Tuesday 5 May 2020

महान शिक्षक को गुरुदक्षिणा (भाग 2)

महान शिक्षक को गुरुदक्षिणा 
(भाग 2)
छात्र राजनीति हमेशा से ही राजनीति की मुख्यधारा का अभिन्न अंग रही है। कॉंग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टियों के विभाजन के बाद माकपा तथा कॉंग्रेस() का गठन हो चुका था। इसके अनुरूप 1970 में एसएफआई का गठन किया जा चुका था और कॉंग्रेस() द्वारा 1971 में लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद एनएसयूआई का भी गठन किया जा चुका था। जे.एन.यू. को अस्तित्व में आये हुए दो साल हो गये थे। स्वाभाविक था कि जेएनयू में भी छात्र यूनियन का गठन किया जाय और जेएनयू छात्र संघ के चुनाव कराये जायें।
जे.एन.यू. में छात्र संघ का पहला पहला चुनाव था। जेएनयू की फेकल्टी में शुरू से ही रूस समर्थक वामपंथियों का दबदबा था और एआईसएफ अपने आपको अध्यक्ष पद का स्वभाविक दावेदार मानती थी पर विद्यार्थियों की नई पीढ़ी की विद्रोही सोच के चलते एसएफआई अपने आपको अध्यक्ष पद के स्वभाविक दावेदार के रूप में देख रही थी। लेकिन बदले राष्ट्रीय परिदृश्य के अनुरूप, साधन संपन्न एनएसयूआई ही अध्यक्ष पद की सबसे सशक्त दावेदार थी। मैंने प्रकाश को समझाया कि परिस्थिति को देखते हुए, अलग अलग उम्मीदवार खड़ा करना एआईएसएफ  तथा एसएफआई दोनों के हित में नहीं होगा। वक़्त का तकाजा है कि दोनों मिलकर एक साझा उम्मीदवार खड़ा करें। एआईएसएफ को साझा उम्मीदवार के लिए मनाने की जिम्मेदारी मैंने ले ली थी। एआईएसएफ की मुख्य ताक़त रूसी भाषा केंद्र में थी पर रूसी, जर्मन तथा स्पेनिश भाषा के छात्रों के बीच मेरी पकड़ मज़बूत थी इसलिए प्रकाश के द्वारा सुझाये शुक्ला को साझा उम्मीदवार बनाने के लिए मैं एआईसएफ को मनाने में कामयाब रहा और शुक्ला को अध्यक्ष पद पर पहला चुनाव जिताने में हम कामयाब रहे। 
उधर आईआईटी से मुझे CSIR में आवेदन के लिए आवश्यक अनुमोदन नहीं मिल रहा था। दिसंबर के महीने में मुझे एक प्रोफ़ेसर जो मेरे वार्डन रहे थे और मुझ पर विशेष स्नेह रखते थे, ने मुझे बुलाकर कहा कितुम आईआईटी से पी.एचडी. का विचार छोड़कर बाहर कहीं नौकरी कर लो। डायरेक्टर साहब ने सीनेट की मीटिंग में स्पष्ट कर दिया है कि सुरेश की वामपंथी गतिविधियों को देखते हुए सरकार नहीं चाहती है कि सुरेश को आइआइटी में रहने दिया जाय।इसके साथ ही मेरी भविष्य की सारी योजनाएँ धराशायी हो गईं। सन्निपात की स्थिति में कोई दिशा दिखाने वाला भी नहीं था। कुछ ही दिनों में प्रेमिका ने भी साथ छोड़ दिया। जीवन का पहला अध्याय समाप्त हो गया था, दूसरा कहाँ से शुरू होगा समझ नहीं रहा था। ऐसे में मुझे पूनम के साथ शादी करने का प्रस्ताव आया जो मेरे जीवन का सबसे अधिक सुखद मोड़ साबित हुआ, और जिसने आगे चल कर केवल जीवन का अर्थ समझाया बल्कि जीवन को दिशा दी तथा मार्क्सवाद को ठीक से समझने और आत्मसात करने में मदद भी की।
अगले साल मैंने जेएनयू छोड़ कर नौकरी पकड़ ली और शादी कर ली थी। दूसरे साल के चुनाव में प्रकाश के खिलाफ एआईएसएफ ने भाषा केंद्र से अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया था। इस चुनाव में प्रकाश के लिए व्यक्तिगत संपर्क से भाषा केंद्र से वोट जुटाने के अलावा मेरी भूमिका नगण्य हो गई थी। प्रकाश करात, सुनीत चोपड़ा तथा इंद्राणी मजूमदार (जिन्होंने बाद में सीताराम येचुरी से शादी की थी) से संपर्क बना रहा, पर विद्यार्थी राजनीति से मेरा नाता टूट गया और समय के साथ मैं मुख्य धारा की राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गया। 
विद्यार्थी जीवन के सात साल के दौरान, वामपंथी राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की, और उसके बाद आंदोलनों वाली वामपंथी राजनीति से मोहभंग की अपनी वैचारिक यात्रा का, अस्तित्व तथा चेतना और आचरण तथा ज्ञान के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर सही सही विश्लेषण कर सकने के लिए जरूरी है कि मैं जन्म से लेकर शैशवकाल के दौरान अवचेतन में घर करने वाले सुदृढ़ीकृत पूर्वाग्रहों की सही सही पहचान कर सकूँ।   
 
शैशवकाल - अवचेतन में पूर्वाग्रहों का बीजारोपण
मुझ से पंद्रह साल बड़े एक भाई थे, अत्याधिक होनहार, पढ़ाई-लिखाई तथा खेलकूद में हमेशा प्रथम। रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िले से पहले ही अचानक संक्रमण के कारण गुर्दे नाकाम हो जाने से उनकी मृत्यु हो गई थी, जो मेरे माँ-बाप के लिए बहुत बड़ा आघात था। 18 अप्रैल 1950 को जब उनकी मृत्यु हुई उस समय मेरी उम्र पूरी चार साल भी नहीं थी। चार साल की उम्र में, नैतिक सामाजिक मूल्यों को समझ सकने और ग्रहण कर सकने के लिए आवश्यक भाषा की समझ भी विकसित नहीं हुई होती है। अवचेतना जीवन के लिए आवश्यक भौतिक चीज़ों से संबंधित विचारों को अभिव्यक्त करने वाली मातृभाषा को ही समझने तथा ग्रहण करने के दौर में होती है। उस समय की अधिकांश बातें मुझे याद नहीं, पर उनकी मृत्यु की पूरी घटना तथा उनके शव को दाह के लिए ले जाते समय माँ का विलाप और बदहवास पागलपन का दौरा, मेरे मानस पटल पर आज भी चलचित्र की तरह अंकित है। इतने बड़े दुख के बावजूद माँ बाप दोनों ने जल्दी ही अपने आप को सम्हाल लिया था। सबसे बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। मुझ से बड़ी तीन बहनें और थीं जिनमें बड़ी की उम्र उस समय 13 साल थी और मुझसे तीन साल छोटा एक भाई भी था। पहले उन्होंने सपने संजोये हुए थे कि कुछ ही सालों में बड़ा बेटा इंजीनियर बन कर तीनों बहनों की शादी को पूरा करने में उनका हाथ बंटायेगा और वृद्धावस्था में उनका सहारा बनेगा, पर अब उन्हें पता था कि पांच बच्चों की परवरिश का लंबा सफ़र उन्हें अकेले ही तय करना है। सभी लोग उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहते थे कि बेटे के रूप में मैं उनके सपनों को पूरा करूंगा। उसी समय से दो विचार मेरे अवचेतन में गहरे बैठ गये थे। एक मुझे इंजीनियर बनना है, दूसरा ऐसा कुछ भी नहीं करना है जिससे से मेरे मां बाप को किसी प्रकार से पीड़ा हो, विशेषकर माँ को। आगे जिंदगी में अनेकों बार ऐसा हुआ कि कुछ करने की तीव्र इच्छा के बावजूद उसे करने से पीछे हट गया यह सोच कर कि इससे मेरी मां को तकलीफ़ हो सकती है। 
बाल्यावस्था - अहं के स्वतंत्र अस्तित्व का पूर्वाग्रह
माँ और पिता जी अपनी बिखरी ज़िंदगी को फिर से संवारने में जुट गये थे। पिता जी नामी वक़ील थे पर कई महीनों से अदालती कामों पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे इसलिए अब उन्होंने सारा ध्यान अपने व्यवसाय पर केंद्रित कर दिया था। अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान का दायित्व माँ ने ले लिया था। हिंदी वर्णमाला तथा गिनती उन्होंने ही सिखाई। कहानियाँ भी वे ही सुनाती थीं। दो साल के अंदर ही मैं चंदामामा, पंचतंत्र की कहानियाँ, जातक कथाएँ आदि पढ़ने लगा था। 20 तक पहाड़े तथा साधारण जोड़ना घटाना तथा गुणा भाग सीख गया था। जितना होनहार लिखने पढ़ने था में उतना ही खेलने कूदने में भी। गुल्ली-डंडा, कंचे, कबड्डी, हाकी, फुटबाल तथा क्रिकेट, सभी में बराबर की निपुणता। हारना मेरे लिए दुखदायी होता था और इसलिए प्रतिस्पर्धा की भावना भी कुछ अधिक ही तीव्र थी। अगर किसी खेल को हाथ लगाया तो उसमें निपुणता हासिल करने में पूरा ज़ोर लगा देता था पर यह लगन खेल भावना से अधिक प्रतिस्पर्धा के कारण होता था। हमेशा ही सुनता था कि मेरे बड़े भाई परीक्षा में हमेशा प्रथम आते थे और क्रिकेट तथा टेनिस के अच्छे खिलाड़ी भी थे। मेरे बाल अवचेतन में उनकी छवि ही आदर्श के रूप में जम गई थी।    
अभी शैशवकाल से बाल्यकाल में रूपांतरण पूरा भी नहीं हुआ था कि मेरे माँ बाप फिर एक बार घोर विपदा में फँस गये थे। 1953 में, दंत चिकित्सक की लापरवाही से उनके दाँत में संक्रमण हो गया था और सही इलाज होने से संक्रमण मस्तिष्क के साथ साथ सारे शरीर में फैल गया था। संक्रमण बड़ी मुश्किल से नियंत्रित हो पाया था और वे लगभग मौत के मुँह से वापस आये थे। उन्हें पुन: स्वस्थ तथा सक्रिय होने में छह महीने से ज्यादा का समय लग गया था। और माँ के जिस वात्सल्य तथा ध्यान का मैं आदी हो गया था, लगभग एक साल तक मुझे उससे वंचित रहना पड़ा था। 
झाँसी शहर में हमारा घर जिस गली में था वह शहर का महत्वपूर्ण इलाक़ा था जिसमें लगभग पैंतीस मकान थे जिनमें से बीस हमारे परिजनों तथा रिश्तेदारों के थे, तथा बाकी में दो घर मुस्लिम परिवार के, चार ब्राह्मण परिवार के, दो बनिया परिवार के तथा बाकी पिछड़े तथा दलित परिवारों के थे। गली में राजा गंगाधर राव के समय में सरकारी मुद्रा के सिक्के ढलते थे इसलिए गली टकसाल कहलाती थी। झाँसी क़िले की उत्तरी चार दीवारी के बाहर सरकारी अस्पताल था जहाँ से रानी महल तथा मुख्य बाजार मानिक चौक के लिए मुख्य सड़क जाती थी। हमारी गली का एक सिरा सरकारी अस्पताल के सामने खुलता था तथा दूसरा सिरा मानिक चौक में। गली के सारे घर ही मेरा घर थे और घरों के सदस्य चाचा-चाची, मामा-मामी, दीदी, भैया-भाभी थे। गली के सारे हम उम्र बच्चे मेरे दोस्त और खेल कूद के साथी थे। गली में ही हम गुल्ली-डंडा, गोली-कंचे, पिट्ठू और क्रिकेट खेलते थे और घरों की छतों पर पतंग उड़ाते थे। हमारे परिवार की सामाजिक परिस्थिति तथा मेरे मां-बाप के व्यवहार के कारण मुझे हर घर में स्नेह और सत्कार प्राप्त था। 
पिता जी की बीमारी के उस एक साल के दौरान मेरा सारा समय अपने घर के बाहर गली में और गली के परिवारों के बीच ही गुजरता था, खाने-पीने और आदर-सत्कार के साथ। उस एक साल में अहं के स्वतंत्र अस्तित्व के पूर्वाग्रह ने मेरे मन में गहरी जड़ें जमा ली थीं। एक ओर मैं अत्याधिक आत्मकेंद्रित और स्वाभिमानी था, दंभी और अभिमानी की हद तक। हार मानना या कमतर आँका जाना मुझे स्वीकार नहीं था। दूसरी ओर  परिवार का अर्थ केवल माँ-बाप और भाई बहन तक ही सीमित नहीं होता था बल्कि रिश्तेदार, मित्र और परिचित परिवार का हिस्सा होते थे। मेरा यह पूर्वाग्रह, मेरे सामाजिक व्यवहार तथा सामूहिक हितों के साथ अक्सर ही टकराव की स्थिति में होता था और उनके अंतर्द्वंद्व के समाधान के लिए मेरी तर्कबुद्धि और सजग चेतना सारी ज़िंदगी जूझते रहे, बावजूद इसके कि समाधान के मूर्तरूप में पहले मेरी माँ और फिर पूनम मेरी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बने रहे।     

पूर्व-किशोरावस्था - सामाजिक परिवेश जनित पूर्वाग्रह
बीमारी से ठीक होने के बाद पिताजी और माँ पुन: पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने अपने दायित्व निभाने में जुट गये थे। मेरी माँ, सामंतवादी बड़े ज़मींदार परिवार से थीं और पिता जी बुर्जुआ शिक्षित परिवार से। माँ बहुत कम पढ़ी लिखीं ग्रामीण परिवेश में पली थीं और पिता जी कानपुर तथा आगरा के प्रसिद्ध कालेजों से गणित, दर्शनशास्त्र तथा कानून की उच्च शिक्षा प्राप्त शहर के नामी वक़ील थे। दोनों की जीवन शैली अत्याधिक सौम्य और स्वभाव अत्याधिक सरल था, कोई आडंबर नहीं। दोनों एक दूसरे के पूरक। आमदनी का दायित्व पिताजी का, और खर्च करने का अधिकार माँ का, पितृसत्तात्मक समाज के बीच मातृसत्ता। अपने अपने प्रगतिशील विचारों के साथ, बुंदेलखंड के रूढ़िवादी समाज की परंपराओं के साथ समन्वय रख पाने में दोनों ही कुशल।   
पिता जी के लिए अपनी वकालत और मेरी शिक्षा, दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यभार थे। माँ के लिए पूरे घर गृहस्थी के बहु-आयामी प्रबंधन में सभी कुछ महत्वपूर्ण था। सात सदस्यों वाले अपने परिवार के साथ तीन नौकर, एक-दो किसी रिश्तेदार के पढ़ने के लिए शहर आये बच्चे और दो-चार मिलने वाले आये मेहमान; हमेशा ही पंद्रह-बीस लोगों के खाने पीने इंतज़ाम, और व्यक्तिगत रूप से सभी की सुविधा तथा खान-पान की रुचि का ख़्याल। इसके साथ ही तीन बेटियों की सामाजिक परिवेश के अनुरूप परवरिश, और मुहल्ले की तीन चार चाचियों-मामियों की बैंकर। मुझे आश्चर्य होता था कि माँ कैसे इतना सब कुछ कर लेती हैं। वे सभी के सोने के बाद सोती थीं और किसी के भी जागने से पहले उठ जाती थीं।
पिता जी गणित अंग्रेज़ी स्वयं मुझे पढ़ाते थे। एक ही साल में अंकगणित में पारंगत हो गया था। चक्रवर्ती की अंकगणित जिसमें हर विषय-वस्तु पर सैकड़ों सवाल होते थे और मुझे हर सवाल करना होता था। बीस तक पहाड़े कंठस्थ।बीस-बीस अंकों की बीस पचीस संख्याओं का जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग जिनमें हासिल लिखने की इजाज़त नहीं होती थी। किसी भी सवाल को हल करने से पहले पुस्तक के अंत में दिये गये उत्तर देखने की इजाज़त नहीं होती थी। सवाल हल करने की प्रक्रिया तय करने से पहले बताना होता था कि प्रक्रिया के चुनाव के पीछे तर्क क्या है। बिना तर्क बताये आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं होती थी। शायद अमूर्त चिंतन तथा तर्कबुद्धि को विकसित करने का यह उनका अपना तरीक़ा था। औपचारिक प्राइमरी शिक्षा के पाँच साल बिना स्कूल गये निकल गये थे। उस कमी को उन्होंने एकसाल में पूरा करवा दिया और मेरा प्रवेश सीधे छठवीं कक्षा में मिशन स्कूल में करवा दिया गया था। तीनों सेक्शन में प्रथम स्थान पाकर उनकी और अपनी मेहनत को सार्थक कर दिया था। पिता जी का पूरा ज़ोर पढ़ाई लिखाई पर था, शायद इंजीनियर बनाने का सपना। और मेरे खेल कूद के समय में भारी कटौती हो गई और हॉकी, फ़ुटबॉल, क्रिकेट या बैडमिंटन का अच्छा खिलाड़ी बन सकने की संभावनाएँ भी धीमे धीमे ख़त्म हो गईं।
मेरे माँ-बाप नास्तिक नहीं थे। दोनों हिंदू धर्म के मानने वाले थे पर धर्म तथा धार्मिक अनुष्ठानों के बारे दोनों के विचार औरों से अलग थे। वे कभी किसी धार्मिक अनुष्ठान में सक्रिय रूप से शामिल नहीं होते थे। पिता जी संस्कृत के ज्ञाता थे और कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम और मेघदूत तथा भगवद्गीता संस्कृत में ही पढ़े थे। वे धर्म को रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, जिद्दू कृष्णामूर्ति आदि दार्शनिकों के संदर्भ से देखते समझते थे। मेरी मां की दिनचर्या में पूजा शामिल नहीं थी पर पास पड़ोस में अन्य महिलाओं द्वारा आयोजित की जानेवाली कथाओं तथा अखंड रामायण जैसे आयोजनों में अपनी सुविधानुसार भाग लेती थीं। मेरे चाचाजी घोषित नास्तिक थे और सोवियत यूनियन तथा चीन के प्रशंसक थे। मेरे मार्क्सवादी बनने से पहले वामपंथी अज्ञेयतावादी बनने में उन्हीं की प्रेरणा थी।
पिता जी किसी को अस्पृश्य नहीं मानते थे और माँ की अस्पृश्यता सफ़ाई कर्मी तक सीमित थी। पर मेरे ऊपर कोई पाबंदी नहीं थी। महीने में कम से कम दो बार, एकादशी या किसी त्योहार पर सफ़ाई कर्मीपावनलेने आती थी। वह नहा धोकर साफ़ सुथरे कपड़े पहन कर शाम में आती थी, पर उसे अंदर आँगन के दरवाज़े तक आने की ही इजाज़त होती थी। सभी उससे चार क़दम की दूरी रखते थे पर मैं उससे लिपट भी लेता था और उसके पकवान में हाथ भी बंटा लेता था। उसे छूने के बाद मुझे नहाना जरूरी नहीं होता था। माँ अपना सोने का कंगन उतार कर घर की सहायिका को दे देती थीं और वह एक लोटे में थोड़ा पानी लेकर उसमें कंगन को डाल कर हिलाती और थोड़ा सा पानी मेरे ऊपर छिड़क देती थी और मैं पवित्र हो जाता था। मेरी धार्मिक तथा जातिगत सहिष्णुता का आधार इसी परिवेश को जाता है।
पिता जी को झूठ बोलने से सख़्त नफ़रत थी। सच बोलने पर वे मेरी बड़ी से बड़ी ग़लती को माफ कर देते थे या कम सज़ा देकर छोड़ देते थे। दो बार झूठ बोलने पर बेंत से पिटाई हुई थी। सच के लिए निडर होकर खड़े होने की आदत इसी शिक्षा का परिणाम है।
पोस्ट ऑफ़िस मानिक चौक में हमारी गली से बाहर निकलते ही था। पोस्ट आफिस के बाहर सड़के किनारे ही एक बूढ़ी औरत, चना मूँगफली जैसी छुटपुट खाने की चीज़ें बेचने के लिए अपनी अपनी डलिया रख कर बैठती थी। एक बार पिता जी ने मुझे पत्र पोस्ट करने के लिए भेजा। मैं पत्र डाल कर निकला और बूढ़ी औरत को पीछे से सिर में चांटा मार कर भाग लिया, और आकर पढ़ने बैठ गया। इस तरह की शैतानी मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। जिस समय मैं पोस्ट आफिस से निकला, मेरे ममेरे बड़े भाई जो मेरे यहाँ रह कर पढ़ाई कर रहे थे वहीं से गुज़र रहे थे। मैं उन्हें नहीं देख सका था पर उन्होंने मुझे देख लिया था। घर आकर उन्होंने पिता जी से मेरी शिकायत कर दी। पिता जी ने मुझे कोई सज़ा नहीं दी और भाई साहब से कहा कि सुरेश को अभी लेकर जाओ और ये उस बूढ़ी औरत से पैर छूकर माफ़ी माँगेगा। उन्होंने सख़्त हिदायत दी कि ये पैर छूकर माफ़ी मांगेगा, केवल मुँह से कहना काफी नहीं होगा। भाई साहब मुझे लेकर गये और बुढ़िया के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया। बुढ़िया यह समझ कर कि मैं कुछ खरीदने आया हूँ, बोली क्या चाहिए बेटा। मैंने उसके पैर छूकर कहा मैं आपको मार कर भागा था इसलिए माफ़ी माँगने आया हूँ। बुढ़िया ने मेरे हाथ पकड़ कर द्रवित होकर कहा कोई बात नहीं बेटा, और दोनों हाथ मेरे सिर पर रख कर फिर अपने कानों से लगा कर कहा जीते रहो। भाई साहब वापस मुझे लेकर आये और पिता जी को सूचित किया कि उनकी हिदायत का अक्षरश: पालन किया गया है। कमजोर के प्रति संवेदना तथा आदर करने का यह सबक मेरे अवचेतन में आज भी चलचित्र की तरह अंकित है। 
मैं उस उम्र में पहुँच गया था जब लड़के लड़कियाँ शरीर के लैंगिक भेदों को समझना शुरू करते हैं और एक दूसरे के यौनांगों को सहला कर उत्तेजित होना और तुष्ट होना सीखने लगते हैं। व्यापक पारिवारिक परिवेश में दर्जन भर हमउम्र भाई-बहन थे और मैंने भी अन्य लोगों की तरह भाई बहनों के साथ खेलते खेलते ही स्त्री तथा पुरुष की यौनेंद्रियों का व्यावहारिक ज्ञान हासिल किया था। पर दो ही साल में भाई बहनों के आपस में मिलने जुलने के ऊपर पाबंदियाँ लगनी शुरु हो गईं थीं और धीरे धीरे समझ गया था कि लड़कियों की यौन शुचिता उनकी पढ़ाई लिखाई से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है और शादी के बिना स्त्री के लिए यौन संबंध वर्जित है। यह भी समझ गया था कि यौन शुचिता की शर्त अविवाहित लड़कियों के अनुल्लंघनीय है। पुरुषों तथा विवाहित स्त्रियों के मामले में यौन शुचिता का कोई अर्थ नहीं है।
धर्म, जाति, लिंग तथा आर्थिक आधार पर भेदभाव की सामाजिक चेतना के खिलाफ पूर्वाग्रह और समाजवाद के प्रति आग्रह इसी दौर का उपहार है, जिसने आगे जीवन में अनेकों बार क्रांतिकारी निर्णय लेने से रोका तो अनजाने ही ग़लतियाँ करने तथा संशोधनवादी बनने से भी रोका। इसी दौर में मेरे सामाजिक परिवेश ने मेरी चेतना में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, अमूर्त चिंतन तथा प्रखर तर्कबुद्धि की नींव भी रखी।

किशोरावस्था - पूर्वाग्रह तथा तर्कबुद्धि आधारित सजग चेतना
(आगे जारी)

सुरेश श्रीवास्तव 

5 मई, 2020