Saturday 17 October 2015

संगठित हमलों का व्यक्तिगत प्रतिरोध ?!

राजग-2 की मुख्य भागीदार भाजपा के सहयोगी हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी और धार्मिक सहिष्णुता पर किये जा रहे हमलों को रोकने में मोदी सरकार की नाकामी के विरोध में, प्रतीकात्मक विरोधस्वरूप कई प्रगतिशील वामपंथी रचनाकर्मियों द्वारा अपने पुरस्कार लौटाये जा रहे हैं। संगठित हमलों का व्यक्तिगत प्रतिरोध ?!
दस साल में नौजवानों की एक नई पीढ़ी तैयार हो जाती है। यूपीए-1 तथा यूपीए-2 के दस सालों के दौरान, जब नयी पीढ़ी तैयार हो रही थी, जिसने वापस भाजपा के हाथों में सत्ता सौंपी है, उस समय हम बुद्धिजीवी रचनाकर्मी क्या कर रहे थे? क्या पिछले दस साल हम, शोषितों के लिए आभासी दुनिया के झुनझुने बजाकर, मध्यवर्गीय बौद्धिक श्रमजीवियों के लिए मनोविनोद तथा आत्मतुष्टि के साधन नहीं पैदा कर रहे थे, और क्या मुआवज़े (मज़दूरी) के तौर पर अपनी व्यक्तिगत संपन्नता तथा विलासिता के साधन और पुरस्कार नहीं बटोर रहे थे? मनोरंजन की क़ीमत चुका रहा था शारीरिक तथा बौद्धिक कामगार, और मज़दूरी चुका रहा था शोषक वर्ग, तो ज़ाहिर है मुनाफ़े का हक़दार भी शोषक वर्ग ही होगा। आज का नौनिहाल, जिसमें से अगले दस साल में नई पीढ़ी तैयार होनी है, हम से सवाल पूछ रहा है कि आगे का रास्ता क्या है? संगठित सत्ता का प्रतिरोध अस्मिता की राजनीति के रूप में विखंडित प्रतिरोध द्वारा कैसे होगा?
रास्ता तो 175 साल पहले कार्ल मार्क्स ने सुझा दिया था जब उन्होंने लिखा था, " आलोचना का हथियार, ज़ाहिर है, हथियार की आलोचना का स्थान नहीं ले सकता है, भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति से ही हटाया जा सकता है; पर सिद्धांत भी जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है, और पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब वह तब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल से समझना। लेकिन, मनुष्य के लिए, मनुष्य स्वयं मूल है" (The weapon of criticism cannot, of course, replace criticism of the weapon, material force must be overthrown by material force; but theory also becomes a material force as soon as it has gripped the masses. Theory is capable of gripping the masses as soon as it demonstrates  ad hominem, and it demonstrates ad hominem as soon as it becomes radical. To be radical is to grasp the root of the matter. But, for man, the root is man himself.)
सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि, वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित सिद्धांत की पुख्ता समझ स्वयं हासिल करें और, जनता के बीच, मूल्य तथा अतिरिक्त मूल्य के स्रोत, शोषण की प्रक्रिया, व्यक्तिगत तथा सामाजिक चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध, मानव के प्राकृतिक गुणों और सामाजिक गुणों आदि के बारे में फैले विभ्रम को बेनक़ाब कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित सिद्धांत को जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम बनाने का मार्ग प्रशस्त करें।          
सुरेश श्रीवास्तव
18 अक्टूबर, 2015

Monday 12 October 2015

भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र - एक मार्क्सवादी नजर से

भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र - एक मार्क्सवादी नजर से
(आज भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने यक्ष प्रश्न है भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र की सही पहचान और उसके संदर्भ में विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की विचारधारा का सही-सही विश्लेषण करना। हाल ही में अनेकों युवा साथियों ने मुझसे भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में मेरे विचार जानने का आग्रह किया है। मैं संबंधित विषयों पर लेख लिखता रहा हूँ जो marx-darshan.blogspot.com पर भी पोस्ट किये गये हैं। युवा साथियों के आग्रह पर एक बार फिर अपने विचार इस विषय पर समेटने का प्रयास कर रहा हूँ। सुरेश श्रीवास्तव )

मार्क्सवाद समाज की पहचान एक जीवंत वैचारिक संरचना के रूप में करता है जो मानवीय चेतना में बसती है, जिसका अपना कोई स्वतंत्र भौतिक जैविक अस्तित्व नहीं होता है पर जो चेतना के रूप में पूरी तरह स्वायत्त है। मानव जीवन का आधार है प्रकृति प्रदत्त पदार्थ को व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम द्वारा उपयोगी पदार्थ में बदलना। समाज के अस्तित्व का आधार है, मानवों का अपने हितों की पूर्ति के लिए एकजुट होना। मानवीय चेतना दो स्तर पर कार्य करती है - अनभिज्ञ तथा सजग। अस्तित्व तथा जीवन से संबंधित प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रेरणा स्वत: होती है और उनसे संबंधित विचार अनभिज्ञ स्तर पर कार्य करते हैं, पर सामाजिक परिवेश से उपजी आवश्यकताएं सजग स्तर पर होती हैं और उनसे संबंधित विचार सजग स्तर पर कार्य करते हैं, इस कारण मार्क्सवाद समाज को 'सामाजिक-आर्थिक संरचना' के रूप में परिभाषित करता है जिसमें 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अंतर्वस्तु है और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' अधिरचना है। किसी भी समाज की अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' का आधार उत्पादन व्यवस्था, अर्थात उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादन संबंध, होते हैं और उसी आधार पर उसका निर्माण होता है। इसी तरह अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' के आधार पर सजग 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' का निर्माण होता है। ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए किये जाने वाले सजग प्रयास इसी 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' द्वारा किये जाते हैं। 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अनजाने ही 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है, और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' सजग कर्म द्वारा 'भौतिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है। यही सामाजिक-चेतना की अंतर्वस्तु और उसकी अधिरचना के बीच का द्वंद्वात्मक संबंध है।
वर्ग विभाजित समाज में विभिन्न वर्गों द्वारा, अपने वर्ग हितों को साधने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का ही हिस्सा होती है राजनीति। इसलिए वर्ग विभाजित समाज का सही विश्लेषण करने और उसमें वांछित हस्तक्षेप कर सकने के लिए आवश्यक है कि समाज की आर्थिक तथा राजनैतिक परिस्थिति का समुच्चित एकीकृत विश्लेषण किया जाय। आज सूचना और संचार के साधन इतने विकसित हो गये हैं कि विचारों के प्रचार प्रसार में भौगोलिक सीमाएँ बेमानी हो गयी हैं। उत्पादन तथा वाणिज्य में, वैचारिक उत्पादों की भागीदारी बढ़ गयी है। इन सभी चीजों को नज़रअंदाज़ करके किया गया विश्लेषण या हस्तक्षेप वांछित नतीजे नहीं दे सकता है।
भारत राजनैतिक रूप से एक राष्ट्र, एक राज्य है पर, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से अनेकों राष्ट्रों का गठजोड़ है इस कारण भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र का विश्लेषण करते समय आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्थाओं की विविधता का ध्यान रखना आवश्यक है।
देश में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादक शक्तियां लगभग पूरी तरह सामंती या पारंपरिक है। पूंजीवादी व्यवस्था कृषि क्षेत्र में लगभग नदारद है। औद्योगिक उत्पादन में कुछ क्षेत्रों में उत्पादक शक्तियाँ विश्व स्तर की पूँजीवादी हैं पर एक बड़े क्षेत्र में अभी भी सामंती तथा मध्य स्तरीय हैं। आदिवासी आबादी भी अच्छी खासी है जहाँ अत्पादक शक्तियाँ आदिकालीन है। भारत में पूँजी का केंद्रीकरण भी विश्वस्तरीय है और व्यापार भी विश्व व्यापार का हिस्सा है। भारत में औद्योगिक कामगारों का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है और संगठित क्षेत्र का कामगार भी राजनैतिक रूप से जागरूक नहीं है। इस कारण संघर्ष शोषकों तथा शोषितों के बीच न होकर, शोषकों के बीच आपस में, मुख्य रूप से सामंतवाद और पूँजीवाद के बीच ही है। प्राकृतिक नियम के अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर होना आवश्यक है और भारतीय केंद्रित पूंजी, वैश्विक पूंजी की भागीदार बन चुकी है, इस कारण राजसत्ता का झुकाव वैश्वीकरण तथा पूँजीवाद की ओर ही होगा। अर्थव्यवस्था, पूँजीवाद के आधार पर, उत्पादक शक्तियों के विकास की ओर खिसकेगी, धीमे-धीमे जब विरोधी शक्तियाँ ताक़तवर होंगीं और तेज़ रफ़्तार से जब विरोधी शक्तियाँ कमज़ोर होंगीं।
राजनीति के क्षेत्र में समाज मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित है, सामंत, पूँजीपति, कामगार तथा मध्यवर्ग। कामगार भी किसान, सर्वहारा तथा असंगठित मज़दूर के बीच बँटे हैं। मध्यवर्ग अपने वर्ग चरित्र के अनुसार वर्ग संघर्ष में हमेशा कमज़ोर पक्ष के साथ खड़ा होता है और जब कमज़ोर पक्ष मज़बूत होने लगता है तब पाला बदल कर दूसरे पक्ष के साथ खड़ा हो जाता है। कभी-कभी, संतुलन की स्थिति में, मध्यवर्ग स्वतंत्र रूप से संघर्ष का निर्णायक वर्ग नजर आयेगा, पर असंतुलन की स्थिति आते ही कमज़ोर वर्ग के साथ खड़ा हो जायेगा। मज़दूर वर्ग का नेतृत्व हमेशा मध्यवर्ग से आये लोगों के हाथों में होता है और जब तक मजदूरवर्ग राजनैतिक रूप से जागरूक होकर अपने आपको संगठित करने की स्थिति में नहीं हो जाता है वह मध्यवर्ग का ही पिछलग्गू बना रहता है।
भारत के राजनैतिक पटल पर मुख्य लड़ाई सामंतवाद तथा पूँजीवाद के बीच है और मध्यवर्ग दोनों मुख्य पक्षों के बीच पाला बदलता रहता है। कामगार जब तक जागरूक नहीं हो जाता है, भ्रम की स्थिति में ही रहेगा। बिना किसी स्पष्ट विभाजन और संगठन के, किसान सामंतवर्ग के पीछे चलेगा, मज़दूरवर्ग पूँजीपति वर्ग के पीछे चलेगा और सर्वहारावर्ग मध्यवर्ग के पीछे चलेगा।
इस प्रकार भारतीय राष्ट्र-राज्य आर्थिक रूप से मिश्रित सामंतवादी निम्न पूँजीवादी है, सामाजिक रूप से सामंतवादी है और राजनैतिक रूप से बुर्जुआ जनवादी है।
150 साल पहले एंगेल्स ने समझाया था कि राज्य की उच्चतम अवस्था, जनवादी गणतंत्र राज्य का वह स्वरूप है अकेले जिसमें ही सर्वहारा तथा बुर्जुआजी के बीच अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है, जनवादी गणतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के भेद को स्वीकार नहीं करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के लगभग सभी राष्ट्र-राज्यों में जनवादी सत्तायें स्थापित हो चुकी हैं, विकसित या अविकसित सभी तरह की अर्थव्यवस्थाओं के बावजूद। गुरिल्ला युद्ध या जनयुद्ध आज के दौर में प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। एंगेल्स ने समझाया था, " और अंत में संपन्न तबक़ा सीधे आम मताधिकार के ज़रिए शासन करता है। जब तक पीड़ित वर्ग - हमारे मामले में सर्वहारा वर्ग - जब तक अपनी स्वतंत्रता के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, उस समय तक बहुमत में मौजूदा निज़ाम को ही एकमात्र सामाजिक व्यवस्था मानता रहेगा और राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला बना रहेगा, उसका अतिवाम पक्ष बना रहेगा। पर जिस हद तक वह अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होता जाता है, उसी के अनुसार वह वह स्वयं को अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता जाता है, और अपने प्रतिनिधियों को चुनता है, न कि पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को। इस प्रकार सार्विक मताधिकार मज़दूर वर्ग की परिपक्वता का पैमाना है। मौजूदा राज्य में वह इससे अधिक कुछ और नहीं हो सकता है और न कभी होगा; लेकिन यही काफ़ी है। उस दिन, जब सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर मज़दूरों के बीच उबाल का स्तर दिखाएगा, वे और पूँजीपति भी जान जाएँगे कि वे कहाँ खड़े हैं।"
सन 1902 में अपने प्रसिद्ध पर्चे 'क्या किया जाय' में लेनिन ने रेखांकित किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।' दुर्भाग्यवश, 95 साल पहले 1920 में ताशकंद में बैठकर, चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद की अपरिपक्व समझ के साथ, कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर, भारतीय मज़दूर आंदोलन को जिस दलदल में धकेल दिया था उससे वह आज तक नहीं निकल पाया है।
इतिहास गवाह है, कि जब-जब जन आंदोलन निर्णायक दौर में पहुँचने को हुए हैं, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने पैर पीछे खींचकर प्रतिक्रांतिकारी ताक़तों को शक्ति पहुँचायी है। अब तक कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व अपनी गैर-मार्क्सवादी समझ के कारण मज़दूर वर्ग को इतना जागरूक नहीं कर पाया है कि वह राजनैतिक पटल पर अपने आप को विकल्प के रूप में पेश कर सके। नई पीढ़ी को चाहिए कि वह लेनिन की नसीहत, ‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूर-वर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।’ को याद रखे और जहाँ भी जिस किसी भी पार्टी या मंच पर सक्रिय हो, मार्क्सवाद की सही समझ स्वयं हासिल करे तथा औरों को हासिल करने में मदद करे। परिपक्व होने पर मज़दूर वर्ग को स्वयं समझ आ जायेगा कि उसे क्या करना है।
नोएडा,
12 अक्टूबर 2015

Saturday 10 October 2015

मानव और मानव-समाज का द्वंद्व

मानव और मानव-समाज का द्वंद्व
(पिछले कुछ सालों से नई पीढ़ी में नये विकल्प के तलाश की छटपटाहट साफ़ देखी जा सकती है। विकल्प की तलाश में पूँजीवाद, समाजवाद, शोषण, समावेशी विकास, अतिरिक्त मूल्य जैसे शब्द बहस के बीच में आते रहते हैं पर उन्हें न कोई समझना चाहता है और न समझाना चाहता है। इन मूलभूत कोटियों को समझे बिना, न तो समस्या के कारणों को समझा जा सकता है और न समस्या का निदान किया जा सकता है। कुछ युवा साथियों के आग्रह पर यह लेख इस उद्देश्य से लिखा जा रहा है कि शायद धुँध साफ़ करने में कुछ मदद मिले। पाठकों की आलोचनात्मक प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा।)
'अंतर्वस्तु' (Content), किसी वस्तु का संपूर्ण अस्तित्व के रूप में गुण निर्धारित करती है, और 'अधिरचना' (Form) उस वस्तु को उसके परिवेश से अलग पहचान देती है। वस्तु का अपने परिवेश के साथ सूचना का आदान प्रदान अधिरचना के माध्यम से होता है, पर सूचना का उपयोग किस रूप में किया जायेगा इसका निर्धारण अंतर्वस्तु और अधिरचना अर्थात संपूर्ण वस्तु के हित के अनुसार अंतर्वस्तु के द्वारा किया जाता है। इसको इस प्रकार समझ सकते हैं कि अंतर्वस्तु और अधिरचना एक दूसरे को प्रभावित करते हैं अर्थात उनके बीच द्वंद्वात्मक संबंध होता है, और वस्तु और परिवेश एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, यह वस्तु का अपने परिवेश के साथ द्वंद्वात्मक संबंध होता है। यह प्रकृति की शाश्वत संबंध श्रंखला है अर्थात सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर और विशालतम से विशालतम स्तर पर हम यही संबंध पाते हैं।
मानव की अंतर्वस्तु है उसकी 'चेतना' (consciousness) अर्थात जैविक प्रक्रिया तथा अधिरचना है उसका 'अस्तित्व' (Being) अर्थात शरीर। शरीर का अस्तित्व भौतिक है इसलिए उसे समझ पाना आसान है पर चेतना, मानव मस्तिष्क तथा शरीर के अंदर होने वाली सभी प्रक्रियाओं का समुच्चय है, उसे केवल प्रज्ञा या तर्कशक्ति द्वारा ही समझा जा सकता है और इसीलिए उसको समझना इतना आसान नहीं है, पर प्रयास करने पर इतना कठिन भी नहीं है। चेतना तथा अस्तित्व का द्वंद्वात्मक संबंध इस रूप में है कि चेतना शरीर के अंगों को प्रभावित तथा नियंत्रित करती है और अस्तित्व बाहरी प्रकृति के साथ व्यवहार के जरिए आवश्यक जीवनदायक पदार्थ हासिल कर मानव के जीवन को सुनिश्चित करता है। बाहरी प्रकृति के साथ किये जाने वाले काम के दौरान बाहरी प्रकृति शरीर के अंगों तथा इंद्रियों के द्वारा, चेतना तथा अस्तित्व दोनों को प्रभावित करती है। जीवन से मरण तक इसी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के साथ मनुष्य की विकास प्रक्रिया चलती रहती है।
मानव मस्तिष्क अन्य जानवरों से एक और आयाम में पूरी तरह भिन्न है जिसके कारण मानवीय मस्तिष्क में होने वाली प्रक्रियाएँ अन्य जीवों में होने वाली अनैच्छिक मस्तिष्क प्रक्रिया से गुणात्मक रूप से भिन्न होती हैं। अन्य जानवर अपने वातावरण से जो पदार्थ और सूचना ग्रहण करते हैं उसको उसी रूप में इस्तेमाल कर पाते हैं जिस रूप में परिवेश उन्हें हासिल कराता है। पर मानव मस्तिष्क तर्कबुद्धि के आधार पर न केवल यह तय कर पाता है कि कौन सा पदार्थ या सूचना और किस रूप में,उन्हें हासिल करना है, बल्कि हासिल पदार्थ तथा सूचना को किस प्रकार इस्तेमाल करना है, यह भी तय कर पाता है। तर्कबुद्धि, हासिल सूचना के आधार पर न केवल एक बिल्कुल नई परिस्थिति की अमूर्त कल्पना कर सकती है, बल्कि शरीर की उत्पादन शक्ति के द्वारा उसके मूर्त रूप का निर्माण भी कर सकती है। भाषा, विज्ञान और उद्यम के द्वारा मानव ने सभ्यता के पिछले दस हज़ार सालों में इस पृथ्वी पर जो कुछ बदलाव किया है, उसकी न तो किसी और जीव द्वारा कल्पना की जा सकती थी और न ही किसी और जीव द्वारा उसे मूर्त रूप दिया जा सकता था। मानव और प्रकृति के बीच यही द्वंद्वात्मक संबंध है।
पर जिस क्षमता के आधार पर, मानव, सभ्यता के पिछले दस हज़ार साल में यह सब हासिल कर सका है, उस क्षमता को विकसित होने में पैंतीस लाख साल का लंबा समय लग गया था। मानव प्रजाति से संबंधित अल्पकालिक दस हज़ार साल में होने वाला विकास, चारों ओर आश्चर्य चकित कर देने वाली अनगिनत मानव निर्मित संरचनाओं के रूप में नजर आता है, पर पैंतीस लाख साल के लंबे अंतराल में ऐसा क्या कुछ हो रहा था जो नजर नहीं आता है। पैंतीस लाख के लंबे अंतराल में, भौतिक रूप से मानव की जैविक संरचना में वे बदलाव हो रहे थे जिन्होंने आगे जाकर, पृथ्वी पटल पर, मानव से एक पायदान ऊपर, एक नई जैविक संरचना के जन्म के लिए आधार प्रदान किया और जिस संरचना के बिना पिछले दस हज़ार साल में मानव प्रजाति द्वारा वह सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता था।
मानवीय संरचना में होने वाले इन बदलावों को हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं, अंगों तथा इंद्रियों से संबंधित और मस्तिष्क से संबंधित। अंगों तथा इंद्रियों की रचनाओं में होने वाले इन बदलावों के कारण मानव की अनेकों क्षमताएँ, अन्य जानवरों की क्षमताओं से गुणात्मक रूप से भिन्न हो गयी हैं। इन क्षमताओं में सीधा खड़ा होना, हाथ-पैर तथा उँगलियों की चपलता, सभी इंद्रियों की क्षमता का विस्तार, चेहरे की त्वचा तथा माँसपेशियों की तरह-तरह की भाव-भंगिमा दर्शाने की क्षमता, स्वर तंत्र की अनेकों प्रकार की स्प्ष्ट ध्वनियाँ उत्पन्न करने की क्षमता और हर तरह के शाकाहारी तथा मांसाहारी भोजनों को पचा सकने की क्षमता प्रमुख हैं।
स्नायविक कोशिकाओं की भिन्न रचना तथा मस्तिष्क के अंदर उनका विशिष्ट विन्यास, मनुष्य के मस्तिष्क के अंदर होने वाली प्रक्रियाओं को अन्य जीवों के मस्तिष्क के अंदर होने वाली प्रक्रियाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न बनाता है। मानसिक प्रक्रिया, मूलत:, स्नायविक कोशिकाओं के बीच विद्युत संकेतों तथा रासायनिक अणुओं के आदान-प्रदान के रूप में होने वाला, सूचना का आदान-प्रदान है। अनेकों संकेतों के क्लिष्ट संयोजन से सूचना का निर्माण, तथा अनेकों सूचनाओं के संयोजन से विचारों का निर्माण होता है। अपनी विशिष्ट संरचना के कारण मानव मस्तिष्क, गुणात्मक रूप से भिन्न तीन अवयवों के संयोजन के साथ काम करता है और इस संयोजित प्रक्रिया, जिसे बुद्धि कहा जाता है, की क्षमता में निरंतर वृद्धि होती रहती है। अन्य जानवरों में तो तीनों अवयव या तो अलग-अलग मौजूद नहीं होते हैं या उनकी क्षमता अत्याधिक निम्न स्तर पर होती है।
बुद्धि के तीन अवयव सजग बुद्धि, अनभिज्ञ बुद्धि तथा तर्कबुद्धि स्वतंत्र रूप से भी काम करते हैं और साथ-साथ सामूहिक रूप से भी। चेतना के एक आयाम के रूप में बुद्धि अधिरचना है तो उसके तीनों अवयव अंतर्वस्तु हैं। मनुष्य की संपूर्ण वैचारिक प्रक्रिया में तर्कबुद्धि नियंत्रक का काम करती है, अनभिज्ञ बुद्धि भंडारण या पूर्वाग्रह या संस्कार का काम करती है और सजग बुद्धि नवनिर्माण या कल्पना का काम करती है। पर इनके बीच इतनी स्पष्ट विभाजन रेखा भी नहीं होती है और भूमिका में बदलाव होता रहता है। मनुष्य की बुद्धि और चेतना का यही द्वंद्वात्मक संबंध है।
पूरी तरह विकसित शारीरिक तथा मानसिक संरचना के कारण मनुष्य को जो सबसे महत्वपूर्ण क्षमता हासिल हुई है वह है एक मस्तिष्क में मौजूद विचारों को अंगों तथा इंद्रियों द्वारा सटीक सूचना में परिवर्तित कर लेना और सूचना को इंद्रियों के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचा कर विचारों में परिवर्तित कर लेना। इस क्षमता के कारण एक व्यक्ति न केवल अपने शरीर के अंगों पर नियंत्रण कर सकता है बल्कि दूसरे शरीर के अंगों पर भी नियंत्रण कर सकता है। इस क्षमता का उच्चतम स्तर है भाषा। हज़ारों साल के अंतराल में जब यह क्षमता विकसित हो रही थी, विचारों के आदान-प्रदान के आधार पर एक और नई संरचना जन्म ले रही थी - समाज।
समाज एक जैविक संरचना है जिसका स्वरूप पूरी तरह वैचारिक है, जिसका अपना कोई भौतिक आधार नहीं होता है और जो हज़ारों लाखों मस्तिष्कों की वैचारिक प्रक्रिया का ही इस्तेमाल करती है, उन हज़ारों लाखों लोगों के अनजाने। समाज की अपनी स्वायत्त चेतना होती है जिस पर उन व्यक्तियों का व्यक्तिगत रूप से कोई नियंत्रण नहीं होता है जिनकी व्यक्तिगत चेतना का इस्तेमाल समाज करता है। इस कारण सामाजिक चेतना को व्यक्तिगत दृष्टि से देखना अवैज्ञानिक दृष्टिकोण है। व्यक्ति और समाज के द्वंद्वात्मक संबंध को समझे बिना, समाजवाद, पूँजीवाद, मूल्य, मुद्रा, जैसी कोटियों, जो पूरी तरह वैचारिक सामाजिक उत्पाद हैं, को समझना असंभव है।
 
सुरेश श्रीवास्तव
10 अक्टूबर, 2015