड़ का खर्च भी आयेगा तो भी सरकार फ़ायदे में रहने वाली थी। पर नये अनुमान के अनुसार पूरे चौदह लाख करोड़ रुपये के नोट वापस आने की संभावना है और अगर कैशलेस इकॉनॉमी के उद्देश्य के अनुरूप रिज़र्व बैंक उससे कम मूल्य के नोट जारी करता है, तो सरकार को उतने मूल्य की कमी की भरपाई करनी होगी क्योंकि सरकार ने वापस की गई करेंसी का मूल्य अदा करने का वायदा किया है। इसके लिए सरकार को अपना विदेशी मुद्रा भंडार घटाना पड़ेगा या अपनी परिसंपत्तियां बेचनी पडेंगीं। विशेषज्ञों के नये आंकलन के अनुसार 500₹ तथा 1000₹ के पुराने करेंसी नोट लगभग सारे वापस हो जायेंगे और सरकार को कालेधन के रूप में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। सरकार के नोटबंदी के क़दम के कारण सरकार की जमाखर्च तालिका में, शायद जमा के नाम पर कुछ ख़ास न हो, पर खर्च के हिस्से में, नई करेंसी छापने में आनेवाले खर्च तथा कैशलेस करेंसी के कारण होनेवाले खर्च के कारण, कम से कम दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान जुड़ जायेगा।


प्र- अर्थव्यवस्था में करेंसी की जरूरत का आंकलन किस प्रकार किया जाता है?
उ- करेंसी, उपभोग योग्य वस्तुओं के विनिमय का माध्यम है। उत्पाद, एक उत्पादन केंद्र से निकल कर अनेकों उपभोक्ताओं के बीच बँटता है तो करेंसी अनेकों उपभोक्ताओं से एकत्र होकर केंद्रीयकृत बैंकों में पहुंचती है जो पुन: उत्पादन केंद्रों में पहुँच कर   उत्पादन को गति देती है। करेंसी राजसत्ता के उस आश्वासन का भौतिक स्वरूप है जिसके भरोसे लोग विनिमय के दौरान, एक दूसरे से अनजान, अपना उत्पाद एक दूसरे को सौंपते हैं जो पूँजी के लागत-वसूली के उस चक्र को पूरा करता है जिसके जरिए लोगों के भौतिक जीवन की ज़रूरतें पूरी होती हैं और पूँजी अतिरिक्त मूल्य को बटोरती है। करेंसी में लोगों का भरोसा, उस आश्वासन को पूरा कर सकने की राज्य की संगठित शक्ति के बरसों के अनुभव के बाद पैदा हुआ है। पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था में, जहाँ एकेंद्रित पूँजी बैंकों के जरिए उत्पादन तथा विनिमय के हर क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लेती है, करेंसी का स्थान बैंकों के चेक, क्रेडिट कार्ड, पी नोट जैसे प्रपत्र लेने लगते हैं जो एकीकृत पूँजी के आश्वासनों का भौतिक स्वरूप हैं। बैंकों के प्रपत्रों में भी भरोसा पैदा होने में बरसों लगते हैं और उस भरोसे का विस्तार एकीकृत पूंजी के विस्तार पर निर्भर करता है। भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था में 45% से ज्यादा उत्पादन असंगठित क्षेत्र में सामंती तथा बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था के अनुरूप होता है जिसमें 80% से अधिक आबादी कार्यरत है। इस क्षेत्र में पूँजी पूरी तरह विस्तरित है और इसमें करेंसी का स्थान बैंक के प्रपत्र नहीं ले सकते है। असंगठित क्षेत्र में विनिमय करेंसी के माध्यम से ही होता है तथा उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होने तक पूँजी करेंसी के भौतिक स्वरूप में ही रहती है। अगर यह चक्र पूरा होने में तीन महीने लगते हैं तो असंगठित क्षेत्र के वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1/4 हिस्से या 25% मूल्य की करेंसी की आवश्यकता होगी। भारत का कुल सकल घरेलू उत्पाद लगभग 130 लाख करोड़ रुपये का है जिसका 45% अर्थात लगभग 60 लाख करोड़ रुपये होता है। इस हिसाब से मौजूदा दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था को लगभग 15 लाख करोड़ रुपये की करेंसी की जरूरत है।
केंद्रीयकृत बैंकों में करेंसी के जमा-निकासी के आधार पर रिज़र्व बैंक बाजार में करेंसी की जरूरत का आंकलन करता है तथा करेंसी सर्कुलेशन से वापस लेकर या सर्कुलेशन में डाल कर मांग-आपूर्ति संतुलित करता है। रिसर्व बैंक यह एक निर्धारित सीमा के अंदर ही कर सकता है। उस सीमा को बदलने के लिए सरकार को बांड जारी करने पड़ते हैं।
प्र- क्या सरकार का विमुद्रीकरण का निर्णय विवेकपूर्ण है?
उ- समाजवाद दो तरह का होता है, काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद। काल्पनिक समाजवाद, निम्न मध्यवर्गीय चेतना की समतामूलक समावेशी समाज की कल्पना पर आधारित है। निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी समझता है कि उत्पादन संबंधों के भौतिक आधार को बदले बिना, राजनैतिक हस्तक्षेप के जरिए सामाजिक संबंधों को बदला जा सकता है। मौजूदा विमुद्रीकरण का फ़ैसला इसी समझ पर आधारित है कि विकसित देशों की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को भी कैशलेस बनाया जा सकता है। काल्पनिक समाजवादियों का मानना है कि कुछ दिन कष्ट सहने के बाद लोग कैशलेस व्यवस्था के आदी हो जायेंगे। वैज्ञानिक समाजवादी के लिए यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि पूँजीवाद के विकास के बिना न तो उत्पादन संबंधों को बदला जा सकता है और न ही भारतीय अर्थव्यवस्था को कृत्रिम तरीके से कैशलेस बनाया जा सकता है। जिस तरह से अचानक 500₹ तथा 1000₹ के करेंसी नोटों को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया था तथा नये नोटों की सीमित आपूर्ति सीमित रही है, अनुमान लगाया जा सकता है कि असंगठित क्षेत्र का उत्पादन लगभग पंद्रह दिन पिछड़ गया है जिसका अर्थ है राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद के 45% के 1/24वें हिस्से का नुकसान अर्थात सकल घरेलू उत्पाद में 2% की कमी। इस कमी की भरपाई किसके हिस्से में जायेगी ये तो बताना मुश्किल है।

सुरेश श्रीवास्तव                
11 दिसंबर, 2016

Monday 21 November 2016

500₹ तथा 1000₹ के नोटों के विमुद्रीकरण के निहितार्थ

500तथा 1000 के नोटों के विमुद्रीकरण के निहितार्थ

-           परिवेश से आगत सूचना के अनुसार प्रतिक्रिया करना, सभी जीवों का सहज प्राकृतिक गुण है। पर तर्कबुद्धि के आधार पर योजनाबद्ध तरीके से परिवेश के साथ अंतर्व्यवहार करना मानवीय चेतना का विशिष्ट प्राकृतिक गुण है।
-           प्रकृति संसाधनों से भौतिक जीवन के लिए आवश्यक चीजों का उत्पादन करने तथा उनका उपभोग करने के लिए परस्पर सहयोग करना, मानव समाज के विकास में जंगलयुग के स्तर का सहज प्राकृतिक गुण है। पर उत्पादन में सहयोग तथा उपभोग में प्रतिस्पर्धा व संघर्ष, और प्रतिस्पर्धा व संघर्ष से उपजे संकट से समाज को बचाने के लिए तर्कबुद्धि के आधार पर उचित हस्तक्षेप करना, मानव समाज के विकास में, वर्ग विभाजित सभ्यता के स्तर पर, सामाजिक चेतना का विशिष्ट गुण है।
-           प्रतिस्पर्धा तथा संघर्षों के घातक परिणामों से समाज को बचाने के लिए, राजनैतिक-अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करने के लिए, सिद्धांत आधारित रणनीति तैयार करना और दूरगामी परिणामों को हासिल करने के लिए कार्यनीति बनाना तथा उसमें आवश्यक बदलाव सिद्धांत के आधार पर ही करना, तर्कबुद्धि आधारित हस्तक्षेप का द्योतक है। (सिद्धांत का अर्थ है वह अवधारणा जो व्यापकतम परिस्थितियों की सही व्याख्या कर सके।) फौरी राजनैतिक फायदों के लिए सिद्धांत रहित व्यवहार को ही सिद्धांत तथा रणनीति के तौर पर देखना, तर्कबुद्धि विहीन हस्तक्षेप का द्योतक है।
-           8 नवंबर 2016 की शाम, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रसारण से उपजे आर्थिक संकट तथा उससे निपटने के उपायों के निरपेक्ष विश्लेषण के आधार पर ही तय किया जा सकता है कि मौजूदा सरकार का, 500 तथा 1000 के नोट बंद करने का यह कदम, फौरी राजनैतिक फायदे के लिए किया गया सिद्धांत रहित विवेकहीन हस्तक्षेप है, या फिर दूरगामी आर्थिक सहिष्णुता हासिल करने के लिए आर्थिक नीति में किया गया सिद्धांत आधारित विवेकपूर्ण हस्तक्षेप है।
-           निरपेक्ष विश्लेषण के लिए, मूल्य, मुद्रा तथा करेंसी की मूलभूत समझ हासिल करना तथा अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका को समझना जरूरी है।
-           अर्थ व्यवस्था में सभी उपयोगी चीजों के विनिमय में, उनकी मात्रा की तुलना, उनके अंदर निहित, जिस मूल्य के आधार पर की जाती है वह मानवीय श्रम-शक्ति के द्वारा ही पैदा होता है। किसी चीज के उत्पादन में लगने वाली मानवीय श्रम-शक्ति के दो पहलू होते हैं। एक तो श्रम-शक्ति की विशिष्ट श्रम पैदा करने की वह क्षमता जो किसी वस्तु को उपभोग योग्य बनाता है। दूसरा वह औसत सामाजिक श्रम पैदा करने की क्षमता जिसके कारण विनिमय में अलग-अलग उत्पादों की मात्रात्मक तुलना उनमें लगे हुए औसत श्रमकाल (जिसे मूल्य कहा जाता है) के आधार पर की सकती है। जिस सर्वमान्य मापदंड के आधार पर चीजों के मूल्य की तुलना की जाती है या जिसके आधार पर चीजों की कीमत दर्शायी जाती है, उस मुद्रा का न अपना कोई मूल्य होता है और न उपयोग सिवाय इसके कि उसका सभी प्रकार की वस्तुओं के विनिमय की इकाई के रूप में इस्तेमाल होता है क्योंकि वह राज्य द्वारा सत्यापित होती है तथा राज्य की सीमाओं के अंदर उसकी स्वीकार्यता कानूनी रूप से हर किसी के लिए बाध्यकारी होती है।
-           हर वस्तु की उपयोगिता उसके भौतिक स्वरूप तथा गुणों पर निर्भर करती है, पर वस्तु का मूल्य पूरी तरह एक वैचारिक चीज है जो समाज में विनिमय की परिस्थितियों में उजागर होता है और विनिमय के क्षेत्र के बाहर न उसका कोई अस्तित्व होता है और न ही कोई उपयोगिता। विनिमय के दौरान खरीदने वाले के लिए खरीदी जाने वाली वस्तु के मूल्य की पहचान उस वस्तु के भौतिक स्वरूप में उपभोग मूल्य के रूप में हो जाती है, पर बेचने वाले की रुचि किसी उपभोग योग्य वस्तु में न होकर केवल, राज्य द्वारा प्रत्याभूत मुद्रा की उतनी संख्या में होती है जो कीमत के रूप में बेची जानेवाली वस्तु के मूल्य को दर्शाती है।  
-           इस प्रकार मुद्रा का, विनिमय से बाहर एक उपयोगी भौतिक वस्तु के रूप में उपभोग-मूल्य, और विनिमय के दौरान, राजसत्ता द्वारा प्रत्याभूत मुद्रा (एक आश्वासन का मूर्त रूप) से तुलना के आधार पर कीमत के रूप में दर्शाया गया विनिमय-मूल्य, दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। सिक्कों का वास्तविक मूल्य उनमें मौजूद धातु के बाजार मूल्य के बराबर होता है, पर मुद्रा के रूप में उनका प्रत्यक्ष मूल्य उनके वास्तविक मूल्य से कई गुना अधिक होता है। पर विशिष्ट परिस्थितियों में जहां धातु की बाजार में कीमत इतनी बढ़ जाती है कि सिक्के में लगी धातु की कीमत उसके प्रत्यक्ष मान से अधिक हो जाय तो सिक्का मुद्रा के रूप में विनिमय से स्वयं बाहर हो जाता है। इसी प्रकार करेंसी नोट का, विनिमय से बाहर वास्तविक मूल्य एक रद्दी कागज के मूल्य के बराबर ही होता है, पर विनिमय के दौरान मुद्रा के रूप में उसका मूल्य कई गुना अधिक होता है। 1000 के करेंसी नोट की उत्पादन लागत लगभग 3 होती है, पर विनिमय में वह 1000 के मूल्य का पर्याय है। यह समझ कि नगद में रखा हुआ रुपया संपत्ति होता है गलत समझ है। जेब में रखे हुए 1000 के नोट का अपना कोई मूल्य नहीं होता है, मूल्य होता है उस पर अंकित राज्य के उस आश्वासन का जो उसे प्रतिभूति का स्वरूप प्रदान करता है। जिस क्षण राज्य का आश्वासन समाप्त हो जाता है उसी क्षण उसका विनिमय मूल्य शून्य रह जाता है। 8 नवंबर 2016 के बाद 500 रुपये तथा 1000 के नोटों का आम जनता के बीच विनिमय मूल्य शून्य हो गया है क्योंकि इस प्रकार के विनिमय में सरकार ने आश्वासन वापस ले लिया है। पर पेट्रोल पंप, बिजली विभाग आदि स्थानों पर विनिमय में उनका मूल्य अभी भी उन पर अंकित मूल्य के बराबर ही है क्योंकि उन विभागों को किये जाने वाले भुगतान को अभी भी सरकार का आश्वासन हासिल है।       
-           इस पृथ्वी पर मौजूद सारी भौतिक संपत्ति की पहचान, मानवीय श्रम द्वारा निर्मित उपयोगी वस्तुओं के रूप में ही की जाती है। संपत्तियां जब तक अपने निष्क्रिय रूप में होती हैं उनका मोल केवल काल्पनिक तथा भावनात्मक होता है। उनका वास्तविक मूल्य या तो उपभोग के दौरान उजागर होता है या विनिमय के दौरान। करेंसी नोट के रूप में संचित मुद्रा का मूल्य केवल विनिमय के दौरान ही होता है, विनिमय के बाहर उसका कोई उपयोग नहीं और इसलिए कोई उपयोगी मूल्य भी नहीं है। 9 नवंबर के बाद 500 तथा 1000 की करेंसी का कोई मूल्य नहीं रह गया है क्योंकि विनिमय के लिए उसे गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है। उन्हें केवल एक आश्वासन के रूप में दूसरे नये आश्वासन के साथ ही बदला जा सकता है। मुद्रा सरकार के नियंत्रण में ही छापी जाती है तथा छपने के बाद सबसे पहले सरकार की ही संपत्ति होती है। या यूं कह सकते हैं कि सरकार, बहुत ही कम वास्तविक लागत के साथ, केवल अपनी साख के आधार पर अतिरिक्त मूल्य अर्थात अपने लिए मुनाफा पैदा करती है, पर साथ ही आश्वासन के रूप में देनदारी भी पैदा करती है।  मुनाफा तो सरकार के हाथ में सिक्कों या करेंसी नोटों के जारी होने के साथ ही आ जाता है, पर देनदारी तभी उत्पन्न होती है जब सरकार को किन्हीं परिस्थितियों में किसी करेंसी को वापस लेना पड़े जैसे नोटों के गलने या फटने पर होता है या किसी कारण कुछ नोटों को वापस लेना पड़े जैसा कि पिछले दिनों 1000 के नोटों की छपाई में कुछ सीरीज के नोटों में खामी होने के कारण उन्हें वापस लेना पड़ा था।
-           मूल्य पूरी तरह एक वैचारिक सामाजिक चीज है, जो सामूहिक-चेतना तथा व्यक्तिगत-चेतना में उस वास्तविक औसत सामाजिक समरूप श्रम का प्रतिबिंबि होता है जो, उत्पादन के दौरान उन चीजों में अंतर्निहित हो जाता है, जिनके भौतिक स्वरूप के कारण, विनिमय के दौरान वह प्रतिबिंबित होता है। इसी प्रकार मुद्रा भी पूरी तरह एक वैचारिक सामाजिक चीज है जो मूल्य के पर्याय के रूप में, सामाजिक-चेतना तथा व्यक्तिगत चेतना में राज्य समर्थित उस आश्वासन से उपजती है जो सिक्कों तथा करेंसी के भौतिक स्वरूप में मौजूद होता है।
-           प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को, व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम द्वारा उपभोग योग्य बनाना ही मानव के व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन का आधार है। विनिमय आधारित अर्थव्यवस्था, विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों में ही जन्म लेती है, और संपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया का एक अंश मात्र है न कि संपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया। विनिमय में भी, करेंसी आधारित विनिमय का तो और भी बहुत छोटा अंश होता है। इस कारण केवल मुद्रा से तुलना के आधार पर दर्शाई गई कीमत को ही उत्पादों और सेवाओं का मूल्य मान कर न तो राजनैतिक-अर्थव्यवस्था का सही-सही विश्लेषण किया जा सकता है और न ही सामाजिक विकास प्रक्रिया को ठीक-ठीक समझा जा सकता है। राजनैतिक-अर्थव्यवस्था के सही-सही विश्लेषण के लिए उत्पादों तथा सेवाओं के विनिमय में, उनके विनिमय मूल्य को मुद्रा के सापेक्ष कीमत के रूप में न देखकर, उनके उत्पादन में लगे, दोहरी प्रकृति के श्रमकाल के रूप में देखना होगा। इसके बिना यह समझ पाना असंभव है कि विनिमय आधारित अर्थव्यवस्था में, उत्पादों को उनकी कीमत पर बेचे जाने के बावजूद अतिरिक्त मूल्य अर्थात मुनाफा कैसे पैदा होता है और किस प्रकार पूंजी अतिरिक्त मूल्य को हासिल कर स्वविस्तार करती है। श्रम आधारित मूल्य की गलत समझ के कारण ही वामपंथी समझ ही नहीं पाते हैं कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अतिरिक्त मूल्य के हस्तांतरण की प्रक्रिया सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था में हस्तांतरण की प्रक्रिया से गुणात्मक रूप से भिन्न होती है।(संदर्भ के लिए देखें,  तू ही राहबर, तू ही राहजन            http://marx-darshan.blogspot.in/2015/12/blog-post.html)
-           उत्पादन तथा उपभोग प्रक्रिया का चक्र दो भागों में पूरा होता है। पहली प्रक्रिया है प्राकृतिक संसाधनों, मानव द्वारा निर्मित उत्पादन के साधनों तथा मानवीय श्रम-शक्ति के द्वारा उपभोग योग्य वस्तुओं का उत्पादन करना, दूसरी प्रक्रिया है उत्पादित वस्तुओं के उपभोग के द्वारा उत्पादन के तीनों अवयवों को पुनर्जीवित तथा विकसित करना।  
-           उत्पादन के पहले दो अवयव निर्जीव निष्क्रिय होते हैं और नये उत्पाद के मूल्य में उनका उतना ही योगदान होता है जितना मूल्य उनके रख रखाव के लिए जरूरी चीजों के उपभोग पर खर्च होता है। निर्जीव निष्क्रिय अवयव अतिरिक्त मूल्य पैदा नहीं कर सकते हैं। पर अतिरिक्त मूल्य पैदा करना सजीव सक्रिय मानवीय श्रमशक्ति का प्रकृति प्रदत्त गुण है। खर्च की गई श्रमशक्ति को पुनर्जीवित तथा परिष्कृत करने में श्रमिक जितने मूल्य के उत्पाद का उपभोग करता है उससे कहीं अधिक मूल्य वह अपनी श्रमशक्ति को खर्च कर पैदा कर सकता है। इसके साथ ही सामूहिक श्रमशक्ति की उत्पादकता, व्यक्तिगत श्रमशक्ति की उत्पादकता से गुणात्मक रूप से भिन्न और कई गुना अधिक होती है। चीजों के विनिमय के दायरे के बाहर बहुत से कार्य कलाप होते हैं जो पूरी तरह व्यक्तिगत तथा सामूहिक सामाजिक होते हैं, पर जिनका व्यक्तिगत तथा सामूहिक क्षमताओं के तथा उत्पादकता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है ।
-           अतिरिक्त मूल्य या मुनाफा केवल उत्पादन में मानवीय श्रमशक्ति के फलोत्पादक उपयोग के द्वारा ही पैदा किया जा सकता है। जितना अधिक दक्ष उत्पादन की योजना तथा उसका कार्यान्वयन होगा उतना ही अधिक अतिरिक्त मूल्य होगा। श्रमशक्ति के उपभोग या खर्च के बिना अतिरिक्त मूल्य पैदा नहीं हो सकता है, उसका केवल एक उत्पाद से दूसरे में रूपांतरण हो सकता है। किसी चीज के उत्पादन से उपभोग तक की विनिमय प्रक्रिया, खरीद-बिक्री के एक ही चरण में पूरी हो सकती है या कई चरणों में भी। हर चरण में, उत्पाद को खरीदने में लगाई गई पूंजी, उत्पाद की बिक्री पर अतिरिक्त मूल्य के साथ वापस हो जाती ही। अनेकों छोटे-छोटे खरीद-बिक्री के चक्रों से मिलकर उत्पादन-उपभोग का चक्र पूरा होता है। हर चरण में बिक्री-मूल्य तथा खरीद-मूल्य के अंतर (आंशिक अतिरिक्त मूल्य) का कुल जोड़, उपभोग के समतुल्य-मूल्य तथा लागत मूल्य के अंतर अर्थात कुल पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के बराबर होता है। ऊपर दिया कथन कि ‘सिक्के और करेंसी जारी कर सरकार अपनी साख के आधार पर अतिरिक्त मूल्य अर्थात अपने लिए मुनाफा पैदा करती है’ पूरी तरह सही नहीं है क्योंकि उसके साथ ही उतनी देनदारी भी पैदा होती है। जारी किये गये सिक्कों तथा करेंसी का मूल्य सरकार पूंजी के रूप में इस्तेमाल करती है। जारी किये गये सिक्कों तथा करेंसी का मूल्य, सरकार का पूंजी निवेश होता है जिसके आधार पर अर्थव्यवस्था में पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य में से एक हिस्सा सरकार रेपो रेट पर ब्याज, उत्पाद कर तथा अन्य करों के रूप में वसूलती है।
         -  वर्ग विभाजित समाज में, सारा संघर्ष उस अतिरिक्त मूल्य में अधिक से अधिक हिस्सा बंटाने के लिए होता है जो उत्पादन के स्तर पर उत्पाद के रूप में पैदा होता है पर हासिल उत्पाद के उपभोग के बाद ही होता है। उत्पादन में लगने वाले तीनों अवयवों के स्वामित्व के आधार पर, तीनों वर्ग अपनी-अपनी ताकत के आधार पर अतिरिक्त मू्ल्य का हिस्सा हड़पने में कामयाब होते हैं।
-           सामंतवादी व्यवस्था में प्राकृतिक संसाधन सामंतवर्ग के आधिपत्य में होते हैं, श्रमशक्ति तथा श्रम के साधन श्रमिकवर्ग के आधिपत्य में और अन्य संपत्तियां तथा वितरण के साधन बुर्जुआवर्ग के आधिपत्य में होती हैं। सामंतवादी व्यवस्था में राज्य का गठन राजशाही के रूप में होने के कारण, सामंतवादी वर्ग सबसे अधिक ताकतवर होता है। उत्पादन व्यक्तिगत स्तर पर होने के कारण मजदूरवर्ग सबसे कमजोर वर्ग होता है।
-           उत्पादन का स्तर बढ़ने तथा व्यापार का विस्तार राज्य की सीमाओं के बाहर होने के साथ बुर्जुआवर्ग के पास साधन एकत्रित होते जाते हैं। इसके साथ ही बुर्जुआवर्ग निम्न बुर्जुआजी की मदद से, श्रमिकवर्ग को अपने पीछे लामबंद कर राज्य की शक्ति कब्जाने में सफल हो जाता है और राज्य का गठन राजशाही की जगह राष्ट्र-राज्य के रूप में जनवाद के आधार पर हो जाता है। राज्य के समर्थन तथा संचित पूंजी के आधिपत्य के कारण उत्पादन तथा अतिरिक्त मूल्य का सृजन अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच जाता है।
-           पूंजीवादी व्यवस्था में, प्राकृतिक संसाधन राज्य के नियंत्रण में आ जाते हैं, उत्पादन के साधन और परिसंपत्तियां बुर्जुआवर्ग के स्वामित्व में तथा कामगार की श्रमशक्ति पूंजीपति के नियंत्रण में हो जाती है। अतिरिक्त मूल्य की भागीदारी में राज्य ब्याज तथा विभिन्न करों के रूप में अपना हिस्सा लेता है, बुर्जुआवर्ग किराये तथा ब्याज के रूप में अतिरिक्त मूल्य में हिस्सा बंटाता है, और पूंजीपतिवर्ग मुनाफे के रूप में अतिरिक्त मूल्य में हिस्सा बंटाता है। यहां पर वर्ग तथा व्यक्ति का अंतर समझना महत्वपूर्ण है। एक व्यक्ति एक ही समय पर या अलग-अलग समय चेतन या अवचेतन स्तर पर अलग-अलग समूहों तथा वर्गों का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि अतिरिक्त मूल्य के बंटवारे में मुख्य संघर्ष दो गुटों के बीच होता है। एक ओर होता है पूंजीपतिवर्ग और दूसरी ओर होता है संपत्तिवानवर्ग। राज्य, प्राकृतिक संसाधनों तथा संगठित हिंसक शक्ति के नियंत्रण के कारण दोहरी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक तो प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के कारण संपत्तिवानवर्ग की भूमिका तथा दूसरी संघर्षरत वर्गों के बीच पंच की भूमिका। पर असंगठित तथा राजनैतिक रूप से अपरिपक्व होने के कारण मजदूरवर्ग की भूमिका महत्वहीन रहती है। संघर्षरत संपत्तिवानवर्ग तथा पूंजीपतिवर्ग राजसत्ता का समर्थन हासिल करने के लिए जनप्रतिनिधियों तथा सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयास करते हैं।
-           पूंजी, एकत्रीकरण के अपने चरित्र के कारण, दिनोंदिन अधिक शक्तिशाली होती जाती है और सभी वर्गों को अपने प्रभाव में लेती जाती है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण हर राष्ट्र की मुद्रा स्वयं एक जिंस या पण्य उत्पाद बन जाती है जिसका विनिमय उसी प्रकार होने लगता है जिस प्रकार अन्य उत्पादों का। अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के करार-पत्रों का आश्वासन, मुद्रा के रूप में राज्य के आश्वासन से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। जैसे-जैसे पूंजी का बर्चस्व बढ़ता जाता, ब्याज की दरें तथा कॉरपोरेट टैक्स की दरें घटती जाती हैं तथा मुनाफे की दरें बढ़ती जाती हैं।
-           अतिरिक्त मुनाफे की हवस के कारण पूंजीपति बही खातों में हेराफेरी कर टैक्स चोरी करते हैं और यही धन काला धन कहलाता है। इसी काले धन का एक हिस्सा, पूंजी के प्रबंधकों, बैंक प्रबंधकों और सरकारी कर्मचारियों तथा जनप्रतिनिधियों के बीच रिश्वत के रूप में बंटता है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के मूल चरित्र के कारण, काले धन के उत्पादन तथा बंटवारे को रोकने के लिए किए गये सभी उपाय अंततः बेकार साबित होते हैं।
-           पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पूंजी के एकत्रीकरण के साथ केंद्रीकृत सामूहिक उत्पादन का स्तर बढ़ता जाता है और छोटे स्तर का उत्पादन घटता जाता है। संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारण सामाजिक चेतना का हिस्सा होती है जिसके कारण सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का बंटवारा व्यक्तिगत आधार पर होता है। यही अवधारणा सारे भ्रष्टाचार तथा काले धन का आधार और स्रोत है। जब तक सामाजिक चेतना में यह अवधारणा मौजूद है तब तक न भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है न काले धन को।
-           सरकार के मौजूदा निर्णय का आंकलन करने के लिए कुछ आंकड़े भी ध्यान में रखना होगा। अनुमान लगाया जाता है कि प्रतिवर्ष लगभग 30-40 लाख करोड़ रुपये का काला धन पैदा होता है। 500 तथा 1000 के करेंसी नोटों का मूल्य क्रमशः 2 लाख करोड़ तथा 12 लाख करोड़ है। पहले 9 दिनों में 4 लाख रुपये की करेंसी बदली जा चुकी है जब कि नई करेंसी की आपूर्ति सीमित थी। अगर मान लिया जाय कि दिसंबर के अंत तक और 8 लाख करोड़ वापस हो जायेंगे तो माना जा सकता है कि केवल 2 करोड़ की करेंसी ही काले धन को रूप में बचेगी जो सरकार के खाते में आ जायगी क्योंकि सरकार उतनी देनदारी से मुक्त हो जायेगी। इसका अर्थ है कि काले धन का 5-6% ही करेंसी के रूप में बचता है बाकी या तो परिसंपत्तियों में जमा हो जाता है या फजूलखर्ची में उड़ा दिया जाता है। परिसंपत्तियों से वसूल पाना असंभव है क्योंकि संविधान के अनुसार संपत्ति मौलिक अधिकार है और कानूनी प्रक्रिया के द्वारा यह सिद्ध कर पाना असंभव है कि संपत्ति गैर कानूनी तरीके से अर्जित की गई है। चूंकि काले धन में सरकारी कर्मचारियों तथा जनप्रतिनिधियों की भी भागीदारी होती है इसलिए किसी नेता द्वारा कालेधन को वसूल करने का दावा करना एक जुमले के अलावा कुछ नहीं है।
-           संपन्न वर्ग तथा काले धन के खिलाफ जन आक्रोश को देखते हुए काले धन के खिलाफ लड़ाई का जुमला अक्सर चुनाव के लिए एक प्रभावी नारा होता है। जाहिर है कि आनेवाले उ.प्र. तथा पंजाब के चुनाव में इस जुमले का इस्तेमाल किया जा सकता है। जनता की स्मृति अल्पकालिक होती है, पर इतनी अल्पकालिक भी नहीं कि 2014 के चुनाव में इस्तेमाल किये गये जुमले को इतनी जल्दी भूल जाय।
            यह तो समय ही बतायेगा कि 20 करोड़ मेहनतकश जनता की जिंदगी को 15 दिन के लिए दूभर बना देना अच्छी चुनावी रणनीति साबित होता है कि नहीं।

सुरेश श्रीवास्तव
21 नवंबर, 2016

Tuesday 25 October 2016

सन्निपात में भारतीय कम्युनिस्ट


सन्निपात में भारतीय कम्युनिस्ट
सुरेश श्रीवास्तव
(त्रैमासिक मार्क्स दर्शन के वर्ष 2 अंक 2, जनवरी-जून 2012 से उद्धृत)

            ए.आई.पी.एफ. नामक संस्था ने भारत का समाजवाद का रास्ता’ (India’s Path to Socialism) के नाम से सी.आर.आर. फाउन्डेशन के एन.आर.आर. केंद्र पर 27-30 दिसम्बर 2011 में एक कार्यशाला का आयोजन किया था। कार्यशाला की विषयवस्तु का विचार जिस प्रकार की भ्रामक समझ पर आधारित था उससे कोई दिशा तो क्या मिलनी थी, और अधिक भ्रम ही फैलना था। और वही हुआ। लगभग 50 भागीदारों ने शिरकत की और 22 पर्चे पेश किये गये। हर कोई नया पथ सुझाने में लगा था जिसकी भूलभुलैया में समाजवाद ही कहीं नजर नहीं आया, रास्ता तो क्या मिलना था। श्रोतागण कार्यशाला के शुरु में जितनी उलझन में थे उससे कहीं अधिक भटके हुए कार्यशाला के अंत में नजर आये। अपनी ढपली अपना राग की तर्ज पर हर वक्ता नये समाजवाद के रास्ते की अपनी-अपनी व्याख्या करने में लगा हुआ था, नये समाजवाद की अपनी किसी भी अवधारणा के बिना, और जहां से शुरु किया अंत में घूम फिर कर वापस वहीं पहुंचने के लिए अभिशप्त। हर किसी की आधारभूत मान्यता थी कि मार्क्सवाद ही समाजवाद का रास्ता दर्शा सकता है, पर साथ ही कि पुराना मार्क्सवाद पूंजीवाद के नये स्वरूप पर लागू नहीं किया जा सकता है और इसी कारण नये समाजवाद पर भी नहीं। अतः निष्कर्ष के तौर पर समाजवाद के नये स्वरूप के संदर्भ में मार्क्सवाद में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन पेंच तो यही है कि नये समाजवाद की अवधारणा भी तो संशोधित मार्क्सवाद की रोशनी में ही विकसित की जा सकती है, और इसी पेंच ने हर किसी को मतिभ्रमित कर छोड़ा।
            जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक विद्यार्थी ने नयी पीढ़ी की खीझ को इन शब्दों में व्यक्त किया, ‘मैं यहां वक्ताओं से आग्रह करना चाहता हूं कि कृपया हमें विभिन्न देशों में पूंजीवाद की वर्तमान स्थिति के बारे में या सोवियत संघ के विघटन का इतिहास न बतायें। आज इंटरनेट तथा अपनी लाइब्रेरी के द्वारा उससे कहीं अधिक सूचना हमारी पहुंच में है, जिसे यहां वक्ता हमें देना चाह रहे हैं। कृपया हमारा मार्गदर्शन करें कि हमें करना क्या है, और अगर आपको नहीं मालूम है तो कृपया हमें अकेला छोड़ दीजिये, हम अपना रास्ता स्वयं ढूंढ लेंगे
            अधिकांश वक्ता मार्क्सवादी द्वंद्व तथा भौतिकवाद की दुहाई दे रहे थे पर अपनी कार्यप्रणाली में घोर तत्त्ववादी (Metaphysical), पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। सभी पर्चों में डायलेक्टिक्स, थीसिस तथा एण्टीथीसिस, यूनिटी एण्ड स्ट्रगल ऑफ अपोजिट्स, निगेशन ऑफ निगेशन और क्वांटिटेटिव तथा क्वलीटेटिव चेंज जैसी बकबक की भरमार थी और सभी का लब्बो-लुआब था कि एसटीआर (Scientific and Technical Revolution) और आईसीआर (Information and Communication Revolution) के कारण उत्पादन प्रक्रियाओं में क्रांतिकारी बदलाव आया है, बुर्जुआजी तथा सर्वहारा के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है, प्रजातंत्र तथा समाजवाद की अवधारणाएं एक दूसरे का पर्याय बन गये हैं और इस सब के कारण मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन के काल से अब तक मानव समाज में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है और इस कारण मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन की नसीहतों में आमूल-चूल बदलाव आवश्यक हो गया है।
            कार्यशाला में पढ़े गये सभी पर्चों में व्यक्त हर विचार पर विस्तृत चर्चा दस्तावेजों का पुलिंदा तैयार कर देगी जो अन्वेषी नई पीढ़ी को हताश ही करेगी इस कारण मैं अपने आप को एसटीआर तथा आईसीआर की बुनियादी धारणाओं तथा उत्पादन प्रक्रिया में उनकी भूमिका, सामाजिक-आर्थिक संरचना के रूप में समाज की आधारभूत अवधारणाओं और राज्य की भूमिका तक सीमित रखूंगा, और इस निर्णय को पाठकों के विवेक पर छोड़ूंगा कि पूंजीवाद की तर्कसंगति में कोई गुणात्मक परिवर्तन हुआ है या नहीं। सभी महान चिंतकों से क्षमायाचना के साथ मैं कहना चाहता हूं कि मैं अपने विचारों के समर्थन के लिए उनके उद्धरणों के प्रयोग से बचना चाहूंगा। इसके बनिस्पत मैं मानव तथा मानव-समाज पर लागू होने वाले प्रकृति के आधारभूत नियमों की रोशनी में ही समझाना चाहूंगा कि तथाकथित एसटीआर तथा आईसीआर के कारण पूंजीवाद की मूल तार्किकता तथा समाजवाद की व्याख्या में किसी परिवर्तन की आवश्यकता है, या उनका प्रभाव केवल अधिरचना में कुछ ढांचागत बदलावों तक ही सीमित है। और अंत में मेरे लिए प्रकृति को समझने के लिए द्वंद्व के नियमों को गढ़ने का कोई प्रश्न ही नहीं है बल्कि उन्हें तथा उनके विकास को तो प्रकृति के अंदर ही ढूंढना है।
            मानव अपने जीवन-यापन के साधन, न केवल जानवरों की तरह अपने श्रम द्वारा जुटाते हैं, बल्कि उनसे अलग, श्रम-साधनों के जरिए उत्पादन द्वारा भी जुटाते हैं। जैसे ही वे अपने जीवन-यापन के साधनों का उत्पादन करने लगते हैं, वे अपने आप को जानवरों से अलग रूप में पहचानने लगते हैं, एक ऐसा कदम जिसका कारण उनकी शारीरिक संरचना में निहित है। जीवन-यापन के साधनों का उत्पादन कर मनुष्य अप्रत्यक्ष रूप से वास्तव में अपने भौतिक जीवन का निर्माण करने लगते हैं। एक दूसरा खास फर्क जो मानव-इतिहास की ऐन शुरुआत से ही अस्तित्व में आ जाता है वह है कि मानव जो रोज अपने निजी जीवन का निर्माण करते हैं, वे अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे मानवों का भी निर्माण करने लगते हैं - स्त्री तथा पुरुष के बीच संबंध, मां-बाप तथा बच्चों के बीच संबंध, परिवार के रूप में। जीवन का उत्पादन, स्वयं का मानवीय श्रम में और नये का प्रजनन में, अब एक द्वय-संबंध के रूप में उदित होता है - एक ओर प्राकृतिक स्वरूप में और दूसरी ओर सामाजिक संबंध के रूप में। सामाजिक से तात्पर्य है अनेकों व्यक्तियों के बीच पारस्परिक सहयोग, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह सहयोग किन परिस्थितियों में, किस रूप में और किस उद्देश्य के लिए है। इस से निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी उत्पादन का स्वरूप या औद्योगिक स्तर हमेशा ही किसी न किसी प्रकार के सहयोग या सामाजिक स्तर पर आधारित होता है, और यह सहयोग का स्वरूप अपने आप में एक उत्पादक शक्ति है। उत्पादन की प्रारंभिक शर्त है सहयोग और उन्नत उत्पादन सहयोग को विकसित करता है और यह प्रक्रिया चक्रिक न हो कर पेंचदार होती है जो मानव समाज को एक जैविक संरचना के रूप में अन्य जैविक संरचनाओं से अलग स्तर प्रदान करती है। व्यवहार से ज्ञान अर्जित होता है तथा अर्जित ज्ञान से व्यवहार विकसित होता है और यही वह विशिष्टता है जो मानव तथा सामाजिक चेतना को विकास की अनन्त क्षमता प्रदान करती है।
            निरंतर विकासरत वैज्ञानिक तथा तकनीकी ज्ञान का पहला मकसद हमेशा ही उत्पादकता तथा उत्पादन प्रक्रिया, जो प्राकृतिक रूप से मिलने वाले पदार्थों को मानव की किसी न किसी जरूरत को पूरा करने योग्य उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित करती है, में सुधार करना रहा है। शुरुआत में चीजों का, उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों के लिए केवल उपयोग-मूल्य होता था, लेकिन बढ़ती उत्पादकता तथा श्रम के विभाजन के साथ बिचौलियों का एक ऐसा नया वर्ग अस्तित्व में आया जो चीजों में केवल जिंस के रूप में व्यापार करने में रुचि रखते थे और उनके लिए चीजों का मूल्य, उपयोग-मूल्य न होकर केवल विनिमय-मूल्य था। उनकी रुचि पहले जिंसों के व्यापार में, फिर उत्पादन में भी, तभी हो सकती थी जब वे विक्रय-मूल्य के रूप में उपभोक्ता से (उपयोग-मूल्य के रूप में), उस विनिमय-मूल्य से अधिक हासिल कर सकें जो कि उन्हें माल खरीदने के लिए विक्रेता को लागत रूप में, तथा उत्पादक-श्रमिक को उस माल को उपयोगी पदार्थ के रूप में परिवर्तित करने के लिए मजदूरी के रूप में, देना पड़ा था। सूक्ष्म स्तर पर परिवर्तन के लिए एक श्रमिक के श्रम की आवश्यकता होती है पर व्यापक स्तर पर वह लाखों कामगारों की सामूहिक उत्पादक श्रम-शक्ति होती है। बिचौलिए का एकमात्र मकसद था, उस अतिरिक्त मूल्य को हड़पना जो केवल तभी अस्तित्व में आता है जब किसी पदार्थ को उपयोगी वस्तु में परिवर्तित किया जाता है, यानि उत्पादन। शुरुआती काल में उत्पादन प्रक्रिया एक ही श्रमिक की श्रम-क्रिया होती थी, या फिर अनेकों श्रमिकों की श्रंखलाबद्ध श्रम-क्रिया। पर विज्ञान तथा तकनीकी के विकास के साथ ही मशीनों ने श्रमिकों की भूमिका में परिवर्तन करना शुरु कर दिया। पदार्थों को उपयोगी वस्तुओं के रूप में परिवर्तन करने में श्रमिकों की जगह अब मशीनों ने ले ली थी, जिनकी निगरानी तथा भूल-सुधार के लिए श्रम-शक्ति प्रदान करना ही अब श्रमिकों की भूमिका हो गई थी। पर अतिरिक्त मूल्य अब भी केवल जीवित श्रमिक के श्रम द्वारा ही उत्पन्न किया जा सकता है न कि मशीनों में निहित श्रम द्वारा जो खरीदे गये मूल्य पर उत्पादन की गई वस्तुओं में, ह्यास के रूप में जुड़ जाता है। विज्ञान तथा तकनीकी में हुए किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन के कारण अगर उत्पादन प्रक्रिया में कोई भी बदलाव होता है तो वह है कि अब अतिरिक्त मूल्य श्रमिक द्वारा लगातार पूरी प्रक्रिया में न जोड़ा जा कर प्रक्रिया के भिन्न-भिन्न पड़ावों पर जोड़ा जाता है।
            एक और आयाम जिसके कारण मानव अन्य जानवरों से गुणात्मक रूप से भिन्न है, वह है उनकी विचारों को अनेकों श्रव्य-दृष्ट (Audio-visual) संकेतों के द्वारा विशिष्ट सूचना के रूप में प्रेषित करने की क्षमता - यानि संचार - जिसके कारण वे सामाजिक रूप से भाषा का गठन कर सके। पहले-पहल संचार व्यक्तियों के बीच सीधे-सीधे सूचना के आदान-प्रदान के जरिए संभव था पर लिपि के आविष्कार तथा टंकन, टेलीग्राफ, टेलीफोन तथा बेतार आदि के रूप में सूचना तथा संचार में क्रांतिकारी परिवर्तनों के बाद तो संचार समय तथा दूरी की किसी भी सीमा के पार संभव हो गया है। कोई भी तकनीकी ज्यादा से ज्यादा मनुष्यों के बीच या मनुष्य तथा मशीन के बीच संचार में सुधार तो कर सकती है पर किसी भी रूप में मानव द्वारा सामाजिक रूप से अपने भौतिक जीवन के निर्माण के दौरान पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य के, या पूंजी के सामाजिक रूप से किये गये अतिरिक्त उत्पाद को निजी तौर पर हथिया लिए जाने की प्रक्रिया द्वारा स्वविस्तार के, मूलभूत चरित्र में कहीं कोई परिवर्तन नहीं कर सकती है।
            ऐतिहासिक विकास में किसी स्तर पर आ कर समाज सम्पन्नों तथा विपन्नों, उत्पादकों तथा परजीवियों के बीच बंट कर एक ऐसे न सुलझ सकने वाले अंतर्विरोध में फंस गया जिससे निकल पाना उसके लिए असंभव था। पर इसलिए कि कहीं ये अंतर्विरोध, विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्ग स्वयं को तथा समाज को स्वविनाशकारी संघर्ष में न झोंक दें, संघर्ष की तीव्रता कम करने तथा उसे एक व्यवस्था की सीमाओं के अंदर बांधे रखने के लिए एक ऐसी शक्ति अपरिहार्य हो गई जो देखने में समाज से ऊपर हो, और यही शक्ति जो समाज के अंदर से ही पैदा होती है पर स्वयं को उसके ऊपर रख कर शनै-शनै अपने को उससे अलग करती जाती है, राज्य है।
            मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार राज्य एक वर्ग के शासन का अंग है, एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग के दमन का जरिया, वह एक ऐसी व्यवस्था की रचना है जो वर्गों के बीच संघर्ष की तीव्रता को हल्का कर इस दमन को जायज तथा अनवरत बनाती है। जैसा कि निम्न-बुर्जुआ सिद्धांतकार दावा करते हैं, संघर्ष की तीव्रता को कम करने का अर्थ वर्गों के बीच समझौता होना नहीं है, उसका मतलब है शोषित वर्ग द्वारा शोषकों को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में कुछ विशिष्ट साधनों तथा तरीकों से उनको वंचित रखना। राज्य अपने लिए एक जन-शक्ति की रचना करता है जो किसी भी रूप में जनता द्वारा अपने को हथियारबंद करने की तरह नहीं है जैसा कि आदिम गोत्र समाजों में होता था। यह जन-शक्ति हर राज्य में मौजूद होती है, इसमें शामिल न केवल सशस्त्र लोग होते हैं बल्कि इसके अनुषांगिक तत्त्व, कैदखाने तथा हर प्रकार के दमन के साधन भी शामिल होते हैं, जिन से आदिम गोत्र समाज पूरी तरह अनजान था। बिना किसी अपवाद वह सबसे शक्तिशाली, आर्थिक रूप से सब पर भारी वर्ग का राज्य होता है जो राज्य की मदद से राजनैतिक रूप से भी सबसे अधिक प्रभावशाली हो जाता है, और इस प्रकार पस्त वर्ग को दबाये रखने के तथा शोषण के नये साधन हासिल कर लेता है। मौजूदा प्रतिनिधि राज्य, पूंजी द्वारा मजूरी-श्रम के शोषण का एक औजार है।
            जनवादी जनतंत्र, जो हमारी मौजूदा परिस्थितियों में अधिक से अधिक एक अत्याज्य आवश्यकता हो जाती है, राज्य का सबसे ऊंचा स्वरूप है, और राज्य का वह स्वरूप है केवल जिस के अंदर ही सर्वहारा तथा पूंजीपति के बीच का निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है - जनवादी जनतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के अंतर को नहीं मानता है। दौलत यहां अपनी शक्ति परोक्ष रूप में इस्तेमाल करती है, पर और भी अधिक पुख्ता तौर से। यह वह दो तरह से करती है - सीधे-सीधे अधिकारियों के भ्रष्टाचार द्वारा और सरकार तथा स्टाक एक्सचेंज की मिली भगत के द्वारा, जो सरकार के कर्ज बढ़ने के साथ-साथ और जैसे जैसे ज्वाइंट स्टाक कंपनियां न केवल परिवहन बल्कि उत्पादन भी अपने हाथों में केंद्रित कर लेती हैं और स्टाक ऐक्सचेंज में अपने केंद्र स्थापित कर लेती हैं, और अधिक आसानी से हासिल किया जा सकता है।
            और अंत में संपन्न वर्ग सीधे सार्विक मताधिकार द्वारा शासन करता है। जब तक कि शोषित वर्ग, हमारे मामले में सर्वहारा, अपनी स्वयं की आजादी के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है उस समय तक उसका बहुमत मौजूदा निजाम को ही एकमात्र विकल्प समझता रहेगा और राजनैतिक रूप से पूंजीपति वर्ग का ही पिछलग्गू, उसका चरम वामपक्ष, बना रहेगा। पर अपनी स्वयं की आजादी के पथ पर जैसे-जैसे वह परिपक्व होता जाता है वैसे-वैसे वह अपने को राजनैतिक पार्टी के रूप में गठित करता जाता है और अपने स्वयं के प्रतिनिधियों को चुनता है न कि पूंजीपतियों के। इस प्रकार सार्विक मताधिकार सर्वहारा वर्ग की परिपक्वता का मापक है। और मौजूदा राज्य में न वह इससे अधिक कुछ हो सकता है और न कभी होगा, पर यही काफी है। जिस दिन सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर मजदूरों के चरम उबाल को दर्शायेगा उसी दिन पूंजीपतियों की भांति उन्हें भी समझ आ जायेगा कि वे संघर्ष में किस मुकाम पर आ पहुंचे हैं।
            कोई भी जो बुर्जुआ जनतंत्र तथा जनतांत्रिक प्रक्रिया के अपरिहार्य आंतरिक द्वंद्व - जिसके कारण संघर्ष निर्णायक दौर में अब पहले के मुकाबले और अधिक तीव्र व्यापक हिंसा के साथ पहुंचता है - को नहीं समझते हैं वे इस जनतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे संघर्षों में विजयी अभियान के लिए वास्तव में तैयार करने के लिए सिद्धांत संगत प्रचार तथा आंदोलनों को चलाने में कभी भी सक्षम नहीं होंगे। सामाजिक-सुधारवादी उदारवादियों के साथ गठजोड़, समझौतों तथा गठबंधनों के अनुभवों ने मुकम्मल तौर पर दर्शाया है कि ऐसे समझौते जनता की चेतना को कुंद ही करते हैं, और कि वे जुझारुओं को ऐसे तत्वों, जो लड़ने में बिल्कुल नकारा हैं और सर्वाधिक ढुलमुल तथा दगाबाज हैं, के साथ मिलाकर संघर्ष के वास्तविक महत्व को बढ़ाते नहीं बल्कि कमजोर करते हैं। यह बिल्कुल साफ है कि उत्पादन प्रक्रिया अथवा सूचना तथा संचार प्रक्रिया के विज्ञान और तकनीकी में हुआ कोई भी विकास - मात्रात्मक अथवा गुणात्मक - अधिक से अधिक उस प्रक्रिया की उत्पादन क्षमता अथवा दक्षता को ही बढ़ा सकता है। वह समाज के मूल चरित्र, जो उत्पादक तथा अतिरिक्त मूल्य हड़पने वाले विभिन्न वर्गों की चेतना तथा उनके बीच के संबंधों से तय होता है, में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है। पूंजीवाद की प्रवृत्ति पूंजी का संचयन तथा प्रसार और मजदूर का सर्वहारीकरण करना है। कोई भी जो पूंजीवाद की अंतर्वस्तु में और इसीलिए समाजवाद की अंतर्वस्तु में, उत्तर-औद्योगिक, उत्तर-आधुनिक, उत्तर-एसटीआर, उत्तर-आईसीआर आदि के नाम पर या पूंजी के विभिन्न स्वरूपों जैसे कि वित्तीय पूंजी, आवारा पूंजी आदि के नाम पर, किसी भी प्रकार के परिवर्तन को ढूंढने की कोशिश करते हैं और बुर्जुआ-जनवाद से समाजवादी-जनवाद में शांतिपूर्ण संक्रमण के विचार को आगे बढ़ाते हैं वे अपनी निम्न-बुर्जुआ मानसिकता से अभिशप्त हैं।
            विकसित समाज में तथा अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न-बुर्जुआ एक ओर तो समाजवादी होता है और दूसरी ओर अर्थशास्त्री अर्थात उच्च-मध्यवर्ग के वैभव से चुंधियाया होता है और आमजन की पीड़ा से द्रवित। वह एक ही समय पर बुर्जुआ भी होता है और आमजन भी। अन्य खुश मध्यमवर्ग से तथाकथित रूप से भिन्न सही संतुलन हासिल करने के लिए मन ही मन वह अपनी निरपेक्षता पर गर्व करता है। इस प्रकार का निम्न बुर्जुआ हर अंतर्विरोध को खारिज करता है क्योंकि अंतर्विरोध ही उसके अस्तित्व का आधार है। वह कार्यरत सामाजिक अंतर्विरोध के अलावा कुछ भी नहीं होता है। सिद्धांत की आड़ लेकर वह अपने व्यवहार को न्यायसंगत दर्शाता है।
            सामाजिक-आर्थिक संरचना के अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए, पूंजीवादी चेतना को ध्वस्त करने के प्रयास में, उसकी वैचारिक सामाजिक चेतना में सिद्धांत की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है। भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति के द्वारा ही उखाड़कर फेंका जा सकता है, लेकिन सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर स्वयं भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करता है, और वह पूर्वाग्रहों को तब बेनकाब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल के जरिए समझना। और सैद्धांतिक चिंतन एक प्रकृति प्रदत्त गुण केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में है। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित और परिष्कृत करना आवश्यक है, और इसके परिष्कार का कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि पुराने दर्शनों का अध्ययन किया जाय।
सुरेश श्रीवास्तव
10 अगस्त, 2011
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