Tuesday 30 July 2019

बूँद बूँद जलधारा, बिंदु बिंदु विचारधारा

बूँद बूँद जलधारा, बिंदु बिंदु विचारधारा
(सोसायटी फॉर साइंस के उद्देश्य की प्राप्ति में कार्यशाला की भूमिका)
(31 जुलाई 2019 पर फेसबुक ग्रुप को अलविदा करते समय सुरेश श्रीवास्तव का विदाई वक्तव्य)

अनेकों सजग बुद्धिजीवी सक्रिय रूप से सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी अपनी चिंता व्यक्त करते रहते हैं। उनके बीच में कुछ एक ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि समाजवादी व्यवस्था ही अमीर ग़रीब के बीच की खाई को मिटा सकती है पर वे यह नहीं जानते हैं कि समाजवाद के अनेकों स्वरूपों में से कौन सा सही है तथा उसको हासिल करने का रास्ता क्या है। कुछ गिने चुने ऐसे भी होंगे जो समझते हैं कि मार्क्सवाद ही वह सिद्धांत है जिसके आधार पर सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूँढा जा सकता है और वे ईमानदारी के साथ अपनी अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रयास भी कर रहे होंगे, पर उनकी दुविधा यह है कि छोटे-छोटे जितने समूहों में वामपंथी आंदोलन बिखरा हुआ है, मार्क्सवाद के उतने ही संस्करण, अपने अपने आंतरिक अंतर्विरोधों के साथ सार्वजनिक दायरे में विचरण करते रहते हैं, और उनमें से सही मार्क्सवाद कौन सा है, ये समझ पाना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित मार्क्सवादी चिंतन विश्लेषण पद्धति के बिना, लगभग असंभव है। भारतीय राजनीतिक-अर्थशास्त्र की पेचीदगियों तथा मार्क्सवाद के बारे में फैले भ्रम को देखते हुए, ईमानदारी से प्रयास करने वालों के लिए, मार्क्सवाद की सही समझ हासिल करना पहली अनिवार्य शर्त है।  
मार्क्सवाद का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत, निरंतर परिवर्तनरत, संपूर्ण जगत में होनेवाले हर परिवर्तन को नियमित करने वाले, ‘विपर्ययों की एकता तथा संघर्ष’ के सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी शाश्वत प्रकृतिक नियम की समझ पर आधारित है। मार्क्सवाद समझाता है कि भौतिक जगत में, किसी भी दायरे में होने वाले परिवर्तन की दिशा और गति, उस दायरे में प्रभावी विपर्ययों के संघर्ष से नियमित होती है। परिवर्तन का यही नियम, वैचारिक जगत में विचारों तथा विचारधाराओं के निर्माण तथा विकास पर भी लागू होता है। मार्क्सवाद के अनुसार भौतिक जगत के अंदर ही, विकास के एक चरण पर चेतना का आविर्भाव हुआ है, भौतिक जगत के बाहर चेतना जैसी किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है।
विचार, मूल रूप से मानवीय मस्तिष्क के अंदर होने वाली भौतिक प्रक्रियाओं का समुच्चय है। ये प्रक्रियाएँ स्वयं भी, स्नायविक कोशिकाओं के बीच होनेवाले रासायनिक तथा विद्युत संकेतों की अदला-बदली के रूप में सूचनाओं के आदान प्रदान का समुच्चय होती हैं। ये सूचनाएँ ज्ञानेंद्रियों द्वारा हासिल की गई सूचनाओं तथा पहले से स्मृति में संजोई हुई सूचनाओं का मिश्रण होती हैं। व्यक्ति के मस्तिष्क में पहले से मौजूद विचारों तथा प्रक्रियाओं का समुच्चय ही व्यक्तिगत-चेतना है। 
मार्क्सवाद समाज को एक स्वायत्त जैविक संरचना के रूप में देखता है। जीवन की निरंतरता के लिए जरूरी भौतिक साधनों के उत्पादन के दौरान होने वाले अंतर्व्यवहार के साथ विकसित होती सामूहिक चेतना का, एक स्तर पर आकर सामूहिक व्यक्तिगत-चेतना से, गुणात्मक रूप से भिन्न, सामाजिक-चेतना में रूपांतरण हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अनेकों परमाणुओं के आपस में जुड़ने से, गुणात्मक रूप से भिन्न अणु अस्तित्व में आ जाते हैं जिनकी पहचान उनके परमाणुओं से पूरी तरह भिन्न होती है। सामाजिक-चेतना एक स्वायत्त जीवंत संरचना है जिसका अपना कोई भौतिक स्वरूप नहीं है, जिसका स्वरूप पूरी तरह वैचारिक है तथा सामूहिक रूप से उसका अस्तित्व जन मानस के अंदर बसता है। व्यक्तिगत-चेतना तथा सामाजिक-चेतना, दोनों ही स्वायत्त हैं पर उनके बीच के द्वंद्वात्मक संबंध के कारण दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं।
मानवीय चेतना में वैचारिक प्रक्रिया दो स्तर पर होती है, एक अनभिज्ञ स्तर पर, दूसरी सजग स्तर पर। इसी के अनुरूप सामाजिक चेतना भी दो स्तर पर कार्य करती है। भौतिक-सामाजिक-चेतना जो समूह के सदस्यों की अनभिज्ञ चेतना पर आधारित होती है, और वैचारिक-सामाजिक-चेतना जो सदस्यों की सजग चेतना पर आधारित होती है। निम्न स्तर पर जब सदस्यों की संख्या सीमित होती है और वे एक दूसरे से सजग स्तर पर व्यवहार करते हैं तो सामूहिक चेतना विशिष्ट व्यक्तियों की सजग चेतना से नियंत्रित होती है। पर व्यापक स्तर पर जब सदस्यों की संख्या असीमित हो जाती है, तो उनके बीच व्यवहार अनभिज्ञ स्तर पर होने लगता है व सामूहिक चेतना स्वायत्त हो जाती है और विशिष्ट व्यक्तित्वों का निर्माण अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं करने लगती है। किसी साझा उद्देश्य के लिए कुछ लोगों का जुड़ाव, सामूहिक-चेतना की तरह व्यवहार करेगा या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि साझा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए समूह के व्यक्तियों के बीच आपसी समन्वय, सजग चेतना आधारित साभिप्राय है या अनभिज्ञ चेतना आधारित सहज व्यवहार है, तथा सामूहिक उद्देश्य के प्रति उनकी कटिबद्धता कितनी दृढ़ तथा निष्कपट है।
             परिवर्तन से संबंधित प्रकृति के सर्वव्यापी नियम, ‘द्वंद्ववाद’ को रेखांकित करते हुए एंगेल्स लिखते हैं कि, ‘महान मूल विचार, कि संसार को तैयार चीज़ों के समुच्चय के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसमें, जितनी देर तक स्थिर हमारे मस्तिष्क में उनके प्रतिबिंब अर्थात अवधारणाएं रहती हैं, केवल उतनी देर तक स्थिर प्रतीत होनेवाली चीज़ें, अस्तित्व में आने और नष्ट होने वाले अनवरत परिवर्तन से गुज़र रही हैं, जिसमें प्रतीत होनेवाली अनिश्चितता तथा अस्थाई अवनति के बावजूद एक प्रगतिशील विकास ही अंतत: प्रभावी होता है। यह आधारभूत विचार, विशेषकर हेगेल के समय के बाद से, आम चेतना में इतनी अच्छी तरह घर कर चुका है कि सर्वव्यापी नियम के रूप में उसका विरोध यदा कदा ही होता हो। पर इस मूलभूत विचार की शब्दों में स्वीकृति एक बात है, और यथार्थ के धरातल पर, हर किसी आयाम की पड़ताल में उसको व्यापक रूप में लागू करना बिल्कुल ही अलग बात है।’ और मानवीय चेतना की यही कमी संशोधनवाद का आधार है। आज मार्क्सवाद के सिद्धांत से शायद ही कोई वामपंथी असहमति दर्शाता हो, पर वैचारिक सहमति दर्शाना एक बात है, और उस सिद्धांत के आधार पर सामाजिक परिस्थितियों का सही सही विश्लेषण कर पाना बिल्कुल अलग बात है। 
       लेनिन ने आगाह किया था कि ‘अत्याधिक प्रजातांत्रिक बुर्जुआ गणतंत्रों में भी, लोकतंत्रवाद वर्गीय दमन के एक अनुभाग के रूप में, अंतर्निहित चरित्र को समाप्त नहीं करता है बल्कि उजागर करता है। पहले जनता का जितना हिस्सा राजनैतिक घटनाओं में भाग लेता था उसके मुकाबले में जनता के कहीं व्यापक हिस्से को जागरूक तथा संगठित करने में सहायता कर, लोकतंत्रवाद संकट को दूर करने तथा राजनैतिक क्रांति के लिए नहीं बल्कि ऐसी क्रांतियों की दशा में गृहयुद्ध को अत्याधिक प्रचंड करने के लिए भूमि तैयार करता है’, और आज के दौर में भारतीय समाज में अक्षरशः वही हो रहा है। और इस तरह की परिस्थिति से बाहर निकलने का रास्ता सुझाते हुए लेनिन ने कहा था कि ‘सिर्फ एक ही रास्ता है, और वह है, हमारे चारों ओर के इसी समाज में उन शक्तियों, जो उस क्षमता, जो पुरातन को बुहार कर नये का निर्माण कर सकने में सक्षम है, का गठन कर सकती हैं तथा, जिन्हें अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण, करना चाहिए, को ढूंढ निकालना और संघर्ष के लिए उन्हें जागरूक करना तथा संगठित करना।’ और ‘क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं चलाया सकता है।’ लेनिन की नसीहत की तार्किकता को पूरी तरह स्वीकार करते हुए ही सोसायटी फॉर साइंस का गठन किया गया है। सोसायटी फॉर साइंस का उद्देश्य, उन शक्तियों अर्थात ‘सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों’ को ढूंढ निकालना और उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर क्रांतिकारी सिद्धांत की समझ हासिल करने के लिए विचार विमर्श के अवसर प्रदान करना है, ताकि वे नये का निर्माण कर सकने की क्षमता के गठन में, अपनी सामाजिक परिस्थिति के अनुरूप  योगदान दे सकें। 
      मार्क्सवादी चिंतन को रेखांकित करते हुए एंगेल्स लिखते हैं, ‘इसलिए जब सवाल इतिहास की उन चालक शक्तियों की पड़ताल का है जो, सजग तौर पर या अनजाने - और वास्तव में अक्सर अनजाने ही - इतिहास में काम करने वाले लोगों के मंसूबों के पीछे निहित होती हैं और जो इतिहास के वास्तविक अंतिम चालक बल का गठन करती हैं, तब फिर सवाल किसी एक व्यक्ति, कितना भी प्रख्यात क्यों न हो, के मनसूबों का इतना अधिक नहीं है जितना कि उन मनसूबों का है जो आमजन को, व्यापक जनसमुदाय के सभी वर्गों को, हर जनसमुदाय को कर्म के लिए प्रेरित करते हैं, वह भी, केवल क्षणभर के लिए नहीं, भूसे के ढेर में लगी आग की तरह जो जल्दी ही ठंडी पड़ जाती है, बल्कि एक दीर्घकालीन सतत कर्म के लिए जिसकी परिणति ऐतिहासिक परिवर्तन में होती है। उन चालक कारणों, जो कार्यरत जनता तथा उसके नेताओं - तथाकथित महान पुरुषों- के सजग मनसूबों के रूप में स्पष्ट या अस्पष्ट तौर पर, सीधे-सीधे या आदर्श, महिमामंडित रूप में नजर आते हैं, को सुनिश्चित करना ही एकमात्र रास्ता है जिसके जरिए हम उन नियमों की पहचान कर सकते हैं जो संपूर्ण इतिहास में भी और किसी विशिष्ट कालखंड में तथा किसी विशिष्ट दिककाल में भी चीज़ों को निर्धारित करते हैं। हर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।’
एंगेल्स की इस नसीहत में दो बातें मुख्य हैं जो मार्क्सवाद की मूल अवधारणाओं में से एक - अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध - पर आधारित हैं। ‘हर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।’ और इसी पर आधारित है सोसायटी फॉर साइंस के गठन की पूरी योजना तथा कार्यनीति।
  1. सोसायटी फॉर साइंस को अगर एक व्यक्ति की सनक तथा कल्पना की जगह एक संगठन के रूप में काम करना है तो सबसे पहले जरूरत है ऐसे लोगों को एकजुट करने की जिनकी संगठन के प्रति पूरी निष्ठा हो। किसी ने निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की मानसिकता को रेखांकित करते हुए कहा है, “दिमाग के दरवाज़े बंद किये बैठा हूँ, अब आये कोई समझाने।’ इसलिए पहले चरण में आवश्यकता है ‘सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों’ को ढूंढ निकालने की जो अपने दिमाग के दरवाज़े बंद करके न बैठे हों अर्थात अपने पूर्वाग्रहों को पहचानने तथा उनसे छुटकारा पाने के प्रयास के प्रति ईमानदार हों। ये गिने चुने सजग बुद्धिजीवी उन्हीं असंख्य निम्न मध्यवर्गीयों के बीच में मौजूद होंगे जिनके वर्गीय चरित्र के बारे में मार्क्स ने कहा था कि बिचौलिए की परिस्थिति के कारण उनका चरित्र दोहरा होता है। वे विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी होते हैं और संपन्नों की संपन्नता से लालायित भी होते हैं। एक ओर तो वे विपन्नों को शेखचिल्ली समाजवाद के सपने दिखाते हैं और प्रत्यक्ष तौर पर संघर्ष के लिए उन्हें संगठित भी करते हैं पर परोक्ष में वे मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन के हर प्रयास को कुंठित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं क्योंकि वे अपने सुख सुविधा के साधन इसी व्यवस्था की सेवा करके जुटाते हैं। इसके साथ ही वे हर सामाजिक क्रांति का अभिन्न अंग भी होते हैं। जाहिर है निम्न मध्यवर्गीयों की भीड़ के बीच में से, चंद ईमानदार सजग बुद्धिजीवियों को ढूँढ निकालना अत्यंत दुरूह कार्य है, पर सोसायटी फॉर साइंस के उद्देश्य के प्रति समर्पित कुछ दर्जन सजग बुद्धिजीवियों को जोड़े बिना योजना का अगला चरण संभव ही नहीं है।   
  2. दूसरे क़दम में जरूरत है ऐसी कार्य नीति ईजाद करने की जो एकजुट होनेवाले बुद्धिजीवियों को उनके अपने पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाने में मदद कर सके। पूर्वाग्रह, व्यक्ति की मानसिकता या अनभिज्ञ चेतना की वह आदत होती है जिसके कारण, व्यक्ति किसी दायरे में चीज़ों की विवेचना या व्याख्या निष्पक्ष रूप से न करके, मनोगत संदर्भों के आधार पर करता है। चीज़ों की सचाई या यथार्थ को सही सही समझने के लिए जरूरी है कि पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाया जाय, अर्थात अनभिज्ञ चेतना की इस आदत को बदला जाय। व्यक्ति द्वारा की जाने वाली विवेचना या व्याख्या, हासिल सूचना के आधार पर उसके मस्तिष्क के अंदर होने वाली प्रक्रियाओं का परिणाम होती है, और व्यक्ति द्वारा की जा रही विवेचना या व्याख्या, वस्तुपरक है या व्यक्तिपरक है, यह व्यक्ति को स्वयं ही तय करना होता है। यह स्वभाविक ही है कि स्वयं द्वारा की गई विवेचना या व्याख्या को व्यक्ति वस्तुपरक तथा सही माने। जाहिर है सबसे पहले तो व्यक्ति को सजग तौर पर इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार होना चाहिए की उसके द्वारा की जा रही विवेचना या व्याख्या पूर्वाग्रहों के कारण गलत भी हो सकती है। दूसरा उसके पास वह तरीक़ा होना चाहिए जिसके आधार पर वह अपने पूर्वाग्रहों को पहचान सके तथा वस्तुपरक मानसिकता विकसित कर सके। यही वह पहेली है जिसको केवल द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की मार्क्सवादी समझ के आधार पर हल किया जा सकता है।
  3. हेगेल ने दर्शाया था कि मानवीय चेतना के विकास की प्रक्रिया, विपरीत विचारों के द्वंद्व के कारण आगे बढ़ती है। विपरीत विचारों के बीच के अंतर्विरोध का समाधान नये विचार के जन्म में होता है। हेगेल भाववादी थे और मानवीय चेतना को परम-चेतना का अंश मानते थे और मानते थे कि आदर्श विचार के प्रदूषण से ही विपरीत विचार का जन्म होता है। वे मानते थे कि प्रदूषित विचार को छोड़कर आदर्श विचार में समाहित हो जाना ही मानवीय चेतना की नियति है। वे प्रकृति को प्रदूषित विचार का प्रकटीकरण मानते थे। चूँकि हेगेल भाववादी थे इस कारण वे न तो द्वंद्व को मानवीय चेतना के बाहर देख पाते थे और न ही अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध को पहचान सके थे। अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण मार्क्स मानवीय अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध की सही सही पहचान कर सके और प्रकृति के अस्तित्व की भौतिक जगत के रूप में, तथा उसमें होने वाले सभी परिवर्तनों के मूलभूत नियम की द्वंद्व के नियमों के रूप में पहचान कर सके। मार्क्सवाद के अनुसार हेगेल की अवधारणा के बिल्कुल उलट, भौतिक जगत अनादि अनंत है जिसकी विकास प्रक्रिया के किसी चरण में किसी एक कोने में चेतना का जन्म हुआ और मार्क्स ने कहा था कि हेगेल ने जिस गिलास को उल्टा पकड़ा हुआ था, उसे मैंने सीधा कर दिया है। मार्क्सवाद के अनुसार मानवीय चेतना में विचारों का जन्म तथा विकास, इंद्रिय ग्राह्य बाहरी जगत के प्रतिबिंब के रूप में होता है न कि किसी परम-चेतना के अंश के रूप में। विचारों के विकास पर लागू होने वाले द्वंद्व के नियम भी वास्तव में भौतिक जगत पर लागू होनेवाले द्वंद्व के नियमों की प्रतिछाया ही हैं।
  4. फायरबाख की तीसरी प्रस्थापना में मार्क्स लिखते हैं, ‘परिस्थितियाँ मनुष्य द्वारा बदली जाती हैं और स्वयं शिक्षा देनेवाले को शिक्षित किया जाना अनिवार्य है’, और इसी प्रस्थापना के अनुरूप सभी मार्क्सवादी पार्टियों की कार्य प्रणाली में स्टडी सर्किलों का आयोजन किया जाना एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब उद्देश्य आमजनता को शिक्षित करने का न होकर, शिक्षक को शिक्षित करने का है तो जाहिर है पाठ्यक्रम तथा शिक्षा प्रणाली भी उद्देश्य के अनुरूप विशिष्ट होगी। सोसायटी फॉर साइंस का उद्देश्य बहुत गहन चिंतन मनन के बाद निर्धारित किया गया है। सोसायटी फॉर साइंस का उद्देश्य निर्धारित करते समय ध्यान राष्ट्र की राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की मौजूदा परिस्थिति को बदलने पर केंद्रित नहीं किया गया है। सोसायटी फॉर साइंस ने जिस परिस्थिति को बदलने पर ध्यान केंद्रित किया है उसका दायरा बहुत सीमित है और वह है सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों के बीच मार्क्सवाद के बारे में फैला हुआ भ्रम - संशोधनवाद। चूँकि उद्देश्य संशोधनवाद से लड़ाई तक सीमित है, इस कारण सोसायटी फॉर साइंस का ध्यान केंद्रित है, सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग ऐसे बुद्धिजीवियों के ऊपर, जो अपना सामाजिक दायित्व निभाना चाहते हैं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित समझ के साथ एक आम नागरिक के रूप में न कि भावना के वशीभूत एक समाज सुधारक के रूप में। किसी भी समाज में ऐसे जागरूक बुद्धिजीवियों की संख्या बहुत कम होती है, सौ में से एक। भारत जैसी व्यवस्था, जिसकी आबादी का एक बड़ा हिस्सा - तीन चौथाई से ज्यादा - सामंतवादी उत्पादन संबंधों के साथ रह रहा हो, पर जिसे राजनीतिक रूप से अत्याधिक उन्नत बुर्जुआ जनवादी अधिकार हासिल हों, में तो और भी कम - दस हज़ार में एक। ऐसी परिस्थिति में सोसायटी फॉर साइंस के सदस्य बनने की योग्यता रखनेवालों को ढूँढना अत्याधिक थकाने तथा हताश करने वाला दुष्कर कार्य है। पर जैसा मार्क्स ने कहा था, ‘विज्ञान की ओर कोई राजपथ नहीं जाता है, और जो उसकी दुर्गम थकानेवाली चढ़ाइयों से ख़ौफ़ नहीं खाते हैं केवल उन्हें ही उसके दैदीप्यमान शिखर पर पहुँचने का मौक़ा मिलता है’।
  5. उपयुक्त जागरूक बुद्धिजीवियों को एक मंच पर लाने के बाद जरूरत है, कार्यशालाओं का आयोजन, शिक्षा प्रणाली तथा पाठ्यक्रम। उद्देश्य है बुद्धिजीवी की मानसिकता को वस्तुपरक बनाने का अर्थात सही और गलत के बीच सही की पहचान करने की क्षमता को विकसित करना। इस क्षमता का अर्थ है, व्यक्तिगत चेतना में विपरीत विचारों के द्वंद्व के जरिए अंतर्विरोधों के समाधान के रूप में सही विचार की पहचान। छिट-पुट यदा-कदा सही विचार की पहचान कर लेना न तो विकसित क्षमता कही जा सकती है और न ही वस्तुपरक मानसिकता। मात्रात्मक परिवर्तन की परिणति गुणात्मक परिवर्तन में तब होती है जब छोटे छोटे परिवर्तन मिल कर एक बड़ी मात्रा हासिल कर लेते हैं। पानी की कुछ एक छिटपुट बूँदें न तो जलधारा बनती हैं और न ही वह शक्ति हासिल करती हैं जो रास्ते के सब अवरोधों को पार कर आगे बढ़ सकती है। जब अनेकों बूँदें पासपास आ कर एक दूसरे के आकर्षण से इस प्रकार बंध जाती हैं कि उनका स्वतंत्र अस्तित्व, उनके सामूहिक अस्तित्व में समाहित हो जाता है, तब जलधारा बनती है। इसी प्रकार किसी विषयवस्तु के अलग अलग आयामों के के बारे में  छिटपुट विचार जब श्रंखलाबद्ध होते हैं तब विचारधारा बनती है जो विषयवस्तु को ठीक-ठीक परिभाषित कर सकती है। बूँद-बूंद जलधारा, बिंदु-बिंदु विचारधारा।
  6. मार्क्सवादी चिंतन पद्धति, वैचारिक जगत के किसी भी आयाम के विश्लेषण तथा अध्ययन में उसी पद्धति का उपयोग करती है जिस पद्धति का उपयोग प्रकृति वैज्ञानिक भौतिक जगत के किसी आयाम के विश्लेषण तथा अध्ययन में करते हैं। पर जहाँ प्रकृति वैज्ञानिक चीज़ों को उनके परिवेश से अलग कर स्थायी रूप में अध्ययन करते हैं, वहीं मार्क्सवाद पहले चरण में चीज़ों को उनके परिवेश से अलग कर के अध्ययन करता है पर वह उन्हें स्थायी चीज़ों के रूप में न देखकर, प्रक्रियाओं के रूप में देखता है तथा दूसरे चरण में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर समग्रता में परिवेश की अन्य चीज़ों के साथ द्वंद्वात्मक संबंधों की पहचान करता है।
  7. सोसायटी फॉर साइंस का उद्देश्य, मार्क्सवाद तथा संशोधनवाद के तुलनात्मक अध्ययन करना है जिस से संशोधनवाद के आंतरिक अंतर्विरोधों को बेनकाब कर संशोधनवाद की धुंध साफ़ की जा सके ताकि नई पीढ़ी भ्रमित न हो, और यह तुलनात्मक अध्ययन तथा विश्लेषण मार्क्सवादी चिंतन पद्धति के आधार पर ही करना होगा। इसी समझ के आधार पर सोसायटी फॉर साइंस की कार्यशालाओं को निम्न रूपरेखा के आधार पर आयोजित किया जाना चाहिए। 
  1. मार्क्सवाद प्रकृति के हर आयाम की व्याख्या करता है, पर संशोधनवाद केवल मानव समाज से संबंधित विषयों पर ही भ्रम फैला सकता है। भौतिक जगत से संबंधित मार्क्सवादी अवधारणाओं को तो प्रकृति विज्ञान में की जा रही शोधें, वस्तुपरक होने के कारण, स्वत: ही सत्यापित करती जा रही हैं। पर वैचारिक जगत से संबंधित अवधारणाओं को सत्यापित करना मुश्किल काम है क्योंकि अमूर्त चिंतन व्यक्तिपरक होता है और पूर्वाग्रह उसके वस्तुपरक होने में आड़े आता है। मार्क्सवाद तथा संशोधनवाद के बीच के अंतर को समझने के लिए अस्तित्व तथा चेतना के संबंध के विभिन्न आयामों के केंद्रित विश्लेषण के आधार पर संशोधनवादी अवधारणाओं के निहित अंतर्विरोधों को उजागर कर के ही सही अवधारणा को समझा जा सकता है। व्यक्तिगत चेतना में वैचारिक द्वंद्व, परिवेश में होने वाले द्वंद्व की ही प्रतिछाया होती है और इसी के अनुरूप कार्यशाला में किसी एक आयाम पर जब केंद्रित विमर्श होगे तो सभी प्रतिभागी अपने अपने विचार रखेंगे और एक दूसरे के विचारों के अंतर्विरोधों को उजागर करेंगे। बिंदुवार ये अलग अलग विचार हर प्रतिभागी की स्मृति के किसी कोने में डेरा जमा लेंगे। सोते जागते, अवकाश के क्षणों में इन विचारों के द्वंद्व के दौरान ही पूर्वाग्रह बेनकाब होंगे और सही विचार प्रतिभागी की चेतना में घर करेंगे।
  2. भाषा तथा लिपि के इतने अधिक विकास के बावजूद आज भी विचारों के आदान प्रदान में, हावभाव, भंगिमा तथा मुद्राओं का योगदान 40% तक होता है। इस कारण इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पहुंच के बावजूद, कार्यशाला में व्यक्तिगत तौर पर विचार विमर्श अन्य माध्यमों के मुकाबले अधिक प्रभावशाली होता है।

फेसबुक ग्रुप को अलविदा कहने के मेरे निर्णय से कुछ साथी सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार जिन सजग बुद्धिजीवियों की मुझे तलाश है उनको फेसबुक ग्रुप के मंच से ही एकजुट करने में मदद मिलेगी। उम्मीद है वे इस बात को समझने का प्रयास करेंगे कि किसी भी समूह से सांगठनिक रूप से जुड़ने के लिए, बुद्धिजीवी की स्वंय की संगठन के उद्देश्य से सहमति तथा संगठन से जुड़ने की आकांक्षा, अनिवार्य शर्त है। जो बुद्धिजीवी आश्वस्त हैं कि उनकी मार्क्सवाद की सैद्धांतिक समझ पुख्ता है, या कि वे इस बात के क़ायल हैं कि सिद्धांत की समझ केवल आंदोलनों के दौरान ही स्वयं के अनुभव से ही हासिल हो सकती है, पिछली पीढ़ी का अनुभव नये दौर के लिए प्रासंगिक नहीं होता है, उनको सोसायटी फॉर साइंस के साथ जोड़ने का प्रयास अपने सीमित समय तथा ऊर्जा को बेकार जाया करना है। ब्लॉग पर लेख पढ़ने का कष्ट वे लोग ही उठायेंगे जो समझते हैं कि सिद्धांत की पुख्ता समझ हासिल करने में दूसरों के विचारों का भी योगदान होता है, और यह सोसायटी फॉर साइंस के उद्देश्य की प्राप्ति में पहला क़दम होगा।
इस सब को ध्यान में रखते हुए ही मैंने 15 जुलाई को घोषित किया था कि SFS के फेसबुक ग्रुप पर 31 जुलाई के बाद न कोई पोस्ट डालूँगा, न किसी और की पोस्ट पर कोई टिप्पणी करूँगा। जो कुछ भी लिखूँगा वह केवल मार्क्सदर्शन के ब्लॉग पर ही लिखूँगा। उम्मीद है सुधी साथी संपर्क जारी रखेंगे।

सुरेश श्रीवास्तव
31 जुलाई 2019
9810128813