Friday 6 March 2020

क्या किया जाय? (भाग-3)

क्या किया जाय?
(भाग-3)

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कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती की पूर्व संध्या पर चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का वक्तव्य कि, ‘समाजवाद के कार्ल मार्क्स के सिद्धांत के प्रति चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की निष्ठा ने 97 साल में एशिया में सबसे अधिक बीमार चीन की अर्थव्यवस्था को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में बदल दिया है’, इस बात की तसदीक़ करता है कि मार्क्सवाद का सिद्धांत सत्य तथा सर्वशक्तिमान है और किसी भी समस्या को सही सही समझने में तथा उसका निदान करने में सक्षम है।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की समकालीन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने संशोधनवादी समझ के साथ भारत में वामपंथी आंदोलन की नींव रखी थी। आज 97 साल बाद भारत में वामपंथ अप्रासंगिक होकर हाशिये पर पंहुच गया है और भारतीय राजनीतिक-आर्थिक संकट के इस दौर में वामपंथ को विकल्प के तौर पर देखने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। यह इस बात की तसदीक़ करता है कि भारतीय वामपंथी संगठन अपनी संशोधनवादी समझ के कारण हमेशा ही भारतीय राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था के आंतरिक अंतर्विरोधों के यथार्थ को समझने में नाकाम रहे हैं।
   वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत, जो व्यापकतम परिस्थितियों की सही सही व्याख्या करने में सक्षम है, के तौर पर मार्क्सवाद, जिसकी अंतर्वस्तु द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है, अपनी पहचान स्थापित कर चुका है।। मार्क्सवाद के बारे में लेनिन ने कहा था कि वह सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है पर वामपंथी साथी लेनिन के कथन को जानना चाहते हैं समझना चाहते हैं। वे तो व्यापकतम परिस्थितियों की सही सही व्याख्या करने में सक्षम सर्वशक्तिमान अपरिवर्तनीय सिद्धांत के तौर पर मार्क्सवाद को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं और ही उस सिद्धांत की व्याख्या करने के लिए तैयार हैं जिसकी पैरवी वे अपने तथा दूसरों के मार्गदर्शक के रूप में करते हैं। उस अगोचर को पुकारते तो वे मार्क्सवाद के नाम से ही हैं, पर उसकी अंतर्वस्तु पर विमर्श करने के लिए तैयार नहीं हैं।
व्यवहार के जरिए परिस्थितियों को बदलने और उस व्यवहार के जरिए ज्ञान के विस्तार की दलील देनेवाले भूल जाते हैं कि समाज में व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनता को शिक्षित किया जाना जरूरी है और इसके साथ शिक्षक को स्वयं भी शिक्षित किये जाने की जरूरत है। वे ऐंद्रिक संज्ञान तथा विचार-विमर्श को व्यवहार नहीं मानते हैं। इसलिए उनकी विचारधारा के लिए, व्यक्तियों को तथा समाज को दो हिस्सों में बाँटना ज़रूरी हो जाता है, जिसमें एक दूसरे की तुलना में उच्च स्तरीय है। उनका चिंतन एकाकी व्यक्तियों का, बुर्जुआ समाज का चिंतन है। द्वंद्वात्मक भौतिकवादी मानता है कि शिक्षक को शिक्षित करने के लिए, व्यावहारिक आलोचना तथा विचार-विमर्श एक क्रांतिकारी कर्म है। यह चिंतन, मार्क्सवादी चिंतन, मानवीय समाज का चिंतन है। 
निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा, बुर्जुआ दृष्टिकोण के साथ, मार्क्सवाद के नाम से जिस विचारधारा को आगे बढ़ाया गया है उसने वामपंथी आंदोलन को दो हिस्सों में विभाजित कर रखा जिसमें नेतृत्व की तर्कशक्ति, अनुयायियों के मुकाबले में उच्चस्तरीय मानी जाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था अत्याधिक क्लिष्ट है जिसमें आदिवासी और बंधुआ मजदूरी से लेकर सामंतवादी और अत्याधिक विशाल वित्तीय पूँजी आधारित उत्पादन वितरण व्यवस्था तक शामिल है। पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व ने कभी भी भारतीय अर्थव्यवस्था का ठीक-ठीक विश्लेषण करने तथा व्यवस्था के अंतर्विरोधों को समझने का प्रयास ही नहीं किया है। आज भी कम्युनिस्ट पार्टियों के मूर्धन्यों को मूल्य, मुद्रा और पूंजी की सही सही समझ नहीं है, और इस समझ के बिना तो अतिरिक्त मूल्य उत्पादन की प्रक्रिया को समझा जा सकता है और ही शेखचिल्ली समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद के अंतर को समझा जा सकता है। वे भौतिक तथा वैचारिक कोटियों में अंतर नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे ऐंद्रिक संज्ञान को, वस्तुपरक भौतिक गतिविधि के रूप में देख कर, उच्चस्तरीय व्यक्तियों की व्यक्तिपरक वैचारिक स्वत:स्फूर्त उत्पत्ति के रूप में देखते हैं। 
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पूरी तरह बुर्जुआ आंदोलन था और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस पार्टी में हर स्तर पर कार्यकारिणी का चयन रूढ़िवादी केंद्रीयता के अनुरूप ही तय होता था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका गठन बुर्जुआ चेतना के साथ किया गया था, ने भी जनवादी केंद्रीयता के नाम पर रूढ़िवादी केंद्रीयता की व्यवस्था को ही अपना लिया था। अग्रणी तथा अनुयायी के बीच संबंध द्वंद्वात्मक होकर जड़वादी स्तरीय था। शिक्षण की प्रक्रिया पूरी तरह एकतरफा, शिक्षार्थी के लिए शिक्षक का हर वक्तव्य ब्रह्मवाक्य, शिक्षक के लिए, शिक्षण की प्रक्रिया के दौरान, शिक्षा ग्रहण करने की मानसिकता पूरी तरह नदारद। संपत्ति के निजी स्वामित्व से उपजी व्यक्तिवादी मानसिकता के कारण ही अधीनस्थ की अनभिज्ञ चेतना, अधिष्ठाता की चेतना के वशीभूत होती है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी समय के साथ बुर्जुआ परंपरा ही संगठन की चेतना बन गई थी। चालीस साल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में नवीनतम से लेकर वरिष्ठमतम, सदस्यों की पूरी जमात ही संशोधनवाद की जकड़ में गई। उसके बाद तो संगठन में शामिल होनेवाला हर व्यक्ति, वैचारिक स्तर पर, समय गुज़रने के साथ अनजाने ही पार्टी की विचारधारा के वशीभूत हो जाता है। रणनीति के बारे में पार्टी की चेतना में बर्न्स्टाइन की लाइन घर कर चुकी है किआंदोलन ही सब कुछ है, उद्देश्य कुछ भी नहीं’, और इसलिए पार्टी में सामूहिक स्तर पर सैद्धांतिक मतभेद नहीं होते हैं। अगर कोई सदस्य संगठन की विचारधारा की सैद्धांतिक आलोचना करने का प्रयास करता है तो वह स्वत: ही बाहर हो जाता। पार्टी में जो भी विघटन हुए हैं वे सामूहिक स्तर पर शीर्ष नेतृत्व के बीच व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों तथा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण हुए हैं कि सैद्धांतिक मतभेदों के कारण। यही कारण है कि विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियाँ अपने अपने अनुयायियों से व्यावहारिक स्तर पर आंदोलनों में एकजुटता के लिए तो नारा देती हैं पर आपस में विलय के लिए तैयार नहीं हैं।
चालीस साल में संगठन के रूप में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एक परिपक्व जीवंत वैचारिक संरचना बन गई थी। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियमानुसार जीवंत वैचारिक संरचना के रूप में संगठन अपने परिवेश से उन्हीं अवयवों को स्वीकार करता जो उसकी जीवंतता के लिए उपयोगी हों। विकास की प्रक्रिया के अनुरूप हर सदस्य की चेतना, पार्टी की सामूहिक चेतना के अनुरूप ढल जाती है। शीर्ष स्तर तक पहुँचते पंहुचते सदस्य पूरी तरह संगठन की सामूहिक चेतना के आधीन उसी का मूर्त रूप बन जाता है। अगर किसी स्तर पर कोई सदस्य पार्टी की सामूहिक चेतना के अनुरूप व्यवहार नहीं करता है तो वह संगठन से बाहर हो जाता है। महान दार्शनिक हेगेल ने समझाया था किएक राजा, राजा होता है क्योंकि प्रजा ऐसा सोचती है, और राजा यह जानता है।इसीलिए मार्क्सवाद के नाम से संशोधनवादी विचारधारा की मूलभूत चेतना के आधार पर गठित की गई पार्टी के भीतर, चालीस साल के अंदर व्यक्तिगत चेतना तथा सामूहिक चेतना में संशोधनवाद ही मार्क्सवाद का पर्याय बन गया है। इसके बाद तो पार्टी में हुए कई विभाजनों के बाद बने हुए अनेकों वामपंथी गुटों के बावजूद कामगारों का संघर्ष संशोधनवाद के दलदल से पार नहीं पा पा रहा है।
किसी भी कार्य को करने में असंगठित लोगों द्वारा, अलग अलग समय पर अलग अलग दिशा में लगाये गये बल प्रभावहीन हो जाते हैं पर एकजुटता के साथ एक ही दिशा में लगाये गये बलों का प्रभाव कई गुना हो जाता है। बिखरी हुई श्रमशक्ति के मुकाबले संगठित श्रमशक्ति गुणात्मक रूप से भिन्न होती है। जनवादी शासन व्यवस्था में सत्ता का नियंत्रण जनता द्वारा चुनी गई प्रतिनिधि सभा के हाथों में होता है। प्रतिनिधियों को चुनने के लिए करोड़ों मतदाता एक ही समय पर वोट देते हैं। इसलिए जरूरी है कि आम मतदाता चुनाव के समय एकजुट होकर ऐसी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दें जो पाँच साल तक एकजुटता के साथ ऐसी नीतियों, जो अतिरिक्त उत्पादन अर्थात अधिशेष मूल्य को आम जनता के जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल सुनिश्चित करती हों, पर अमल करे। 
एंगेल्स समझाते हैं, ‘हर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगाऔरमजदूरवर्ग जब तक जागरूक होकर अपने आपको संगठित कर लेने में सक्षम नहीं हो जाता है और प्रतिनिधि सभा के लिए अपने प्रतिनिधि चुनने की स्थिति में नहीं हो जाता है, प्रतिनिधिसभा के लिए वह संपत्तिवान वर्ग के प्रतिनिधियों को ही अपने प्रतिनिधियों के रूप में चुनता रहता है। पर शोषकों तथा शोषितों के बीच का अंतिम युद्ध सार्विक मताधिकार आधारित जनवाद के अंतर्गत ही लड़ा जायेगा।’ 
इसलिए जरूरत इस बात की है कि मजदूरवर्ग को जागृत किया जाय ताकि वह अपने आपको संगठित करने में सक्षम हो सके और साथ ही जरूरत है एक ऐसे सिद्धांत की जो आम जनमानस में व्याप्त पूर्वाग्रहों को बेनकाब कर सके तथा मजदूरवर्ग के मन में घर कर उनकी एकजुटता को सुनिश्चित कर सके। भारतीय वामपंथी आंदोलन की विडंबना है कि पिछले नब्बे साल में मार्क्सवाद के सिद्धात के नाम से जो कुछ भी परोसा गया है वह संशोधनवादी आडंबरी बकवास के अलावा कुछ भी नहीं है। 
जर्मनी में 1848 की क्रांति के बाद हुई वैचारिक गिरावट तथा प्रबुद्ध वर्ग के वैचारिक दिवालियेपन के बारे में एंगेल्स की टिप्पणी भारतीय वामपंथियों के ऊपर हूबहू लागू होती है। 1947 की आजादी के बाद प्रबुद्धभारतीय वामपंथ ने वैचारिकता को अलविदा कह दिया था और व्यावहारिकता के क्षेत्र में क़दम रख लिया था …………. और ऐतिहासिक विज्ञानों के दायरे में, दर्शन के दायरे में भी, वैचारिकता तथा क्लासिकल दर्शन के प्रति पुराना निडर उत्साह, अब पूरी तरह नदारद हो गया है। उसका स्थान ले लिया है व्यापक मूर्खता और आजीविका तथा कमाई की चिंता के साथ निम्नतम स्तर पर गिर कर नौकरी की तलाश ने। इन विज्ञानों के अधिकृत प्रतिनिधि, खुलेआम बुर्जुआजी तथा मौजूदा राज्य के विचारक बन गये हैं।
लेनिन ने समझाया था कि, वर्तमान व्यवस्था के अंदर रहते हुए ही सुधार तथा विकास की पैरवी करने वाले, पुरानी व्यवस्था का बचाव करने वालों के द्वारा हमेशा ही ठगे जाते रहेंगे जब तक कि वे यह नहीं समझ लेते हैं कि हर पुरानी संस्था, चाहे कितनी भी आदिम तथा सड़ी-गली नजर आती हो, शासकवर्ग की कुछ ताकतों के द्वारा ही जीवनशक्ति पाती रहती है। लेनिन आगे समझाते हैं कि उन वर्गों की शक्ति को ध्वस्त करने का एक ही रास्ता है, और वह है कि हमारे अपने आस-पास के समाज में, उन ताकतों को ढूँढ निकालना, जो अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण उन शक्तियों को, संगठित करने में सक्षम हैं और इस कारण उन्हें करना भी चाहिए, जो पुरातन का सफ़ाया करने तथा नये का निर्माण करने में सक्षम हैं, और उन शक्तियों को जागरूक तथा संगठित करना चाहिए। और मार्क्स ने समझाया था कि सिद्धांत जब पूर्वाग्रहों के मूल विचारों के आधार पर उनकी भ्रांतियाँ को उजागर करने में सक्षम होता है तभी वह जनता के मन में बैठ कर भौतिक शक्ति में परिवर्तित होता है। 
और यह बात जितनी सामाजिक-आर्थिक संरचना अर्थात व्यापक समाज पर लागू होती है, उतनी ही सामाजिक-राजनीतिक संरचना अर्थात राजनीतिक पार्टी पर भी लागू होती है। इसलिए आवश्यक है कि अग्रिम पंक्ति के सदस्यों का स्वयं का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो ताकि वे स्वयं के तथा अन्य सदस्यों के पूर्वाग्रहों को पहचानने तथा उन्हें दूर करने में सक्षम हों और किसी भी परिस्थिति का सही सही विश्लेषण करने तथा सही निष्कर्ष निकालने में दक्ष हों। और इसके साथ ही उनका दायित्व है कि वे नई पीढ़ी के उन युवाओं को ढूँढ निकालें जो क्रांतिकारी शक्तियों को जागरूक करने तथा संगठित करने में सक्षम हैं और उनके साथ मिलकर SFS के मंच को संगठन में परिवर्तित करें ताकि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत की सही-सही समझ को आम जनचेतना में रोपित किया जा सके।    

सुरेश श्रीवास्तव

7 मार्च, 2020