Friday 29 July 2016

और कोई विकल्प नहीं है

पिछले दिनों, सैद्धांतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण दो प्रश्न सोसायटी के व्हाट्सऐप ग्रुप पर उठाये गये थे।
दुर्गेश ने पूछा था, "मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु को कैसे समझा जाए?" तथा
कुलदीप ने पूछा था, "जनता की जनवादी क्रांति क्या है, जो कि सीपीएम का मौजूदा कार्यक्रम है?"

सुरेश का उत्तर -
दूसरे प्रश्न का उत्तर तो मैं पहले ही पोस्ट कर चुका हूं, पर पहले प्रश्न के उत्तर पर निर्भर करता है, उस सब का विश्लेषण तथा उसकी व्याख्या, जो पिछले 175 सालों में, बुद्धिजीवियों के बीच समाजवादी विचारधारा के नाम पर और कामगारों के बीच समाजवादी आंदोलन के नाम पर पनपा और पसरा है। इसलिए इस प्रश्न को सतही तौर पर नहीं देखा जा सकता है। पिछले दिनों सिरसा में कुछ लोगों ने 'दर्शन का इतिहास' विषय पर एक स्टडी सर्किल का आयोजन किया था। मैंने आयोजकों से आग्रह किया था कि प्रमुख वक़्ता का वक्तव्य तथा प्रश्नोत्तर सबके साथ साझा करें ताकि मार्क्सवाद को समझने में सभी को मदद मिले। पता नहीं उन्होंने साझा करना जरूरी क्यों नहीं समझा। अगर वक्तव्य साझा किया गया होता तो शायद ऊपर पूछे गए प्रश्न का उत्तर सामने आ जाता। पर हमें प्रश्न का सही उत्तर आपसी विमर्श के द्वारा अपने स्तर पर ही तलाशना होगा। मैं सोसायटी फ़ॉर साइंस के ब्लॉग, फेसबुक ग्रुप तथा व्हाट्सऐप एकाउंट्स पर चेतना-अस्तित्व तथा अंतर्वस्तु-अधिरचना के द्वंद्वात्मक संबंधों पर अपना नजरिया अनेकों तरह से व्यक्त कर चुका हूँ और मार्क्सवाद की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना को भी स्पष्ट कर चुका हूँ, पर लगता है वे दुर्गेश तथा कुलदीप की नज़रों से चूक गये हैं, इसलिए फिर एक नये तरीके से समझाने का प्रयास कर रहा था, पर प्रयास अपने तार्किक अंत पर पहुँचता, उससे पहले दुर्गेश ने पूर्वाग्रह और पूर्वाग्रह की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना पर नया प्रश्न दाग दिया है।
मार्क्सवाद के बारे में, अलग-अलग समय पर अलग-अलग मंचों या अकाउंट पर, घूम फिर कर वे ही बुनियादी प्रश्न उन्हीं साथियों द्वारा, बार-बार नमूदार होते रहते हैं। अंतर्वस्तु, अधिरचना, अस्तित्व, चेतना, पूर्वाग्रह, मूल्य, मुद्रा, पूँजी आदि क्या हैं और मार्क्सवाद को कैसे समझें।
मैं पिछले पाँच साल से, पहले मार्क्स दर्शन त्रैमासिक पत्रिका में और फिर मार्क्सदर्शन के ब्लॉग पर आलेखों के माध्यम से इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता आ रहा हूं, पर चारों ओर व्याप्त संशोधनवाद के व्योम में मार्क्सवादी चेतना कहीं प्रस्फुटित होती नजर नहीं आती है। पिछले एक साल से फेसबुक और व्हाट्सऐप के मंचों पर, मित्रों के साथ जुड़कर, उनके केंद्रित प्रश्नों के उत्तर के रूप में भी मैं बार बार मार्क्सवाद के विभिन्न आयामों को स्पष्ट करने का प्रयास करता आ रहा हूं। पर यहाँ भी ट्रेडमिल की तरह दौड़ तो रहे हैं पर आगे नहीं बढ़ रहे हैं।
पिछले छह महीने से सोशल मीडिया पर अपने मित्रों को समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि द्वंद्व के नियम के अनुसार, मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन के लिए मात्रा में बढ़ोतरी होना ही काफी नहीं, उसका एक-लक्ष्य निदेशित होना भी जरूरी है। किसी वस्तु पर अलग-अलग दिशाओं से लगाये जानेवाले बलों का परिणाम, उनका साधारण जोड़ न होकर शून्य हो जाता है। वस्तु की जड़ता पर पार पाकर उसे गति देने के लिए न केवल यह आवश्यक है कि उस पर लगाये जानेवाले सभी बलों का लक्ष्य एक हो, बल्कि यह भी जरूरी है कि सभी बलों का समय भी एक ही हो। अलग-अलग समय पर अलग-अलग आयाम पर विमर्श करने से पूर्वाग्रहों की जड़ता पर पार नहीं पाया जा सकता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ। व्यक्ति के लिए अपने पूर्वाग्रह को पहचान पाना लगभग असंभव होता है। 'मानव शिशु के विकास के शुरुआती वर्षों में मस्तिष्क के उस भाग के परिपथ विकसित होते हैं जो आगे आने वाले वर्षों में मस्तिष्क के भीतर प्रवेश करने वाले संकेतों और संदेशों की ग्राह्यता निर्धारित करते हैं। उन वर्षों में अगर गलत धारणाएं और विचार घर गए हैं तो आने वाले वर्षों में न केवल उन्हें निकालना मुश्किल होता है बल्कि वे और बहुत से गलत विचारों और धारणाओं को मान्य बनाने के लिए भी उत्तरदायी होते हैं।' ( वैज्ञानिक बनाम अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, http://marx-darshan.blogspot.in/2013/06/blog-post_28.html)।
किसी ने सुझाव दिया है कि, सवाल करते रहना तो हर मार्क्सवादी की ख़ूबी होती है। ख़ुद के मौजूदा विचारों पे सवाल करने से पूर्वाग्रह पता चलने चाहिए।' इस सोच में दो कमियाँ हैं। एक तो यह कि सवाल करते रहना तो हर मार्क्सवादी की ख़ूबी होती है, पर हर सवाल करने वाला मार्क्सवादी हो यह जरूरी नहीं है। दूसरे अगर व्यक्ति स्वयं ही सवाल कर रहा है और स्वयं ही उनके जवाब दे रहा है तो सवाल और जवाब दोनों ही पूर्वाग्रह ग्रसित होंगे और व्यक्ति के लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर मार्क्सवादी बनना असंभव है। क्योंकि उन्होंने अपने आप को सामाजिक जीवन से अलग कर लिया था इसलिए महान दार्शनिक फॉयरबाख अपने भाववादी पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाये थे और इसी कारण वे भौतिक जगत में होने वाले सभी परिवर्तनों में तो प्रकृति के द्वंद्व को देख सके थे, पर प्रकृति स्वयं के आदि अनंत होने के प्रकृति के गुण में द्वंद्व को न देख सके।
मार्क्सवाद के नाम पर व्याप्त पूर्वाग्रहों तथा संशोधनवाद को समझने तथा उनकी निंदाई करने में, स्पष्ट उद्देश्य के साथ एक-लक्ष्य निदेशित सामूहिक विमर्श के महत्व को समझने के लिए, व्यक्तिग-चेतना तथा सामूहिक-चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध को समझना पहली शर्त है। वामपंथियों के बीच मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ पूरी तरह नदारद है, इसलिए वे दावा करते हैं कि आंदोलनों के दौरान ही ज्ञान हासिल होता है और इसीलिए हर तरह के आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने को ही क्रांतिकारी व्यवहार समझते हैं। वे अपने पूर्वाग्रहों के कारण आत्मालोचना करने को भी तैयार नहीं हैं कि पिछले नब्बे सालों में आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के आधार पर क्या ज्ञान हासिल किया है, सिवाय हर बार अपनी ग़लती पर पछताने के। वे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन तथा माओ की नसीहतों को कालातीत कह कर पूरी तरह नजरंदाज कर देते हैं। वे मार्क्स की इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि आलोचना-कर्म एक क्रांतिकारी कर्म है।
मानव समाज एक सामूहिक चेतना है, एक वैचारिक जैविक संरचना जिसका अपना कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, और जो पूरी तरह व्यक्तिगत मानवीय चेतनाओं में अवस्थित रहती है, पर उन सबसे स्वतंत्र, स्वायत्त। चेतना, तर्कबुद्धि द्वारा निरंतर अपने परिवेश के बारे में ज्ञान हासिल कर अपना विस्तार करती रहती है।
उत्पादन के दौरान परिवेश के बारे में ज्ञान हासिल करना, हासिल ज्ञान के आधार पर उत्पादन के औजारों तथा उत्पादन प्रक्रिया में सुधार करना और पुन: उत्पादन के दौरान हासिल ज्ञान को सत्यापित करना तथा नया ज्ञान हासिल करना। विचार तथा व्यवहार का यही द्वंद्वात्मक संबंध है जिसने मानव की व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना को स्व-विस्तार की असीमित क्षमता प्रदान की है। जैसे जैसे समाज विकसित होता गया, उत्पादन के क्षेत्र में श्रम का विभाजन होता गया और कुशलता के आधार पर वर्गीकरण होता गया। इसके साथ ही ज्ञान अर्जन के क्षेत्र में भी वर्गीकरण होता गया। ज्ञान अर्जन का क्षेत्र दो भागों में बंट गया, भौतिक जगत और वैचारिक जगत। भौतिक जगत के बारे में ज्ञान अर्जन का क्षेत्र हो गया प्रकृति विज्ञान और वैचारिक जगत के बारे में ज्ञान अर्जन का क्षेत्र हो गया दर्शन। और इसी तरह चिंतक-विचारिक भी, प्रकृति वैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों के बीच बंट गये। जैसे-जैसे उत्पादों तथा बाज़ार का विस्तार होता गया, नाना प्रकार के उत्पाद और अलग अलग श्रम कुशलता पर आधारित अनेकों वर्ग अस्तित्व में आते गये। उसी का अनुकरण करते हुए प्रकृति वैज्ञानिकों के भी अनेकों वर्ग अस्तित्व में आते गये जिसके कारण प्रकृति वैज्ञानिकों की सोच का दायरा भी सीमित होता गया जिसने ज्ञान अर्जन में द्वंद्वात्मक पद्धति की जगह तात्त्विक पद्धति को ला दिया।
सदियों में मानव ने भौतिक जगत के बारे में ज्ञान हासिल करने की वैज्ञानिक पद्धति विकसित की है। चीजों के बारे में सही समझ हासिल करने की वैज्ञानिक पद्धति के तीन चरण हैं। चीजों की अधिरचना का इंद्रियों के द्वारा संज्ञान हासिल करना, हासिल किये गये ज्ञान के तार्किक विश्लेषण के द्वारा चीजों की अंतर्वस्तु की सही समझ की परिकल्पना करना, तथा परिकल्पना के अनुसार प्रयोग या व्यवहार के द्वारा चीज की अंतर्वस्तु के बारे में की गई परिकल्पना को सत्यापित करना। अगर व्यवहार में अपेक्षित नतीजे नहीं आते हैं तो, हासिल ज्ञान का पुनर्मूल्यांकन कर परिकल्पना में तार्किक सुधार कर, व्यवहार के द्वारा परिकल्पना को पुन: सत्यापित करना जरूरी हो जाता है। भौतिक जगत की पड़ताल में, चीजों के वर्गीकरण के कारण, पड़ताल का दायरा सीमित हो जाता है, तथा व्यक्ति की चेतना के बाहर होने की वजह से व्यक्ति निरपेक्ष भी हो जाता है। इस वजह से तात्त्विक पद्धति भी, पड़ताल का दायरा सिमित होने के कारण सही परिणाम देने में सक्षम हो जाती है। अपनी इस सफलता के कारण तात्त्विक भौतिकवादी पद्धति ने ज्ञान के दायरे में अपनी स्वीकार्यता स्थापित कर ली है।
और विडंबना यह है कि वामपंथी संगठनों के सक्रिय आंदोलनों में फंसे हमारे नौजवान साथियों के पास तात्त्विक भौतिकवादी पद्धति से बाहर निकलने का न अवसर है और न रास्ता है। जब तक नौजवान साथी मार्क्सवाद की सैद्धांतिक अहमियत को नहीं समझ लेते हैं तब तक इंतज़ार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है।
सुरेश श्रीवास्तव
29 जुलाई 2016

Tuesday 12 July 2016

व्हाट्सएप पर मेरी पोस्ट ' 1840 के शुरू में ही, मार्क्स ने 'थीसिस ऑन फ्वायरबाख' में रेखांकित किया था ..............वे मार्क्सवादी होने का दावा किस आधार पर करते हैं, कोई मुझे समझायेगा।' पर अनेक सदस्यों ने प्रतिक्रिया दी, उसे सबके साथ साझा करना महत्वपूर्ण लगा इसलिए साझा कर रहा हूँ।

उत्कर्ष-
परन्तु इंडिया की राजनैतिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति अन्य देशों से भिन्न है। यह विविधताओं वाला देश है यहां के लोगों से जुड़ने के लिए धर्म के खिलाफ सीधे सीधे बोलना सही नहीं हो सकता
फिर वे हमारी बात सुनेंगे ही क्यों? जब हम पहले ही धार्मिक भावनाओं को तोड़ते हुए शुरू करेंगे?

कमलेश-
आपसे सहमत हूँ। धर्म के साथ रहकर उसकी निरर्थकता पर विचार सम्भव है। सीधे-सीधे उसकी आलोचना करने पर हमारे विचार वे नहीं सुनेंगे।

सुमित-
👍

उत्कर्ष-
जी।

सुरेश-
मैं मार्क्स से पूरी तरह सहमत हूँ और उनके निष्कर्ष को पूरी तरह चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के अनुकूल पाता हूँ। अगर आप मार्क्स से असहमत हैं तो दो ही चीज़ें हो सकती हैं, या तो चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर मार्क्स को ग़लत सिद्ध करें या फिर अपने पूर्वाग्रह के साथ अपनी बात पर अड़े रहें। जहाँ तक मेरी बात है तो मैं लोगों को ख़ुश रखने के लिए ग़लत चीज़ का समर्थन नहीं कर सकता। और मैं आपसे सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं पाता हूँ कि लोग मेरी बात भी सुनते हैं जब मैं धर्म की तार्किक आलोचना करता हूँ।

उत्कर्ष-
मैं खुद भी धर्म का आलोचक हूँ और ईश्वर जैसे किसी कल्पनीय धारणा पर मेरा विश्वास नहीं है परन्तु भारत की जनता के बीच नास्तिकता को साथ लेकर जाना हमारे आन्दोलन को कमजोर कर सकता है। वैसे भी तो यहां शिक्षित वर्ग का प्रतिशत बहुत कम है किसी साधारण व्यक्ति जो पूर्ण श्रद्धा के साथ सामान्य तौर तरीकों से जीवन यापन करता हो राजनैतिक सामाजिक अर्थिक स्थिति से कोई सरोकार न रखते हुए इन सबके प्रति चैतन्य न हो (जैसा ज्यादातर देखने को मिलता है) के सामने हम धर्म आलोचनात्मक रूप में रखते हुए अपने आन्दोलन से जोड़ने का प्रयास करेंगे तो सफलता की संभावना कितनी होगी?

क़लम का बादशाह-
आदरणीय शरद जी एवं सभी ग्रूप के अन्य साथियों को मेरा क्रांतिकारी सलाम ✊🏽
*जहाँ तक मेरी बात है तो मैं लोगों को ख़ुश रखने के लिए ग़लत चीज़ का समर्थन नहीं कर सकता। और मैं आपसे सहमत नहीं हूँ क्योंकि मैं पाता हूँ कि लोग मेरी बात भी सुनते हैं जब मैं धर्म की तार्किक आलोचना करता हूँ।* - शरद जी
  मे भी आपके विचारों का पक्षधर हूँ मार्क्स के विचारो को पूरे सम्मान से देखता हूँ ... परंतु क्या आप यह बता सकते है कि आप भारत के कितने % लोगों तक अपने विचार पहुँचा सके है ! मे आपका सम्मान करता हूँ शरद जी लेकिन हमें सीधे धर्म पर हमला करते हुए अपनी बात को पहुँचाना बेहद ही मुश्किल है ! हम इस तरह से 100.करोड़ लोगों तक सीधे अपने विचार नही पहुँचा सकते और ना ही में आपसे किसी वैचारिक संशोधन कि माँग रखता हूँ ! परंतु हमें जनता को वैज्ञानिक विचार देने के लिए बीच का रास्ता देखना ज़रूरी है ऐसा मेरा निजी मत है ! मे धर्म पर अपने मत को बदलने का आग्रह किसी से नही करता परंतु हमें यह सबसे अधिक सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हम कितने लोगों को जन आंदोलन व क्रांति के पथ पर आज एकत्रित कर सकते है ? इस प्रकार हम सीधे धर्म कि आलोचना करके केवल जन सामान्य के विरोधी ही बन सकते है उनके साथ क्रांति में योगदान कि अपेक्षा नही कर सकते ! आज जो लॉग आपको रुचि के साथ पड़ते है वे चिंतन प्रवत्ति के बेहद नज़दीक है , अन्यथा यह भी मुश्किल हो सकता था !
*ध्यान रहे* में आदरणीय शरद जी का सम्मान करता हूँ एवं मेरी इस प्रतिक्रिया को एक स्वस्थ रुप में ले ऐसी सभी से गुजारिश है !          ल- कलम का बादशाह

सुरेश-
मैं लेनिन से पूरी तरह सहमत हूँ कि, 'क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है' और मैं समझता हूँ कि भारत के वामपंथी आंदोलन में क्रांतिकारी सिद्धांत की सही समझ नदारद है इसीलिए मैंने फ़िलवक्त अपने लिए, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों के बीच विमर्श के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने तथा संशोधनवाद को दूर करने का कर्म चुना है। आम जनता तो वैसे भी विमर्श में शामिल नहीं होती है। जो लोग आंदोलनों में सक्रिय हैं तथा अपनी सैद्धांतिक समझ के बारे में आश्वस्त हैं और उसके बारे में विमर्श नहीं करना चाहते हैं उन्हें विमर्श से किनारा करने के लिए जनता की धर्मप्रियता की आड़ लेने की कोई जरूरत नहीं है। आप और मैं, सिद्धांत तथा व्यवहार के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं, यह समझते हुए मैं अपनी ओर से इस विमर्श को विराम देता हूँ। वैसे मेरा प्रश्न तो सीधा था - मार्क्स से असहमति के बावजूद मार्क्सवादी होने का दावा किस आधार पर - अगर सीधा उत्तर मिल जाता तो बेहतर होता।

दुर्गेश-
संशोधन बर्दास्त नहीं 👍🏻👍🏻👍🏻😡😡😡😡😡 मार्क्सवादी भी कहलाएँगें और उसके क्रांतिकारी  सिद्धांतों को आत्मसात भी नहीं करेंगें | मतलब की शाकाहारी हैं पर माँस भी खा लेंगें | 😂😂😂😂😂

उत्कर्ष-
मार्क्स से असहमति नहीं है मेरी
कुछ प्रश्न और जिज्ञासाएँ हैं

दुर्गेश-
तो प्रश्न रखिए भाई साहब,  ताकी हम सब की शंकाएँ दूर हो ||

उत्कर्ष-
किए हुए हैं
शंकानिवारण सुरेश जी करेंगे

दुर्गेश-
जी, तो हमारे साथ भी शेयर किजीएगा क्योंकि मार्क्स को हमने बस अभी जानना शुरू ही किया है ||

वैसे अगर वही प्रश्न पुन: आप यहाँ रख सकें तो अच्छा होता,  हम सब भी उस पर कुछ चिंतन और विमर्श करते 🙏

उत्कर्ष-
मैं अभी इससे सहमत नहीं हो पा रहा हूँ कि भारत की जनता और धर्म बहुत जटिल सम्बन्ध है दोनों में फिर उनके बीच अगर हम नास्तिक बनकर जाएंगे तो वे हमसे नहीं जुड़ेंगे। जैसा हम देखते हैं लोगों से बातचीत करते समय वे कन्नी काटते हैं नास्तिकों से
फिर क्रांति का सिद्धांत एक सा तो हो नहीं सकता रूस का चीन का भारत का?
क्योंकि सभी की अलग अलग सामाजिक राजनैतिक आर्थिक स्थितियां हैं

संजय-
दुनिया में कट्टरपंथीयों की संख्या ज्यादा होती जा रही है| हमें लगता है कि हम धर्म के खिलाफ बोलकर लोगों का समर्थन नहीं पा सकते
ये मेरा निजी राय है
🙄🙄🙄
👍👍👍

सुमित-
सुरेश जी सजग बुद्धिजीवीयों को समझाना या साथ लेना सरलतम कार्य है ,
क्या कोई इन सैद्धांतिक तरीकों से अन्धविश्वास में लीन लोगों को अपने साथ लाने का जिम्मा लेने
को तैयार है ?

सौरभ-
भाई हमारा अनुभव तो यही रहा है अब तक कि धर्म भीरु जनता से जब आप बतौर नास्तिक मिलते हैं और धर्म पर प्रहार करते हैं तो जनता आपके साथ नहीं आती।
लेकिन जनता की आम समस्याओं के समाधान की दिशा में उनके संघर्षों से जुड़े रहने के दौरान आपके मार्क्सवादी दृष्टिकोण से जनता ज़रूर आकर्षित होती है और तब उसकी रुचि स्वत: इस विषय में जागती है।तब चर्चाओं के दौरान धीरे-धीरे लोग नास्तिकता की ओर बढ़ने लगते हैं।

उत्कर्ष-
Exactly.

सुमित-
👍

दुर्गेश-
हमारा तरीका गलत है, शायद |तार्किक आलोचना करने पर लोग सोचते हैं, प्रश्न पुछते हैं, ||और अगर हम संतोषजनक उत्तर दे देते हैं तो लोग तुरंत तो नहीं,पर साथ हो जाते हैं ||👍🏻👍🏻👍🏻

संजय-
जब वामपंथियों के हाथ में सत्ता आए और वे अच्छा काम करके दिखाएं
तो लोग कुछ जरुर सुनेंगें और समझेंगें
जैसे की भाजपा कितनी भी रुढीवादी है पर अपने कुछ अच्छे कार्यों के वजह से फल-फुल रही है|

सुरेश-
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

उत्कर्ष
कैसे?

सुमित-
😁😁😁
निराशावादी विचार तो न रखो साथी😳

सुरेश-
निराशावाद नहीं, आप पहले सत्ता चाहते हैं फिर लोगों को समझाना चाहते हैं, पर लोगों को समझाये बिना सत्ता कैसे। और जहाँ आ भी गयी थी, उसका क्या हुआ?

दुर्गेश-
सुरेश सर से पुर्णत: सहमत 👍🏻

सुमित-
सहमती👍

सुरेश-
दुर्गेश जी, एक बात में आप की सोच और मार्क्स की सोच एक सी है। मार्क्स ने भी यही कहा था कि सिद्धांत जनता के मन में घर करने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है।

दुर्गेश-
लोग नहीं मानेंगे,लोग नहीं सुनते हैं, नास्तिक सुनते भङक जाते हैं, जैसे प्रतिक्रांतीकारी विचारों से मुक्त होना नितांत आवश्यक है || वैसे उपरयुक्त बातों को लेकर अगर हम मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत में संशोधन करते रहें तो शायद हम वास्तवीक समाजवाद कभी स्थापीत ही नहीं कर पाएँगेॆ|और वर्तमान के सभी वामपंथियों की तरह हाशिए पर चले जाएँगें ||| 😔
वैसे भी संसोधन करने का बुरा प्रभाव हम वर्तमान में वामपंथियों की सिकुङती जनाधार देखकर समझ सकते हैं ||
अगर 90 वर्ष पहले के बुद्धीजिवीओं ने गलती न की होती, और मार्क्सवाद को बिना संशोधन के लागू करती तो अपने यहाँ भी कोई बङी सर्वहारा क्रांती जरूर हो जाती, जैसे की रूस,चीन, इत्यादी जैसे देशों में हुआ था |

उत्कर्ष-
आगे बढ़ते हैं।

सुमित-
सत्ता हाथ में होना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है शायद लोगों तक विचार पहुंचाने के लिए।
उदा.
जैसे रामदेव ने अपना सामान बाजार में उतारने से पहले लोगों के बीच अपनी जगह योग के माध्यम से बनाई है क्या वैसा कुछ किया जाए ?

दुर्गेश-
👍🏻👍🏻👍🏻बिल्कुल सुमित सर| संघ और कम्यूनिष्टों की शुरूआत लगभग साथ -साथ ही हुई थी | पर एक अपने कट्टर विचारधारा को फैलाते हुए और पुँजीपतियों को साथ मिलाकर आज केन्द्र में राज कर रही है | परंतु हम आज भी अपने क्रांतिकारी सिद्धातों को लेकर मेहनतकशों के बिच जाने से कतरा रहे हैं |||😔

सुरेश-
घूम फिर कर वापस वहीं। ये 'क्रांतिकारी सिद्धांतों' क्या है, इस पर इस ग्रुप के सदस्य एकमत हो लें तब तो 'आगे बढ़ते हैं' का कोई मतलब होगा।

उत्कर्ष-
स्पष्ट करें।

अजय-
सुरेश जी! जैसा कि मैंने समझा है कि प्रडक्शन फ़ॉर्सेज़ बदलती है तो मोड आफ प्रडक्शन भी चेंज होने के लिए संघर्ष करता है जिसे मौजूदा मोड प्रडक्शन रोकने का हर प्रयास करता है। फिर रेवलूशन होता है।
तो क्या दास प्रथा में दासों ने रेवलूशन किया था ? या फिर पुराने मोड आफ प्रडक्शन ने धीरे धीरे अपने आपको नए में अड़्जस्ट किया।
कई बार ऐसा लगता है की पूँजीवाद इक्स्ट्रीम पर जाने के बजाय अपने आपको एडजस्ट कर किसी भी क्रांति  की सम्भावनाओं को ख़त्म कर देता है।
ख़त्म कर रहा है

दुर्गेश-
जी सर, अब हमें उस क्रांतीकारी सिद्धांत को तलाशना होगा | जो की बिना द्वंदात्मक भौतिकवाद को समझे बिना संभव नहीं होगा || मैं तो स्वंय इस नियम पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया हूँ |||😔😔😔

उत्कर्ष-


बड़ी खुशी की बात है कि लगभग एक साल में पहली बार इतनी गंभीरता के साथ दो दिनों तक विषय केंद्रित विमर्श चला और उत्कर्ष, दुर्गेश, अजय, सुमित, संजय, सौरभ, कमलेश तथा क़लम का बादशाह, सभी साथी इसके लिए बधाई के पात्र हैं।
सभी साथियों की टिप्पणियों को समेटने पर स्पष्ट नजर आता है कि मूल मुद्दा है विचार तथा व्यवहार, सिद्धांत तथा आचरण, चेतना तथा अस्तित्व के बीच का संबंध। 9 साथियों में से 8 एक सिरे पर तथा मैं अकेला एक सिरे पर। जाहिर है हमारे अपने-अपने पूर्वाग्रह हैं। और अंत में दुर्गेश की टिप्पणी तथा उससे उत्कर्ष की सहमति के साथ हम वापस वहीं पहुँच जाते हैं, जो मैं एक साल से कहता आ रहा हूँ कि आगे बढ़ने से पहले चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध को समझना जरूरी है। आम सहमति के लिए आवश्यक है पूर्वाग्रहों को बेनकाब करना और इसके लिए मार्क्स के सबक़ के अलावा और क्या तरीक़ा हो सकता है कि चीजों को मूल से पकड़ें। तो चलिए कोशिश करते हैं।
यहाँ विषय है कि, क्रांतिकारी सिद्धांत की सही समझ, क्रांतिकारी आंदोलनों के जरिए हासिल की जानी चाहिए, या क्रांतिकारी सिद्धांत की समझ पहले हासिल की जानी चाहिए जिसके आधार पर क्रांतिकारी आंदोलनों को चलाया जा सके। ये दो विपरीत ध्रुव हैं जिनके बीच द्वंद्वात्मक संबंध है। एक ध्रुव पर वे हैं जिनकी किसी राजनैतिक संगठन के साथ प्रतिबद्धता है, वे आंदोलन को प्राथमिक मानते हैं तथा सिद्धांत को द्वितीयक क्योंकि उनके अनुसार सिद्धांत निरंतर विकसित होता रहता है जैसा कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का नियम कहता है कि हर चीज निरंतर बदल रही है। और दूसरे ध्रुव पर मेरे जैसे बुद्धिजीवी हैं जिनकी किसी राजनैतिक संगठन के साथ प्रतिबद्धता नहीं है, वे जन आंदोलनों में भागीदारी से पहले विमर्श के द्वारा सिद्धांत की सही समझ हासिल करने को प्राथमिक मानते हैं तथा आंदोलन को द्वितीयक, क्योंकि सिद्धांत उन नियमों का समुच्चय होता है जो व्यापकतम परिस्थितियों की सही-सही व्याख्या कर सकें, और जिस सिस्टम पर हम ध्यान केंद्रित कर रहे हैं अगर उसकी सीमाएँ बदल नहीं रही हैं तो उन सीमाओं के अंदर सिद्धांत अपरिवर्तनीय होता है। नवयुवक जो अभी मानसिक रूप से परिपक्व नहीं है, वह दुविधाग्रस्त, अनिर्णय की स्थिति में कभी एक ध्रुव और कभी दूसरे ध्रुव की ओर डोलता रहता है।
जो लोग मार्क्सवाद के सूत्र - 'ज्ञान व्यवहार से आता है' - की दलील देते हैं, वे ये नहीं समझ पाते हैं कि अनुभव व्यक्तिगत होता है पर ज्ञान तो सामूहिक ही होता है। पिछली पीढ़ी सामूहिक अनुभव के आधार पर जो ज्ञान अगली पीढ़ी को सौंपती है, अगली पीढ़ी उसी ज्ञान के आधार पर नये विचारों का निर्माण करती है तथा उन्हें यथार्थ रूप प्रदान करती है। अगर नये विचारों का निर्माण, तार्किक रूप से नियमों के अनुकूल न होकर, मनोगत रूप से कल्पना पर आधारित होगा तो उन विचारों के क्रियान्वयन में अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होंगे। काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद में यही सैद्धांतिक भेद है। जहाँ बोल्शेविक पार्टी तथा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने आंदोलन में सक्रिय भागीदारी से पहले मार्क्सवाद की पुख्ता सैद्धांतिक समझ हासिल कर वैज्ञानिक समाजवाद के लिेए संघर्ष में हर मुक़ाम पर सफलता हासिल की, वहीं भारत में अतिसक्रियता के उकसावे पर, मार्क्सवाद की पुख्ता समझ हासिल किये बिना, नौजवानों ने, कल्पना की उड़ान के आधार पर यह मानते हुए कि शोषित वर्ग उनकी कविता, कहानियों, नारों तथा भाषणों से  भावनात्मक रूप से जुड़ जायेगा, वामपंथी आंदोलन में कूद कर, समाजवाद के लक्ष्य के लिए, अपने आप को भौतिक रूप से समाप्त कर लिया भगतसिंह, रोहित तथा नवकरण की तरह, या वैचारिक रूप से बेकार कर लिया कन्हैया कुमार तथा उमर ख़ालिद की तरह। इसलिए नौजवानों को यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सैद्धांतिक समझ हासिल किये बिना किसी प्रकार के आंदोलन की बात करना भी नासमझी है, क्रांति की बात करना तो बहुत दूर की बात है। किसी भी आंदोलन की सफलता या असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि, आंदोलन की रणनीति पुख्ता सैद्धांतिक समझ के आधार पर निर्धारित की गयी है या कल्पना की उड़ान के आधार पर।
किसी भी आंदोलन से पहले एक और बात अच्छी तरह समझ लेना जरूरी है, और वह है व्यक्तिगत चेतना तथा सामूहिक चेतना का द्वंद्वात्मक संबंध। जब समूह में सदस्यों की संख्या कम होती है तो सभी सदस्य तुलनात्मक रूप से महत्वपूर्ण व्यक्ति की सोच के अनुसार चलते हैं अर्थात व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना को निर्धारित करती है। सदस्यों की संख्या बढ़ने के साथ एक स्तर पर दोनों चेतनाओं के संबंध में गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है। सामूहिक चेतना स्वायत्त हो जाती है और व्यक्तिगत चेतना को निर्धारित करने लगती यहाँ तक कि तुलनात्मक रूप से महत्वपूर्ण व्यक्तियों का निर्माण और निर्धारण भी सामूहिक चेतना स्वयं करने लगती है। इस द्वंद्वात्क संबंध को समझे बिना मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी को समझ पाना असंभव है। निम्न स्तर के बुर्जुआ उत्पादन तथा उच्च स्तर के पूँजीवादी उत्पादन के अंतर को समझे बिना किसी आंदोलन की सही रणनीति तय कर पाना असंभव है।
ग्रुप के सभी साथियों को मेरा सुझाव है कि चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के हर आयाम को हर कोण से समझने का प्रयास करें, अपनी शंकाएँ साझा करें और अपने पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाने के लिए खुलने मन से प्रयास करें और अपने प्रयास इसी विषय पर तब तक केंद्रित करें जब तक सभी सक्रिय सदस्यों की समझ विकसित न हो जाये ताकि सुरेश श्रीवास्तव का स्थान ग्रुप ले ले।

सुरेश श्रीवास्तव
19 जून, 2016

समूह से संगठन के विकास में व्यक्तिगत-चेतना तथा सामूहिक-चेतना

फेसबुक तथा व्हाट्सऐप पर सोसायटी फॉर साइंस का ग्रुप बनाये एक साल पूरा होने को आ रहा, पर सैद्धांतिक विमर्श के मंच के रूप में पहचान हासिल करने के अपने उद्देश्य में, कुछ सदस्यों की सदाशयता के बावजूद हम आज भी वहीं हैं जहां एक साल पहले थे। जो सदस्य इस मंच तथा उद्देश्य के महत्व को समझते हैं, उनसे मैं पुनः आग्रह करूंगा कि वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ के आधार पर चीजों का विश्लेषण करें तथा आगे की रणनीति तय करें।
मैं शुरू से सभी से आग्रह करता रहा हूं कि –
- चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध को ठीक से समझें।
- व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध को ठीक से समझें।
- भौतिक-सामाजिक-चेतना तथा वैचारिक-सामाजिक-चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध को ठीक से समझें।
- दैनिक जीवन के हर आयाम में, विश्लेषण करने, ज्ञान हासिल करने तथा कार्यनीति तय करने में द्वंद्वात्मक पद्धति का प्रयोग करें ताकि द्वंद्वात्मक पद्धति को समझने में तथा प्रयोग करने में पारंगत हो सकें।
फेसबुक तथा व्हाट्सऐप पर पिछले एक साल की गतिविधियों पर नजर डालने पर हम पाते हैं कि –
- कुछ सदस्यों को छोड़कर, अधिकांश सदस्य सोसायटी के मंच पर किसी भी प्रकार से भागीदारी नहीं करते हैं, जब कि वे और मंचों पर फोटो, चुटकुलों, कटाक्षों, कहानियों, कविताओं, टिप्पणियों, व्यक्तिगत समाचारों आदि के जरिए अपनी उपस्थिति निरंतर दर्ज कराते रहते हैं। जाहिर है उन्हें या तो सोसायटी के उद्देश्य के बारे में पता ही नहीं है, या वे आलोचना कर्म को क्रांतिकारी कर्म नहीं मानते हैं, या वे उद्देश्य की गंभीरता को नहीं समझते हैं।
- कुछएक सदस्य जो थोड़ी बहुत भागीदारी करते हैं उनमें से भी अधिकांश, विषय से भटक जाते हैं। एकाध ही हैं जो किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लक्ष्य के साथ विषय केंद्रित विमर्श के प्रति सतर्क रहते हैं।
- अधिकांश सदस्य सोसायटी के मीडिया एकाउंट्स को, सुरेश श्रीवास्तव के फेसबुक या व्हाट्सऐप एकाउंट की तरह देखते हैं, न कि सोसायटी के सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के एक सक्रिय कार्यक्रम के रूप में।
- अधिकांश सदस्य, क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन के लिए, क्रांतिकारी आंदोलन को पहली तथा अंतिम शर्त मानते हैं। वे यह नहीं समझ पाते हैं कि क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है, तथा क्रांतिकारी आंदोलन के लिए सही रणनीति का निर्माण कर सकने के लिए क्रांतिकारी सिद्धांत आवश्यक शर्त है, और क्रांतिकारी सिद्धांत विकसित करने के लिए आलोचना पहला क्रांतिकारी कर्म है।
द्वंद्वात्मक भौतिकवादी समझ के अनुसार कोई भी संगठन एक वैचारिक-जैविक-संरचना है जिसकी इकाइयां स्वायत्त होने के बावजूद एक साझा उद्देश्य की प्राप्ति के विचार से प्रेरित होकर एकजुट होती हैं और एक सामूहिक चेतना के तहत रणनीति तथा कार्यनीति तय करते हुए कार्यरत रहती हैं। चूंकि इकाइयां जीवित मनुष्य हैं इस लिए संगठन की हर इकाई की निजी चेतना भी होती है तथा साझा उद्देश्य के अलावा अनेकों निजी आकांक्षाएं भी होती हैं। पर संगठन की सामूहिक-चेतना, अपनी इकाइओं की चेतना का साधारण जोड़ न होकर, स्वयं एक स्वायत्त वैचारिक संरचना होती है जिसका जीवंत संबंध अपनी इकाइओं के साथ साझा उद्देश्य के विचार के जरिए ही होता है।    
 इसी समझ के आधार पर, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत, मार्क्सवाद की सही समझ के विकास तथा भारतीय जन-मानस के बीच विस्तार के उद्देश्य के साथ हम सब सोसायटी फॉर साइंस को एक संगठन का रूप देने का प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास के पहले कदम के रूप में फेसबुक तथा व्हाट्सऐप ग्रुप के माध्यम से हमने ऐसे लोगों को चिन्हित करने का प्रयास किया है जो साझा उद्देश्य के प्रति गंभीर हों। ऐसे लोग इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए पिछले एक साल से विचार विमर्श कर रहे हैं। अब अगले कदम के रूप में ऐसे लोगों का रूबरू मिलना भी जरूरी है ताकि उनके बीच और बेहतर समझ विकसित हो सके तथा ग्रुप को, गुणात्मक रूप से भिन्न, संगठन के स्तर पर ले जाया जा सके। कब, कहां, कैसे मिलना है यह तय करने से पहले ऐसे लोगों, जो मीटिंग के लिए गंभीर हों, के नाम, पते, फोन नं तथा आम सहमति जरूरी है।
 वे लोग, जो इस तरह की मीटिंग के लिए सैद्धांतिक तौर पर सहमत हैं, कृपया अपना नाम, पता, फोन नंबर व्यक्तिगत तौर पर मुझे या ग्रुप के जरिए जल्दी से जल्दी भेज दें।
सुरेश श्रीवास्तव
9810128813
Suresh_stva@hotmail.com
13-7-2016