Thursday 17 August 2017

समाजवाद की समस्याएं

  अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान द्वारासमाजवाद की समस्याएं : बीसवीं शताब्दी की क्रांतियों के अनुभवपर, 23 जुलाई, 2017 को, लखनऊ में आयोजित की गई गोष्ठी में, वक़्ता शशि प्रकाश का पौने तीन घंटे के वक्तव्य का वीडियो देखने का अवसर मिला। वक़्ता ने निष्कर्ष निकाला है कि बीसवीं शताब्दी की सभी समाजवादी क्रांतियाँ विफल हो गई हैं। पहले सोवियत संघ में फिर चीन में भी समाजवादी क्रांतियाँ, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व के बावजूद विफल हो गईं हैं क्योंकि वे उत्पादन संबंधों को बदल पाने में विफल रहीं। यह जानते हुए भी किसमाजवादी उत्पादन संबंध में पूँजीवादी उत्पादन संबंध के घटक लंबे समय तक सुरक्षित रहते हैं’ (1:20:15), ये पार्टियाँ उत्पादन संबंधों को बदल पाने में विफल रहीं। वक़्ता के अनुसारसारे उत्पादन संबंध नहीं बदले गये थे।वक़्ता मानता है कि इस समस्या कीजड़ें दार्शनिक विचारधारात्मक थीं’ (1:21:55), पर वक़्ता स्वयं मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से पूरी तरह अनभिज्ञ नजर आता है। बुर्जुआ मानसिकता के वशीभूत, किसी भी निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की तरह वह, सुविधानुसार दृष्टांत तथा आँकड़े जुटा कर, अपने पूर्वाग्रहों तथा कल्पना के आधार पर (सिद्धांत के आधार पर नहीं) प्रस्थापना व्यक्त करता है, फिर सुविधानुसार दृष्टांतों तथा आँकड़ों के बीच संबंध दर्शा कर अपनी प्रस्थापना को ही सिद्धांत का दर्जा प्रदान कर देता है। भारतीय वामपंथी आंदोलन की विडंबना यही रही है कि उसका वैचारिक आयाम शुरू से ही उन निम्न बुर्जुआ चिंतकों, लेखकों, कवियों, रंगकर्मियों आदि के हाथों में रहा है जो पूरी तरह अपनी सिद्धांत विहीन कल्पना के आधार पर रचे गये संसार को ही यथार्थ समझने के आदी हो जाते हैं। शशि प्रकाश कहते हैंसाहित्य की यही तो भूमिका होती है। जो चीज सिद्धांत में पकड़ में नहीं आयेगी लेकिन कहीं कहीं साहित्य में वो चेतावनी हमें दिखाई पड़ जाती है। (1:34:15)
उनका पौने तीन घंटे का वक्तव्य दर्शाता है कि वे मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम और प्रकृति की द्वंद्वात्मक भौतिकवादी व्याख्या, से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। वे बीसवीं शताब्दी की क्रांतियों के अनुभवों की व्याख्या और समाजवाद की समस्याओं का विश्लेषण, मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर कर के, निम्न बुर्जुआ पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अपने चिंतन के आधार पर करते हुए, पूर्व-निर्धारित निष्कर्ष पर पहुँच कर, अपने चिंतन को ही, इक्कीसवीं सदी के उत्तर-उत्तर-आधुनिक काल के विकसित होते हुए मार्क्सवाद के रूप में पेश कर देते हैं। चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध, भौतिक और वैचारिक संरचनाओं की व्याख्या या उनकी अंतर्वस्तु और अधिरचना के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध, सामाजिक चेतना में राजनैतिक-अर्थव्यवस्था की भूमिका और क्रांतिकारी आंदोलनों को दिशा देने में सजग सामूहिक हस्तक्षेप तथा सिद्धांत की भूमिका जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी व्याख्या अंतर्विरोधों से भरी पड़ी है।      
1. मार्क्सवादी चिंतन के अनुसार किसी भी संरचना के दो आयाम होते हैं, एक है अंतर्वस्तु और दूसरा है अधिरचना।              अंतर्वस्तु संरचना के गुणों को निर्धारित करती है जब कि अधिरचना, संरचना का उसके अपने परिवेश के साथ व्यवहार निर्धारित करती है। अंतर्वस्तु का परिवेश के साथ कोई सीधा संबंध नहीं होता है, अंतर्वस्तु का परिवेश के साथ सूचना या पदार्थ का आदान प्रदान अधिरचना के माध्यम से ही होता है। कोई भी संरचना अपनी अंतर्वस्तु तथा अधिरचना के साथ ही अस्तित्व में आती है और दोनों के बीच द्वंद्वात्मक संबंध होता है। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। अंतर्वस्तु तथा अधिरचना के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की अवधारणा, ज्ञानार्जन की मार्क्सवादी पद्धति में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
प्रकृति के असीमित आयाम का एक बहुत ही छोटा हिस्सा मानवीय इंद्रियों की पहुंच के अंदर है जिसके ऐंद्रिक संज्ञान के आधार पर सीमित प्रत्यक्ष ज्ञान हासिल हो पाता है। ऐंद्रिक संज्ञान से बाहर के आयाम का अप्रत्यक्ष ज्ञान इसी अवधारणा के आधार पर विकसित तथा सत्यापित किया जाता है। शशि प्रकाश के वक्तव्य से स्पष्ट है कि तो उन्हें मार्क्सवादी पद्धति की इस अवधारणा की स्पष्ट समझ है और ही वे इसके व्यावहारिक प्रयोग से परिचित हैं। उनके वक्तव्य का अंश, “सारी अधिरचना पैदा होती है मूलाधार से लेकिन जब वह पैदा हो जाती है तो इसकी अपनी स्वतंत्र गति हो जाती है। मूलाधार से इसका संबंध 1:1 नहीं होता है, आगे पीछे होता है। मूलाधार से पैदा होकर भी अधिरचना मूलाधार से अंतर्विरोध रखती है, टकराती है, प्रभावित करती है। मूलत: मूलाधार मूलाधार है, ऑन होल मूलाधार से चीज़ें तय होती हैं। लेकिन अलग अलग चरणों में अधिरचना भी मूलाधार को प्रभावित करने लगती है।” (1:40:30) 
2. मार्क्सवाद मानव समाज को, जैविक विकास प्रक्रिया में, मानव से गुणात्मक रूप से भिन्न, ऊँची पायदान पर, एक चेतन जैविक संरचना के रूप में देखता है अर्थात ऐसी संरचना जिसमें वे सारे गुण मौजूद हैं जो एक चैतन्य जीव के रूप में किसी मानव में होते हैं पर जिसका, मानव शरीर की तरह अपना कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। भाववादी चिंतक, मनुष्य की व्यक्तिगत-चेतना को उसके भौतिक अस्तित्व के ही एक आयाम के रूप में देखकर, शरीर से अलग किसी परलौकिक चेतना के अंश के रूप में देखते हैं इस कारण वे सामाजिक-चेतना को तो स्वायत्त वैचारिक जैविक संरचना के रूप में देख पाते हैं और ही उसको ठीक से समझ पाते हैं। वे संगठित समूह के सामूहिक व्यवहार को उसके सदस्यों के स्वतंत्र व्यवहार के रूप में ही देखते हैं। शशि प्रकाश कहते हैं, “ये कमियां कुछ सैद्धांतिक चीजों को नहीं समझ पाने के कारण पैदा हुईं। और पार्टी एक दिमाग नहीं होता है।एक चीज कई मस्तिष्कों से परकोलेट होते हुए …… तो अपने अपने तरीके से लोग लागू करते हैं।” (1:36:30)
3. द्वंद्वात्मक भौतिकवादी पद्धति के अनुसार किसी भी संरचना को समझने के लिए, उसकी अपने परिवेश से अलग स्पष्ट पहचान तथा उनके (परिवेश तथा संरचना के) बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की सही-सही समझ पहली अनिवार्य शर्त और फिर उसकी (संरचना की) अपनी अंतर्वस्तु तथा अधिरचना की अलग-अलग स्पष्ट पहचान और उनके (अंतर्वस्तु तथा अधिरचना के) बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की सही-सही समझ दूसरी अनिवार्य शर्त है। समाज को भी पूरी तरह समझने के लिए, एक संरचना के रूप में समाज के आयाम की अपने परिवेश से अलग स्पष्ट पहचान तथा उसकी अंतर्वस्तु तथा अधिरचना की पहचान और उनके बीच के द्वंद्वात्मक संबंधों की सही-सही समझ आवश्यक है। 
मनुष्य एक भौतिक-जैविक संरचना है जिसकी अपने भौतिक और सामाजिक परिवेश से अलग एक स्पष्ट पहचान होती है। भौतिक शरीर जिसके जरिए वह एक जैविक संरचना के रूप में अपने परिवेश से सूचना तथा पदार्थ का आदान-प्रदान करता है, मानव की अधिरचना है और आंतरिक जीवन प्रणाली जो मनुष्य को जड़ से अलग एक जीव की पहचान देती है उसकी अंतर्वस्तु है। पर मानव अन्य जीवों की भांति केवल एक भौतिक-जैविक-संरचना नहीं है। जो चीज मानव को अन्य जीवों से, गुणात्मक रूप से भिन्न विशिष्ट संरचना के रूप में पहचान देती है, वह है चेतना या आंतरिक सजग-वैचारिक-प्रक्रिया। चेतना ही वह अवयव है जो मानव को अन्य जीवों के साथ तुलना में, जैविक प्रक्रिया में अनेकों समानताओं के बाजूद, गुणात्मक रूप से भिन्न उन्नत विशिष्ट जीव की पहचान देता है। यही नहीं, वह चेतना ही है जिसके कारण सभी मानव एक दूसरे से गुणात्मक रूप से भिन्न व्यक्ति के रूप में पहचान पाते हैं। समाज के रूप में, मनुष्यों की एकजुटता मूलरूप से, जीवन के भौतिक साधनों के उत्पादन तथा वितरण की गतिविधि को, सुचारू रूप से चलाने की आवश्यकता से पैदा हुई है।
आंतरिक जीवन प्रणाली के अंतर्गत, वह प्रक्रिया जिसके जरिए विभिन्न अंगों के बीच पदार्थ तथा सूचना का आदान प्रदान होता है और जो जीव के जीवित होने के तथा उसके अपने परिवेश के साथ व्यवहार के लिए उत्तरदायी होती है, आंतरिक जीवन प्रणाली की अधिरचना है; और मस्तिष्क के अंदर होने वाली स्नायविक प्रक्रिया जो मानव को व्यक्तित्व के रूप में वह वैचारिक स्वरूप प्रदान करती है जो एक मानव को दूसरे मानवों से भिन्न पहचान देता है, आंतरिक जीवन प्रणाली की अंतर्वस्तु है। चेतना मस्तिष्क की भौतिक संरचना होकर, उस संरचना के अंदर होने वाली स्नायविक प्रक्रिया है। क्लोरोफॉर्म सूंघने पर उसके अणु मस्तिष्क में होनेवाली सजग वैचारिक प्रक्रिया को बाधित कर देते हैं और मस्तिष्क की भौतिक संरचना बरक़रार रहते हुए भी व्यक्ति अचेत हो जाता है। इसीलिए मार्क्सवाद मानव को भौतिक अस्तित्व तथा वैचारिक अस्तित्व के युग्म के रूप में देखता है और मानव समाज की पड़ताल करते समय वैचारिक जगत को भौतिक जगत से अलग करके देखता है।   
अमूर्त चिंतन की क्षमता विकसित होने के कारण, आम तौर पर लोग चेतना को, मस्तिष्क के अंदर स्नायविक कोशिकाओं के बीच होने वाली भौतिक प्रक्रियाओं से उपजी सूचना के संश्लेषण से निर्मित वैचारिक-संरचना के रूप में देखकर, उसे भौतिक शरीर से अलग किसी पराभौतिक अवयव के अंश के रूप मे देखने लगते हैं। शशि प्रकाश भी मानव की चेतन वैचारिक प्रक्रिया को मस्तिष्क की भौतिक रचना से अलग करके नहीं देख पाते हैं। मार्क्सवाद को समझते/समझाते समय वे अपने निम्न मध्यवर्गीय बुर्जुआ भाववादी पूर्वाग्रहों से बाहर नहीं निकल पाते हैं, इसीलिये वे पूँजी और पूँजीपति को सामाजिक वैचारिक  संरचना के रूप में देखकर संपत्ति तथा संपत्ति के मालिक अर्थात व्यक्ति  के भौतिक रूप में देखते हैं। वे कहते हैं, “पूँजीपति क्या है? सरप्लस एप्रोप्रिएट करने और सरप्लस को रिइनवेस्ट करने की पॉलिसी तय करने की ताक़त उसके पास होती है।” (1:32:00)
4. मार्क्सवाद, अंतर्वस्तु तथा अधिरचना के आधार पर, मानवीय-सजग-मानसिक-प्रक्रिया (चेतना) को पाशविक-सहज-जैविक-प्रतिक्रिया से गुणात्मक रूप से भिन्न उन्नत प्रक्रिया के रूप में दर्शाता है। मस्तिष्क द्वारा बाहरी परिवेश से इंद्रियों के द्वारा सूचना ग्रहण करना और संजोना तथा संग्रहित सूचना तथा हालिया सूचना के आधार पर, अंगों तथा माँसपेशियों को निर्देश देना सभी जीवों की सहज मानसिक प्रक्रिया है, मानव की भी सहज मानसिक प्रक्रिया। अलग-अलग जीवों की शारीरिक संरचना में विविधता के कारण, उनमें इंद्रियों की क्षमताओं में मात्रात्मक भिन्नता है, पर उनकी मानसिक प्रक्रिया में गुणात्मक भिन्नता नहीं है, अवचेतन स्तर पर सूचना संजोना और सजग स्तर पर अंगों को निर्देश देना। प्रकृति की जैविक विकास की प्रक्रिया में  विकास के एक स्तर पर एक विशिष्ट मानसिक प्रक्रिया का उदय होता है, तर्कबुद्धि जो अवचेतन तथा सजग के बीच नियंत्रक की भूमिका में काम करती है। शारीरिक तथा मानसिक संरचना के विकास के साथ मानसिक प्रक्रिया विकास के एक ऐसे स्तर पर पहुँचती है जहां मानव एक गुणात्मक रूप से भिन्न उन्नत जीव के रूप में प्रकट होता है।
मानवीय मानसिक प्रक्रिया का विशिष्ट गुण है, तर्कबुद्धि के आधार पर ऐसी चीज़ों की कल्पना कर सकना जिनका कोई अस्तित्व नहीं है और मानवीय श्रम द्वारा उन्हें उत्पन्न कर लेना। मानवीय श्रम, पाशविक श्रम से गुणात्मक रूप से भिन्न है। मानवीय-श्रम में तार्किक कल्पना के आधार पर नियोजित श्रम द्वारा कल्पना को साकार करना होता है, पाशविक-श्रम में कल्पना आधारित पूर्व नियोजन का अभाव होता है। मधुमक्खियों द्वारा छत्ता बनाना सहज पाशविक प्रवृत्ति है, उसमें तार्किक कल्पना आधारित पूर्व नियोजन जैसा कुछ भी नहीं होता है। मधुमक्खियों के सारे छत्ते एक जैसे होते हैं और वे छत्तों के अलावा किसी और संरचना का निर्माण नहीं कर पाती हैं। अनेकों पशु, पक्षियों, कीट, पतंगों में विभिन्न स्तर की निर्माण की प्रवृत्ति पाई जाती है पर मानव की निर्माण क्षमता गुणात्मक रूप से भिन्न है। उन्नत जीव के रूप में मानव की दूसरी विशिष्टता है, मानसिक प्रक्रिया में सूचना को व्यवस्थित कर विचार का निर्माण कर सकना और अंगों द्वारा सूचना को प्रेषित कर दूसरे मस्तिष्क में उसी विचार की प्रतिछाया पैदा कर सकना। इन्हीं दो विशिष्टताओं ने मानव को सामूहिक एकजुटता के लिए प्रेरित किया और नई अत्याधिक उन्नत जैविक संरचना को जन्म दिया जिसका अपना कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, जिसका आधार मानवीय भौतिक संरचना में है पर जो पूरी तरह वैचारिक है और वह है मानव-समाज। व्यक्तिगत-चेतना के तीनों आयामों - अवचेतन, तर्कबुद्धि और सजग चेतना - के अनुरूप, सामाजिक-चेतना के भी तीन आयाम हैं - भौतिक-सामाजिक-चेतना, दर्शन तथा वैचारिक-सामाजिक-चेतना।     
अवचेतन में सूचना का आना-जाना या संजोया जाना मुख्य रूप से सहज प्रक्रिया होती है और उसमें सजग-चेतना की  भूमिका बहुत सीमित होती है। अवचेतन में होने वाली प्रक्रियाएँ ही मानसिकता या दृष्टिकोण तय करती हैं। जीवन की निरंतरता के लिए परिवेश के साथ पदार्थ तथा सूचना का आदान-प्रदान निरंतर सहज रूप में होता रहता है और इसीलिए व्यक्ति की मानसिकता या दृष्टिकोण उसके परिवेश तथा जीवन पद्धति पर निर्भर करता है। सजग-चेतना अर्थात चेतन प्रक्रियाओं की, मांसपेशियों के सजग नियंत्रण तथा अंगों के संचालन में प्रमुख भूमिका होती है। तर्क आधारित कल्पना तथा पूर्व नियोजित कर्म में भी सजग चेतना की प्रमुख भूमिका होती है। तर्कबुद्धि दोनों के मध्य सेतु का काम करती है। चेतना के तीनों आयामों के बीच उचित समन्वय, मानव के भौतिक तथा वैचारिक अस्तित्व अर्थात शरीर और मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत आवश्यक है।
मनुष्य अपने स्वयं के जीवन का निर्माण, मानवीय-श्रम के द्वारा जीवन के लिए आवश्यक चीजों के उत्पादन के रूप में, तथा नये जीवन का निर्माण प्रजनन के रूप में, दोनों का निर्माण एक साथ दो तरह से करता है, व्यक्तिगत और सामूहिक। उत्पादन की सामूहिक प्रक्रिया के दौरान उपजने वाले संबंध ही समाज के गठन का आधार हैं। विकास के साथ श्रम का विभाजन नई उत्पादक शक्ति के रूप में प्रकट होता है और नये उत्पादन संबंध को जन्म देता है - निजी स्वामित्व का संबंध। समाज के विकास के साथ नई उत्पादक शक्तियाँ और नये उत्पादन संबंध विकसित होते हैं। निजी स्वामित्व का संबंध समाज को वर्गों में बांट देता है। सामाजिक-आर्थिक जैविक-संरचना के रूप में, समाज का चरित्र उत्पादक शक्तियों के स्तर तथा उत्पादन संबंधों की प्रकृति पर निर्भर करता है और इन्हीं के आधार पर मार्क्सवाद समाज को गुणात्मक रूप से भिन्न तीन व्यवस्थाओं दास प्रथा, सामंतवाद तथा पूंजीवाद के रूप में परिभाषित करता है। उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादन संबंध समाज की भौतिक-सामाजिक-चेतना निर्धारित करते हैं। उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों के विकास में सजग हस्तक्षेप के दौरान किये जाने वाले कार्य-कलाप वैचारिक-सामाजिक चेतना निर्धारित करते हैं। वैज्ञानिक, चिंतक, विचारक तथा दार्शनिक उन विचारों तथा विचारधाराओं का निर्माण करते हैं जो समाज के विकास की दिशा का मार्ग दर्शन करते हैं।   
शशि प्रकाश के विचारों में जगह जगह भटकाव तथा अंतर्विरोध दर्शाता है कि वे समाज को केवल मानवों के समूह के रूप में ही देखते हैं कि एक सामाजिक-आर्थिक जैविक-संरचना के रूप में और इसी कारण वे सामंतवाद या पूँजीवाद के मूलभूत अंतर को समझने में नाकाम हैं।
5. उत्पादन प्रणाली की व्याख्या करते हुए, वे उत्पादन के साधनों तथा श्रम के साधनों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देते हैं, जब कि श्रम के साधनों तथा श्रमिक के बीच का संबंध उत्पादन प्रणाली के चरित्र को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उत्पादक शक्तियों की व्याख्या करते हुए वे श्रमिक को केवल एक व्यक्ति और उसकी व्यक्तिगत चेतना के साथ देखते हैं, और उन्नत उत्पादक शक्ति को वे उन्नत चेतना वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। वे यह नहीं समझ पाते हैं कि सामूहिक उत्पादन प्रक्रिया में श्रमिक केवल एक श्रमशक्ति के स्रोत की भूमिका निभाता है जिसमें उसकी अपनी व्यक्तिगत चेतना की कोई भूमिका नहीं होती है, और एक अकेले स्रोत की श्रमशक्ति की तुलना में, अनेकों स्रोतों की समन्वित श्रमशक्ति, गुणात्मक रूप से अधिक उन्नत श्रमशक्ति होती है। अर्थात सौ संगठित समन्वित श्रमिकों की सामूहिक श्रमशक्ति, एक श्रमिक के मुकाबले सौ गुणा होकर कई सौ गुणा हो जाती है। (मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन) इसीलिए वे तो सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया और पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया के अंतर को समझ पाते हैं और ये समझ पाते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन, सामंतवादी उत्पादन की तुलना में अधिक उन्नत क्यों होता है। उनके वक्तव्य का अंश, “हम कहते हैं उत्पादक शक्ति और उत्पादन संबंध, इन दोनों को मिलाकर कर कहते हैं उत्पादन प्रणाली। उत्पादक शक्ति में क्या क्या आता है? एक सोफ़िस्टिकेटेड ऑटोमेशन वाले कारख़ाने में काम करने के लिए उन्नत चेतना वाला मनुष्य चाहिए। मनुष्य जिसकी उन्नत चेतना, उन्नत समझ उन्नत संस्कृति है वह अधिक उन्नत उत्पादक शक्ति के रूप में काम करेगा।” (1:16:50) वे यह नहीं समझ पाते हैं कि उत्पादक शक्ति का अर्थ है पूरी उत्पादन प्रक्रिया की चालक शक्ति कि एक व्यक्ति।
6. उत्पादन संबंधों को वे तीन हिस्सों में बाँटते हैं, “प्रोडक्शन रिलेशन्स, उत्पादन संबंध के तीन हिस्से हैं। पहला स्वामित्व का रूप जो तय करता है कि हम दास प्रथा में जी रहे हैं, या सामंतवाद में जी रहे हैं या पूँजीवाद में जी रहे हैं।” (1:17:35)तीन फ़ैक्टर मिला कर बनता है उत्पादन संबंध (1:18:45) पर वे स्पष्ट नहीं कर पाते हैं कि उत्पादन संबंधों में किस चीज का स्वामित्व तय करता है कि स्वामित्व का रूप क्या है और कि हम किस प्रथा में जी रहे हैं। स्वामित्व के रूप को स्पष्ट तौर पर समझे बिना तो यह स्पष्ट हो पायेगा कि मौजूदा दौर में हम किस प्रथा के अंतर्गत जी रहे हैं और ही सही रणनीति तय की जा सकती है।
स्वामित्व के संबंध के अलावा वे दो अन्य संबंधों, उत्पादन के काम में लगे लोगों के आपसी संबंधों तथा वितरण के संदर्भ से लोगों के संबंधों को उत्पादन संबंधों की श्रेणी के रूप में चिन्हित करते हैं।
सारे उत्पादन संबंध नहीं बदले गये थे, स्वामित्व का संबंध बदल गया था। उत्पादन संबंधों के दो पहलू छूट गये थे। केवल स्वामित्व का रूप बदला था। लोगों के आपसी संबंध। तीन अंतरवैयक्तिक संबध, और वितरण का स्वरूप नहीं बदला था। श्रमशक्ति माल बनी हुई थी। मुद्रा की सत्ता क़ायम थी।” (1:29:30) “उत्पादन के काम में लगे हुए लोगों के आपसी संबंध। वो एअरआर्की है, वो लचीला है, वो रिजिड है, उसमें कलेक्टिव सुपरवाइज़र है कि वन मैन मैनेजमेंट वग़ैरह वग़ैरह।” (1:18:00) “इसके बाद है वितरण का स्वरूप, वितरण का स्वरूप भी असमानता।” (1:18:10) “तीन फ़ैक्टर मिला कर बनता है उत्पादन संबंध (1:18:45)
7. मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ की कमी के कारण वे मार्क्सवाद का सतही तौर पर सुविधानुसार उपयोग करते हैं या उसमें बदलाव की मांग करते जिसके कारण वे तो वैज्ञानिक समाजवाद और शेखचिल्ली समाजवाद में अंतर कर पाते हैं और ही सर्वहारा क्रांति तथा अन्य क्रांतियों में अंतर कर पाते हैं। एक ओर तो वे कहते हैं कि स्वामित्व का रूप तय करता है कि हम दास प्रथा में जी रहे हैं, या सामंतवाद में जी रहे हैं या पूँजीवाद में जी रहे हैं, पर समाजवाद को कैसे परिभाषित किया जाय वे स्पष्ट नहीं कर पाते हैं।कोई एक स्टेटिक समाजवादी उत्पादन संबंध है ही नहीं। समाजवादी उत्पादन संबंध में पूँजीवादी उत्पादन संबंध के घटक लंबे समय तक सुरक्षित रहते हैं।” (1:20:16) पर समाजवादी उत्पादन संबंध, सामंतवादी या पूँजीवादी उत्पादन संबंधों से किस रूप में भिन्न हैं ये वे नहीं बताते हैं और अगर यही स्पष्ट नहीं है कि समाजवादी उत्पादन संबंध क्या होते हैं और पूँजीवादी उत्पादन संबंध क्या होते हैं, तो यह कहने का क्या अर्थ है किसमाजवादी उत्पादन संबंध में पूँजीवादी उत्पादन संबंध के घटक लंबे समय तक सुरक्षित रहते हैं।
8. मार्क्सवाद के अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास, समाज के विकास की एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। वैज्ञानिक प्रगति के साथ तकनीकी विकास होता है, स्वचलित मशीनें अस्तित्व में आती हैं और श्रमिक की कुशलता मशीनों में अंतरित होती जाती है, श्रमशक्ति का विभाजन समाप्त होता जाता है, और सभी श्रम, समरूप-श्रम होते जाते हैं। किसी भी उत्पादन प्रणाली के शुरुआती दौर में उत्पादन संबंध भी, उत्पादक शक्तियों के साथ विकसित होते हैं पर समय के साथ उत्पादन संबंध पिछड़ने लगते हैं और एक स्तर पर जब उत्पादन संबंध उत्पादक शक्तियों के विकास में रुकावट बनने लगते हैं तो उत्पादन संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन होता है और नये उत्पादन संबंध, जो उत्पादक शक्तियों के अनुकूल होते हैं, के साथ नई उत्पादन प्रणाली अस्तित्व में आती है। मार्क्सवाद, श्रमिक तथा श्रम के औजारों के बीच संबंधों के आधार पर उत्पादन प्रणाली को परिभाषित करता है। भौतिक-सामाजिक चेतना तथा बाकी सारे सामाजिक संबंध और वैचारिक-सामाजिक-चेतना इन्हीं संबंधों पर आधारित और इन्हीं से प्रभावित होते हैं। 
उत्पादन प्रक्रिया में, मानवीय श्रमशक्ति, श्रम के औजारों या श्रम के साधनों के द्वारा उत्पाद्य के स्वरूप में बदलाव करती है, और इस प्रक्रिया के दौरान खर्च की गई श्रमशक्ति, श्रम के रूप में उत्पाद में अंतरित हो जाती है, जो मूल्य के रूप में विनिमय के लिए आधार प्रदान करता है। हजारों साल की समाज की विकास प्रक्रिया में श्रम विभाजन तथा उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ आदिम समाज से सभ्य समाज में रूपांतरण के साथ, सामाजिक चेतना में संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा का जन्म हुआ। चूँकि नये मूल्य का उत्पादन, और इसीलिए अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन भी, उत्पादक शक्ति अर्थात सक्रिय श्रमशक्ति के द्वारा ही हो सकता है, पर उसका उत्पाद में अंतरण केवल श्रम के साधनों के जरिये ही हो सकता है, इसलिए उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन के साधनों के बीच का संबंध अर्थात उत्पादन संबंध ही तय करता है कि उत्पाद के साथ ही पैदा हुआ नया मूल्य (अतिरिक्त मूल्य सहित) भी उत्पन्न होने के साथ ही उत्पादक शक्तियों के स्वामित्व में होगा।                सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया में, उत्पादन के साधन श्रमिक के स्वामित्व में होते हैं इस कारण उत्पन्न किया गया उत्पाद (अतिरिक्त उत्पाद सहित) भी श्रमिक के स्वामित्व में होता है और उसके विनिमय का अधिकार भी उसी के पास होता है। पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में, उत्पादकशक्ति तथा उत्पादन के साधन पूँजी के स्वामित्व में होते हैं, इस कारण उत्पन्न किया गया उत्पाद (अतिरिक्त उत्पाद सहित) भी पूँजी के स्वामित्व में होता है और उसके विनिमय का अधिकार भी पूँजी के पास ही होता है। उत्पादों की वितरण प्रक्रिया हमेशा ही वाणिज्यिक पूँजी के नियंत्रण में होती है। उत्पादन और वितरण दोनों प्रक्रियाओं के आधार पर ही तय होता है कि अर्थव्यवस्था का चरित्र सामंतवादी है या पूँजीवादी है या मिला-जुला है। 
अपने पूर्वाग्रहों तथा अमूर्त चिंतन के अभाव में, शशि प्रकाश ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझने में पूरी तरह नाकाम हैं और जड़सूत्र भौतिकवाद के आधार पर समाज की विकास प्रक्रिया को समझने में स्वयं भी भ्रमित हो जाते हैं और नई पीढ़ी को भी भ्रमित करते हैं।
9. भौतिक जगत के नियम प्रकृति के शाश्वत नियम होते हैं, वे व्यक्ति निरपेक्ष होते हैं और मनुष्य उन्हें अपनी इच्छानुसार नहीं बदल सकता है। सामाजिक नियम और परंपराएँ, वैचारिक जगत के नियम होते हैं, वे व्यक्ति तथा वर्ग सापेक्ष होते हैं और मनुष्य उन्हें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से बदल सकता है। उत्पादक शक्तियों के साथ विकसित होते उत्पादन संबंध और भौतिक-सामाजिक-चेतना, भौतिक जगत के नियमों के अनुसार बदलते हैं। सामाजिक परंपराएँ तथा राजनैतिक व्यवस्थाएँ और वैचारिक-सामाजिक-चेतना, वैचारिक जगत के नियमों के अनुसार मनुष्य द्वारा बनाये हुए होते हैं और उनमें सजग हस्तक्षेप द्वारा बदलाव किया जा सकता है।     
आर्थिक विकास के एक स्तर पर, उत्पादन संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन, आर्थिक क्रांति का हिस्सा है जो आर्थिक विकास के उचित स्तर पर ही संभव होता है। वर्ग विभाजित समाज में, राजसत्ता के नियंत्रण में गुणात्मक परिवर्तन अर्थात राजनैतिक क्रांति, राजनैतिक व्यवस्था और कानूनी प्रक्रिया में परिवर्तन का हिस्सा है, और सजग हस्तक्षेप के जरिए आर्थिक विकास के किसी भी स्तर पर हासिल किया जा सकता है।  
शशि प्रकाश के वक्तव्य से, क्रांति के प्रश्न पर, उनकी अनभिज्ञता और भटकाव पूरी तरह उजागर हो जाते हैं। अन्य बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की भाँति वे भी सांस्कृतिक क्रांति तथा राजनैतिक क्रांति में फर्क नहीं कर पाते हैं।जब एक मंज़िल पर आकर उत्पादन संबंध उत्पादक शक्तियों के विकास के पैरों में डंडा और बेड़ी बन जाते हैं तो उत्पादक शक्तियाँ उन्हें झटककर तोड़ देती हैं। यह प्रक्रिया सामाजिक धरातल पर वर्ग संघर्ष के रूप में संपन्न होती है। इसे ही हम क्रांति कहते हैं। समाजवाद एक सतत क्रांति है। कोई एक स्टेटिक समाजवादी उत्पादन संबंध है ही नहीं।” (1:19:00) “सोवियत क्रांति ने जो सबसे बड़ा काम किया वह था उत्पादन संबंध में बदलाव।” (1:20:40) “जो सब से बड़ा युगांतकारी काम था वह था, उत्पादन के साधनों के सामूहिक मालिकाने का ख़ात्मा।” (1:21:46) 
10. शशि प्रकाश अनेकों बुर्जुआ लेखकों तथा आलोचकों, जिनके संदर्भ तथा उद्धरण वे बार-बार देते हैं, के लेखन से प्रभावित, बुर्जुआ पूर्वाग्रहों के कारण, वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को जड़सूत्र की तरह इस्तेमाल करते हैं और क्रांति को मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन के रूप में नहीं देख पाते हैं। वे कहते हैं, “किसी भी समाज के दो अंतर्विरोध होते हैं। उत्पादन संबंध और उत्पादक शक्तियों के बीच अंतर्विरोध, और आर्थिक मूलाधार और अधिरचना, सुपरस्ट्रक्चर; इकोनोमिक सबस्ट्रक्चर एंड सुपरस्ट्रक्चर के बीच का अंतर्विरोध। कुछ लोग कहते हैं सब कुछ इकोनोमी तय करता है। इकोनोमी सब कुछ तय नहीं करता है। मूल मार्क्सवादी प्रस्थापना यह है कि अधिरचना, अधिरचना का मतलब है राजसत्ता से लेकर दर्शन, विचारधारा, सामाजिक मूल्य। मतलब उत्पादन संबंध के अतिरिक्त जो भी है अधिरचना है।” (1:39:00) वे मित्रवत-अंतर्विरोध तथा शत्रुवत अंतर्विरोध की बात तो करते हैं पर स्पष्ट नहीं कर पाते हैं कि उत्पादन संबंध और उत्पादक शक्तियों के बीच के अंतर्विरोध का स्वरूप क्या है। इसी प्रकार आर्थिक मूलाधार और अधिरचना के बीच के अंतर्विरोध का स्वरूप क्या है। सर्वहारा क्रांति के समय उनके चरित्र मित्रवत होते हैं या शत्रुवत होते हैं, और सर्वहारा क्रांति के बाद अंतर्विरोध के स्वरूप में क्या गुणात्मक परिवर्तन होता है।  
राजनीति, क्रांति तो पोलिटिकल इकोनोमी नहीं होती है, क्रांति भी तो पहले अधिरचना में होती है। क्रांति में पहले पोलिटिकल इकोनोमी के कंट्रोलिंग एंड रेगुलेटिंग टावर को कैप्चर कर लिया जाता है, यानि स्टेट पावर को। क्रांति भी तो पहले अधिरचना में ही होती है।” (1:41:14) स्टेट पावर को कैप्चर करने के बाद आर्थिक मूलाधार और अधिरचना के बीच के अंतर्विरोध का स्वरूप क्या हो जाता है? “एक बार सर्वहारा क्रांति कर समाजवाद लाने के बाद पार्टी की चेतन विचारधारात्मक राजनीतिक संघर्ष की भूमिका बनती है। उस भूमिका की बजाय एक इकॉनॉमिक डिटर्मिनिस्टिक, एक आर्थिक नियतिवादी और एक प्रोडक्शनिस्टिक उत्पादक शक्तिवादी थ्रैड मौजूद था। जिसकी वजह से एक भटकाव आया।” (1:22:48) उत्पादन संबंध और उत्पादक शक्तियों के बीच के अंतर्विरोध का समाधान कैसे होगा? सोवियत क्रांति की असफलता के कारण में वे मुख्य मानते हैं कि उत्पादन संबंधों को नहीं बदला गया।एक बेसिक चीज को नहीं समझा गया। एक पहलू बदला गया, बाकी दो पहलू बने रहेंगे तो समस्या क़ायम है।” 
11. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अपनी जड़ सूत्रीय समझ, और शेखचिल्ली समाजवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के अंतर को समझ पाने के कारण, सोवियत संघ के विघटन के कारणों को, अन्य संशोधनवादियों की तरह, शशि प्रकाश स्टालिन की ग़लतियों में ढूंढने की कोशिश करते हैं और चीन को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था घोषित कर देते हैं। 
चेतना तथा अस्तित्व की मार्क्सवादी प्रस्थापना की समझ होने के कारण वे द्वितीय विश्वयुद्ध की परिस्थितियों के संदर्भ से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के पतन का विश्लेषण नहीं कर पाते हैं। अक्टूबर क्रांति के बाद रूस में बीस साल के अंदर एक पूरी नौजवान पीढ़ी तैयार हुई थी जो समाजवादी चेतना की वाहक थी, और कम्युनिस्ट पार्टी के नौजवान काडर को मार्क्सवाद की पुख्ता समझ पैदा हो गई थी। यही कारण है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ ने अकेले बलबूते पर जर्मन नाज़ीवाद और इतालवी फासीवाद का मुक़ाबला किया और उन्हें परास्त किया। पर इस युद्ध में रूस को एक चौथाई आबादी की क़ुर्बानी देनी पड़ी। यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि कम्युनिस्ट पार्टी जो हरावल दस्ता होती है, के तीन चौथाई सदस्य शहीद हुए होंगे। जर्मनी, इटली तथा अन्य यूरोपीय देशों में संशोधनवाद 1917 के बाद से ही पैर जमा चुका था। ऐसी परिस्थिति में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी में संशोधनवाद की घुसपैठ का दोष स्टालिन पर लगाना बुद्धिमानी नहीं है, और स्टालिन के मरने के बाद सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का पतन एक तार्किक परिणति थी। पर साथ ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा समाजवाद के गिरते झंडे को थाम लेना दर्शाता है कि समाजवाद का प्रयोग असफल नहीं हुआ है बल्कि यह सिद्ध करता है कि समाजवादी चेतना वैश्विक सामाजिक चेतना का अभिन्न अंग बन चुकी है। 
समाजवाद के स्वरूप और चरित्र की सही समझ के अभाव में, अपने पूर्वाग्रहों के कारण वे चीन के समाजवादी विकास को पूँजीवाद मान लेते हैं और चीन में समाजवाद के पतन के लिए देंग शियाओ पिंग को उत्तरदायी ठहरा देते हैं। वे यह नहीं देख पाते हैं कि माओ के जीवनकाल में ही देंग शिआओ पिंग की वापसी हो गई थी जिन्होंने चीन में समाजवाद की जड़ें मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की मार्क्सवाद की सही समझ को सत्यापित करता है। और चीन में समाजवादी विकास की गति दर्शाती है कि तो इतिहास का अंत हुआ है, इतिहास ठहरा है, और मार्क्सवाद का सिद्धांत अपरिवर्तनीय है।
सुरेश श्रीवास्तव 
17 अगस्त, 2017

(ब्रेकेट में दिये गये अंक शशि प्रकाश के वीडियो का समय दर्शाते हैं जहाँ से संदर्भ लिया गया है। वीडियो का लिंक है, https://youtu.be/ZQ866Z6VJV4)