Thursday 28 January 2016

रोहित वेमुला को श्रद्धांजली

रोहित वेमुला को श्रद्धांजली

रोहित वेमुला कोई पहला होनहार नौजवान नहीं है जिसने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आत्महत्या की हो। कुछ साल पहले सेंथिल कुमार ने भी आत्महत्या की थी। पहले भी होनहार विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है और अभी कुछ दिन पहले ही युवा कवि प्रकाश साव ने आत्महत्या कर ली है। दिमागी तौर पर असंतुलित व्यक्ति के बारे में तो कहा जा सकता है कि आत्महत्या करते समय आत्महंता के मस्तिष्क की प्रक्रिया उसकी तर्कबुद्धि के नियंत्रण में न रही हो, पर रोहित जैसे जागरूक होनहार नौजवान, जो सजग तौर पर शोषण के विरुद्ध संघर्ष में अपने जैसों के साथ सक्रिय रूप से भागीदार रहा हो, के लिए यह कहना गलत होगा कि उसकी आत्महत्या भावातिरेक का परिणाम थी। बल्कि यथार्थ यही है कि रोहित जैसे व्यक्ति द्वारा आत्महत्या के लिए किया गया निर्णय एक संतुलित मस्तिष्क की तार्किक चिंतन प्रक्रिया का परिणाम होता है। रोहित का अंतिम समय में लिखा गया पत्र और फिर उसके एक पैराग्राफ़ का काट दिया जाना, अंतिम समय में भी संतुलित मनस्थिति का द्योतक है और दर्शाता है कि वह शांत चित्त के साथ लिया गया निर्णय था, न कि भावातिरेक में एक भावुक व्यक्ति या अवसाद में एक अवसादग्रस्त व्यक्ति द्वारा उठाया गया क़दम। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति आत्महत्या तब करता है जब वह तार्किक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि उसके लिए संघर्ष के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं तथा उसका जीवन उसके अपने प्रियजनों के लिए एक संबल की जगह अवरोध बन गया है और उसकी मृत्यु उसके जीवन से अधिक सार्थक होगी। इस सार्थकता के आंकलन का आधार पूरी तरह व्यक्तिगत भी हो सकता है या फिर पारिवारिक तथा सामूहिक भी। कोई व्यक्ति या उससे संबंधित परिघटना औरों के विचारों के लिए उद्दीपन या प्रेरणा स्रोत तो हो सकती है, पर हर किसी की चेतना के निर्माण की प्रक्रिया और उससे उपजे विचारों का आधार उसकी अपनी मानसिकता और पूर्वाग्रह ही होते हैं। रोहित की पूरी वैचारिक प्रक्रिया का विश्लेषण कर तथा उसके संघर्ष की परिणति उसकी त्रासद मौत में हो जाने वाले कारणों की पहचान कर, नयी पीढ़ी के लिए सबक़ हासिल कर सकना ही रोहित के लिए सच्चा न्याय और उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।
  मरने के बाद किसी को देवता की तरह स्थापित कर लेना, और फिर उसकी छवि को अपनी सुविधानुसार गढ़ कर अपने हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना हमारी मानसिकता और संस्कृति का विशिष्ट गुण है। रोहित की मौत से उपजे व्यापक रोष और आंदोलनों से स्पष्ट नजर आ रहा है कि, मौजूदा निज़ाम से व्यक्तिगत कारणों से असंतुष्ट लोग इस पूरे प्रकरण को जातिगत भेद-भाव तथा दलितों के सामाजिक शोषण के रूप में पेश कर रहे हैं। जो राजनैतिक तौर पर भाजपा के विरोधी हैं वे रोहित की आत्महत्या को केंद्र सरकार के हिंदुत्ववादी एजेंडे के षड़यंत्र के रूप में दिखाने का प्रयास कर रहे हैं।
आत्महत्या से पहले रोहित भी, छात्र राजनीति में सक्रिय, अन्य छात्रों की तरह ही एक छात्र था, अन्य युवाओं की तरह ही अपरिपक्व, अति-उत्साही, महत्वाकांक्षी, आदर्शवादी, अतिसक्रिय। अत्याधिक ग़रीब, पिछड़े और शोषित तबके से आने के बावजूद, संघर्ष के जरिए अपने बल पर पीऐचडी के लिए अनारक्षित श्रेणी में स्कॉलरशिप पाना, उसके जीवट को दर्शाता है। प्रकृति विज्ञान का स्नातक होने के बावजूद समाज विज्ञान का विषय शोध के लिए चुनना, सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी सजगता को दर्शाता है। उसका मार्क्सवाद से अभिभूत होना और शुरुआती दौर में ऐस.ऐफ.आई. से जुड़ा होना दर्शाता है कि वह विश्वविद्यालय में अंबेडकर छात्र संगठन में सक्रिय होने के पहले तक जातिगत शोषण के कारणों को भी अर्थव्यवस्था में ही देखता था। सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक, ऐसे कर्मठ संघर्षरत नौजवान का, मार्क्सवाद से मोह भंग होना और संघर्ष के लिए ऐसा रास्ता चुनना जो अंतत: उसे अंधी गली के उस छोर पर पहुँचा देगा जहाँ उसके पास आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प रह जायेगा, उन परिपक्व मार्क्सवादियों के लिए चिंतनीय स्थिति होना चाहिए जो वामपंथी आंदोलन में आये ठहराव से चिंतित हैं, और चेतावनी होना चाहिए उन अति-उत्साहित नौजवानों के लिए जो क्रांति करने की जल्दबाज़ी में इस या उस वामपंथी संगठन में शामिल होना चाहते हैं जिनके लिए सिद्धांत की गहरी समझ से अधिक महत्वपूर्ण है आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी।
गैरमार्क्सवादी हों या वामपंथी हों, सभी अंबेडकर को दलितों के मसीहा के रूप में पेश करते हैं और दलितों के साथ किये जानेवाले सामाजिक भेद-भाव या शोषण को हिन्दुत्ववादी एजेंडे के रूप में पेश करते हैं। अंबेडकर का मानना था कि दलितों के सामाजिक और आर्थिक शोषण का आधार, हिंदू धर्म के अंतर्गत जाति व्यवस्था की स्थापना का होना है और इसीलिए किसी भी सामाजिक क्रांति के पहले जाति उन्मूलन आवश्यक है। यद्यपि मार्क्स का कहना है कि हर वर्ग अपने आर्थिक संबंधों के आधार पर सामाजिक और राजनैतिक विचारों का एक ऐसा तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके आर्थिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है, फिर भी वामपंथियों का कहना है कि भारत में जाति भी वर्ग का पर्याय है इस कारण अंबेडकर की मान्यता मार्क्सवाद के अनुकूल ही है और भारत में मजदूरों की आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए जाति उन्मूलन भी आवश्यक है। मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के कारण वामपंथी, अंबेडकरवाद तथा मार्क्सवाद के दार्शनिक आयामों के बीच के अंतर को नहीं समझ पाते हैं और मार्क्स तथा अंबेडकर को एक ही पाले में रख कर नीति निर्धारण करते हैं।
मार्क्स और अंबेडकर के चिंतन परस्पर प्रतिरोधी, मूल दार्शनिक अवधारणाओं पर आधारित हैं। अंबेडकर का चिंतन और विचार जिस दर्शन पर आधारित है उसकी मूल अवधारणा के अनुसार मानवीय चेतना, व्यक्ति के अस्तित्व और समाज से स्वतंत्र एक स्वायत्त अवयव है, समाज व्यक्तियों का समूह है और व्यक्ति समाज के अंदर एक स्वतंत्र स्वायत्त इकाई है। इस अवधारणा के अनुसार चेतना व्यक्ति का प्रकृति प्रदत्त गुण है और विचारों का निर्माण और विकास तर्कबुद्धि द्वारा होता है। मार्क्स का चिंतन और विचार जिस दर्शन पर आधारित है उसकी मूल अवधारणा के अनुसार चेतना और अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। चेतना सामाजिक वैचारिक अवयव है और उसका भौतिक आधार अर्थव्यवस्था है। उसके अनुसार व्यक्तिगत चेतना तथा व्यक्तिगत अस्तित्व और सामूहिक चेतना तथा सामूहिक अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। इस कारण मार्क्स न तो व्यक्ति को समाज से स्वतंत्र इकाई के रूप में देखते हैं और न ही वे समाज को व्यक्तियों के समूह के रूप में देखते हैं। वे समाज को एक जीवंत जैविक संरचना के रूप में देखते हैं और मानव को उस जैविक संरचना की एक कोशिका के रूप में।
अंबेडकर की तत्त्ववादी (Metaphysical) भाववाद पर आधारित विचारधारा में मूल्य, मुद्रा, पूँजी, अतिरिक्त मूल्य जैसी कोटियों के लिए कोई स्थान नहीं है। वे दलितों के शोषण को पूरी तरह वैचारिक स्तर पर देखते हैं। उनके अनुसार संपन्न उच्च जातियों में, दलितों से छुआ-छूत की मानसिकता के कारण ही दलित मुख्यधारा से कटे हुए हैं और यही उनके शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन का कारण है। उनके अनुसार उचित क़ानूनों तथा व्यक्तिगत शिक्षा के जरिए छुआ-छूत को दूर कर दलितों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है जो स्वत: ही दलितों को आर्थिक शोषण से मुक्ति दिलायेगा। दलित विमर्श और संघर्ष में अंबेडकरवादियों की रणनीति अंबेडकर की इसी विचारधारा पर आधारित है।
मार्क्स की द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित विचारधारा में, व्यक्तिगत और सामूहिक श्रम द्वारा प्रकृति प्रदत्त अवयवों में बदलाव कर, मानव जीवन के लिए आवश्यक भौतिक साधनों का उत्पादन और उपभोग ही मानव और मानव समाज का आधार है। उत्पादकता में निरंतर विकास की प्रवृत्ति ही मानवीय चेतना और सामाजिक चेतना का आधार है। मानव भौतिक संरचना है, चेतना जिसकी अंतर्वस्तु है और अस्तित्व अधिरचना। चेतना और अस्तित्व का संबंध द्वंद्वात्मक है। समाज एक वैचारिक जीवंत संरचना है जिसकी कोशिकाएँ मानव हैं जो वैचारिक रूप से एक दूसरे संबद्ध होते हैं और उनके आर्थिक संबंध सामाजिक चेतना की अंतर्वस्तु हैं। उनके राजनैतिक और सांस्कृतिक विचार सामाजिक चेतना की अधिरचना हैं। शोषक और शोषित के बीच के आर्थिक संबंधों के कारण ही मार्क्सवाद मौजूदा समाज को वर्ग विभाजित समाज के रूप में परिभाषित करता है।
बार-बार एक ही उत्पादन क्रिया को करने से श्रमिक की कुशलता में इज़ाफ़ा होता है और आदिम समाज से सभ्य समाज की ओर विकास के दौरान श्रम विभाजन अर्थव्यवस्था का आधार बन जाता है। निरंतर बढ़ती उत्पादकता के साथ उत्पादक श्रम का विभाजन कब मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के आधार पर होने लगा, मनुष्य को पता ही नहीं चला। और अर्थ व्यवस्था में इसी बँटवारे ने समाज को शोषक और शोषित के बीच बाँट दिया जिसके कारण मार्क्सवाद मौजूदा समाज को वर्ग विभाजित समाज मानता है। श्रम विभाजन पर आधारित उत्पादन व्यवस्था में उत्पादन का स्तर बढ़ने के साथ ही उपयोगी उत्पाद का रूपांतरण विनिमय उत्पाद में हो गया। पहले जो कुशलता परिवार के स्तर तक सीमित थी उसका विस्तार अनेकों परिवारों के समूह तक हो गया जिसने आगे चल कर समूहों को श्रम आधारित जाति के रूप में चिन्हित किया। इसीलिए मार्क्सवाद भारत जैसे देश में जातिप्रथा को सामंतवादी अर्थव्यवस्था पर आधारित वैचारिक चेतना मानता है। पहले उपयोगी उत्पादन पर मनुष्य का नियंत्रण होता था, अब मनुष्य विनिमय उत्पादन के नियंत्रण में है। जिन्हें मार्क्सवाद की सही समझ है उनके लिए मनुष्य के, चेतना तथा अस्तित्व के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध में आये गुणात्मक परिवर्तन को समझना मुश्किल नहीं है।
सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था से पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में रूपांतरण में श्रमिक की कुशलता और शारीरिक शक्ति का भार मशीनों को सौंप दिया जाता है, कामगार का काम मशीनों की निगरानी और नियंत्रण करना रह जाता है। पूँजीवाद में उत्पादन, कुशलता आधारित न होकर ज्ञान आधारित हो जाता है। स्वचलित मशीनों के कारण उत्पादन क्रिया में श्रमिक के लिए उस न्यूनतम ज्ञान की जरूरत होती है जो आज के मनुष्य का सामान्य ज्ञान होता है। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में, श्रमिकों के बीच कुशलता आधारित सभी भेद समाप्त हो जाते हैं। मार्क्सवाद के अनुसार पूँजीवाद में जातिगत भेद स्वत: समाप्त हो जाते हैं और संघर्ष केवल शोषक और शोषित वर्ग के बीच ही रह जाता है। जो वामपंथी जातियों को वर्ग के रूप में परिभाषित करते हैं वे अनजाने ही कामगारों के बीच बिखराव पैदा कर उनकी एकजुटता को कमजोर करते हैं। सर्वहारा चेतना की मांग है कि मज़दूर आंदोलनों का उद्देश्य होना चाहिए आर्थिक संबंधों को ज्यादा से ज्यादा मजदूरों के हित की तरफ मोड़ना और इसी में शामिल है सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था को कमजोर कर पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था को मज़बूत करना।
पैदा होने से वयस्क होने तक रोहित जिस विकास प्रक्रिया से गुज़रा उसने उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग, कर्मठ, अपने दायित्वों को ईमानदारी से निभाने के प्रति पूरी तरह समर्पित व्यक्तित्व प्रदान किया था। वह अपने हितों को सामूहिक हितों से जोड़कर देखता था इसीलिए उसके लिए अपनी पीएचडी और अपना कॉरियर उतना ही महत्वपूर्ण था जितना शोषितों की मुक्ति का संघर्ष। उसमें परिपक्व मार्क्सवादी बनने के पूरे गुण मौजूद थे और इसीलिए उसने एसएफआई ज्वाइन किया था। पर अफ़सोस है कि भारत में वामपंथी संगठनों में जिस प्रकार संशोधनवाद व्याप्त है उसके बीच मार्क्सवाद की सही समझ हासिल कर सकना नौजवानों के लिए अत्यंत कठिन कार्य है। व्यक्तिगत हितों और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त वामपंथी क़तारों के बीच टिके रहना रोहित जैसे व्यक्ति के लिए असंभव था। जिस प्रकार वामपंथियों ने मार्क्स और अंबेडकर को एक ही मूर्तितल पर स्थापित कर दिया है उसके कारण रोहित का वामपंथी संगठनों से मोह भंग हो जाना और अंबेडकरवादी संगठनों की ओर मुड़ जाना स्वभाविक ही था।
निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा दलितों और शोषितों के हित में किये जा रहे प्रलाप ने रोहित को भ्रमित कर दिया था कि वंचितों, अल्पसंख्यकों तथा शोषितों के लिए जो संघर्ष वह व्यवस्था के खिलाफ कर रहा है, उसमें उसे प्रगतिशील तबक़ों का व्यापक समर्थन हासिल है और अगर सत्तासीन पार्टी उसके व्यक्तिगत हितों पर चोट करेगी तो उसे वामपंथियों सहित सभी उदारपंथियों का व्यापक समर्थन हासिल होगा। पर चार महीनों में ही उसका भ्रम टूट गया जब उसने पाया कि क़ानूनी लड़ाई में वह बिल्कुल अकेला है और राजसत्ता सत्तासीन पार्टी के हितों के अनुसार ही काम करेगी। उसे आख़िरी आशा भारतीय क़ानून व्यवस्था से थी, इसीलिए उसने अपने निलंबन के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दाख़िल की थी। पर उसकी वह आशा भी टूट गयी जब उच्च न्यायालय ने उसकी याचिका को, उसके खिलाफ ऐफआईआर के लिए डाली गयी याचिका के साथ, संलग्न कर दिया।
अब तक रोहित के वामपंथियों, प्रगतिशील और उदारपंथियों द्वारा पैदा किये गये सारे भ्रम टूट चुके थे। उसे समझ आ गया था कि राजसत्ता के लिए सबसे आसान होता है क़ानूनी प्रक्रिया का पालन करते हए दिखाकर व्यक्ति की आजादी छीन लेना, उसे जेल में बंद कर देना। चाहे भगतसिंह हों, या राजेश तलवार हो या फिर याकूब मेमन हो, राजसत्ता के पास सब के लिए एक ही हथियार है। अठारह जनवरी को दोनों याचिकाओं पर सुनवायी होनी थी। जिन गंभीर धाराओं के लिए ऐफआईआर की मांग की गयी थी उनमें ज़मानत मिलने की कोई संभावना नहीं थी। जेल जाने के बाद सालों साल मुकदमेबाजी, और आगे बढ़ने के सारे रास्ते बंद। पीछे हटने का भी कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में एक ही रास्ता बचा था जिसे सत्रह तारीख़ की शाम रोहित ने चुन लिया।
जिनके भरोसे रोहित ने भ्रम पाले थे और जिन्होंने ही उस भरोसे को तोड़ दिया, वे ही आज रोहित के मरने के बाद उसके लिए न्याय की मांग कर रहे हैं। न्याय क्या? स्मृति ईरानी और बंडारू दत्तात्रेय का इस्तीफ़ा और उनके खिलाफ कार्यवाही? रोहित को इससे क्या मिलना, वह तो इस दुनिया में है ही नहीं। रोहित को जरूरत है श्रद्धांजली की, और उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी नई पीढ़ी में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत की वह समझ पैदा करना जिसकी रोशनी में वे अपने भविष्य का रास्ता तलाश सकें और जिसके अभाव में किसी अंधी गली के बंद मुहाने पर पहुँच कर उन्हें भी वही विकल्प न चुनना पड़े जो रोहित को चुनना पड़ा।

सुरेश श्रीवास्तव
29 जनवरी, 2016            



Monday 18 January 2016

मार्क्सवाद शाश्वत है।

किसी साथी ने उदाहरण के साथ अधिरचना तथा अंतर्वस्तु को समझाने के लिए कहा है। उनका वह पोस्ट अब नज़र नहीं आ रहा है पर विषय सभी के लिए महत्वपूर्ण है इसलिए अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ ।
मान लीजिये आप किसी व्यक्ति का अध्ययन कर रहे हैं तो स्पष्ट है कि उसका शरीर ही है जो उसे उसके परिवेश से अलग पहचान देता है। पर उसी शरीर के बावजूद एक जड़ शरीर से अलग, एक जीवित व्यक्ति के रूप में उसकी पहचान व्यक्तित्व के कारण होती है। इस प्रकार शरीर अधिरचना है तो व्यक्तित्व अंतर्रवस्तु है। भौतिक शरीर, सभी अंगों, माँसपेशियों तथा इंद्रियों सहित, उसकी अधिरचना होगी और व्यक्ति के रूप में उसका संपर्क बाहरी परिवेश के साथ, शरीर के अंगों और इंद्रियों के जरिए ही होता है। पर शरीर का नियंत्रण उसके व्यक्तित्व के द्वारा होता है। व्यक्तित्व मस्तिष्क और शरीर के अंदर होने वाली अनेकों क्लिष्ट जैविक प्रक्रियाओं का समुच्चय होता है। बाहरी परिवेश से सूचनाएँ इंद्रियों के द्वारा ग्रहण की जाती हैं और स्नायविक तंतुओं द्वारा मस्तिष्क के अंदर स्नायविक कोशिकाओं तक पहुँचती हैं। पहले से मौजूद सूचना और नई सूचना के आधार पर स्नायविक कोशिकाएँ नई सूचना का निर्माण करती हैं और शरीर के अंगों को स्नायविक तंतुओं के जरिए आवश्यक निर्देश देती हैं। स्नायु तंत्र (स्नायविक कोशिकाओं, स्नायविक तंतुओं की संरचना तथा जैविक प्रक्रिया को चलाने वाले अवयव जिनका समुच्चय व्यक्तित्व है) व्यक्ति की अंतर्वस्तु है जिसका परिवेश से सीधा संपर्क नहीं होता है। शरीर (अधिरचना) व्यक्ति को भौतिक रूप में परिवेश से अलग पहचान देता है पर स्नायविक तंत्र व्यक्ति के गुणों को निर्धारित करता है और शरीर को आवश्यकतानुसार निर्देश देता है। मस्तिष्क शरीर को प्रभावित करता है और शरीर मस्तिष्क को, और यही उनके बीच द्वंद्वात्मक संबंध है।
अब अगर हम स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में व्यक्तित्व पर ध्यान केंद्रित करें तो, रक्त संचार, हृदय स्पंदन, श्वास प्रक्रिया जैसी जैविक प्रक्रियाओं से संबंधित अवयव और स्नायविक तंतु अधिरचना हैं, और चिंतन, तर्क, विश्लेषण जैसी मानसिक प्रक्रियाएँ जो चेतना का निर्माण करती हैं से संबंधित स्नायविक कोशिकाएं अंतर्वस्तु हैं। इस प्रकार जहाँ जैविक प्रक्रिया व्यक्तित्व की अधिरचना है तो मानसिक प्रक्रिया व्यक्तित्व की अंतर्वस्तु है। जैविक प्रक्रिया जीवित कोशिकाओं को, मृत कोशिकाओं सहित, सारे परिवेश से अलग पहचान देती है, पर जैविक प्रक्रिया सहित व्यक्तित्व से संबंधित सभी कुछ का निर्धारण, मानसिक प्रक्रिया करती है। रक्त संचार, हृदय स्पंदन, श्वास प्रक्रिया जैसी जैविक प्रक्रियाओं का नियंत्रण भी उसी मानसिक प्रक्रिया के द्वारा होता है जिसके अंतर्गत चिंतन, तर्क, विश्लेषण जैसी मानसिक प्रक्रियाएँ होती हैं और जिसका समुच्चय चेतना कहलाता है। मस्तिष्क (अंतर्रवस्तु) का संबंध, शरीर के अन्य अंगों (परिवेश) के साथ सीधे सीधे न होकर जैविक प्रक्रियाओं (अधिरचना) के द्वारा ही होता है। यहाँ ध्यान देने की जरूरत है कि मानसिक या जैविक सभी प्रक्रियाओं का आधार भौतिक है, पर यह भौतिक आधार शरीर की अन्य भौतिक संरचना से गुणात्मक रूप से भिन्न होता है। हर कोशिका में वही डीएनए होने के बावजूद स्नायविक कोशिकाएँ तथा स्नायविक तंतु कोशिकाएं दूसरे प्रकार की कोशिकाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न होती हैं। शरीर के अंगों और इंद्रियों (बाहरी परिवेश) से सूचना जैविक प्रक्रियाओं (अधिरचना) के द्वारा मानसिक प्रक्रियाओं (अंतर्वस्तु) तक पहुँचायी जाती है और व्यक्तित्व की अंतर्वस्तु (मानसिक प्रक्रिया) उसकी अधिरचना (जैविक प्रक्रियाओं) को नियंत्रित करती है। मानसिक प्रक्रिया (अंतर्वस्तु) का जैविक प्रक्रिया (अधिरचना) के साथ यही द्वंद्वात्मक संबंध है।
अब अगर हम स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में व्यक्तित्व की अंतर्वस्तु, मस्तिष्क के ऊपर ध्यान केंद्रित करें तो मस्तिष्क में चेतना के रूप में हम दो स्वतंत्र प्रक्रियाएँ पाते हैं। एक स्वत:स्फूर्त या अनभिज्ञ प्रक्रिया जो जीव के प्राकृतिक गुण के रूप में जैविक प्रक्रिया को नियंत्रित करती है जिनसे सजग तौर पर व्यक्ति अनभिज्ञ रहता है, जिसे अवचेतना कहा जाता है। किसी मरीज़ जिसे डाक्टरों ने ब्रेन डेड घोषित कर दिया है के अंदर चलने वाली ये प्रक्रियाएँ ही उसे मृत घोषित नहीं होने देती हैं। दूसरी सायश या भिज्ञ प्रक्रिया जो तर्क, कल्पना, विचार, व्यवहार जैसी चीजों का निर्माण करती है जिसे चेतन कहा जा सकता है और जिनका नियंत्रण सजग तौर पर स्वयं इसी प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। मस्तिष्क की क्लिष्ट संरचना में अरबों कोषिकाओं के भौतिक स्वरूप में कोई अंतर नहीं होता है पर विन्यास तथा भूमिका के अनुरूप, स्नायविक कोशिकाएँ अलग अलग समय पर या एक ही समय पर भिज्ञ और अनभिज्ञ दोनों प्रक्रिया में भूमिका निभा सकती हैं। भौतिक रूप से अवचेतन और चेतन मस्तिष्क के बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं है, और जो विभाजन है वह प्रक्रिया के आधार पर है। अवचेतन मस्तिष्क चेतना की अंतर्वस्तु है और चेतन मस्तिष्क चेतना की अधिरचना है। मानसिकता अवचेतन का हिस्सा है और अप्रत्यक्ष तौर पर व्यक्ति की चेतन प्रक्रिया को अनजाने ही नियंत्रित करती है। व्यक्ति सजग रूप से अपनी तर्कबुद्धि के द्वार और अनजाने ही अपने व्यवहार के द्वारा अपनी मानसिकता और अवचेतन को प्रभावित करता है। मस्तिष्क की अंतर्वस्तु (अवचेतन) और अधिरचना (चेतन) के बीच का यही द्वंद्वात्मक संबंध है।
इस प्रकार अंतर्वस्तु की अंतर्वस्तु का विश्लेषण करते हुए आप प्रकृति के सूक्ष्मतम स्तर पर पहुँच जाते हैं जहाँ पदार्थ सूक्ष्मतम कणों के रूप में निरंतर गति में है, सभी कुछ प्रकृति के मूलभूत द्वंद्वात्मक नियम के अनुसार निरंतर बदल रहा है और सारी कायनात का मूल यही पदार्थ और यही शाश्वत नियम है। यही ज्ञान मार्क्सवाद का मूल आधार और अंतर्वस्तु है। जो लोग मार्कसवाद में संशोधन या विकसित किये जाने की बात करते हैं, वे भूल जाते हैं कि प्रकृति का मूल नियम द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ही मार्क्सवाद है और शाश्वत अपरिवर्तनीय है। जो कुछ विकासरत है वह है प्रकृति की अधिरचना न कि अंतर्वस्तु, और मार्क्सवाद के आधार पर अर्जित किया जा सकने वाला उस विकास का ज्ञान।

सुरेश श्रीवास्तव
19 जनवरी, 2016


Tuesday 12 January 2016

मार्क्सवाद की व्यक्तिगत उपयोगिता

(मार्क्सिज्म स्टडी ग्रुप पर, मार्क्सवाद को पढ़ने का आग्रह करते हुए कामरेड नरुका का एक आलेख चस्पाँ किया गया है। इस आलेख से अनेक युवा प्रभावित नजर आते हैं, पर इस आलेख में मार्क्सवाद को जिस रूप में दर्शाया गया है, वह उसके लेखक की इस आशंका की पुष्टि करता है कि 'कुछ लोगों को यह राजनैतिक विचार सपना लगे'। कामरेड नरुका के प्रति पूरे आदर के साथ, एक स्वस्थ आलोचना के रूप में प्रस्तुत लेख, मार्क्सवाद के बारे में फैली भ्रांतियों को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है।)
कामरेड नरुका भी, पूरी ईमानदारी के साथ, वही ग़लती कर रहे हैं जो उनके पूर्ववर्ती वामपंथी करते आ रहे हैं। मार्क्सवाद को समझने का दावा करने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी, अपनी निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता से बाहर आये बिना, मार्क्सवाद को मानवता जैसी भावना से ओतप्रोत एक राजनैतिक विचार के रूप में पिछली पीढ़ी से ग्रहण कर अगली पीढ़ी को परोस रहे हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह पिछली पीढ़ियाँ करती रही हैं। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की जिस अवधारणा को मार्क्स और एंगेल्स ने प्रकृति में सभी कुछ के अस्तित्व और उनमें होने वाले बदलावों के मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्थापित किया था, उस सिद्धांत को मानव समाज की सामाजिक/राजनैतिक समझ तक सीमित कर, वामपंथियों ने मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु को नेपथ्य में ढकेल कर, उसकी अधिरचना के एक भाग को - मूल अवधारणा की वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर निरंतर विकसित होते समाज से संबंधित ज्ञान को - ही संपूर्ण मार्क्सवाद के रूप में दर्शाने का प्रयास किया है, और इस प्रकार अधिरचना में होने वाले परिवर्तनों को मार्क्सवाद में निरंतर होने वाले विकास के रूप में दर्शा कर मार्क्सवाद को सिद्धांत की हैसियत से हटा कर एक अवधारणा की हैसियत में ला दिया है।
रूस और चीन की क्रांतियों की सफलता की चकाचौंध के कारण वामपंथियों की दृष्टि, मार्क्सवाद को पूँजीवाद के खिलाफ लड़ाई में एक राजनैतिक हथियार के रूप में देखने तक सीमित हो गयी है। अपने निम्नमध्यवर्गीय दृष्टिकोण के वशीभूत वे सामाजिक संरचना के भौतिक आर्थिक आधार की मूल्य, मुद्रा, पूंजी, अतिरिक्त मूल्य जैसी उन क्लिष्ट वैचारिक श्रेणियों के आपसी द्वंद्वों को समझने में नाकाम हैं जिनका सटीक विश्लेषण कर मार्क्स और एंगेल्स, वैज्ञानिक समाजवाद के जरिए, पूँजीवाद से साम्यवाद की ओर जाने का रास्ता दिखा सके थे। वामपंथियों ने अपनी मूलभूत निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता के साथ, मार्क्सवाद को राजनैतिक सक्रियता तक सीमित कर, काल्पनिक समाजवाद और वैज्ञानिक समाजवाद को गड्डमड्ड कर दिया है। अनेकों वामपंथी गुटों की मौजूदगी के बीच नौजवान पीढ़ी भ्रमित है कि कौन सा समाजवाद लाना है।
मार्क्स और एंगेल्स अपनी दार्शनिक समझ और सर्वहारा दृष्टिकोण के कारण, प्रकृति की मूलभूत संरचना और उसमें निरंतर होने वाले परिवर्तनों के द्वंद्व को सही सही समझ सके और उस द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर चेतना और अस्तित्व के जिस द्वंद्वात्मक संबंध को समझने में सफल रहे उसे समझने में उनके पूर्ववर्ती दार्शनिक नाकाम रहे थे। उनके अनुसार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत शाश्वत और सर्वव्यापी है और प्रकृति के सूक्ष्मतम स्तर से लेकर विशालतम स्तर तक बिना किसी अपवाद के प्रभावी है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत और विश्लेषण की पद्धति, निर्जीव से लेकर जीव तक, पशु से लेकर मानव तक और मानव से लेकर समाज तक, सभी का हर परिस्थिति में सही सही विश्लेषण करने में सक्षम है। समस्याओं का विश्लेषण करने तथा उनका समाधान ढूँढने में मार्क्सवाद को एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल कर सकने की क्षमता विकसित करने के लिए, उस औज़ार का जीवन के हर आयाम में निरंतर इस्तेमाल करते रहना ज़रूरी है। जो लोग मार्क्सवाद के इस्तेमाल को राजनैतिक व्यवहार तक सीमित रखते हैं, पर अपने निजी और पारिवारिक जीवन में आचरण पारंपरिक गैर-मार्क्सवादी पद्धति के आधार पर करते हैं, वे कभी भी मार्क्सवाद को ठीक से नहीं समझ पायेंगे।
मार्क्स और एंगेल्स ने परिवार और निजी संपत्ति को मौजूदा समाज की सूक्ष्मतम इकाई के रूप में देखा था, और पारिवारिक इकाई पर लागू होने वाले द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियमों के विस्तार के आधार पर ही उन्होंने मानव समाज के विकास के इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या की थी। जो वामपंथी, मज़दूर आंदोलनों तथा सक्रिय राजनीति में भागीदारी को मार्क्सवाद की समझ हासिल करने की पहली अनिवार्य सीढ़ी मानते हैं, उन्होंने मार्क्सवाद को समझा ही नहीं। मार्कसवाद की सही बुनियादी समझ के बिना सक्रिय राजनीति तथा आंदोलनों में भागीदारी, रूढ़िवादिता तथा संशोधनवाद को जन्म देती है, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में दिन-ब-दिन पुख्ता होते जाते हैं। मार्क्सवाद की सही बुनियादी समझ के लिए, व्यक्तिगत था पारिवारिक जीवन में दिन प्रतिदिन की समस्याओं तथा परिवर्तनों का विश्लेषण द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर करते रहना ज़रूरी है। अधिकांश वामपंथियों को शायद पता ही नहीं है कि मार्क्स ने समाज में गुलामी आधारित अर्थव्यवस्था के भ्रूण की पहचान परिवार में स्त्री की गुलामी के रूप में की थी, और पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के सर्वहारा मज़दूर का मूलरूप, आदिम परिवार में स्त्री सर्वहारा के रूप में रेखांकित किया था।
जो लोग सोचते हैं की भाषा की क्लिष्टता के कारण अनपढ़ मज़दूर किसान मार्क्सवाद को नहीं समझ सकते हैं, वे ऐसा इसलिए सोचते हैं क्योंकि वे मार्क्सवाद के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण रखते हैं और सोचते हैं कि मार्क्सवाद केवल एक हथियार है पूँजीवादी शोषण के खिलाफ लड़ने का और समतामूलक समाज बनाने का। वे यह नहीं समझते हैं कि मार्क्सवाद, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित एक पद्धति है जो व्यक्ति को चीजों को सही सही समझने और उनमें सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की क्षमता प्रदान करती है, और सर्वहारा में यह दृष्टिकोण स्वत: ही विकसित हो जाता जब वह अपने जीवन के साधनों का आधार, श्रम के साधनों में न देखकर अपने सामूहिक श्रम में देखने लगता है। मज़दूर और किसान वर्ग में सर्वहारा चेतना के विस्तार का एक ही रास्ता है और वह है कि उनकी दिन प्रतिदिन की समस्याओं का विश्लेषण उनकी अपनी भाषा में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर किया जाय। उन्हें पूँजीवाद, समाजवाद, शोषण, क्रांति, वैश्वीकरण, वित्तीय पूँजी आदि जैसे शब्दों, जो उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर हैं, के आधार पर मार्क्सवाद नहीं समझाया जा सकता है।

सुरेश श्रीवास्तव
12 जनवरी, 2016