Sunday 27 December 2015

नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान यात्रा, वामपंथ की दुविधा

इस सप्ताह, एक ओर भाकपा देश भर में अपनी स्थापना के 90 वर्ष पूरे करने का जश्न मना रही है वहीं, माकपा कोलकाता में अपनी सांगठनिक आमसभा के जरिए आगे की रणनीति तय करने के लिए जुटी हुई है।
            भाकपा हर जगह अपने कार्यकर्ताओं को समझा रही है कि आरआरएस की स्थापना भी 1925 में ही हुई थी, पर वे आज राष्ट्र की बागडोर सम्हाले हुए हैं और वमपंथी हाशिए पर खिसकते जा रहे हैं, और इसी संदर्भ से नेतृत्त्व, कार्यकर्त्ताओं को आत्मालोचना करने का आह्वान कर रहा है। नीति निर्धारण का अधिकार नेतृत्त्व का, आत्मालोचना का दायित्व कार्यकर्त्ताओं पर, कुछ अजीब सा लगता है।
            माकपा लेनिनवादी सिद्धांत का हवाला देते हुए कहती है कि ठोस परिस्थितिओं में ठोस विश्लेषण द्वंद्वात्मकता का जीवंत सार है। यहां भी नौजवान ठोस विश्लेषण का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। पर कुछ हासिल होगा? शायद नहीं, क्योंकि यहां भी तो सांप्रदायिकता का मसला मुख्य है। आमसभा के लिए प्रमुख एजेंडा है, “मौजूदा सांप्रदायिक हमले का और राजनीतिक, विचारधारात्मक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक क्षेत्रों संबंधी उसके तमाम आयामों का मुकाबला करना होगा।” सीपीएम की दोयम दर्जे की प्राथमिकता में लोगों को बेहतर जीवन स्थितियां मुहैया कराने की वैकल्पिक नीतियां बनाना भी शामिल है। लेकिन नीतियां बनाने से पहले सैद्धांतिक समझ स्पष्ट होना जरूरी है, पर  ‘मानवीय पूंजी’ जैसी शब्दावली का प्रयोग दर्शाता है कि पार्टी सैद्धांतिक समझ विकसित करने में कितनी गंभीर है।
            पार्टी के नीति निर्धारकों का ‘मानवीय पूंजी’ से क्या तात्पर्य है, ये तो वे ही जानें। मार्क्स के विश्लेषण के अनुसार, संपत्ति संचित श्रम का निष्क्रिय रूप है जबकि पूंजी उसका सक्रिय रूप है। मार्क्स ने मूल्य की पहचान, उत्पाद में ‘सन्निहित संचित श्रम’ के रूप में की थी, और मुद्रा की पहचान मूल्य के मूर्त रूप की तरह की थी।
            जहां तक ठोस विश्लेषण की बात है तो सबसे जरूरी है भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र का विश्लेषण। जिस बात पर पचास साल पहले मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ था, उसका ठोस विश्लेषण आज तक नहीं किया गया है। अगर भारतीय राष्ट्र राज्य के चरित्र का सही-सही विश्लेषण कर दिया गया होता, तो आज जनता के बीच एक ही कम्युनिस्ट पार्टी होती न कि चालीस अलग अलग। मार्क्स ने समझाया था कि सामूहिक श्रमशक्ति, व्यक्तिगत श्रमशक्ति से गुणात्मक रूप से भिन्न और उन्नत होती है और इसी कारण से पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादकता, सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया की उत्पादकता से कहीं अधिक होती है तथा सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था का पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में संक्रमण अपरिहार्य है। लेनिन ने समझाया था कि मौजूदा व्यवस्था में, कृषि में पूँजी के निवेश को रोकना, तथा छोटे स्तर के उत्पादन का बड़े स्तर के उत्पादन के मुक़ाबले प्रतिस्पर्धा में टिके रहना असंभव है, इसलिये मार्क्सवादियों को चाहिए कि वे किसानों तथा मजदूरों को समझायें कि वे सर्वहारा दृष्टिकोण अपनायें। कृषि, उद्योग और व्यापार में भारी पूंजी निवेश की खिलाफत करना, भारतीय कम्युनिस्टों में मार्क्सवाद की अपरिपक्व समझ को दर्शाता है।          
            मार्क्स ने समझाया था कि हर वर्ग उत्पादन संबंधों के आधार पर राजनीति, धर्म से संबंधित विचारों का एक तिलिस्म खड़ा कर लेता है जो उससे पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है। पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां शायद मार्क्सवाद की और अनेकों अवधारणाओं की तरह इस अवधारणा से असहमत हैं और इसी कारण पिछले चालीस साल से उनकी राजनीति संघ परिवार के विरोध के इर्द गिर्द घूम रही है, यहां तक कि भाजपा को हराने के लिए वे खुले मंच से सांप्रदायिकता करने को ज्यादा खतरनाक होने की दलील के साथ, कांग्रेस तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार हो जाते हैं, इस स्वीकारोक्ति के बावजूद, कि समय समय पर कांग्रेस तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ भी सांप्रदायिकता का कार्ड खेलती रही हैं। और भाजपा के हारने के बाद कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक हो जाती हैं।
            नरेंद्र मोदी की अचानक पाकिस्तान यात्रा से मार्क्सवादी पार्टियां सन्निपात की अवस्था में हैं। न वे इस अचानक बदली हुई परिस्थिति के कारणों को समझ पा रही हैं और न सही-सही विश्लेषण कर पा रही हैं। नई पीढ़ी की छटपटाहट बढ़ती जा रही है, पर आत्ममुग्ध नेतृत्त्व अपने पूर्वाग्रहों से बाहर निकलने के लिए कहीं से भी तैयार नजर नहीं आता है।

सुरेश श्रीवास्तव
नोएडा
27 दिसम्बर, 2015

Tuesday 15 December 2015

तू ही राहबर, तू ही राहजन

तू ही राहबर, तू ही राहजन

               "श्रम आधारित मूल्य का सिद्धांत," प्रसिद्ध वामपंथी अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर पटनायक लिखते हैं, "मेरी राय में, मूल रूप से, एक तरफ़ मुद्रा के रूप में जिन्स, तथा दूसरी ओर मुद्रा के अलावा सामूहिक रूप से हर प्रकार की क्रय-विक्रय योग्य वस्तुओं, के बीच तुलनात्मक विनिमय अनुपात से संबंध रखता है"  ("The Labour Theory of Value, in my view, is concerned basically with the relative exchange ratio between the money commodity on the one hand and the world of non-money commodities, taken together, on the other hand." - A Restatement of the Labour Theory of Value, Prabhat Patnayak, Working Paper No. 2014/01, presented at CESP, JNU. ) जो कि मूल्य की पूरी तरह गैर-मार्क्सवादी समझ है। वे भी अन्य वामपंथियों की तरह मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम से पूरी तरह अनभिज्ञ, चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध को न समझ पाने के कारण, मार्क्सवाद की श्रम आधारित मूल्य की अवधारणा को न तो ख़ुद समझ पाते हैं और न दूसरों को समझा पाते हैं। उनकी मूल अवधारणा ही गलत है क्योंकि वे मुद्रा के आधार पर मूल्य को समझने का प्रयास करते हैं। अर्थव्यवस्था में उत्पादों के आदान-प्रदान में उनकी मात्रात्मक तुलना के लिए आवश्यक मानक के रूप में मुद्रा का चलन, सभ्यता के विकास के बहुत बाद के चरण में आया है।
            मार्क्स लिखते हैं, " इससे पहले कि मनुष्य उनके मतलब उजागर कर सके, उन विशेषताओं, जो उत्पादों को जिंस के रूप में पहचान दिलाती हैं और जिनका निर्धारण जिंस के व्यापार की अनिवार्य प्राथमिक शर्त है, ने सामाजिक जीवन की सुस्पष्ट प्राकृतिक संरचनाओं के रूप में पहचान पहले ही बना ली थी। मनुष्य को उन विशेषताओं के इतिहास में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि  उसकी नजरों में वे अपरिवर्तनीय हैं। इसके फलस्वरूप, वह केवल जिंस की क़ीमतों का विश्लेषण था जिसके आधार पर मूल्य के परिमाण का निर्धारण किया गया, और वह केवल सभी जिंसों की, मुद्रा में साधारण अभिव्यक्ति थी जिसके आधार पर  मूल्य को, उनके विशिष्ट गुण के रूप में मान्यता मिली। हालाँकि जिंसों की पूरी दुनिया में से, अंतत: यह मुद्रा स्वरूप ही है जो व्यक्तिगत श्रम के सामूहिक चरित्र तथा व्यक्तिगत उत्पादकों के बीच के सामाजिक संबंधों को, उजागर करने की जगह छुपाता है।" ("The characters  that  stamp  products  as  commodities,  and  whose  establishment  is  a  necessary preliminary  to  the  circulation  of  commodities,  have  already  acquired  the  stability  of  natural,  self understood  forms  of  social  life,  before  man  seeks  to  decipher,  not  their  historical  character,  for  in his  eyes  they  are  immutable,  but  their  meaning.  Consequently  it  was  the  analysis  of  the  prices  of commodities  that  alone  led  to  the  determination  of  the  magnitude  of  value,  and  it  was  the common  expression  of  all  commodities  in  money  that  alone  led  to  the  establishment  of  their characters  as  values.  It  is,  however,  just  this  ultimate  money  form  of  the  world  of  commodities that  actually  conceals,  instead  of  disclosing,  the  social  character  of  private  labour,  and  the  social relations  between  the  individual  producers.")
            उत्पादक श्रम क्या है? पूर्व निर्धारित उद्देश्य के साथ, मस्तिष्क के नियंत्रण द्वारा शरीर के अंगों के संचालन से प्राकृतिक रूप से हासिल पदार्थों में अपेक्षित परिवर्तन करना। बिल्कुल आदिम अवस्था में पदार्थों का उत्पादन स्वयं के व्यक्तिगत उपभोग के लिए किया जाता था पर समय के साथ श्रमिक की कुशलता तथा उत्पादकता बढ़ी और बढ़ते उत्पादन के साथ उत्पादों की विविधता भी बढ़ी। बढ़ती विविधता ने श्रम विभाजन को आधार प्रदान किया और बढ़ी हुई विविधता और उत्पादकता ने उत्पादन के उद्देश्य में नया आयाम जोड़ दिया। वस्तुओं का उत्पादन स्वयं के उपभोग के लिए न किया जाकर दूसरों के उपभोग और अदला-बदली के लिए किया जाने लगा।
            किन्हीं दो वस्तुओं की अदला-बदली में उनकी अदला-बदली की मात्रा का अनुपात निर्धारण करने के लिए आवश्यक है कि उन दोनों के अंदर, उनके अस्तित्व से संबद्ध, ऐसा कोई एक समान भौतिक गुण मौजूद हो जिसका परिमाण मापा जा सके तथा जिसके माप के आधार पर दोनों की अदला-बदली के लिए अनुपात निर्धारित किया जा सके। मानव द्वारा उत्पादित वस्तुएँ, मानव की किसी मांग की पूर्ति करती हैं और इसी में उनकी उपयोगिता है। हर उत्पाद की कोई न कोई उपयोगिता है और इसलिए उसका उपयोगी मूल्य भी है, पर अलग-अलग उत्पादों की उपयोगिता में एक समान ऐसा कोई प्रत्यक्ष गुण नहीं है जिसे मापा जा सके, और अलग-अलग प्रकार की वस्तुओं की उपयोगिता की मात्रात्मक तुलना उनकी अलग-अलग उपयोगिता के आधार पर भी नहीं की जा सकती थी, इसके बावजूद व्यावहारिक तौर पर अदला-बदली में वस्तुओं की मात्रा के बीच निश्चित अनुपात हमेशा से होता रहा है जिसके बिना विनिमय संभव नहीं है। पिछले ढाई हज़ार साल से चिंतकों के लिए यह समान भौतिक गुण, जिसका परिमाण मापा जा सके तथा जिसे विनिमय मूल्य कहा गया, एक पहेली बना हुआ था, कि नाना-नाना प्रकार की उपयोगी वस्तुएँ जिनके रूप या गुणों में कोई भी समानता नहीं थी, उनके आदान-प्रदान में उनकी मात्राओं का स्वत: निर्धारण जिस मूल्य के आधार पर होता है, उसका वास्तविक स्वरूप क्या है और वह उत्पादों में किस रूप में विद्यमान रहता है।
            मार्क्स समझाते हैं, कि महान दार्शनिक अरस्तू (अरिस्टोटल), जिन्होंने सबसे पहले, विचार, समाज, प्रकृति आदि संरचनाओं का विश्लेषण किया था, ने मूल्य का विश्लेषण करने का भी प्रयास किया था और कहा था, " समतुल्य (जिनकी आपस में तुलना की जा सके) के बिना विनिमय नहीं हो सकता है, और समतुल्य सम्मेय (एक ही मापदंड से मापा जा सकने वाला) के बिना नहीं हो सकता है।" यहाँ आ कर वे (अरस्तू) ठहर जाते हैं और आगे मूल्य का विश्लेषण इस प्रकार करते हैं, "लेकिन यथार्थ में यह असंभव है कि विभिन्न चीज़ें इस प्रकार सम्मेय हो सकें, अर्थात गुणात्मक रूप से एक सी हो सकें। इस तरह की बराबरी ऐसी किसी चीज में ही हो सकती है जो उनकी वास्तविक प्रकृति से पूरी तरह अलग हो, और परिणाम स्वरूप व्यावहारिक जरूरत पूरी करने के लिए ही एक कामचलाऊ व्यवस्था अस्तित्व में आई।"
            उत्पादों में विनिमय के लिए आवश्यक जिस सम्मेय गुण को पहचानने में चिंतक ढाई हज़ार साल तक असफल रहे, उसकी पहचान मार्क्स ने किसी भी उत्पाद को बनाने में लगनेवाले 'सामाजिक औसत, आधारभूत' आवश्यक उत्पादक श्रम के रूप में की है जो उत्पादन के दौरान उत्पाद में संचित श्रम के रूप में अंतर्निहित हो जाता है। जिस पहेली को सुलझाने में अन्य चिंतक असफल रहे, उसे मार्क्स, चेतना और अस्तित्व के बीच के संबंध तथा प्रकृति में द्वंद्वात्मक विकास की प्रक्रिया के बारे में, अपनी दार्शनिक समझ के कारण हल कर सके। मार्क्स समझाते हैं कि उत्पादक मानवीय श्रम के दो आयाम होते हैं, एक जो विनिमय मूल्य का आधार है दूसरा जो उपयोगी मूल्य का आधार है। मूल्य के इस गुण को समझने के लिए हमें यहाँ रुक कर प्रकृति के मूलभूत नियमों पर एक नजर डाल लेना ज़रूरी है।
            प्रकृति विज्ञान में पदार्थ की अनश्वरता का नियम (Conservation of mass) तथा उर्जा की अनश्वरता का नियम(Conservation of energy) निर्विवाद रूप से सिद्ध किये जा चुके हैं तथा यह भी सर्वमान्य है कि इस ब्रह्मांड में सारा पदार्थ सूक्ष्मतम कणों से बना है जो निरंतर गति में हैं। भौतिकी के अनुसार हर वस्तु अपनी स्थिर या गति की स्थिति में ही रहती है जब तक कि उस पर कोई बाहरी बल न लगे। वस्तु चाहे स्थिर हो या गति में हो उसके अंदर किसी न किसी प्रकार की ऊर्जा मौजूद  रहती है, और हर प्रकार की ऊर्जा मूलत: गतिमान पदार्थ है। गतिविहीन पदार्थ या ऊर्जा विहीन पदार्थ या पदार्थ विहीन उर्जा की कल्पना बेमानी है। जब किसी वस्तु की स्थिति को बदलने का प्रयास किया जाता है तो बदली जानेवाली वस्तु बदलाव का विरोध करती है और बदलने के लिए बल का प्रयोग करना पड़ता है। स्थिति के बदलाव की प्रक्रिया का कारक बाहरी बल ही है। बाहरी बल के बिना पदार्थ की स्थिति में बदलाव की कल्पना बेमानी है। बदलने की प्रक्रिया में कार्य होता है और बदलाव करने वाली वस्तु के अंदर की संचित ऊर्जा खर्च होती है, जो बदल रही वस्तु की ऊर्जा में जुड़ जाती है। बदलाव करनेवाली वस्तु की संचित ऊर्जा में कमी और उसके द्वारा किया गया कार्य दोनों बराबर होते हैं। सूक्ष्मतम कणों के रूप में निरंतर गतिशील पदार्थ और उनके आपसी अंतर्व्यवहार में एक दूसरे की गति को प्रभावित करते रहना ही प्रकृति का अंतिम सत्य है। मार्क्सवाद प्रकृति के इस यथार्थ को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के प्रथम सूत्र, विपर्यओं की एकता और संघर्ष (Unity and struggle of opposites), के रूप में परिभाषित करता है।
            छोटी छोटी चीजों के मिलने से बड़ी चीज का बनना या बड़ी चीज के बँटने पर छोटी छोटी चीजों का बनना प्रकृति के एक ही नियम के दो पहलू हैं। सूक्ष्मतम कणों से मिलकर परमाणु बनता है, परमाणुओं के मिलने से अणु और अणुओं से पिंड बनता है, और इसी प्रकार पिंड के बंटने से अणु तथा अणु के बँटने से परमाणु बनते हैं। छोटी चीजों के सीमित मात्रा में मिलने से बनी चीज के गुण वही रहते हैं जो उसको बनानेवाली चीजों के होते हैं, पर मात्रा बढ़ते जाने पर एक स्तर ऐसा आता है जब एक गुणात्मक रूप से भिन्न चीज अस्तित्व में आ जाती है। अवयवों के अपने गुण परोक्ष में चले जाते हैं और सामूहिक रूप से एक वस्तु के रूप में परिवेश के साथ व्यवहार में प्रत्यक्ष गुण, अवयवों के निजी गुणों से पूरी तरह भिन्न होते हैं और यही स्थिति बड़ी चीज के बँटने पर होती है। मार्क्सवाद प्रकृति के इस यथार्थ को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के द्वितीय सूत्र, मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन (Quantitative change leads to qualitative change) के रूप में परिभाषित करता है।
            पदार्थ निरंतर गति में है और इसीलिए प्रकृति में हर चीज, और हर परिस्थिति निरंतर, अनवरत बदल रही है। मात्रात्मक परिवर्तन, जिसमें चीज़ें अपने निजी गुणों के साथ नजर आती हैं, अंतत: गुणात्मक परिवर्तन का कारण बनता है और गुणात्मक रूप से भिन्न चीज़ें अस्तित्व में आती हैं। किसी भी चीज का अस्तित्व में आना गुणात्मक परिवर्तन है, जितने समय तक वह अस्तित्व में है, उसमें हो रहा परिवर्तन मात्रात्मक परिवर्तन होता है, और उसके अस्तित्व का मिटना या किसी अन्य रूप में परिवर्तित हो जाना गुणात्मक परिवर्तन है।
            कार्य = बल x विस्थापन दूरी तथा,  कार्य = ऊर्जा। कार्य तथा ऊर्जा समतुल्य हैं। कार्य सक्रिय अवस्था है जिसमें अंतर्निहित ऊर्जा एक वस्तु से दूसरी वस्तु में अंतरित होती है। बदलने की प्रक्रिया में संचित ऊर्जा कार्य में परिणित होती है और बदली हुई परिस्थिति में कार्य पुन: ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। ऊर्जा-कार्य-ऊर्जा एक पूरी प्रक्रिया है और कार्य करनेवाली वस्तु की उर्जा में जितनी कमी होती है, कार्य से प्रभावित होने वाली वस्तुओं की संचित उर्जा में उतनी ही बढोतरी होती है।  
            किसी भी चीज की कार्य करने की शक्ति उसकी काम कर सकने की दर होती है, अर्थात इकाई समय में काम कर सकने की क्षमता।
            P = W / T, जहाँ P शक्ति है, W किया गया कार्य है तथा T कार्य करने में लगाया गया समय।
            अर्थात W = P x T
            अगर शक्ति P नियत है तो W (किया गया कार्य), T (समय) के सीधे अनुपात में होगा।
            अगर थोड़ा थोड़ा कार्य, थोड़े-थोड़े समय में किया जाय तो कुल कार्य, कुल समय के अनुपात में होगा।
            अर्थात W=w1+w2+w3+…….= Pt1+Pt2+Pt3+……
              W = P(t1+t2+t3+………….) = T
            द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सही समझ विकसित कर लेने के बाद मार्क्स के लिए पहेली हल करना बड़ा आसान था। किसी भी उपयोगी वस्तु के उत्पादन में लगा हुआ कुल विशिष्ट श्रम ही उसे वह विशिष्टता प्रदान करता है, जो उसे उपयोगी मूल्य प्रदान करती है। पर कोई भी विशिष्ट उत्पाद है तो छोटे-छोटे साधारण बदलावों का कुल जोड़, और छोटे-छोटे बदलाव अपने आप में छोटे-छोटे साधारण कार्य ही हैं जिनमें आपस में कोई गुणात्मक भेद नहीं है। इस प्रकार कोई भी विशिष्ट श्रम भी, छोटे-छोटे श्रम कार्यों का ही जोड़ है जिनमें आपस में कोई भेद नहीं है।
            इस प्रकार अलग-अलग उत्पादों का उपयोगी-मूल्य उनमें अंतर्निहित उस कुशल-श्रम के कारण होता है जो अन्य श्रमों से गुणात्मक रूप से भिन्न है, और इसी कारण उपयोगी मूल्य सम्मेय नहीं हैं। पर किसी भी उत्पाद को बनाने में लगने वाले समय के रूप में, उत्पाद में लगा हुआ श्रमकाल उस साधारण श्रम को प्रदर्शित करता है जो सम्मेय है। इस कारण, गुणात्मक रूप से भिन्न उत्पादों की तुलना भी उनमें लगे श्रमकाल के आधार पर की जा सकती है। मानवीय श्रम की यह विशेषता जो छोटे-छोटे साधारण औसत श्रमकाल को, गुणात्मक रूप से भिन्न विशिष्ट-श्रमकाल में परिवर्तित करती है, उसी द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियम के अनुरूप है जिसे मार्क्स से पहले के चिंतक पहचानने में असफल रहे, और जिसे आज के चिंतक, जो मार्क्सवाद के निरंतर विकसित होते रहने के दावे के साथ मार्क्सवाद में संशोधन करने में जुटे हुए हैं, भी समझ पाने में अससमर्थ हैं।
            जिन लोगों को मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ नहीं है उनके लिए चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध को समझ पाना संभव नहीं है। और इसीलिए उनके लिए यह समझ पाना भी असंभव है कि जिस सम्मेय तत्व और नियम के आधार पर उपभोक्ता और उत्पादक अपने-अपने उत्पादों की अदला-बदली विनिमय के रूप में सहज ही करने लगे थे, उसको मार्क्स से पहले के चिंतक क्यों नहीं समझ पाये थे।        
            शुरुआती चरण में उत्पादों का आदान प्रदान, उपयोग आधारित वस्तुओं की अदला-बदली के रूप में ही होता था और अदला-बदली की जाने वाली वस्तुओं के उत्पादकों की रुचि अपने-अपने उत्पाद में न होकर, उपभोक्ता के रूप में हासिल की जाने वाली वस्तु की उपयोगिता में होती थी, पर दोनों उत्पादक, उपभोक्ता के रूप में सीधे एक दूसरे के संपर्क में होते थे इस कारण आदान-प्रदान के दौरान समरूप-मूल्य उत्पादकों की सजग चेतना में प्रकट ही नहीं होता था और वस्तुओं के आदान-प्रदान में उनकी तुलनात्मक मात्रा स्वत: ही, उनकी उपयोगिता के समतुल्य अंतर्निहित मूल्य के आधार पर हो जाती थी, अमूर्त मूल्य जिसके आधार पर विनिमय के दौरान उत्पादों की मात्रा निर्धारित होती थी न लोगों के संज्ञान में होता था और न ही उसके नापने के लिए किसी मानक की ज़रूरत होती थी।   
            सामाजिक विकास के उस स्तर पर पहुँचने के बाद, जहाँ उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादकता इतनी विकसित हो गईं कि भौगोलिक व्यापकता तथा उत्पादों की बहुलता के कारण उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच सीधा संपर्क संभव नहीं रह गया था, उत्पादों की अदला-बदली का स्थान उत्पादों के विनिमय ने ले लिया और उत्पादन करने में उत्पादक का उद्देश्य भी बदल गया। उत्पादक को न तो अपने उत्पाद का स्वयं उपभोग करना होता था और न ही उसे उस उपभोक्ता का पता होता था जो उसके उत्पाद का उपभोग करेगा। अब उत्पादक का उद्देश्य हो गया था, पूरी कुशलता तथा क्षमता के साथ उत्पादन करना ताकि अपने उत्पाद के बदले, उन विविध उत्पादों को हासिल किया जा सके जिनकी उसे स्वयं जरूरत थी। पर उत्पादकों  को अपेक्षित सभी उत्पाद एक ही समय पर एक ही जगह हासिल न हो सकने के कारण अब एक ऐसे उत्पाद की जरूरत थी जिसकी उत्पादक को जरूरत न हो पर जिसका जरूरत पड़ने पर वांछित उत्पाद के साथ विनिमय किया जा सके। और ऐसे सर्वमान्य उत्पाद की भूमिका खाद्यान्न तथा मवेशी निभाने लगे। यहाँ आकर उत्पाद, जिंस में परिवर्तित हो जाता है।
            उत्पाद तथा जिंस में क्या फर्क है ये समझना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि आम तौर पर, भाववादी चिंतन के कारण लोग भौतिक चीजों के मूर्त रूप को किसी अमूर्त विचार के साथ जोड़ कर नहीं देख पाते हैं। उनके लिए चेतना तथा अस्तित्व पूरी तरह असंबद्ध चीज़ें हैं। पैदा की गयी वस्तु के आकार, रंग-रूप में किसी भी परिवर्तन के न होने के बावजूद, एक ही वस्तु एक ही समय पर दो अलग अलग वस्तुएँ कैसे हो सकती है? क्या किसी वस्तु को उत्पाद की जगह जिंस कहने से वस्तु का चरित्र बदल जाता है? नहीं वस्तु की संरचना और प्रकृति तो वही रहती है पर, मानव मस्तिष्क में उसका प्रतिबिंब व्यक्ति की मन:स्थिति पर निर्भर होने के कारण, एक ही वस्तु को एक ही समय पर अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग रूप में देख सकते हैं, और एक ही व्यक्ति एक ही वस्तु को अलग-अलग समय पर अलग-अलग रूप में देख सकता है। विनिमय की प्रक्रिया में एक ही समय पर दो अलग-अलग व्यक्ति और दो अलग-अलग उत्पाद हिस्सा ले रहे होते हैं।
            विनिमय के उद्देश्य से पैदा की गयी वस्तु में उत्पादक, किसी विशिष्ट उपभोक्ता की आवश्यकता न देखते हुए केवल अपने द्वारा किये गये साधारण संचित श्रम को देखता है। इसके विपरीत विनिमय के दौरान हासिल की जाने वाली वस्तु में वह स्वयं की किसी मांग को संतुष्ट कर सकने वाले विशिष्ट श्रम को देखता है। भौगोलिक व्यापकता तथा उत्पादों की बहुलता के कारण उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच बिचौलिये के रूप में एक नया व्यक्ति आ गया जिसकी रुचि किसी उत्पाद में न होकर विनिमय प्रक्रिया के दौरान कमाये जा सकने वाले मुनाफ़े में होती है।
            सामाजिक विकास के उस स्तर पर पहुँचने के बाद, जहाँ उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादकता इतनी विकसित हो गईं कि भौगोलिक व्यापकता तथा उत्पादों की बहुलता के कारण उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच सीधा संपर्क संभव नहीं रह गया था, उत्पादों की अदला-बदली का स्थान उत्पादों के विनिमय ने ले लिया और उत्पादक तथा उपभोक्ता के बीच, बिचौलिये के रूप में एक नया व्यक्ति आ गया जिसकी रुचि किसी उत्पाद में न होकर, उस अतिरिक्त मूल्य में होती है जो हर विनिमय में उत्पादक तथा उपभोक्ता के, किसी उत्पाद के मूल्य के अपने-अपने आंकलन में होने वाले अंतर के कारण, प्रकट होता है, और जिसे बिचौलिया ख़रीदने-बेचने की प्रक्रिया के दौरान हासिल कर सकता है। किसी उत्पाद के मूल्य के दोहरे आंकलन का कारण है उसमें लगने वाले श्रम का दोहरा स्वरूप। चूंकि विनिमय में बिचौलिये की रुचि किसी भी उत्पाद में न होकर, विनिमय प्रक्रिया के दौरान प्रकट होने वाले अतिरिक्त मूल्य में होती है, इस कारण विनिमय के दौरान मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने के लिए ऐसे उत्पाद की आवश्यकता थी जो मूर्त रूप में मूल्य का पर्याय बन सके। अपने प्राकृतिक गुणों के कारण सोने चाँदी जैसी कीमती धातुओं ने सभी उत्पादों में अंतर्निहित विनिमय-मूल्य के मूर्त रूप का प्रतिनिधित्व करने की भूमिका हासिल कर ली। क्योंकि मूल्य की तुलना मूल्य से ही की जा सकती है इस कारण सोने या चांदी की एक निश्चित मात्रा के अंदर अंतर्निहित मूल्य को, मूल्य की इकाई मान लिया गया व सोने या चाँदी की निश्चित मात्रा को मूल्य का मानक मान लिया गया, और विनिमय को सुविधाजनक बनाने के लिए बहुमूल्य धातुओं की निश्चित वज़न के सिक्के ढाल दिये गये। इन सिक्कों के बदले में उत्पादक, बिचौलिया और उपभोक्ता अपनी सुविधा के अनुसार कभी भी किसी भी उत्पाद को हासिल कर सकते थे और सिक्के में अंतर्निहित धातु का मूल्य सभी उत्पादों के मूल्य का पर्याय बन गया। इस प्रकार, एक अमूर्त अस्तित्व - मूल्य - का रूपांतरण, मूर्त अस्तित्व - धातु के सिक्कों - के रूप में हो गया।
             कालांतर में व्यापार के विस्तार के साथ बहुमूल्य धातु के  सिक्कों के उपयोग में व्यवहारिक कठिनाइयाँ आने लगीं। अलग-अलग जगह अलग-लग समय पर पैदा की जाने के कारण धातुओं का स्वयं का मूल्य स्थिर नहीं रहता था तथा समय के साथ होने वाले घिसावट के कारण सिक्कों में मौजूद धातु की मात्रा घटती जाती थी। इस समस्या से निबटने के लिए व्यावहारिक रूप में बहुमूल्य धातु की निश्चित मात्रा के आधार पर ढाले गये सिक्कों का स्थान, राजसत्ता द्वारा सत्यापित मनी या करेंसी ने ले लिया जिनका घोषित मूल्य उनके अपने उत्पादन मूल्य से पूरी तरह असंबद्ध था। उन पर सत्यापन के रूप में राजमुद्रा अंकित होने के कारण उन्हें मुद्रा कहा जाने लगा। किसी उपभोक्ता के हाथ में बहुमूल्य धातु के सिक्कों के नष्ट होने के बाद या किसी कारण से दूसरे के द्वारा स्वीकार न किये जाने की स्थिति में भी, उसमें मौजूद बराबर मूल्य की धातु मौजूद होने के कारण उपभोक्ता अपना मूल्य नहीं खोता था पर इसके उलट मुद्रा से विनिमय के अलावा किसी और रूप में मूल्य हासिल न होने के कारण मुद्रा सामाजिक चेतना में आसानी से स्वीकार्य नहीं हो पा रही थी। मुद्रा को पूरी तरह स्वीकार्य बनाने के लिए राजसत्ता को हस्तक्षेप करना पड़ा और मुद्रा को स्वीकार करने से इनकार करने को दंडनीय अपराध बना दिया गया। धीरे-धीरे राजसत्ता समर्थित आश्वासन, मूल्य का पर्याय हो गया। अमूर्त मूल्य ने, धातु के सिक्कों के रूप में अपना मूर्त रूप छोड़ कर, पुन: राजसत्ता समर्थित आश्वासन के साथ मुद्रा के रूप में अमूर्त रूप धारण कर लिया। अब मुद्रा या मनी ही मूल्य का पर्याय हो गया। मुद्रा या मनी के, सामाजिक चेतना में घर कर लेने के बाद उत्पादों के विनिमय में उनकी मात्रा का अनुपातिक निर्धारण मूल्य की जगह मुद्रा के आधार पर होने लगा। मुद्रा के मानक के आधार पर व्यक्त की गयी क़ीमत ही सामाजिक चेतना में मूल्य मानी जाने लगी। मुद्रा और क़ीमत के पूरी तरह सामाजिक अवचेतना में घर कर जाने के बाद  बैंकों तथा महाजनों के करारपत्रों का वही स्थान हो गया जो राजसत्ता के आश्वासनों का मुद्रा को स्वीकार्य बनाने में था। अर्थव्यवस्था के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पा लेने के बाद तथा बैंकों के करारपत्रों की स्वीकार्यता के बाद, अलग-अलग राष्ट्रों की मुद्रा स्वयं विनिमय उत्पाद में परिवर्तित हो गयी है।
            अपनी संशोधनवादी समझ के कारण, स्वघोषित-मार्क्सवादी न तो स्वयं अतिरिक्त मूल्य उत्पादन की प्रक्रिया को समझ पाते हैं, न कामगार को समझा पाते हैं कि व्यक्तिगत रूप में श्रम का उचित विनिमय मूल्य चुका दिये जाने के बाद भी मौजूदा व्यवस्था कामगार का सामूहिक शोषण किस प्रकार करती है। और जब तक कामगार को यह नहीं समझ आता है तब तक वह इसी व्यवस्था को सही व्यवस्था समझता रहेगा और इसी व्यवस्था के नियंत्रकों को ही अपने मुक्तिदाता के रूप में देखता रहेगा।

सुरेश श्रीवास्तव
16 दिसम्बर, 2015
 (यह लेख ,जिसने मुझे मार्क्सवाद को समझने में मेरी मदद की, उसकी तीसरी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजली)


Monday 30 November 2015

लेनिन के संदर्भ से - कुछ प्रश्नोत्तर

प्रिय साथी,
'साम्राज्यवाद : पूँजी की चरम अवस्था' के फ़्रेंच तथा जर्मन संस्करण की प्रस्तावना में लेनिन लिखते हैं, "सामाजिक जीवन की घटनाओं की अत्याधिक क्लिष्ट प्रक्रिया को देखते हुए, जितने चाहो उतने उदाहरण और अलग-अलग तथ्य, सुविधानुसार चुन कर किसी भी अवधारणा को सिद्ध किया जा सकता है।" उसी में अंत में वे लिखते हैं, "जब तक इस घटना के आर्थिक मूलाधार को नहीं समझ लिया जाता है और उसके राजनैतिक और सामाजिक अभिप्रायों पर ग़ौर नहीं किया जाता है, तब तक कम्युनिस्ट आंदोलन और आने वाली सामाजिक क्रांति की समस्याओं के समाधान के लिए एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है।"
मूल्य, मुद्रा, पूँजी, समाजवाद, पूँजीवाद, सामंतवाद आदि जैसी श्रेणियों की आधारभूत समझ के बारे में, आपके और मेरे बीच गहरे मतभेद हैं, और उनके समाधान के बिना हम तू-तू मैं-मैं ही उलझे रहेंगे और कहीं नहीं पहुँचेंगे। आप और मैं, मूल रूप से भौतिकवादी हैं, तार्किक विमर्श पर भरोसा करते हैं और सामाजिक क्रांति में ईमानदारी से अपना दायित्व निभाना चाहते हैं, इसलिए मुझे विश्वास है कि अगर हम मूल चीजों पर सहमति हासिल कर लेते हैं तो हम सभी चीजों की सही सही समझ हासिल कर लेंगे। उत्कर्ष ने सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप विशेष रूप से मूल चीजों पर, विमर्श द्वारा समझ हासिल करने के उद्देश्य से ही बनाया है, इसलिए मैं चाहूँगा कि हम इस विषय पर आगे विमर्श उसी ग्रुप पर करें।
मूल विमर्श पर जाने से पहले, मुझे तथा सभी साथियों को लेनिन की पुस्तक पढ़ने के लिए दी गयी आपकी नसीहत के संदर्भ से, आपके द्वारा उठाये गये प्रश्नों पर, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देना चाहूंगा।
आपने लिखा है कि ' लेनिन के अनुसार पूँजीवादी साम्राज्यवाद 20वीं सदी के आरंभ में ही क़ायम हुआ है।" पर छठवें अध्याय - बड़ी शक्तियों के बीच दुनिया का बँटवारा, में लेनिन लिखते हैं, " ग्रेट ब्रिटेन के लिए अत्याधिक विस्तार के लिए उपनिवेशों पर विजय का दौर 1860 और 1880 के बीच था। इससे पहले आपने लिखा है, "लेनिन ने साम्राज्यवाद वाली चरम अवस्था का सिद्धांत दिया था।" लेनिन पहले ही अध्याय में लिखते हैं," ..... मार्क्स, जिन्होंने पूंजीवाद के सैद्धांतिक तथा ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर सिद्ध किया था कि स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा, उत्पादन के केंद्रीकरण को बढ़ावा देती है जो आगे चल कर विकास के एक स्तर पर, एकाधिकार में परिवर्तित हो जाती है।"
आपने लिखा है, 'पूँजीवाद से पहले के उत्पादन से पूँजी उत्पन्न नहीं होती थी', पर आप यह नहीं बताते हैं कि उस समय पूँजी कैसे पैदा होती थी। जब तक आप मूल्य, मुद्रा और पूँजी के चरित्र और उनके बीच के अंतर को ठीक से नहीं समझेंगे तब तक आप यह पहेली हल नहीं कर पायेंगे।'
आपने लिखा है, 'पूँजीवादी साम्राज्यवाद की ख़ासियत होती है मुक्त प्रतिस्पर्धा के स्थान पर इजारेदारियां स्थापित होना व वित्तीय पूँजी का आविर्भाव।' पूँजी ख़रीद-बिक्री की प्रक्रिया के दौरान अतिरिक्त मूल्य हासिल कर अपना विस्तार करती है। जब से मुद्रा अस्तित्व में आई है, इसे मूल रूप में M-->C-->M+m के जरिए दर्शाया जाता है, जो कि वाणिज्यिक पूंजी का रूप है। साहूकारों तथा बैंकों के अस्तित्व में आने के साथ ही पूंजी के स्वविकास की प्रक्रिया M-->M+m हो गई जो कि वित्तीय पूँजी का स्वरूप है जिसके आविर्भाव का इजारेदारी से कोई लेना देना नहीं है। जब पूँजी देश की सीमाओं को लाँघ जाती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी कहने लगते हैं। पूँजी के रूप बदलते रह सकते हैं जिन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जा सकता है, पर उसकी अंतर्वस्तु वही रहती है, अतिरिक्त मूल्य को क़ब्ज़ा कर अपना विस्तार करना।
इस बहस को मैं यहीं विराम देता हूँ और आपसे आग्रह करता हूँ कि सोसायटी फ़ॉर साइंस ग्रुप पर, चेतना और अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध पर होने वाले विमर्श में योगदान दें जो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी को समझने की पहली पायदान है। उस विमर्श से औरों के साथ-साथ मुझे और आपको भी फ़ायदा होगा।
सुरेश श्रीवास्तव
30 नवंबर, 2015
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Saturday 14 November 2015

सर्वहारा तो संघर्ष में कहीं है ही नहीं।

व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम द्वारा जीवन के साधन पैदा करना, मानव और समाज का आधार है।
चीजों का उत्पादन विनिमय के लिए करना, वर्ग विभाजित समाज का आधार है।
श्रम के औजारों का निजीकरण, सामंतवादी उत्पादन प्रक्रिया का आधार है।
श्रम के औजारों का सामूहीकरण, पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का आधार है।
चीजों के उत्पादन तथा वितरण पर निजी नियंत्रण, शोषण व्यवस्था का आधार है।
हर वर्ग, उत्पादन व्यवस्था के भौतिक आधार पर, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक विचारों का तिलस्मी ढाँचा खड़ा कर लेता है जो उसके उत्पादन संबंधों से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है।
अनेकों ईश्वरों और अनेकों प्रकार के श्रम के आधार पर धार्मिक और जातीय विभाजन का तिलस्म सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था की देन है।
एक ईश्वर और एक श्रम के आधार पर समानता का तिलस्म पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की देन है।
राजसत्ता, संघर्षरत वर्गों के बीच संतुलन और शांति बनाये रखने के लिए, समाज के अंदर से पैदा समूह है जो वर्गों से असंबद्ध नजर आता है पर वास्तव में शक्तिशाली वर्ग के साथ ही खड़ा होता है।
निम्न मध्यवर्गीय, अपनी स्थिति और अपने हितों के कारण आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग का पिछलग्गू होता है और साथ ही वर्ग संघर्ष में कमजोर वर्ग के साथ एकजुट हो जाता है, और यही उसका अंतर्विरोध है।
भारत में मुख्य संघर्ष, फ़िलहाल, सामंतवादी और पूँजीवादी ताक़तों के बीच है। केंद्र में राजसत्ता पर क़ाबिज़ पार्टी अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पूँजी के एकीकरण में पूँजीवाद की पैरोकार है, तो जाति और भाषा के आधार पर खड़ीं व्यक्तिवादी पार्टियाँ सामंतवाद की पैरोकार हैं। निम्न मध्यवर्गीय अपने चरित्र के अनुसार सांप्रदायिकता, असहिष्णुता, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी आदि के ख़िलाफ़ लड़ाई के नाम पर सामंतवाद को ताक़त दे रहा है। और सिद्धांत की ताक़त से महरूम सर्वहारा तो संघर्ष में कहीं है ही नहीं।

Thursday 12 November 2015

नौजवानों के नाम - मार्क्सवाद को कैसे समझें

नौजवानों के नाम - मार्क्सवाद को कैसे समझें

सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय होने के बाद, पिछले कुछ दिनों में अनेकों पोस्ट पढ़ने को मिले जिनमें नौजवानों की हताशा साफ़ झलकती है, और इनमें एक तबक़ा ऐसा भी है जिसमें कुछ कर सकने की छटपटाहट भी है, और जो सहजबोध से, मंज़िल के रूप में समाजवाद या साम्यवाद जैसी किसी चीज से अभिभूत भी है। पर वह जिस दिशा में देखता है उस दिशा में ही समाजवाद की तख़्ती लगी नजर आती है, और जितनी तख़्तियाँ उतने ही मार्गदर्शक अपनी-अपनी मशाल तथा अपने-अपने दावे के साथ, कि उनके पास मार्क्सवाद नाम की सही मशाल है और उनके पीछे आँख बंद कर चलने से ही मंज़िल पर पहुँचा जा सकता है। उत्कर्ष नाम के एक नौजवान साथी ने, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग ऐसे ही नौजवानों के बीच विमर्श के लिए, व्हाट्सएप पर सोसायटी फ़ॉर साइंस के नाम से एक ग्रुप बनाया है। इस ग्रुप पर ज्वलंत प्रश्न है कि मार्क्सवाद को कैसे समझा जाय और उसे समझने के लिए कौन सी पुस्तकें पढ़ी जायें। मार्क्सवाद को, विचारधारा के रूप में विश्व की सामाजिक चेतना में व्याप्त हुए, 150 साल हो चुके हैं और दुनिया भर में अनेकों भाषाओं में सैकड़ों लेखकों ने अपने-अपने नज़रिए से मार्क्सवाद के अलग-अलग आयामों की व्याख्या की है। पर, उत्कर्ष और उनके साथियों के ज्वलंत प्रश्नों का एक जगह सही-सही उत्तर देने वाली कोई पुस्तक मेरी नजर में तो नहीं है, मॉरिस कॉर्नफोर्थ, एमिल बर्न्स, कार्ल कोर्श या डॉग लोरीमर की भी नहीं। किसी ने सुझाव दिया कि मार्क्स, एंगेल्स तथा लेनिन की सभी पुस्तकों को मूल में पढ़ना कारगर हो सकता है, पर यह न किसी के लिए संभव है और न ही व्यावहारिक है। भारतवर्ष में और ख़ासतौर से हिंदी में न तो इस ज्वलंत प्रश्न पर ऐसी कोई भी पुस्तक है और न इस दिशा में वामपंथी अग्रणियों ने कोई भी प्रयास किया है। भारत में वामपंथी आंदोलन में 90 साल का ठहराव इस बात की तसदीक़ करता है।
मार्क्सवाद को समझने में आनेवाली सबसे बड़ी अड़चन, समझने वाला स्वयं है। इस पृथ्वी पर मानव ही एक ऐसा जीव है जिसे प्रकृति ने तर्कबुद्धि की क्षमता प्रदान की है जिसके द्वारा वह प्रकृति के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को भेदने में और सत्य को उजागर करने में सक्षम है। पर जब तक उसकी तर्कबुद्धि विकसित होती है उससे पहले उसकी बुद्धि अनेकों पूर्वाग्रहों की गिरफ़्त में आ चुकी होती है। सबसे बड़ा पूर्वाग्रह उसकी अपनी चेतना और उसके अपने शरीर के संबंध के बारे में है। अपने चारों ओर, सभी जीवों की भाँति आदमियों को पैदा होते और मरते देख कर, युवावस्था आते-आते वह अपनी स्वयं की मृत्यु की अनिवार्यता को भी स्वीकार कर लेता है। पर शैशवकाल में, अन्य पशुओं की तरह विकसित प्राकृतिक सहज ज्ञान के कारण, वह अनजाने ही मृत्यु से डरने लगता है और वयस्क होते-होते अपने शारीरिक अस्तित्व के समाप्त होने के बाद भी अपने चेतन अस्तित्व के नष्ट न होने की तीव्र आकांक्षा के कारण अपने अमरत्व की भ्रांति को यथार्थ के रूप में स्वीकार कर लेता है और इस पूर्वाग्रह से छुटकारा पाना उसके लिए लगभग असंभव हो जाता है।
अपने इस पूर्वाग्रह के कारण व्यक्ति चेतना और अस्तित्व के प्राकृतिक द्वंद्वात्मक संबंध को पूरी तरह उलट देता है, न केवल अपनी स्वयं की पड़ताल के संबंध में बल्कि संपूर्ण प्रकृति की पड़ताल के संबंध में भी। गलत आधार पर विकसित ज्ञान भी गलत ही होता जाता है। प्रकृति और मानव समाज में होने वाली सभी प्रक्रियाओं और बदलावों की सही-सही समझ तथा उनमें सफलतापूर्वक सार्थक हस्तक्षेप कर सकने की स्थिति में होने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य की तर्कबुद्धि पूरी तरह पूर्वाग्रहों से मुक्त हो। व्यक्ति की चेतना और शरीर दोनों ही निरंतर परिवेश से प्रभावित होते रहते और बदलते रहते हैं। तर्कबुद्धि चेतना का ही एक भाग इसलिेए न केवल चेतना और अस्तित्व की सही-सही समझ आवश्यक है बल्कि आवश्यक यह भी है कि परिवेश को भी अनुकूल रखा जाय जो कि निरंतर सामूहिक विमर्श के द्वारा ही संभव है।
भौतिक जगत और उसके साथ मानव के अस्तित्व (शरीर) की पड़ताल वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर, और उसके बारे में ज्ञान, पारंपरिक तौर पर, प्रकृति विज्ञान के रूप में विकसित हुआ है। वैचारिक जगत और उसके साथ मानव की चेतना की पड़ताल तर्कबुद्धि के आधार पर और उसके बारे में ज्ञान, दर्शन शास्त्र के रूप में विकसित हुआ है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक पूर्वाग्रहों के कारण दर्शन में वैज्ञानिक पद्धति अपनाना तब तक संभव नहीं था जब तक सामाजिक परिस्थितियों ने उसके लिए उपयुक्त वातावरण पैदा नहीं कर दिया। और वह वातावरण पैदा किया पूँजी ने, उन्नीसवीं सदी में वैश्विक पूँजी के रूप में अपनी उच्चतम अवस्था में पहुँच जाने पर जिसने मानव की चेतना तथा अस्तित्व के संबंध के बारे में व्याप्त भ्रमों तथा पूर्वाग्रहों के अंत को अपरिहार्य बना दिया था। और यह काम पूरा हुआ मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा - दर्शन को विज्ञान के दायरे के बाहर से खींच कर विज्ञान के दायरे में लाकर।  
सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग नौजवानों से मेरा आग्रह है कि वे समाजवादी क्रांति के लिए जल्दबाज़ी न करें। विकास की दिशा और रफ़्तार के प्रकृति के अपने नियम हैं, मनुष्य उसकी रफ़्तार को कम या ज्यादा करने के लिए सीमित सार्थक हस्तक्षेप तो कर सकता है पर अपनी इच्छा उन पर नहीं थोप सकता है। अपने स्वयं के ज्ञान के विकास के लिए आवश्यक है कि वे पहले अपने आप को, चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में, अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त करें। इसके लिए मेरा सुझाव है कि वे मार्क्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'जर्मन आइडियोलाजी की एक विवेचना' और एंगेल्स की महत्वपूर्ण पुस्तक 'लुडविष फॉयरबाख तथा क्लासिकल जर्मन दर्शन का अंत' पढ़ें तथा आपस में विमर्श करें ताकि चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध के बारे में उनकी समझ पुख्ता हो सके।
अगला क़दम उसके बाद।
शुभकामनाओं के साथ

सुरेश श्रीवास्तव
12 नवंबर, 2015
          

Saturday 17 October 2015

संगठित हमलों का व्यक्तिगत प्रतिरोध ?!

राजग-2 की मुख्य भागीदार भाजपा के सहयोगी हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी और धार्मिक सहिष्णुता पर किये जा रहे हमलों को रोकने में मोदी सरकार की नाकामी के विरोध में, प्रतीकात्मक विरोधस्वरूप कई प्रगतिशील वामपंथी रचनाकर्मियों द्वारा अपने पुरस्कार लौटाये जा रहे हैं। संगठित हमलों का व्यक्तिगत प्रतिरोध ?!
दस साल में नौजवानों की एक नई पीढ़ी तैयार हो जाती है। यूपीए-1 तथा यूपीए-2 के दस सालों के दौरान, जब नयी पीढ़ी तैयार हो रही थी, जिसने वापस भाजपा के हाथों में सत्ता सौंपी है, उस समय हम बुद्धिजीवी रचनाकर्मी क्या कर रहे थे? क्या पिछले दस साल हम, शोषितों के लिए आभासी दुनिया के झुनझुने बजाकर, मध्यवर्गीय बौद्धिक श्रमजीवियों के लिए मनोविनोद तथा आत्मतुष्टि के साधन नहीं पैदा कर रहे थे, और क्या मुआवज़े (मज़दूरी) के तौर पर अपनी व्यक्तिगत संपन्नता तथा विलासिता के साधन और पुरस्कार नहीं बटोर रहे थे? मनोरंजन की क़ीमत चुका रहा था शारीरिक तथा बौद्धिक कामगार, और मज़दूरी चुका रहा था शोषक वर्ग, तो ज़ाहिर है मुनाफ़े का हक़दार भी शोषक वर्ग ही होगा। आज का नौनिहाल, जिसमें से अगले दस साल में नई पीढ़ी तैयार होनी है, हम से सवाल पूछ रहा है कि आगे का रास्ता क्या है? संगठित सत्ता का प्रतिरोध अस्मिता की राजनीति के रूप में विखंडित प्रतिरोध द्वारा कैसे होगा?
रास्ता तो 175 साल पहले कार्ल मार्क्स ने सुझा दिया था जब उन्होंने लिखा था, " आलोचना का हथियार, ज़ाहिर है, हथियार की आलोचना का स्थान नहीं ले सकता है, भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति से ही हटाया जा सकता है; पर सिद्धांत भी जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम तब होता है जब वह पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब करता है, और पूर्वाग्रहों को बेनक़ाब वह तब करता है जब वह मूलाग्रही होता है। मूलाग्रही होने का मतलब है चीजों को उनके मूल से समझना। लेकिन, मनुष्य के लिए, मनुष्य स्वयं मूल है" (The weapon of criticism cannot, of course, replace criticism of the weapon, material force must be overthrown by material force; but theory also becomes a material force as soon as it has gripped the masses. Theory is capable of gripping the masses as soon as it demonstrates  ad hominem, and it demonstrates ad hominem as soon as it becomes radical. To be radical is to grasp the root of the matter. But, for man, the root is man himself.)
सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि, वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित सिद्धांत की पुख्ता समझ स्वयं हासिल करें और, जनता के बीच, मूल्य तथा अतिरिक्त मूल्य के स्रोत, शोषण की प्रक्रिया, व्यक्तिगत तथा सामाजिक चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध, मानव के प्राकृतिक गुणों और सामाजिक गुणों आदि के बारे में फैले विभ्रम को बेनक़ाब कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित सिद्धांत को जनता के मन में घर कर लेने में सक्षम बनाने का मार्ग प्रशस्त करें।          
सुरेश श्रीवास्तव
18 अक्टूबर, 2015

Monday 12 October 2015

भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र - एक मार्क्सवादी नजर से

भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र - एक मार्क्सवादी नजर से
(आज भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने यक्ष प्रश्न है भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र की सही पहचान और उसके संदर्भ में विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की विचारधारा का सही-सही विश्लेषण करना। हाल ही में अनेकों युवा साथियों ने मुझसे भारतीय राष्ट्र-राज्य के बारे में मेरे विचार जानने का आग्रह किया है। मैं संबंधित विषयों पर लेख लिखता रहा हूँ जो marx-darshan.blogspot.com पर भी पोस्ट किये गये हैं। युवा साथियों के आग्रह पर एक बार फिर अपने विचार इस विषय पर समेटने का प्रयास कर रहा हूँ। सुरेश श्रीवास्तव )

मार्क्सवाद समाज की पहचान एक जीवंत वैचारिक संरचना के रूप में करता है जो मानवीय चेतना में बसती है, जिसका अपना कोई स्वतंत्र भौतिक जैविक अस्तित्व नहीं होता है पर जो चेतना के रूप में पूरी तरह स्वायत्त है। मानव जीवन का आधार है प्रकृति प्रदत्त पदार्थ को व्यक्तिगत तथा सामूहिक श्रम द्वारा उपयोगी पदार्थ में बदलना। समाज के अस्तित्व का आधार है, मानवों का अपने हितों की पूर्ति के लिए एकजुट होना। मानवीय चेतना दो स्तर पर कार्य करती है - अनभिज्ञ तथा सजग। अस्तित्व तथा जीवन से संबंधित प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रेरणा स्वत: होती है और उनसे संबंधित विचार अनभिज्ञ स्तर पर कार्य करते हैं, पर सामाजिक परिवेश से उपजी आवश्यकताएं सजग स्तर पर होती हैं और उनसे संबंधित विचार सजग स्तर पर कार्य करते हैं, इस कारण मार्क्सवाद समाज को 'सामाजिक-आर्थिक संरचना' के रूप में परिभाषित करता है जिसमें 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अंतर्वस्तु है और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' अधिरचना है। किसी भी समाज की अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' का आधार उत्पादन व्यवस्था, अर्थात उत्पादक शक्तियाँ तथा उत्पादन संबंध, होते हैं और उसी आधार पर उसका निर्माण होता है। इसी तरह अनभिज्ञ 'भौतिक-सामाजिक चेतना' के आधार पर सजग 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' का निर्माण होता है। ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए किये जाने वाले सजग प्रयास इसी 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' द्वारा किये जाते हैं। 'भौतिक-सामाजिक चेतना' अनजाने ही 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है, और 'वैचारिक-सामाजिक चेतना' सजग कर्म द्वारा 'भौतिक-सामाजिक चेतना' को प्रभावित करती है। यही सामाजिक-चेतना की अंतर्वस्तु और उसकी अधिरचना के बीच का द्वंद्वात्मक संबंध है।
वर्ग विभाजित समाज में विभिन्न वर्गों द्वारा, अपने वर्ग हितों को साधने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का ही हिस्सा होती है राजनीति। इसलिए वर्ग विभाजित समाज का सही विश्लेषण करने और उसमें वांछित हस्तक्षेप कर सकने के लिए आवश्यक है कि समाज की आर्थिक तथा राजनैतिक परिस्थिति का समुच्चित एकीकृत विश्लेषण किया जाय। आज सूचना और संचार के साधन इतने विकसित हो गये हैं कि विचारों के प्रचार प्रसार में भौगोलिक सीमाएँ बेमानी हो गयी हैं। उत्पादन तथा वाणिज्य में, वैचारिक उत्पादों की भागीदारी बढ़ गयी है। इन सभी चीजों को नज़रअंदाज़ करके किया गया विश्लेषण या हस्तक्षेप वांछित नतीजे नहीं दे सकता है।
भारत राजनैतिक रूप से एक राष्ट्र, एक राज्य है पर, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से अनेकों राष्ट्रों का गठजोड़ है इस कारण भारतीय राष्ट्र-राज्य के चरित्र का विश्लेषण करते समय आर्थिक तथा सामाजिक व्यवस्थाओं की विविधता का ध्यान रखना आवश्यक है।
देश में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादक शक्तियां लगभग पूरी तरह सामंती या पारंपरिक है। पूंजीवादी व्यवस्था कृषि क्षेत्र में लगभग नदारद है। औद्योगिक उत्पादन में कुछ क्षेत्रों में उत्पादक शक्तियाँ विश्व स्तर की पूँजीवादी हैं पर एक बड़े क्षेत्र में अभी भी सामंती तथा मध्य स्तरीय हैं। आदिवासी आबादी भी अच्छी खासी है जहाँ अत्पादक शक्तियाँ आदिकालीन है। भारत में पूँजी का केंद्रीकरण भी विश्वस्तरीय है और व्यापार भी विश्व व्यापार का हिस्सा है। भारत में औद्योगिक कामगारों का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है और संगठित क्षेत्र का कामगार भी राजनैतिक रूप से जागरूक नहीं है। इस कारण संघर्ष शोषकों तथा शोषितों के बीच न होकर, शोषकों के बीच आपस में, मुख्य रूप से सामंतवाद और पूँजीवाद के बीच ही है। प्राकृतिक नियम के अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर होना आवश्यक है और भारतीय केंद्रित पूंजी, वैश्विक पूंजी की भागीदार बन चुकी है, इस कारण राजसत्ता का झुकाव वैश्वीकरण तथा पूँजीवाद की ओर ही होगा। अर्थव्यवस्था, पूँजीवाद के आधार पर, उत्पादक शक्तियों के विकास की ओर खिसकेगी, धीमे-धीमे जब विरोधी शक्तियाँ ताक़तवर होंगीं और तेज़ रफ़्तार से जब विरोधी शक्तियाँ कमज़ोर होंगीं।
राजनीति के क्षेत्र में समाज मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित है, सामंत, पूँजीपति, कामगार तथा मध्यवर्ग। कामगार भी किसान, सर्वहारा तथा असंगठित मज़दूर के बीच बँटे हैं। मध्यवर्ग अपने वर्ग चरित्र के अनुसार वर्ग संघर्ष में हमेशा कमज़ोर पक्ष के साथ खड़ा होता है और जब कमज़ोर पक्ष मज़बूत होने लगता है तब पाला बदल कर दूसरे पक्ष के साथ खड़ा हो जाता है। कभी-कभी, संतुलन की स्थिति में, मध्यवर्ग स्वतंत्र रूप से संघर्ष का निर्णायक वर्ग नजर आयेगा, पर असंतुलन की स्थिति आते ही कमज़ोर वर्ग के साथ खड़ा हो जायेगा। मज़दूर वर्ग का नेतृत्व हमेशा मध्यवर्ग से आये लोगों के हाथों में होता है और जब तक मजदूरवर्ग राजनैतिक रूप से जागरूक होकर अपने आपको संगठित करने की स्थिति में नहीं हो जाता है वह मध्यवर्ग का ही पिछलग्गू बना रहता है।
भारत के राजनैतिक पटल पर मुख्य लड़ाई सामंतवाद तथा पूँजीवाद के बीच है और मध्यवर्ग दोनों मुख्य पक्षों के बीच पाला बदलता रहता है। कामगार जब तक जागरूक नहीं हो जाता है, भ्रम की स्थिति में ही रहेगा। बिना किसी स्पष्ट विभाजन और संगठन के, किसान सामंतवर्ग के पीछे चलेगा, मज़दूरवर्ग पूँजीपति वर्ग के पीछे चलेगा और सर्वहारावर्ग मध्यवर्ग के पीछे चलेगा।
इस प्रकार भारतीय राष्ट्र-राज्य आर्थिक रूप से मिश्रित सामंतवादी निम्न पूँजीवादी है, सामाजिक रूप से सामंतवादी है और राजनैतिक रूप से बुर्जुआ जनवादी है।
150 साल पहले एंगेल्स ने समझाया था कि राज्य की उच्चतम अवस्था, जनवादी गणतंत्र राज्य का वह स्वरूप है अकेले जिसमें ही सर्वहारा तथा बुर्जुआजी के बीच अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है, जनवादी गणतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के भेद को स्वीकार नहीं करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया के लगभग सभी राष्ट्र-राज्यों में जनवादी सत्तायें स्थापित हो चुकी हैं, विकसित या अविकसित सभी तरह की अर्थव्यवस्थाओं के बावजूद। गुरिल्ला युद्ध या जनयुद्ध आज के दौर में प्रासंगिक नहीं रह गये हैं। एंगेल्स ने समझाया था, " और अंत में संपन्न तबक़ा सीधे आम मताधिकार के ज़रिए शासन करता है। जब तक पीड़ित वर्ग - हमारे मामले में सर्वहारा वर्ग - जब तक अपनी स्वतंत्रता के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, उस समय तक बहुमत में मौजूदा निज़ाम को ही एकमात्र सामाजिक व्यवस्था मानता रहेगा और राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला बना रहेगा, उसका अतिवाम पक्ष बना रहेगा। पर जिस हद तक वह अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होता जाता है, उसी के अनुसार वह वह स्वयं को अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता जाता है, और अपने प्रतिनिधियों को चुनता है, न कि पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को। इस प्रकार सार्विक मताधिकार मज़दूर वर्ग की परिपक्वता का पैमाना है। मौजूदा राज्य में वह इससे अधिक कुछ और नहीं हो सकता है और न कभी होगा; लेकिन यही काफ़ी है। उस दिन, जब सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर मज़दूरों के बीच उबाल का स्तर दिखाएगा, वे और पूँजीपति भी जान जाएँगे कि वे कहाँ खड़े हैं।"
सन 1902 में अपने प्रसिद्ध पर्चे 'क्या किया जाय' में लेनिन ने रेखांकित किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।' दुर्भाग्यवश, 95 साल पहले 1920 में ताशकंद में बैठकर, चंद मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद की अपरिपक्व समझ के साथ, कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर, भारतीय मज़दूर आंदोलन को जिस दलदल में धकेल दिया था उससे वह आज तक नहीं निकल पाया है।
इतिहास गवाह है, कि जब-जब जन आंदोलन निर्णायक दौर में पहुँचने को हुए हैं, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने पैर पीछे खींचकर प्रतिक्रांतिकारी ताक़तों को शक्ति पहुँचायी है। अब तक कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व अपनी गैर-मार्क्सवादी समझ के कारण मज़दूर वर्ग को इतना जागरूक नहीं कर पाया है कि वह राजनैतिक पटल पर अपने आप को विकल्प के रूप में पेश कर सके। नई पीढ़ी को चाहिए कि वह लेनिन की नसीहत, ‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूर-वर्ग को ऐसे फैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है।’ को याद रखे और जहाँ भी जिस किसी भी पार्टी या मंच पर सक्रिय हो, मार्क्सवाद की सही समझ स्वयं हासिल करे तथा औरों को हासिल करने में मदद करे। परिपक्व होने पर मज़दूर वर्ग को स्वयं समझ आ जायेगा कि उसे क्या करना है।
नोएडा,
12 अक्टूबर 2015