Monday 8 January 2018

जय भीम, लाल सलाम - संशोधनवाद का नया मुखौटा

मार्क्स ने अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र में निम्न मध्य वर्गीय चरित्र के ढुलमुलपन को रेखांकित करते हुए दर्शाया था कि निम्नमध्यवर्गीय एक ओर तो विपन्नों की पैरोकारी करता है तो दूसरी ओर संपन्नों की ताबेदारी, पर अपनी सामाजिक परस्थिति के कारण सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग भी होता है। और बुर्जुआवर्ग के चरित्र पर टिप्पणी करते हुए माओ नेनये जनवादमें समझाया है कि जब दुर्जेय दुश्मन से मुक़ाबला होता है, वे उसके खिलाफ मजदूरों तथा किसानों के साथ एकजुट होते हैं, लेकिन जब मजदूर तथा किसान जागृत हो जाते हैं तो वे पाला बदल कर मजदूर तथा किसानों के खिलाफ दुश्मन से मिल जाते हैं। यह एक आम नियम है जो बुर्जुजी पर सारी दुनिया में लागू होता है।वे आगे समझाते हैं किचीन में जनवादी गणतंत्र जिसे हम स्थापित करना चाहते हैं, वह सर्वहारा के नेतृत्व में सभी साम्राज्यवाद विरोधी तथा सामंतवाद विरोधी लोगों का सामूहिक अधिनायकवाद होगा अर्थातनया जनवाद’ ’
जब हम भारत के आजादी के आंदोलन के इतिहास पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि बीसवीं सदी के आरंभ में शुरू हुआ राष्ट्रवादी आंदोलन शुरू से ही भारतीय बुर्जुआवर्ग के हाथ में था। ईस्ट इंडिया कंपनी के दलाल सहभागी के रूप में जन्मा भारत का बुर्जुआवर्ग 200 साल की दलाली के साथ स्वयं विकसित हो चुका था, और 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजी साम्राज्य द्वारा उपमहाद्वीप का शासन सीधे अपने हाथ में लेने के बाद राष्ट्रीय औद्योगिक पूँजीपति के रूप में अपनी महत्वाकांक्षांओं को मूर्त रूप देने लगा था। जाहिर है उसका सीधा टकराव भारतीय सामंतवाद तथा राजे रजवाड़ों से था। सामंतवाद के खिलाफ अपनी लडाई में बुर्जुआवर्ग ने किसानों तथा मजदूरों को एकजुट करना शुरू कर दिया था। जैसा स्टालिन तथा माओ ने समझाया था, प्रथम विश्वयुद्ध तथा अक्टूबर क्रांति के बाद राष्ट्रीय आंदोलनों की प्रकृति में गुणात्मक परिवर्तन हो गया था। अक्टूबर क्रांति की सफलता ने सर्वहारा चेतना को विश्वव्यापी कर दिया था। 1920 का दशक था जब सारी दुनिया के उपनिवेशों में आजादी के आंदोलन अपने चरम पर थे। 
भारतीय उपमहाद्वीप के राजनैतिक आर्थिक पटल पर तीन मुख्य किरदार थे - सामंतवर्ग, बुर्जुआवर्ग तथा कामगार (किसान-मजदूरवर्ग) और राष्ट्रीय आंदोलन में तीनों वर्गों का प्रतिनिधित्व निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीवी ही कर रहे थे; सामंतवर्ग का मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा के रूप में, बुर्जुआवर्ग का कांग्रेस के रूप में तथा मजदूरवर्ग का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में। अधिरचना के रूप में तीनों-चारों राजनैतिक पार्टियों के स्वरूप अलग अलग थे पर अंतर्वस्तु के रूप में उनके चरित्र एक ही थे और तीस का दशक शुरू होने के साथ तीनों ने, एक ही चरित्र के अनुरूप अपने अपने तरीके से पलटी मारते हुए, बीस के दशक में हासिल की गई मजदूर किसान एकता को ध्वस्त करना शुरू कर दिया जिसने अगले पंद्रह साल में केवल वामपंथी आंदोलन को ध्वस्त कर दिया बल्कि उपमहाद्वीप को विभाजन के कगार पर ला दिया।  
आजादी के आंदोलन की मुख्य पार्टी कांग्रेस चरित्र और स्वरूप में पूरी तरह शक्तिशाली राष्ट्रीय बुर्जुआवर्ग की पार्टी थी और अपने चरित्र के अनुरूप उसने पलटी मारते हुए दुश्मन के साथ समझौते की राह अपना ली। कांग्रेस ने साम्राज्य शासित क्षेत्रों में डोमीनियन स्टेट्स के साथ सीमित जनवाद स्वीकार कर मजदूर किसान संघर्ष की तीव्रता को कुंद कर दिया, और 600 से अधिक राज्यों में रह रही जनता को राजे-रजवाड़ों के रहमो करम पर छोड़ दिया।
मुस्लिम लीग तथा संघ परिवार ने किसान-मजदूरवर्ग के आर्थिक हितों को नेपथ्य में धकेलते हुए और धार्मिक उन्माद को हवा देते हुए हिंदू मुसलमान के नाम पर जनता को बाँटने का रास्ता चुना। हिंदुओं के बहुमतवाली पार्टी होने के बावजूद, बुर्जुआवर्ग की पार्टी होने के कारण कांग्रेस के लिए सेक्यूलर छवि रखना जरूरी था इसलिए कामगारों की एकजुटता तोड़ने के लिए धर्म का सीधे सीधे इस्तेमाल कर पाना उसके लिए संभव नहीं था। इसके लिए जाति, जो व्यावहारिक स्तर पर धर्म का ही पर्याय है, सबसे कारगर औजार हासिल था। और इस औजार को इस्तेमाल करने के लिए दलितों के बीच से ही, सबसे ज्यादा शिक्षित, पूरी तरह अंग्रेज़ी बुर्जुआ मानसिकता से ग्रस्त, महत्वाकांक्षी डा. भीमराव अंबेडकर से ज्यादा कुशल बुद्धिजीवी और कौन हो सकता था। सामूहिक हित के लिए एकजुट होते विपन्नों की एकता को तोड़ने के लिए, विपन्नों के बीच से सर्वाधिक सक्षम और जुझारू को आरक्षण के नाम पर उसके व्यक्तिगत हितों का झुनझुना पकड़ा देना सबसे कारगर रणनीति होती है। गांधी तथा अंबेडकर के बीच हुआ पूना पैक्ट दर्शाता है कि सवर्ण तथा दलितों के दो शीर्ष नेताओं ने, किस प्रकार विपन्नों की एकता तोड़ने के लिए एक ही रणनीति पर काम किया। हिंदू धर्म के नाम पर धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देने का बीड़ा संघ परिवार के रूप में आरएसएस ने उठा लिया था।
अक्टूबर क्रांति की सफलता के साथ सर्वहारा चेतना विश्वव्यापी हो गई थी, पर भारतीय मजदूर किसान आंदोलन का दुर्भाग्य है कि, जहां चीन की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवाद की पुख्ता समझ के कारण सर्वहारा चेतना को चीन के किसानों तथा मजदूरों के बीच फैला कर चीन के राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में रखने में कामयाब रही थी, वहीं भारतीय निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा ताशकंद में कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में गठित की गई पार्टी अपनी संशोधनवादी समझ के कारण भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में रखने में नाकामयाब रही थी। फलस्वरूप द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत के साथ औपनिवेशिक शासन की समाप्ति के साथ जहाँ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सभी राष्ट्रवादी ताक़तों को अपने पीछे लामबंद कर चीन में नया जनवाद लागू करने में सफल रही, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस के नेतृत्व में बुर्जुआ जनवाद तथा नेहरू के शेखचिल्ली समाजवाद को स्वीकार कर लिया। लेनिन ने आगाह किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।' पर अपरिपक्व भारतीय सर्वहारा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा पैदा की गई शेखचिल्ली समाजवाद की धुंध के पार वैज्ञानिक समाजवादी चेतना को पहचानने में सक्षम नहीं था। और आज भी धुंध छँटती दिखाई नहीं दे रही है।
मानव अपनी जरूरत के अनुसार अपने उत्पाद स्वयं बनाता है और संगठन तथा समाज अपने नायक तथा देवता अपनी जरूरत के मुताबिक़ स्वयं घढ़ लेते हैं। आजादी के आंदोलन में कांग्रेस ने, भारतीय किसान मजदूरों को अपने पीछे लामबंद करने के लिए भारतीय जनमानस के मुताबिक़ महात्मा की छवि वाले गांधी को अपना नायक चुन लिया था। आजादी के साथ बुर्जुआवर्ग ने पाला बदलते हुए मजदूर किसानों का साथ छोड़कर सामंतवर्ग तथा राजे रजवाड़ों के साथ समझौता कर लिया था। इसके साथ ही पारंपरिक छवि वाले महात्मा गांधी अप्रासंगिक हो गये थे और बुर्जुआ छवि वाले नेहरू नये नायक बन गये थे जिनके पीछे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी अपनी संशोधनवादी समझ के अनुसार नेहरूवियन समाजवाद को ताक़त देने के लिए जुट गई थी।
जैसे जैसे पूँजीवाद का विकास होता गया वैसे वैसे सर्वहारा चेतना का भी विकास होता गया। इसके साथ ही सांप्रदायिकता तथा सेक्यूलरिज्म के नाम पर किसान मजदूर एकता को तोड़ने की कोशिशें तेज़ होती गईं। राममंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद इस विभाजनकारी वैचारिकता का प्रतीक बन गया। बीसवीं सदी के अंत तक आते आते सांप्रदायिकता तथा सेक्यूलरिज्म के बीच का विभाजन धूमिल पड़ चुका था और राममंदिर-बाबरी मस्जिद मुद्दा अपनी चमक खो चुका था। अब जाति के नाम पर विभाजन ज्यादा कारगर दिखने लगा था। इक्कीसवीं सदी में बुर्जुआवर्ग ने बाबा सहब अंबेडकर को नये देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। अपनी संशोधनवादी समझ के कारण अनेकों गुटों में बंटे वामपंथी संगठन भी जाति के मुद्दे को आर्थिक मुद्दे से ज्यादा महत्वपूर्ण मानने लगे हैं और उन्होंने भीमराव अंबेडकर को मार्क्स के समकक्ष खड़ा कर लिया है।जय भीम, लाल सलामवामपंथियों का नया नारा बन गया है। 
लेनिन ने रेखांकित किया था, ‘ परिस्थिति-दर-परिस्थिति आचरण तय करना, प्रतिदिन की घटनाओं तथा क़तर-ब्योंत की ओछी राजनीति के अनुरूप अपने को ढालना, सर्वहारा के प्राथमिक हितों तथा सारी पूँजीवादी व्यवस्था तथा पूँजीवाद के विकास के आधारभूत लक्षणों को नजरंदाज करना,फौरी हासिल या संभावित फ़ायदों के लिए इन प्राथमिक हितों की तिलांजलि - ऐसी है संशोधनवाद की नीति।और कुछ भी नहीं किया जा सकता है जब तक भारतीय मजदूर किसान आंदोलन के, सौ साल के इस संशोधनवादी इतिहास का पूरी तरह अंत नहीं कर दिया जाता है।  
सुरेश श्रीवास्तव

9 जनवरी, 2018