Thursday 27 July 2017

सांप्रदायिकता बनाम भ्रष्टाचार

सांप्रदायिकता बनाम भ्रष्टाचार
जदयू तथा राजग के नये गठजोड़ से विपक्ष के खेमे में अफ़रा-तफ़री मच गई है, मानो भेड़ों के रेवड़ में भेड़िया घुस गया हो। धर्मनिरपेक्षता तथा भ्रष्टाचार-विरोध के आधार पर विरोध पक्ष की राजनीति करने वाले हतप्रभ हैं। समझ नहीं पा रहे हैं कि शुचिता के नाम पर नीतीश के साथ खड़े हों या धर्मनिरपेक्षता के नाम पर नीतीश के विरोध में खड़े हों। राजद या कांग्रेस जैसी बुर्जुआ पार्टियों, जिनके लिए फासीवाद के खिलाफ लड़ाई ज्यादा महत्वपूर्ण है, राजनीतिक भ्रष्टाचार कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, के लिए नीतीश के खिलाफ खड़े होने में कोई दुविधा नहीं है, और जेपी की संपूर्ण क्रांति से निकले समाजवादियों, जो अनेकों जातियों तथा संप्रदायों में बंटे होने के बावजूद मूल रूप से धार्मिक हिंदू ही हैं, के लिए हिंदू धार्मिक कट्टरता कभी मुद्दा नहीं रही, उनके लिए तो पूँजीवादी भ्रष्टाचार ही असली मुद्दा है इसलिए उन्हें नीतीश कुमार के साथ खड़े होने में कोई असमंजस नहीं रहा। 
असली समस्या अनगिनत समूहों में बंटे, संगठित या असंगठित वामपंथियों के लिए है। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि वे लालू तथा कांग्रेस के साथ खड़े हों या नीतीश के साथ, बिना सहारे के खड़े रह पाने का साहस तो वे कभी जुटा ही नहीं पाये थे। वामपंथियों की दुविधा समझ पाने के लिए भारतीय राजनीतिक-अर्थव्यवस्था का द्वंद्वात्मक विश्लेषण तथा समझ जरूरी है, जिसे भारतीय वामपंथियों ने तो जरूरी माना है और ही समझा है। इस कारण वे तो फासीवाद के मूल को समझ पाये और ही भ्रष्टाचार के मूल को, और दोनों के मूल को गड्डमड्ड कर देने के कारण ही वामपंथी आंदोलन भ्रमित, दिशाहीन है।
फासीवाद और बुर्जुआ जनवाद, वैचारिक-सामाजिक-चेतना का हिस्सा हैं और एक दूसरे विपर्यय हैं। उनके आपसी संघर्ष में एक के कमजोर होने पर दूसरा ताक़तवर होने लगता है। सामाजिक चेतना के चरित्र को समझने के लिए उत्पादन के भौतिक आधार और उत्पादन संबंधों को अर्थात अर्थव्यवस्था के चरित्र को समझना जरूरी है जिसकी बुनियाद पर फासीवाद या जनवाद विकसित होता है। फासीवाद या जनवाद जो कि राजनैतिक व्यवस्था के विकास स्तर को दर्शाते हैं, अर्थव्यवस्था का आधार नहीं बल्कि उसकी उपज हैं। जहाँ फासीवाद या तानाशाही राजशाही के ही स्वरूप हैं जो कि सामंतवादी अर्थव्यवस्था की राजनैतिक अधिरचना या राजसत्ता का केंद्र दर्शाती है, वहीं जनवाद पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की राजनैतिक चेतना का द्योतक होता है जिसके आधार पर राजसत्ता का गठन होता है। उत्पादक शक्तियों का निरंतर विकास मानव का प्रकृति के साथ शाश्वत द्वंद्वात्मक संबंध है, और उत्पादक शक्तियों के विकास के विभिन्न स्तरों पर, उत्पादन संबंध सामंतवादी अर्थव्यवस्था या पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को परिभाषित करते हैं।
उत्पादक शक्तियों के साथ विकसित होते उत्पादन संबंबंधों के कारण, सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया से पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में संक्रमण, सामाजिक विकास प्रक्रिया का अभिन्न अंग होता है। कई दशकों के संक्रमण काल के दौरान, सामंतवादी उत्पादन प्रक्रियाएँ तथा पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रियाएँ, बुर्जुआ उत्पादन के रूप में कई दशकों तक द्वंद्वात्मक सह-अस्तित्व में रहती हैं। उत्पादन के भौतिक आधार के अनुरूप सामंतवादी तथा पूँजीवादी चेतनाएँ भी, एक दूसरे में गुँथी हुईं, दशकों तक समकालीन सामाजिक चेतना के रूप में मौजूद रहती हैं।
जनवादी गणराज्यों में, वर्ग संघर्ष राजसत्ता के केंद्र अर्थात पार्लियामेंट पर नियंत्रण का रूप ले लेता है। बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था के कारण, अनेकों आर्थिक केंद्रों में बंटी अर्थव्यवस्था के अनुरूप, अनेकों समूह अपनी अपनी राजनीतिक पार्टियों का गठन करते हैं और सुविधानुसार गठजोड़ बनाते हैं। पर सारा राजनीतिक संघर्ष मूल रूप से सामंतवाद और पूँजीवाद के बीच बंटा होता है। जहाँ पूँजीवाद का हित पूंजी के एकत्रीकरण तथा स्वचलित मशीन आधारित बड़े स्तर की उत्पादन-वितरण व्यवस्था में होता है, वहीं सामंतवाद का हित श्रम-विभाजन के साथ कुशलता आधारित छोटे स्तर की पारंपरिक उत्पादन और वितरण व्यवस्था में होता है।
बुर्जुआ उत्पादन के साथ अस्तित्व में आया सर्वहारा वर्ग, पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही विकसित होता जाता है। विकसित होते उत्पादन के भौतिक आधार के साथ विकसित होती चेतना के कारण सर्वहारा, सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य को संपन्न वर्ग द्वारा हड़प लिये जाने के प्रति जागरूक होकर शोषण से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगता है। अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण निम्न-मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी मुक्ति संघर्ष में मजदूर वर्ग को संगठित करता है और नेतृत्व प्रदान करता है। पर अपनी निम्न-बुर्जुआ चेतना के कारण संघर्ष के शुरुआती दौर में वह, कमजोर विकासरत पूँजीपति वर्ग और शक्तिशाली सामंतवाद वर्ग के बीच संघर्ष में, पूंजीपति वर्ग के साथ एकजुट होता है, और पूँजीपति वर्ग की ताक़त बढ़ने के साथ पाला बदल कर सामंतवर्ग के साथ एकजुट हो जाता है। वैज्ञानिक समाजवादी चेतना के अभाव में मजदूर वर्ग, निम्न-बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू बना रहता है और उस वर्ग से ही अपने प्रतिनिधियों को चुनता रहता है, जब तक वह स्वयं राजनीतिक रूप से स्वयं परिपक्व नहीं हो जाता है।
सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक, अनेकों गुटों में बंटे युवा वामपंथियों का दायित्व है कि वे भारतीय अर्थव्यवस्था तथा राजनीति के मौजूदा स्वरूप को देखते हुए -
  1. सांप्रदायिकता, फासीवाद या भ्रष्टाचार के आधार पर इस या उस दल का समर्थन करें क्योंकि सांप्रदायिकता, फासीवाद या भ्रष्टाचार, भारतीय राजनीतिक-अर्थव्यवस्था का मुख्य अंतर्विरोध नहीं है।
  2. पूँजी के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय स्वरूप पा लेने का बाद राष्ट्रीय पूंजी तथा अंतर्राष्ट्रीय पूँजी का भेद समाप्त हो चुका है। उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए आवश्यक पूंजी में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के आधार पर अंतर कर अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के निवेश का विरोध करें। उत्पादक शक्तियों का विकास अर्थात बड़े स्तर की स्वचलित मशीन आधारित उत्पादन-वितरण व्यवस्था का विकास सर्वहारा चेतना के विकास का आधार है।
  3. कृषि में पूँजी निवेश उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए जरूरी है इसलिए कृषि में पूँजी निवेश का विरोध करें।
  4. फौरी निजी आर्थिक हितों के आधार पर, चलाये जा रहे मजदूर आंदोलन, परोक्ष में सामंतवाद को ताक़त देते हैं, इस कारण मजदूरों को सामूहिक हितों के आधार पर संगठित होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
  5. वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए ज्यादा से ज्यादा प्रयास करना चाहिए ताकि मजदूर वर्ग राजनीतिक रूप से जागरूक हो कर सर्वहारा के हरावल दस्ते का गठन कर सके।              

27 जुलाई 2017