Monday 23 July 2018

वामपंथी अवसरवादिता

मार्क्सवाद, प्रकृति के किसी भी आयाम से संबंधित किसी भी दृग्विषय की वैज्ञानिक पद्धति आधारित पड़ताल तथा उसके आधार पर अर्जित ज्ञान का समुच्चय है। वामपंथी अवसरवादिता जैसी पेचीदा वैचारिक चीज का ठीक ठीक विश्लेषण तथा उसकी व्याख्या केवल मार्क्सवाद की सही समझ के साथ ही की जा सकती है।
अगर वामपंथी अवसरवादिता को समझना है तो उसे गैर-वामपंथी अवसरवादिता से अलग कर के समझना होगा।  आमतौर पर अवसरवादिता को, व्यक्ति की अनैतिक चरित्र की अंतर्निहित मानसिकता तथा सोच के लक्षण के रूप में देखा जाता है , कि निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए किये गये, सिद्धांतविहीन आचरण के रूप में, और इस मतिभ्रम को दूर किये बिना तो अवसरवादिता को समझा जा सकता है और ही वामपंथी अवसरवादिता के कारण वामपंथी आंदोलन में व्याप्त बिखराव से निपटा जा सकता है। चूँकि अवसरवादिता एक वैचारिक चीज है, मानवीय चेतना का एक आयाम जो व्यक्ति के आचरण को तय करती है, इसलिए मानवीय चेतना की अंतर्वस्तु को समझे बिना तो अवसरवादी आचरण को समझा जा सकता है, ही वामपंथी आंदोलन में व्याप्त भटकाव को दूर किया जा सकता है और ही बुर्जुआ जनवाद का रूपांतरण सर्वहारा जनवाद में करके समाजवादी क्रांति को सफल बनाया जा सकता है।
अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध की समझ, मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु का दार्शनिक आयाम है, और स्वघोषित मार्क्सवादी इस आयाम को समझे बिना ही मार्क्सवाद को समझना-समझाना चाहते हैं, इसीलिए वे संशोधनवाद के दलदल में से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। लेनिन ने रेखांकित किया था, ‘ परिस्थिति-दर-परिस्थिति आचरण तय करना, प्रतिदिन की घटनाओं तथा क़तर-ब्योंत की ओछी राजनीति के अनुरूप अपने को ढालना, सर्वहारा के प्राथमिक हितों तथा सारी पूँजीवादी व्यवस्था तथा पूँजीवाद के विकास के आधारभूत लक्षणों को नजरंदाज करना,फौरी हासिल या संभावित, फ़ायदों के लिए इन प्राथमिक हितों की तिलांजलि - ऐसी है संशोधनवाद की नीति।और संशोधनवाद की ऐसी नीति के अनुसार व्यवहार करना ही अवसरवाद है।
मानवीय शरीर का स्वरूप भौतिक है पर मानवीय चेतना का स्वरूप वैचारिक है कि भौतिक, और इसीलिए समाज तथा सामाजिक चेतना का स्वरूप भी वैचारिक है कि भौतिक। आमतौर पर, अमूर्त चिंतन की कुशलता के अभाव में, मानवीय चेतना को शरीर की एक आंतरिक संरचना के रूप में ही देखा जाता है। और यह स्वभाविक ही है। बचपन से ही व्यक्ति, दूसरों को उनके शरीर तथा विचारों के समुच्चय के साथ एक व्यक्तित्व के रूप में ही पहचानता है, और मानवीय-चेतना को शरीर के अंदर अंतर्निहित किसी सूक्ष्म पदार्थ से निर्मित चेतन संरचना के रूप में देखने लगता है, जिसकी भाववादी चिंतन धारा में आत्मा के रूप में कल्पना की गई है। 
फॉयरबाख पर अपनी पहली प्रस्थापना में मार्क्स समझाते हैं, ‘फॉयरबाख के भौतिकवाद सहित, अभी तक के सभी भौतिकवादों, की मुख्य ग़लती थी कि, चीज़ों या परिवेश, तथा मानवीय मस्तिष्क पर उनके प्रतिबिंबों को, व्यक्ति से अलग, पदार्थ या तर्कबुद्धि की स्वतंत्र कल्पना के रूप में देखा जाता था कि व्यक्तिपरक मानवीय कर्म या संज्ञान की मानवीय प्रक्रिया के रूप में। इस कारण भाववाद द्वारा, संज्ञान के सक्रिय आयाम को, भौतिकवाद के विपर्यय के रूप में विकसित किया गया, ज़ाहिर है सक्रिय मानवीय प्रक्रिया से पूरी तरह विलग। फॉयरबाख इंद्रियों द्वारा महसूस की जा सकनेवाली भौतिक अस्तित्व की चीज़ों को, अहसास की जा सकनेवाली वैचारिक अस्तित्व की चीज़ों से पूरी तरह भिन्न मानते हैं। लेकिन वे संज्ञान की क्रिया को मानवीय क्रिया के रूप में नहीं देख पाते हैं। वे वैचारिक प्रवृत्ति को ही विशुद्ध मानवीय प्रवृत्ति मानते हैं, जब कि कर्म को  उसके प्रदूषित मूर्त रूपांतरण के रूप में देखाते है। वे व्यावहारिक-आलोचना कर्म की क्रांतिकारी गतिविधि के महत्व को नहीं समझ पाते हैं।और छठवीं प्रस्थापना में वे समझाते हैं, ‘फॉयरबाख धार्मिक सारतत्त्व का विश्लेषण मानवीय सारतत्त्व के रूप में करते हैं। परंतु मानवीय सारतत्त्व कोई अमूर्त [सूक्ष्म] तत्त्व नहीं है जो हर व्यक्ति में अंतर्निहित है। अपने यथार्थ में वह सामाजिक संबंधों का समुच्चय है।
मार्क्स मानवीय चेतना की पहचान तथा व्याख्या, पाशविक चेतना से अलग, गुणात्मक रूप से भिन्न चीज के रूप में करते हैं। 
मार्क्सवाद के अनुसार पाशविक चेतना की अंतर्वस्तु के दो अवयव हैं, सजग-चेतना तथा अभिज्ञ-चेतना या अवचेतना। सजग चेतना, जीव द्वारा बाहरी जगत के साथ व्यवहार के दौरान ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त सूचना तथा अंगों के संचालन के लिए प्रेषित सूचना का समुच्चय है। अभिज्ञ-चेतना, स्मृति-कोश में संगृहीत सूचना तथा आंतरिक संरचना के विभिन्न अंगों से प्राप्त सूचना के आदान प्रदान का समुच्चय है।  सजग-चेतना तथा अभिज्ञ-चेतना के बीच सीधा संबंध होता है।     
मार्क्सवाद के अनुसार, पाशविक चेतना से भिन्न मानवीय चेतना के तीन अवयव हैं। अभिज्ञ-चेतना, प्रज्ञा अर्थात तर्क-बुद्धि तथा सजग-चेतना। प्रज्ञा, अभिज्ञ-चेतना तथा सजग-चेतना के बीच सेतु की भूमिका निभाती है, और यही मानवीय चेतना को पाशविक चेतना से गुणात्मक रूप से भिन्न बनाता है। चेतना का आधार मस्तिष्क तथा शरीर की भौतिक संरचना में निहित है पर चेतना का स्वरूप भौतिक नहीं है, वह प्रक्रियाओं का समुच्चय है, पूरी तरह वैचारिक वस्तु जिसका जैविक संरचना के बाहर कोई अस्तित्व नहीं है। 
प्रज्ञा ने ही मानवीय चेतना को तर्क करने की, कल्पना करने की, सूचना को विचारों के रूप में व्यवस्थित करने की, भाषा का निर्माण करने की, ज्ञानेंद्रियों की पहुँच के बाहर की चीज़ों की पड़ताल करने की, कल्पना की गई अमूर्त चीज़ों को मूर्त रूप प्रदान करने की क्षमता तथा इस सबसे ऊपर सामूहिक व्यवहार करने की क्षमता, जो मानव समाज का आधार है, प्रदान की है। एक दूसरे के परिपूरक के रूप में व्यक्तिगत-चेतना तथा सामाजिक-चेतना के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध ने, व्यक्तिगत-चेतना तथा सामाजिक-चेतना के विस्तार को असीमित कर दिया है।
प्रज्ञा की मौजूदगी ही मानवीय चिंतन प्रक्रिया को बेहद पेचीदा बनाती है और किसी भी परिस्थिति में विभिन्न विचारों के निर्माण की संभावनाएँ असीमित कर देती है। इसके बावजूद, प्रकृति का अनिश्चितता-निश्चितता का नियम, सामूहिक चिंतन प्रक्रिया तथा सामूहिक विचार को निश्चित दिशा प्रदान करता है। सामूहिक-चेतना का निर्माण अनेकों व्यक्तियों की व्यक्तिगत-चेतनाओं के सम्मिश्रण से होता है पर व्यक्तियों की संख्या विशाल होने पर, प्रकृति के द्वंद्व के नियम के अनुरूप, सामूहिक चेतना एक स्वायत्त जैविक संरचना की तरह व्यवहार करती है और, व्यक्तिगत अनभिज्ञ चेतना को नियंत्रित कर तथा व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया तथा विचारों को अपने अनुरूप ढाल कर, सामूहिक विचारों तथा व्यवहार को अपने हितों के अनुरूप नियंत्रित कर लेती है, और आमतौर पर व्यक्ति, अपने आचरण की प्रक्रिया से अनभिज्ञ, समझ ही नहीं पाता है कि चीज़ें क्यों और कैसे घटित हो गई हैं। अमूर्त चिंतन में पारंगत तथा तर्कशक्ति की विकसित क्षमता वाला व्यक्ति, अपने सजग-चिंतन के साथ अपने सहयोगियों की व्यक्तिगत-चेतना को तो नियंत्रित कर लेता है और फौरी तौर पर लग सकता है कि चीज़ें व्यक्ति विशेष की इच्छा के अनुरूप घटित हो रही हैं, पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में, व्यक्ति विशेष भी समझ नहीं पाता है कि उसकी अपनी अनभिज्ञ चेतना को, सामूहिक-चेतना किस प्रकार नियंत्रित कर रही है और सामाजिक घटनाक्रम क्यों उसके प्रयासों के बावजूद उसकी इच्छा के विरुद्ध घटित हो रहा है।पारंपरिक जर्मन दर्शन का अंतमें एंगेल्स समझाते हैं, “महान मूल विचार, कि संसार को तैयार चीज़ों के समुच्चय के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसमें, जितनी देर तक स्थिर हमारे मस्तिष्क में उनके प्रतिबिंब अर्थात अवधारणाएं रहती हैं, केवल उतनी देर तक स्थिर प्रतीत होनेवाली चीज़ें, अस्तित्व में आने और नष्ट होने वाले अनवरत परिवर्तन से गुज़र रही हैं, जिसमें प्रतीत होनेवाली अनिश्चितता तथा अस्थाई अवनति के बावजूद एक प्रगतिशील विकास ही अंतत: प्रभावी होता है। यह आधारभूत विचार, विशेषकर हेगेल के समय के बाद से, आमचेतना में इतनी अच्छी तरह घर कर चुका है कि सर्वव्यापी नियम के रूप में उसका विरोध यदा कदा ही होता हो। पर इस मूलभूत विचार की शब्दों में स्वीकृति एक बात है, और यथार्थ के धरातल पर, हर किसी आयाम की पड़ताल में उसको व्यापक रूप में लागू करना बिल्कुल ही अलग बात है।” 
बात वामपंथी अवसरवाद की हो रही है तो, वामपंथ तथा उसके विपर्यय दक्षिणपंथ के बीच के अंतर को ठीक से समझना होगा। और बात अवसरवाद की भी है तो शेखचिल्ली-समाजवाद तथा वैज्ञानिक-समाजवाद के बीच अतिच्छादन तथा अंतर्विरोध को भी ध्यान में रखना होगा, और इसके लिए संशोधनवाद तथा मार्क्सवाद के मूल अंतर को भी समझना होगा।
दक्षिणपंथ तथा वामपंथ शब्द फ़्रांसीसी क्रांति के साथ प्रचलन में तब आये जब राजशाही का अंत कर आधुनिक राष्ट्रराज्य और उसकी अवधारणा अस्तित्व में आये। पारंपरिक तौर राजशाही के दौर में भी, सभा में सत्ता पक्ष के प्रतिनिधि पीठासीन अधिकारी के दाहिनी ओर तथा फ़रियादी या विरोधी जनप्रतिनिधि बायीं ओर बैठते थे। स्वभाविक है कि दाहिनी ओर बैठने वाला सत्तापक्ष यथास्थितिवादी होता है क्योंकि वह अपने द्वारा अपने हितों की रक्षा के अनुरूप गठित की गई व्यवस्था को बरक़रार रखना चाहता है। दूसरी ओर बायीं तरफ बैठने वाला विरोधी पक्ष व्यवस्था में परिवर्तन चाहता क्योंकि वह मौजूदा व्यवस्था से असंतुष्ट होता है। समय के साथ राष्ट्रराज्य की अवधारणा व्यापक तौर पर सर्वमान्य हो गई और, यथास्थितिवादी, प्रतिक्रियावादी, प्रतिक्रांतिकारी आदि दक्षिणपंथी के पर्यायवाची हो गये, तो दूसरी ओर परिवर्तनवादी, अराजकतावादी, क्रांतिकारी आदि वामपंथी के पर्यायवाची हो गये। प्रकृति में परिवर्तन को क्रिया के रूप में देखा जाता है और इसके विपरीत यथास्थिति को प्रतिक्रिया के रूप में और इसीलिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की शब्दावली में यथास्थिति के निषेध को क्रांतिकारी परिवर्तन की चालक शक्ति के रूप में देखा जाता है, और गुणात्मक परिवर्तन के बाद भूतपूर्व हो गया निषेध अब यथास्थितिवादी भूमिका में जाता है तथा भूतपूर्व हो गये निषेध के विरुद्ध, नवोदित, ‘निषेध का निषेध’, प्रगतिशील भूमिका धारण कर लेता है।
जब से सभ्य समाज, आर्थिक आधार पर वर्गों में विभाजित हुआ है तब से, सामूहिक रूप से पैदा किए गये अतिरिक्त उत्पाद के, निजी-स्वामित्व तथा सामूहिक-स्वमित्व के बीच बंटवारे के लिए संघर्ष जारी है। जहाँ शोषक वर्ग यथास्थिति चाहता है, वहीं शोषित वर्ग व्यवस्था में परिवर्तन चाहता है। मार्क्स ने समझाया था किहर वर्ग जीवन उत्पादन के भौतिक आधार पर, विचारों का तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके भौतिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है।भौतिक आधार पर खड़े किये गये इस तिलस्म के चलते ही शोषित वर्ग, शोषण का आधार, उत्पादक शक्तियों के लिए आवश्यक उत्पादन संबंधों के भौतिक आधार में ढूँढ कर, धर्म, जाति, भाषा, नस्ल, लिंग, संस्कृति जैसी वैचारिक कोटियों के तिलस्म में ढूंढने लगता है और व्यवस्था परिवर्तन के अपने संघर्ष को अस्मिता की राजनीति से जोड़ कर देखता है। यही कारण है कि वामपंथी आंदोलन अनेकों गुटों में बंटा हुआ है।
केवल शोषित वर्ग ही भ्रमित हो ऐसा नहीं है। निम्न मध्यवर्गीय भी, शोषक तथा शोषित के बीच, उत्पादन संबंधों में अपनी भूमिका के अनुरूप दुविधाग्रस्त भी होता है और भ्रमित भी। एक ओर तो वह उच्चवर्ग की विलासिता से लालायित होता है और परिवर्तन चाहता है पर साथ ही, व्यवस्था में किसी गुणात्मक परिवर्तन में विपन्न वर्ग के सापेक्ष अपने उच्च स्तर के खो जाने से आशंकित, वह प्रतिक्रांतिकारी भी होता है। और इसीलिए वह शेखचिल्ली-समाजवाद का पैरोकार बन जाता है। वह समावेशी समतामूलक समाज की वकालत करता है पर मौजूदा व्यवस्था के अंतर्गत ही। वह व्यवस्था में किसी भी गुणात्मक परिवर्तन से भय खाता है। वह शोषक वर्ग के हृदय परिवर्तन की पैरवी करता है और विपन्नवर्ग को, इसी व्यव्था के अंतर्गत बेहतर जीवन स्तर की प्राप्ति के लिए आश्वस्त करता है। शोषक वर्ग को भी समाजवाद का ऐसा मॉडल स्वीकार्य है जो हृदय परिवर्तन पर आधारित हो और आर्थिक संबंधों में किसी बदलाव के लिए मजबूर करता हो।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर मार्क्सवाद समझाता है कि, व्यापक तौर पर, जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं के सामूहिक उत्पादन-वितरण की व्यवस्था के अनुरूप, लोगों के बीच आपसी व्यवहार के साथ उपजने वाले उत्पादन संबंध ही, व्यक्तिगत अभिज्ञ-चेतना का तथा सामूहिक भौतिक-सामाजिक-चेतना का निर्माण करते हैं। सजग तौर पर, तर्कबुद्धि द्वारा अभिज्ञ-चेतना के निर्माण तथा विकास में हस्तक्षेप कर पाना लगभग असंभव होता है। अमूर्त चिंतन में दक्षता हासिल करना और तर्क शक्ति विकसित करना एक लंबी प्रक्रिया है और उसके बाद ही सजग तौर पर स्वयं की अभिज्ञ-चेतना में हस्तक्षेप संभव हो पाता है। पर दूसरों की अभिज्ञ-चेतना में हस्तक्षेप कर पाना बिल्कुल ही असंभव है। यही कारण है कि कुछ ही लोग हैं जो निजी पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित कर पाते हैं। इसी के अनुरूप चिंतक विचारक, दर्शन के आधार पर विचारधाराओं का निर्माण तो कर सकते हैं पर वे भौतिक-सामाजिक-चेतना में सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। सीमित दायरे में वे समूह की वैचारिक-सामाजिक-चेतना को प्रभावित कर लोगों के सजग राजनैतिक व्यवहार को तो प्रभावित कर सकते हैं पर वे व्यापक तौर पर भौतिक-सामाजिक-चेतना को प्रभावित नहीं कर सकते हैं। कुछ बौद्धिक अपनी निम्न-मध्यवर्गीय मानसिकता के चलते भ्रम पाल लेते हैं कि, अपनी विशिष्ट क्षमताओं के कारण वे लोगों की अभिज्ञ-चेतना को वैचारिक स्तर पर प्रभावित कर सकते हैं और इसीलिए लोग उनके नेतृत्व को स्वीकार करते हैं। अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे मानवीय चेतना के इस प्राकृतिक नियम को नहीं समझ पाते हैं कि लोग अपने देवता और आराध्य स्वयं चुनते हैं और अनेकों समकक्षों के बीच में से कोई एक, नेता इसलिए होता है कि लोग उसे नेता मानते हैं। लोगों के मन में उनकी अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप नेता की अमूर्त छवि पहले से मौजूद होती है और जो व्यक्ति उन आकांक्षाओं की पूर्ति करता नजर आता है, वे उसे ही नेता मान लेते हैं।  
औद्योगिक क्रांति के बाद लाखों करोड़ों मजूरी आधारित कामगारों के सामूहिक श्रम द्वारा किये जाने वाले उत्पादन-वितरण की अर्थव्यवस्था अर्थात पूँजीवादी व्यवस्था में बारंबार के आने वाले आर्थिक संकटों के, तथा संपन्न तथा विपन्न वर्ग के बीच हितों की टकराहट के कारण सामाजिक चेतना में यह बात घर करती जा रही थी कि उद्योगपति अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए मजदूरों को उनके श्रम के अनुपात में मजूरी दे कर उनका शोषण करते हैं जिसके कारण सारी समस्याएँ उपजती हैं। निम्न मध्यवर्गीय चिंतक विचारक अपने भाववादी दृष्टकोण के कारण समझते हैं कि संपन्न वर्ग को समझा बुझाकर, उनमें मजदूरों के प्रति संवेदना जगा कर तथा सरकार द्वारा हितकारी योजनाएँ लागूकर समतामूलक समावेशी समाज अर्थात समाजवाद की स्थापना की जा सकती है और पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही धीरे धीरे समाजवाद लाया जा सकता है। वे ये नहीं समझ पाते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के उत्पादन संबंधों के रहते हुए संपन्न वर्ग की भौतिक-सामाजिक-चेतना में, केवल समझाने बुझाने के आधार पर बदलाव कर पाना प्रकृति के नियम के विपरीत है और इसलिए उनकी समाजवाद की कल्पना केवल शेखचिल्ली सपना है।
अठारहवीं सदी के अंत तक आते आते इंग्लैंड में केंद्रित पूँजीवाद अपने चरम, साम्राज्यवाद पर पहुँच चुका था, और सारी दुनिया का, साम्राज्यों तथा उपनिवेशों के बीच बँटवारा होने के साथ ही, सामंतवाद तथा पूंजीवाद का संघर्ष भी अपने चरम पर पहुँच चुका था। इसके अनुरूप भाववादी चिंतन तथा भौतिकवादी चिंतन के द्वंद्वात्मक संघर्ष ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित चिंतन पद्धति को जन्म दिया जिसने विज्ञान तथा दर्शन के बीच का भेद समाप्त कर दिया। इस चिंतन पद्धति के प्रणेता थे कार्ल मार्क्स तथ फ्रेडरिक एंगेल्स। अस्तित्व तथा चेतना के बीच द्वंद्वात्मक संबंध की मार्क्सवादी समझ के आधार पर उन्होंने समझाया कि पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के मूल में निजी संपत्ति के स्वामित्व की सामंतवादी अवधारणा है। समझा बुझाकर इस अवधारणा को बदल पाना असंभव है क्योंकि वह समाज की भौतिक-सामाजिक-चेतना का हिस्सा है। राज्य के सामंतशाही स्वरूप के अंतर्गत राजसत्ता के हस्तक्षेप के द्वारा संपत्ति संबंधों में बदलाव भी असंभव है क्योंकि समूह के रूप में राज्य की चेतना भी उसी भौतिक-सामाजिक-चेतना पर आधारित है। मार्क्सवाद के अनुसार उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ ही उत्पादन संबंधों का विकास भी आवश्यक है, और जैसे जैसे पूँजी का विस्तार होगा और पूँजी के निजी स्वामित्व का रूपांतरण सामूहिक स्वामित्व में होता जायेगा वैसे वैसे, भौतिक-सामाजिक-चेतना में संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा के विरुद्ध संपत्ति के सामूहिक स्वामित्व की अवधारणा का द्वंद्व भी तीव्र होता जायेगा। उत्पादन संबंधों की जड़ता के कारण उत्पादक शक्तियों का विकास अवरुद्ध होता है। राजसत्ता का गठन वैचारिक-सामाजिक-चेतना का हिस्सा है और उसमें चिंतक विचारक सजग हस्तक्षेप के जरिए उत्पादक शक्तियों के विकास को सुगम बना सकते हैं तथा उत्पादन संबंधों को समाजवादी आधार प्रदान कर सकते हैं। इस दिशा में पहला क़दम होता है राजनैतिक क्रांति के जरिए राज्य के सामंतवादी गठन का बुर्जुआ जनवाद के द्वारा विस्थापन और फिर बुर्जुआ जनवाद का सर्वहारा जनवाद में रूपांतरण। जहाँ बुर्जुआ जनवादी राज्य (बुर्जुआ तानाशाही) का प्रयास होता है राज्य के बनाये नियमों के द्वारा अतिरिक्त उत्पाद या मुनाफे का निजी स्वामित्व में हस्तांतरण सुगम बनाना, वहीं सर्वहारा जनवाद (सर्वहारा तानाशाही) का प्रयास होता है राज्य के बनाये नियमों के द्वारा अतिरिक्त उत्पाद या मुनाफे का सामूहिक स्वामित्व में हस्तांतरण सुगम बनाना। उत्पादक शक्तियों के विकास के जरिए उत्पादन संबंधों में बदलाव कर, भौतिक-सामाजिक-चेतना में, संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा का सामूहिक स्वामित्व की अवधारणा में रूपांतरण सुगम बनाया जा सकता है। प्रकृति के नियमों की सही समझ के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित समाजवाद की यही एकमात्र सही अवधारणा है जिसकी व्याख्या एंगेल्स ने वैज्ञानिक-समाजवाद के रूप में की है।
जब से सभ्य समाज का गठन हुआ है, चिंतकों के सामने प्रकृति के रहस्यों की पड़ताल में यक्ष प्रश्न रहा है - व्यक्ति के अंदर, जीव या चेतना क्या है और उसका स्रोत क्या है? समय के साथ बढ़ती हस्तशिल्पकार की कुशलता ने, श्रम विभाजन के साथ साथ समाज को भी वर्गों में विभाजित कर दिया। इसके साथ वर्ग विभाजित समाज के अनुरूप चिंतन भी दो धाराओं में बंट गया - भाववादी तथा भौतिकवादी। प्रकृति के रहस्यों की पड़ताल का दायरा भी दर्शन तथा विज्ञान के बीच बंट गया। वैचारिक जगत तथा सामाजिक संबंधों की पड़ताल का ज़िम्मा दार्शनिकों के हिस्से में और भौतिक जगत की पड़ताल का ज़िम्मा वैज्ञानिकों के हिस्से में गया। वैज्ञानिकों की पड़ताल का दायरा स्वयं वैज्ञानिकों के अस्तित्व के बाहर होने के कारण, खोज के दौरान प्रतिपादित की गई अवधारणाओं की सच्चाई का व्यवहार में सत्यापन तथा मतभेदों का समाधान आसान होता है। दार्शनिकों की पड़ताल का दायरा पूरी तरह अमूर्त और व्यक्ति के रूप में स्वयं की आंतरिक संरचना के अंदर होने के कारण, खोज के दौरान प्रतिपादित की गई अवधारणाओं का, तथा व्यवहार में उनके सत्यापन का, स्वयं दार्शनिक के पूर्वाग्रहों से मुक्त होना लगभग असंभव होता है। व्यक्तिगत-चेतना तथा सामाजिक-चेतना के दायरे में आनेवाली चीज़ों के बारे अवधारणाओं तथा व्याख्याओं की सच्चाई का सत्यापन तथा मतभेदों के समाधान, केवल वैचारिक विमर्श तथा व्यावहारिक आचरण द्वारा, विचार तथा व्यवहार के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर ही किया सकता है। किसी एक को नजरंदाज करना, सच्चाई को नकारना है।    अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में विज्ञान के क्षेत्र में होनेवाली अनेकों अभूतपूर्व खोजों तथा पूंजीवाद के अपने चरम पर पहुँचने के साथ, दर्शन शास्त्र की दोनों धाराएँ भी, पारंपरिक जर्मन दर्शन के रूप में अपने चरम पर पहुँच चुकी थीं। भाववादी तथा भौतिकवादी विचारधाराओं के बीच के अंतर्विरोधों के समाधान के बिना, मानव के ज्ञान के विकास का आगे का रास्ता बंद था। अंतर्विरोधों का समाधान ढूंढने तथा उसे लिपिबद्ध करने का श्रेय कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स को जाता है। अमूर्त चिंतन में पारंगत होने तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण वे उस शाश्वत सर्वव्यापी नियम को पहचान सके जो असीमित विविधताओं वाली अनादि अनंत प्रकृति के अस्तित्व तथा उसमें निरंतर हो रहे अनगिनत परिवर्तनों की सही सही व्याख्या कर सके। प्रकृति के अनादि अनंत अस्तित्व की भौतिकवादी व्याख्या तथा उसमें निरंतर होने वाले परिवर्तनों का शाश्वत सर्वव्यापी द्वंद्व का नियम ही मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु है जिसे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नाम से जाना जाता है। यही नियम मानव के निरंतर अर्जित/विकसित होनेवाले ज्ञान पर भी लागू होता है और यह अर्जित ज्ञान ही मार्क्सवाद की अधिरचना है। प्रकृति के हर आयाम पर लागू होनेवाले सर्वव्यापी शाश्वत द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत के आधार पर, भौतिक जगत तथा वैचारिक जगत के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की पहचान कर मार्क्स तथा ऐंगेल्स ने विज्ञान तथा दर्शन के बीच के विलगन को समाप्त कर दर्शन को भी विज्ञान के समकक्ष खड़ा कर दिया है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर ही मार्क्स तथा एंगेल्स ने, मानव समाज के इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या की और दर्शाया कि उत्पादक शक्तियों के विकास तथा उत्पादन संबंधों के बीच का द्वंद्व ही इतिहास की दिशा तय करता है, कि शासकों के व्यक्तिगत निर्णय। उत्पादक शक्तियों को सामूहिक रूप से विकसित करके जीवन के भौतिक आधार को सुगम तथा सहज बनाना, मानव का नैसर्गिक गुण है, ताकि वैचारिक स्तर पर, व्यक्ति जीवन के लिए आवश्यक चीज़ों के उत्पादन करने की दासता से पूरी तरह मुक्त हो सके। मौजूदा उत्पादन-वितरण व्यवस्था में, उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों के बीच असमाधेय अंतर्विरोध, सामाजिक उथल-पुथल का कारण है और देर सबेर उनके बीच के संबंध में गुणात्मक परिवर्तन अवश्यंभावी है ताकि अंतर्विरोध का समाधान हो सके और समाज में शांति स्थापित हो सके। युद्धों और युद्धों में होनेवाली जानमाल की हानि के कारणों की पहचान उन्होंने वर्ग विभाजित समाज में निरंतर चलने वाले वर्ग संघर्षों के रूप में की है। 
वर्ग विभाजित समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए तथा आत्मघाती संघर्षों में समाज स्वयं ही समाप्त हो जाय इससे बचने के लिए समाज के अंदर ही राजसत्ता का जन्म हुआ है। हिंसक संघर्षों पर नियंत्रण राज्य की संगठित भौतिक शक्ति के द्वारा ही संभव हो सकता है। संपत्ति का स्वामित्व संपन्नवर्ग के हाथों में होने के कारण, साधारणतया, राजसत्ता की सामूहिक-चेतना संपत्तिवान वर्ग की चेतना के अधीन होती है। कभी-कभी वर्गों के बीच शक्ति संतुलन की स्थिति में, प्रत्यक्ष में राजसत्ता स्वायत्त चेतन संरचना की तरह व्यवहार करने लगती है, पर परोक्ष में अंतर्विरोधी वर्ग विभाजन के चलते अंतत: संतुलन की यह स्थिति बहुत देर तक नहीं रह पाती है। स्थायी संतुलन के लिए आवश्यक है कि समाज का वर्गों के रूप में विभाजन समाप्त हो। इसके लिए जरूरी है कि उत्पादन व्यवस्था में इस प्रकार का परिवर्तन हो कि उत्पादन संबंध उत्पादक शक्तियों के अनुरूप हों अर्थात, सामूहिक रूप से पैदा किये जानेवाले उत्पाद के लिए आवश्यक उत्पादन के साधन सामूहिक स्वामित्व में हों और अतिरिक्त उत्पाद भी सामूहिक स्वामित्व में हो। समाज के विकास की यही प्राकृतिक दिशा है। समाज के विकास की गति को, सजग हस्तक्षेप के जरिए तीव्र करना ही विवेकपूर्ण कर्म है। 
वैचारिक स्तर पर व्यक्तिगत रूप से यह समझ सहज ही हासिल की जा सकती है पर समाज के विकास को गति प्रदान करने वाला सजग हस्तक्षेप व्यावहारिक स्तर पर सामूहिक रूप में ही कारगर हो सकता है। वर्ग विभाजित समाज में, वर्गों के बीच होनेवाले हिंसक संघर्षों पर रोक और व्यवस्था पर नियंत्रण राज्य की संगठित शक्ति के द्वारा ही संभव हो सकता है। मार्क्स ने समझाया था किप्रतिरोध का हथियार, हथियार के बल पर किये जाने वाले प्रतिरोध का स्थान नहीं ले सकता है, भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति से ही विस्थापित किया जा सकता है; पर सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है।मार्क्स के लिए क्रांतिकारी कर्म, समाज के विकास के नियमों की पहचान तथा विकास की दिशा की व्याख्या तक सीमित नहीं था, आवश्यक था यह दर्शाना कि विकास की गति को तीव्र करने में सजग हस्तक्षेप कैसे किया जाय। और इसके लिए उन्होंने मार्क्सवाद के नाम से जाने जाने वाले सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान शाश्वत सिद्धांत की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की जिसकी समझ के आधार पर, संगठित राजसत्ता की सामूहिक-चेतना को, संपत्तिवान वर्ग की चेतना के प्रभाव से निकाल कर सर्वहारा वर्ग की चेतना के आधीन ला कर, समाज के विकास की गति को तीव्र करने के लिए उचित सजग हस्तक्षेप किया जा सके। वर्ग संघर्षों में मजदूरों किसानों को संगठित करने और नेतृत्व प्रदान करने के लिए मार्क्सवाद की सही समझ के आधार पर, लेनिन ने जनवादी केंद्रीयता के नियम को परिभाषित किया तथा बोल्शेविक पार्टी का गठन किया और विकास के अत्याधिक निचले स्तर की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के रहते हुए भी रूस में, राजसत्ता को सर्वहारा चेतना के नियंत्रण में लाकर समाजवादी राजसत्ता का गठन किया। और इसी सिद्धांत पर चल कर माओ ने चीन की सामंतवादी औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में, कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर, पार्टी के नेतृत्व में राजसत्ता को सर्वहारा चेतना के नियंत्रण में लाकर समाजवादी राजसत्ता का गठन किया।     
बुर्जुआ वर्ग ने शुरुआती दौर में सीधे हमले के द्वारा तार्किक स्तर पर मार्क्सवाद को ध्वस्त करने की कोशिश की, पर व्यावहारिक स्तर पर पेरिस कम्यून के अनुभव ने जब मजदूर किसान वर्ग के बीच वैश्विक स्तर पर मार्क्सवाद के रूप में सर्वहारा की चेतना को स्वीकार्य बना दिया तो, बुर्जुआ वर्ग ने निम्न मध्यवर्गीय बुर्जुआ विचारों के जरिए मार्क्सवाद के अंदर संशोधनवाद के रूप में भ्रम फैलाना शुरु कर दिया। निम्न मध्यवर्गीय बुर्जुआ चिंतकों ने कहना शुरू किया कि मार्क्सवाद दर्शाता है कि हर चीज निरंतर परिवर्तित हो रही है तथा सामाजिक चेतना भौतिक परिस्थितियों पर आधारित होती है, इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मार्क्सवाद जिन भौतिक परिस्थितियों की देन है, विज्ञान तथा तकनीक के विकास के कारण उन परिस्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हो चुका है, और इस कारण आवश्यक हो जाता है कि मार्क्सवाद में भी परिस्थितियों के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए उचित संशोधन किया जाय। सत्य एक होता है पर असत्य के रूप अनगिनत हो सकते हैं और इसी के अनुरूप उग्रवादी अतिवामपंथी संशोधनवाद से लेकर प्रतिक्रियावादी अति दक्षिणपंथी संशोधनवाद के बीच संशोधनवाद के अनगिनत रूप पनपते रहे हैं। आमतौर पर निम्न मध्यवर्गीय, आत्ममुग्ध-आत्मकेंद्रित-व्यक्तिवादी बुद्धिजीवी होता है, और अर्थव्यवस्था में अपनी परिस्थिति के कारण एक ओर तो संपन्न वर्ग की संपन्नता के लिए लालायित होता है तो दूसरी ओर विपन्नवर्ग के लिए द्रवित भी। वह एक साथ ही एक ओर तो बुर्जुआ संपत्ति संबंधों का हिमायती होता है तो दूसरी ओर समाजवाद का पैरोकार। अधिकांश चिंतक विचारक इसी तबके से आते हैं जो वैचारिक स्तर पर शेखचिल्ली-समाजवाद के नये नये रूप घड़ते रहते है और उसे ही विकसित मार्क्सवाद के रूप में पेश करते रहते हैं।
सारांश में, मार्क्सवाद, मानव की, प्रकृति के हर आयाम तथा दृग्विषय की सह-सही पड़ताल करने तथा व्यवहार में उसे सत्यापित करने की पद्धति और उस पद्धति के आधार पर अर्जित ज्ञान का समुच्चय है। मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु है, प्रकृति के अनादि अनंत भौतिक अस्तित्व की, तथा उसमें अंतर्निहित हर चीज में निरंतर होने वाले परिवर्तनों के मूलभूत सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान द्वंद्व के नियमों की पहचान; और अधिरचना है मानव तथा मानव समाज के द्वय द्वारा सदियों में अर्जित किया गया निरंतर संचयित होता ज्ञान। संशोधनवादी, विरूपित बुर्जुआ पूर्वाग्रहों के चलते मानव समाज की पहचान स्वायत्त चेतना के रूप में कर पाने के कारण, और मानव तथा मानव-समाज के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध को समझ पाने के कारण, या तो मार्क्सवाद की अधिरचना को भी उसकी अंतर्वस्तु की तरह अपरिवर्तनीय मान लेते हैं, या फिर अंतर्वस्तु को भी अधिरचना की तरह परिवर्तनीय मान लेते हैं। निरंतर परिवर्तित होती सामाजिक परिस्थितियों में मार्क्सवाद की अधिरचना को अपरिवर्तनीय मान लेना जड़सूत्रवाद है तो अंतर्वस्तु को परिवर्तनीय मान लेना संशोधनवाद है। संशोधनवाद, मार्क्सवाद को सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए कारगर औजार के रूप में तो मानता है पर, बदली हुई परिस्थिति में पारंपरिक मार्क्सवाद को व्यावहारिक मानते हुए उसकी सभी अवधारणाओं में संशोधन को आवश्यक मानता है।
वामपंथी व्यवस्था में परिवर्तन चाहता है और कम्युनिस्ट पार्टी का गठन, उसके लिए किये जाने वाले सजग प्रयास का ही एक आयाम है। परिस्थिति के अनुसार अल्पकालिक कार्यनीति को तय करने में, सिद्धांत आधारित दीर्घकालिक रणनीति को नजरंदाज करना और फौरी हितों के अनुरूप आचरण करना अवसरवाद है। किसी भी समय पर व्यक्ति का आचरण उस समय पर उसकी मानसिक अवस्था और वैचारिक निर्णय पर निर्भर करता है। वैचारिक निर्णय में तर्कबुद्धि आधारित सजग चेतना की निर्णायक भूमिका है या उसकी मानसिकता तथा अभिज्ञ चेतना की निर्णायक भूमिका है, यह तय करता है कि किसी वामपंथी का अवसरवादी आचरण, ईमानदारी के साथ की गई ग़लती है या बेईमानी है। 
निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक बड़ा हिस्सा अपने निम्न बुर्जुआ विचारों के साथ, समाजवाद की पैरोकारी करते हुए ऐसी राजनैतिक पार्टियों का गठन करता है जिनकी विचारधारा शेखचिल्ली-समाजवादी चिंतकों के विचारों पर आधारित होती है। उनके लिए व्यक्तिगत हित ही सामूहिक हित का पर्याय होता है। वे सजग तौर पर व्यवहार में अपने निजी हितों को प्राथमिकता देते हैं तथा स्वयं को तथा दूसरों को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करते हैं कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह अंतत: उनके हितों के साथ-साथ सामाजिक हितों की भी पूर्ति करेगा। मूल रूप से वे मार्क्सवाद के विरोधी हैं और समाज में टकराव की स्थिति के लिए पूंजीवादी उत्पादन पद्धति को दोषी नहीं मानते हैं बल्कि कुछ संपन्न लोगों द्वारा अपनी हवस पूरी करने के लिए दूसरों का शोषण करने को दोष देते हैं। वे वर्तमान पद्धति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं करना चाहते हैं क्योंकि वे इसी व्यवस्था से अपने सुख सुविधा के साधन जुटाते हैं और निजी हित पूर्ति के लिए नियम क़ानूनों के साथ खिलवाड़ को वे व्यावहारिकता कहते हैं, और किसी किसी रूप में उन्हें यह अहसास होता है कि उनका यह व्यावहारिक आचरण, नैतिक ईमानदारी की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है, पर वे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को दबा देते हैं। बस वे चाहते हैं कि संपन्न लोग कुछ त्याग करें ताकि औरों का जीवन स्तर सुधर सके।
निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा समाजवाद के मानवीय स्वरूप से आकृष्ट होकर, सतही तौर पर अपने अग्रणियों से मार्क्सवाद के बारे में अधकचरी समझ हासिल कर, अपने आपको मार्क्सवादी मानने की ग़लतफ़हमी पैदा कर लेता है और उसी पूर्वाग्रह के साथ आचरण करता रहता है जो उसके पूर्वाग्रहों को और जड़ करता जाता है। जहाँ तक निरंतर विकसित होते, भौतिक उत्पादन के साधनों तथा उत्पादक शक्तियों का प्रश्न है, पूँजीवादी उत्पादन के साधनों तथा समाजवादी उत्पादन के साधनों के बीच कोई अंतर नहीं होता है। जो अंतर होता है वह उत्पादन-वितरण के संबंधों में होता है जिनका स्वरूप अमूर्त होता है और उनको सही सही समझने के लिए अमूर्त चिंतन की क्षमता विकसित होना जरूरी है। भारतीय वामपंथी आंदोलन शुरू से ही संशोधनवाद की अति सक्रियता के दलदल में फँसा हुआ है जिसके कारण नई पीढ़ी को अमूर्त चिंतन की क्षमता विकसित करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है जिस वजह से वे तो मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना में भेद कर पाते हैं और ही मौजूदा व्यवस्था के अंतर्विरोधों का सही सही विश्लेषण कर पाते हैं। महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय के छात्र जीवन से ही वे सक्रिय राष्ट्रीय राजनीति में भागीदारी करने लगते हैं। सर्वदर्शी सर्वशक्तिमान सिद्धांत, स्पष्ट दूरदृष्टि, केंद्रित लक्ष्य, सुविचारित रणनीति तथा व्यावहारिक कार्यनीति के अभाव में, युवा साथी, अपनी अभिज्ञ-चेतना में बुर्जुआ विचारों की मौजूदगी तथा उनके प्रति पूर्वाग्रहों से अनभिज्ञ होने के कारण, या तो संशोधनवादी वामपंथी-अवसरवादी बन जाते हैं, या फिर रूढ़िवादी वामपंथी-अवसरवादी बन जाते हैं। मार्क्सवाद की सही समझ होने के कारण वे संसदीय प्रणाली तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के आंतरिक अंतर्विरोधों को ठीक से नहीं समझ पाते हैं जिसके कारण वे, या तो असमाधेय को समाधेय मानकर समझौतावादी राह पकड़ लेते हैं या फिर समाधेय को असमाधेय मान कर अति उग्र-वामपंथ की राह पकड़ लेते हैं। दोनों ही प्रकार के वामपंथी सजग रूप से समाजवाद के प्रति समर्पित और ईमानदार होते हैं, पर अपनी गैर-मार्क्सवादी समझ के कारण अवसरवादी आचरण करने लगते हैं।                
भारतीय वामपंथी आंदोलन की विडंबना है कि, सौ साल पहले, चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा, मार्क्सवाद की आधी अधूरी समझ के साथ, कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से शुरू किये गये संगठन ने शेखचिल्ली-समाजवाद को कामगारों की चेतना में कूट-कूट कर इतना भर दिया है, कि हर दौर में, समझौतावादियों के बीच बंटी युवा पीढ़ी एक दूसरे पर अवसरवादिता का आरोप लगा कर एक दूसरे का चरित्र हनन करते रहते हैं। वे यह समझ ही नहीं पाते हैं कि अनेकों गुटों में बंटे तथाकथित मार्क्सवादियों या वामपंथियों का अवसरवादी आचरण उनकी नैतिक बेईमानी की वजह से होकर उनकी संशोधनवादी समझ के कारण है। और जब तक वामपंथी आंदोलन में से संशोधनवाद का पूरी तरह सफ़ाया नहीं कर दिया जाता है तब तक वामपंथी आंदोलन, निम्न-बुर्जुआ अवसरवादी आंदोलन बना रहने के लिए अभिशप्त है।

सुरेश श्रीवास्तव
15 जुलाई, 2018