Thursday 26 September 2013

बंदर से मानव संक्रमण में श्रम की भूमिका


बंदर से मानव संक्रमण में श्रम की भूमिका

अर्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम ही सारी संपत्ति का स्रोत है। श्रम जिसे संपत्ति में परिवर्तित करता है उस कच्चे माल को मुहैया कराने वाली प्रकृति के बाद श्रम का ही नंबर आता है। पर वह इससे भी अधिक अपरमित और बहुत कुछ है। वह सारे मानवीय अस्तित्व की प्राथमिक मूल शर्त है, और इस हद तक कि एक अर्थ में हमें कहना होगा कि स्वयं मनुष्य का निर्माण श्रम ने ही किया है।
लाखों साल पहले, पृथ्वी के इतिहास के उस दौर में, जिसका निर्धारण अभी ठीक से नहीं हो पाया है, जिसे भूगर्भ विज्ञानी तृतीय युग कहते हैं, संभवतः उसके अंत में, कहीं उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में एक महाद्वीप पर जो शायद अब हिंद महासागर की तलहटी में विलीन हो गया है, एक विशिष्ट अत्याधिक विकसित मानव-सदृश्य वानरजाति रहती थी। डारविन ने हमारे इन पूर्वजों का अनुमानित विवरण दिया है। वे पूरी तरह बालों से ढँके हुए थे, उनकी दाढ़ी तथा नुकीले कान थे, और वे झुंड में पेड़ों पर रहते थे।
क्योंकि पेड़ों पर चढ़ने में हाथ, पैरों से बिल्कुल अलग भूमिका निभाते हैं, यह लगभग तय है कि अपनी जीवन पद्धति के परिणाम स्वरूप ही इन वानरों ने ज़मीन पर चलते समय अपने हाथों को इस्तेमाल करने की आदत छोड़ना और चलने में अधिक से अधिक सीधी खड़ी स्थिति अपनाना शुरू कर दिया था।
आज के ज़माने में मानव सदृश सभी वानर सीधे खड़े हो सकते हैं और केवल पैरों पर ही इधर उधर घूम सकते हैं, लेकिन बस आवश्यकता पड़ने पर ही और बहुत ही ऊंटपटांग तरीक़े में। उनकी सहज चाल आधी खड़ी मुद्रा ही है और उसमें हाथों का प्रयोग भी शामिल है। अधिकांश मुट्ठियों की टोटों को ज़मीन पर टिकाते हैं और पैरों को सिकोड़ कर शरीर को बाजुओं पर झुलाते हैं, बहुत कुछ उस तरह जिस तरह अपंग बैसाखी के सहारे चलता है। साधारणतया चारों पर चलने से लेकर दो पैरों पर चलने तक के परिवर्तन के सभी स्तरों को बंदरों में हम आज भी देख सकते हैं, लेकिन उनमें से किसी के लिये भी बाद वाला तरीक़ा चलताऊ से अधिक नहीं बन पाया है।
हमारे बालों से ढँके पूर्वजों में लंबवत चाल पहले नियम और फिर समय के साथ एक ज़रूरत बन जाना यह  दर्शाता है कि इस बीच हाथ और दूसरे कामों के लिए अधिक से अधिक प्रतिबद्ध हो गये। वानरों में भी हाथों और पैरों के प्रयोग के बीच एक भेद अभी भी मौजूद है। जैसा पहले दर्शाया जा चुका है, पेड़ों पर चढ़ने में हाथों का प्रयोग पैरों से अलग तरीक़े से किया जाता है। हाथ मुख्यतया खाना इकट्ठा करने तथा पकड़ने का काम करते हैं जैसा कि निचली श्रेणी के स्तनपायी जीवों में अगले पंजों के प्रयोग में होता है। कई बंदर अपने हाथों का उपयोग पेड़ों पर अपने लिए नीड़ बनाने के लिए करते हैं, और भी जैसे कि चिम्पांज़ी मौसम से बचने के लिए डालियों के बीच छत बनाने के लिए। अपने आप को दुश्मनों से बचाने के लिए अपने हाथों से डंडों को पकड़ते हैं या उन पर फलों और पत्थरों की बौछार करते हैं। अधीनता में, आदमियों की नक़ल कर के वे अपने हाथों से अनेकों सीधे-सादे काम करते हैं। पर ठीक यहीं दिखायी देता है कि सबसे ज़्यादा मानवीय-बंदर के अविकसित हाथ और मानवीय हाथ जिसे लाखों वर्षों के श्रम के साथ अत्याधिक पूर्णत्व प्राप्त हुआ है, के बीच कितनी चौड़ी खाई है। दोनों में हड्डियों तथा माँसपेशियों की संख्या तथा आम विन्यास वही है, लेकिन निम्नतम जंगली का हाथ हज़ारों ऐसे काम कर सकता है जिनकी नक़ल किसी भी बंदर का हाथ नहीं कर सकता है। किसी भी बंदर के हाथ ने कभी भी सर्वाधिक बेडौल पत्थर का चाक़ू भी नहीं बनाया है।
इसलिए सबसे पहले वे कार्य, जिनके लिए हमारे पूर्वजों ने बंदर से मानव बनने के हज़ारों सालों के दौर में धीरे-धीरे अपने हाथों को ढालना सीखा, कुछ बहुत साधारण ही हो सकते थे। आप सबसे निचले स्तर के जंगली जो मानसिक विकलांगता के साथ-साथ शारीरिक विकलांगता के कारण पशुवत हो गया हो का अनुमान करें तो भी आप पायेंगे कि वह इन संक्रमणकालीन जीवों से कहीं बेहतर है। मानवीय हाथ द्वारा पहला पत्थर का चाक़ू गढ़ने से पहले गुज़रे वक़्त की तुलना में हमारे ज्ञात इतिहास का समय अत्यंत तुच्छ मालूम होता है। पर निर्णायक क़दम लिया जा चुका था, हाथ आज़ाद हो गया था और इसके आगे और अधिक निपुणता तथा कुशलता हासिल कर सकता था, और इस तरह हासिल की गयी लोच, विरासत के ज़रिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती गयी।
इस प्रकार न केवल हाथ श्रम का साधन है बल्कि वह श्रम का परिणाम भी है। केवल श्रम के द्वारा, नये-नये क्रिया-कलापों के अनुरूप ढाल कर, परिणाम स्वरूप मांसपेशियों, तंतुओं तथा लंबे अंतराल पर हड्डियों के विशिष्ट विकास की विरासत के ज़रिए, और विरासत में हासिल किये गये इन नये सुधारों को निरंतर और अधिक से अधिक क्लिष्ट कार्य-कलापों के लिए इस्तेमाल कर, मनुष्य के हाथ ने वह उच्च दक्षता हासिल की है जिसने राफ़ेल के चित्रों को, थोरवाल्ड्सेन की मूर्तियों को, पागानिनी के संगीत को अस्तित्व प्रदान करने में उसे सक्षम बनाया है।
लेकिन हाथ अकेला अपने आप अस्तित्व में नहीं था। वह अत्याधिक जटिल पूरी की पूरी जैविक संरचना का केवल एक अंग था। और जिसने हाथ को लाभ पहुँचाया, उसने पूरे शरीर को जिसकी वह सेवा कर रहा था, लाभ पहुँचाया और दो तरह से पहुँचाया।
सब से पहले  शरीर को लाभ पहुँचा डारविन द्वारा नामांकृत विकास के पारस्परिक संबंध के नियम से। इस नियम के अनुसार एक जैविक अस्तित्व के किसी अंग के विशेष लक्षण किसी दूसरे अंग, जिसका पहले अंग से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता है, के कुछ विशिष्ट लक्षणों के साथ एकरूप होते हैं। इस तरह सारे जानवरों, जिनकी लाल रक्त कोशिकाएँ बिना नाभि के होती हैं, और जिनमें गर्दन मेरुदंड की पहली कोशिका के साथ कोंडिल्स के साथ जुड़ी रहती है, में बिना किसी अपवाद के बच्चों को दूध पिलाने के लिए स्तन भी होते हैं। इसी तरह कटे खुर वाले स्तनपायी आमतौर से जुगाली के लिए एक से अधिक आमाशयों के साथ एकरूप होते हैं। कुछ लक्षणों में बदलाव के साथ शरीर के और हिस्सों में भी लक्षणों में बदलाव होता है, हालाँकि हम इनके बीच के संबंध की व्याख्या नहीं कर सकते हैं। नीली आंखों वाली झक सफ़ेद बिल्लियाँ हमेशा ही या लगभग हमेशा ही बहरी होती हैं। हाथ की क्रमिक निपुणता और उसके साथ सीधी खड़ी चाल के लिए पैरों के संयोजन के रूप में इसके साथ-साथ चलने वाले विकास ने निस्सन्देह इस पारस्परिक संबंध के अनुसार संरचना के और हिस्सों को भी प्रभावित किया है। हालाँकि हमारे लिए इस तथ्य को साधारण तौर पर बयान करने से अधिक और कुछ कह पाने के लिए इस प्रक्रिया के बारे में बहुत कम तहक़ीक़ात की गई है।
हाथ के विकास की और दूसरे अंगों पर सीधी दर्शायी जा सकने वाली प्रतिक्रिया इससे कहीं अधिक आवश्यक है। जैसा पहले कहा जा चुका है हमारे वानर-पूर्वज सामाजिक प्राणी थे, यह साफ़ तौर पर असंभव है कि सर्वाधिक सामाजिक मानव की व्युत्पत्ति ठीक पिछले ग़ैर-सामाजिक पूर्वजों से हुई हो। प्रकृति के ऊपर आधिपत्य ने, जो हाथ के विकास के साथ शुरू होता है, श्रम के साथ हर नये विकास के ज़रिए मानव की सीमा का विस्तार किया है। वह निरंतर प्रकृतिक वस्तुओं के अब तक अनजाने गुणों की खोज करता जा रहा था। दूसरी ओर श्रम के विकास ने, आपसी सहयोग के उदाहरणों की तादाद में बढ़ोतरी करके, साझा कार्य-कलाप और इस साझा कार्य-कलाप के व्यक्तिगत लाभ को दर्शा कर निश्चय ही समाज के सदस्यों को एक साथ और नज़दीक़ लाने में मदद की है। संक्षेप में, विकसित होते मानव उस बिंदु पर पहुँचे जहाँ वे एक दूसरे से कुछ कह सकने की स्थिति में थे। आवश्यकता ने उस अंग के निर्माण को दिशा दी, धीरे-धीरे पर निश्चित तौर पर ही क़दम-ब-क़दम सुधार के द्वारा वानर का अविकसित स्वर तंत्र परिवर्तित हुआ, और मुँह के अंगों ने धीमे-धीमे स्पष्ट अक्षर के बाद अक्षर का उच्चारण करना सीखा।
जानवरों के साथ तुलना यह सिद्ध करती है, कि श्रम से और श्रम प्रक्रिया में, भाषा के उद्गम की यह व्याख्या ही एकमात्र सही व्याख्या है। अत्याधिक उन्नत से उन्नत जानवरों को भी आपस में थोड़ी-बहुत सूचना के आदान प्रदान की जो आवश्यकता होती है वह बिना स्पष्ट भाषा के भी पूरी की जा सकती है। प्राकृतिक अवस्था में किसी भी जानवर को महसूस नहीं होता है कि वह मानवीय भाषा को बोल या समझ नहीं सकता है। आदमी के द्वारा पालतू बना लिए जाने के बाद बात बिल्कुल अलग हो जाती है। कुत्ते और घोड़े ने मानव के साथ संपर्क की वजह से स्पष्ट भाषा के लिए इतने अच्छे कान विकसित कर लिये हैं कि अपने विचारों के दायरे में वे किसी भी भाषा को समझ लेते हैं। और भी उन्होंने भावनाओं, जैसे कि मनुष्य के प्रति स्नेह, कृतज्ञता आदि की क्षमता भी हासिल कर ली है, जो पहले उनके लिए परायी थीं। जिस किसी को भी ऐसे जानवरों के साथ अधिक समय गुज़ारना पड़ा है वे इस दावे से इनकार नहीं कर सकते हैं कि बहुत से ऐसे उदाहरण हैं जहाँ वे अब समझते हैं कि उनकी बोलने में असमर्थता एक खोट है, यद्यपि दुर्भाग्यवश उनके वाग्जात अंगों के एक ख़ास तरीक़े में विकसित हो जाने के कारण वे अब ठीक नहीं हो सकते हैं। लेकिन जहाँ यह अंग मौजूद है, कुछ सीमाओं के अंदर यह अयोग्यता भी ग़ायब हो जाती है। यद्यपि पक्षियों के वाग्जात अंग मानव के वाग्जात अंगों से मूलत: भिन्न हैं, तो भी केवल पक्षी ही वे जीव हैं जो बोलना सीख सकते हैं, और वीभत्स आवाज़ के साथ पक्षी, तोता ही है जो सबसे अच्छी तरह बोलता है। इस विरोध की कोई ज़रूरत नहीं है कि तोते को समझ नहीं आता है कि वह क्या बोल रहा है। यह सच है कि केवल बोलने तथा मनुष्यों के सान्निध्य के आनंद के लिए तोता अपने सारे शब्द संग्रह को दोहराते हुए लगातार घंटों तक बड़बड़ाता रह सकता है। लेकिन अपने विचारों के दायरे में वह यह भी समझ सकता है कि वह क्या कह रहा है। किसी तोते को गालियाँ इस तरह सिखा दीजिये, कि उसे अंदाज़ा हो जाये कि उनकी विशिष्टता क्या है, (उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों से लौटने वाले नाविकों के ख़ास मनोरंजनों में से एक), परेशान किये जाने पर आप जल्दी ही समझ जायेंगे कि उसे उतनी ही अच्छी तरह पता है जितनी अच्छी तरह बर्लिन के रेहड़ीवाले को, कि गालियों को कैसे इस्तेमाल किया जाय। इसी तरह खाने के टुकड़े माँगने के साथ।
पहले श्रम आता है, उसके बाद, और फिर उसके साथ-साथ, स्पष्ट वाकशक्ति - ये दो सर्वाधिक आवश्यक उद्दीपक थे जिनके प्रभाव तले वानर-मस्तिष्क धीमे-धीमे मानव-मस्तिष्क में परिवर्तित हो गया, जो अपने पूर्वज के साथ सारी समानताओं के बावजूद कहीं बड़ा तथा कहीं अधिक परिपूर्ण है। मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ विकसित होते रहे उसके सबसे नज़दीक़ी साधन, इंद्रियाँ। जिस तरह वाक-शक्ति के उत्तरोत्तर विकास के अनुरूप सुननेवाले अंग का विकास लाज़िमी तौर पर जुड़ा है, ठीक उसी प्रकार से पूरे मस्तिष्क के विकास के साथ सभी इन्द्रियों का विकास जुड़ा हुआ है। गिद्ध मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक दूर तक देख सकता है, परंतु मनुष्य की आँख गिद्ध की आँख के मुक़ाबले कहीं अधिक चीज़ें देखती है। कुत्ते के पास मनुष्य के मुक़ाबले सूँघने की शक्ति कहीं अधिक तीव्र है, पर वह उन ख़ुशबुओं, जो मनुष्य के लिए अलग-अलग चीज़ों के विशिष्ट लक्षण हैं, के एक सौवें हिस्सों के बीच में भी भेद नहीं कर सकता है। और स्पर्श की अनुभूति जो वानरों के पास बमुश्किल है, श्रम के माध्यम से विकसित होते मनुष्य के हाथ के साथ-साथ विकसित होती गयी है।
चेतना, अमूर्त चिंतनशक्ति तथा निर्णयशक्ति के बारे में मस्तिष्क तथा अनुषांगिक इंद्रियों की निरंतर बढ़ती स्पष्टता के विकास के श्रम तथा बोलचाल पर प्रभाव ने, श्रम तथा वाकशक्ति को और आगे विकास के लिए नित नया आवेग प्रदान किया। यह आगे का विकास उस समय जब मनुष्य अंततः वानर से अलग हो गया अपने चरम पर नहीं पहुंचा, बल्कि अपने पूर्णत्व में, अलग-अलग मात्रा तथा दिशा में विभिन्न लोगों के बीच और अलग-अलग काल में, और यहाँ वहाँ स्थानीय या अस्थायी प्रतिगमन द्वारा बाधित होते हुए, शक्तिशाली तरीक़े से प्रगति करता रहा। एक नये तत्त्व, जो पूरी तरह विकसित मानव के प्रकट होने के साथ ही नजर आया अर्थात समाज, के कारण आगे का यह विकास एक ओर तो और अधिक तीव्र गति से और दूसरी ओर कुछ निश्चित दिशाओं में आगे बढ़ा।
पेड़ पर चढ़ने वाले बंदरों के झुंड से मानव समाज के बनने तक लाखों साल गुज़र गये, जो पृथ्वी के इतिहास की तुलना में मानव जीवन के एक सेकेंड से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं। तो भी अंततः वह अस्तित्व में आ ही गया। और एक बार फिर बंदरों के झुंड तथा मानव समाज के बीच हम क्या विशिष्ट अंतर पाते हैं? श्रम। बंदरों का झुंड भौगोलिक परिस्थितियों या पड़ोसी झुंडों के प्रतिरोध द्वारा निर्धारित भोजन क्षेत्र की पड़ताल से संतुष्ट था; नये खाद्य क्षेत्रों पर आधिपत्य के लिए प्रवासन तथा संघर्ष का इस्तेमाल किया, लेकिन वह भोजन प्रदान करनेवाले क्षेत्र से उससे अधिक हासिल कर सकने में असमर्थ था जितना वह प्रदेश अपनी प्राकृतिक स्थिति में उसे दे सकता था, सिवाय इसके कि झुंड अनजाने में अपने विसर्जन से उस क्षेत्र की भूमि को उर्वरक बनाता था। जैसे ही सभी खाद्य क्षेत्र कब्जाये जा चुकते, बंदरों की आबादी में और वृद्धि नहीं हो सकती थी। जानवरों की संख्या अधिक-से-अधिक स्थिर रह सकती थी। पर सभी जानवर अत्याधिक बरबादी करते हैं, और इसके साथ ही, खाद्य आपूर्ति की अगली पीढ़ी की भ्रूण हत्या करते हैं। शिकारी से अलग, भेड़िया मेमने को नहीं बख्शता है जो उसे अगले साल एक हिरण मुहैया कराता; यूनान में बकरियों, जो अपरिपक्व झाड़ियों को उनके बड़े होने के पहले ही चर जाती हैं, ने खा कर सारे पहाड़ों को बंजर बना दिया है। जानवरों की यह 'परभक्षी व्यवस्था' प्रजातियों को सामान्य से अलग भोजन के अनुकूल रूपांतरण के लिए मजबूर करके उनके क्रमिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, जिसके कारण रक्त एक भिन्न रासायनिक संरचना हासिल कर लेता है और सारी भौतिक रचना धीमे-धीमे बदल जाती है, जबकि कि किसी समय स्थापित प्रजातियाँ लुप्त हो जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि इस परभक्षी व्यवस्था ने हमारे पूर्वजों के मानव बनने के क्रमिक विकास में सशक्त योगदान दिया है। बुद्धिमत्ता तथा अनुकूलनीयता में और सभी को बहुत पीछे छोड़ देने वाले वानरों की इस दौड़ में परभक्षी व्यवस्था कोई मदद नहीं कर सकती थी और इस सब का निष्कर्ष था, खाने के लिए इस्तेमाल किए जा सकने वाले पेड़ों की संख्या में निरंतर बढ़ोतरी और और इन पेड़ों के अधिक-से-अधिक खाने योग्य हिस्सों का भक्षण। संक्षेप में इसका नतीजा हुआ कि खाना और विविध हो गया, और शरीर के अंदर प्रवेश करने वाले पदार्थ, वानर से मानव की ओर संक्रमण के रासायनिक आधार भी। पर यह सब अभी भी सही मायने में श्रम नहीं था श्रम की प्रक्रिया शुरू होती है औज़ारों के बनाने से। और वे सबसे पुराने औज़ार कौन से हैं जो हमें मिलते हैं - प्रागैतिहासिक मानव की जो विरासतें खोज में मिलीं हैं उनके और प्राचीन मानवों और समकालीन जंगलियों में सर्वाधिक पिछड़ों की जीवन पद्धति के आधार पर निकाले गये निष्कर्षों के अनुसार, सबसे अधिक पुराने? वे हैं शिकार करने व मछली पकड़ने वाले उपकरण, शिकार करने वाले उपकरण इसके साथ ही हथियारों का भी काम करते थे। पर शिकार करने तथा मछली पकड़ने की पूर्व शर्त है खालिस शाकाहारी भोजन के साथ मांसाहार के भी इस्तेमाल की ओर संक्रमण, और वानर से मानव की ओर संक्रमण में यह एक महत्वपूर्ण क़दम है। जीव की अपनी जैविक प्रक्रिया के लिए आवश्यक सभी अवयव माँसाहारी भोजन में लगभग तैयार अवस्था में मौजूद होते हैं। इसने न केवल पचाने के लिए आवश्यक बल्कि पौधों के जीवन के समरूप वानस्पतिक शारीरिक प्रक्रियाओं के लिए भी आवश्यक समय में कटौती की, और इस प्रकार सही शाब्दिक अर्थ में जंतु जीवन के सक्रिय आविर्भाव के लिए और अधिक समय, पदार्थ तथा ऊर्जा हासिल हुई। और विकसित होता मनुष्य पेड़ पौधों की दुनियाँ से जितना अधिक दूर होता गया, वह जानवरों से भी उतना ही ऊपर उठता गया। जैसे माँसाहारी भोजन के साथ शाकाहारी भोजन के आदी हो जाने ने जंगली बिल्ली और कुत्तों को मनुष्य का सेवक बना दिया है, उसी तरह शाकाहारी के साथ-साथ माँसाहारी भोजन के साथ अनुकलन ने विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति तथा स्वतंत्रता प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पर माँसाहारी भोजन का सबसे अधिक आधारभूत असर था मस्तिष्क के ऊपर, जिसे अपने पोषण तथा विकास के लिए आवश्यक पदार्थ अब कहीं अधिक सुचारू रूप से हासिल हो रहे थे, और जो अब पीढ़ी-दर-पीढ़ी और अधिक तेज़ी तथा पूर्णता के साथ विकसित हो सकते थे। शाकाहारियों के प्रति पूरे आदर के साथ, यह मानना पड़ेगा कि मनुष्य माँसाहारी भोजन के बिना अस्तित्व में नहीं आया, और हमारी जानकारी में जितने भी लोग हैं उनमें किसी न किसी समय पर नरभक्षण (बर्लिनवासियों के पूर्वजों, वेलेताबियन या विल्जियन में, दसवीं शताब्दी तक अपने माता पिता को खाने का चलन था) मांसाहार के कारण ही था, हालाँकि आज हमारे लिए इसकी कोई अहमियत नहीं है।
माँसाहारी भोजन ने निर्णायक महत्व के दो नये विकासों को दिशा दी, आग पर नियंत्रण और पशुपालन। पहले ने पाचन प्रक्रिया को और भी छोटा कर दिया, खाने को मुँह तक इस प्रकार पहुँचाया मानो वह पहले से अधपचा हो, और दूसरे ने शिकार के साथ-साथ एक नये और अधिक नियमित आपूर्ति का स्रोत प्रदान कर माँस की बहुतायत कर दी और इसके अलावा, अपनी संरचना में माँस के जितनी बहुमूल्य, दूध और दूध-उत्पाद के रूप में, एक नई खाद्य सामग्री प्रदान की। इस प्रकार ये दोनों विकास मनुष्य की मुक्ति के सीधे-सीधे नये साधन बन गये। मानव और समाज के विकास लिए उनका जो महत्व रहा है उसके अलावा परोक्ष रूप में उनका जो असर रहा है उस पर चर्चा हमें दूर तक भटका देगी।
जैसे मनुष्य ने हर खा सकने वाली चीज़ को खाना सीख लिया, उसी तरह उसने हर जलवायु में रहना भी सीख लिया। वह रह सकने वाली दुनिया में सभी जगह फैल गया, अकेला ऐसा एक जानवर जिसमें अपनी मूल प्रकृति के अनुरूप ऐसा कर सकने की ताक़त थी। और दूसरे जानवर - पालतू जानवर तथा कीड़े मकोड़े - जो सभी जलवायुओं के अनुरूप ढल गये थे, स्वतंत्र रूप से नहीं, बल्कि केवल मनुष्य के कारण ही ऐसे हुये थे। और पुराने ठिकाने की एकसार गर्म जलवायु से ठंडे प्रदेशों, जहाँ साल गर्मी और सर्दी मे बँटा होता है, की ओर संक्रमण ने नई ज़रूरतें पैदा कर दीं, सर्दी और नमी से बचने के लिए आवास और कपड़े, श्रम के नये आयाम और इसलिये गतिविधियों के नये स्वरूप, जिसने मनुष्य को जानवरों से अधिक से अधिक और अलग कर दिया।
हाथों, बोलचाल के अंगों तथा मस्तिष्क के बीच सहयोग के कारण, न केवल हर व्यक्ति के अंदर बल्कि समाज के अंदर भी, मानवजाति और अधिक से अधिक क्लिष्ट क्रिया कलाप करने, और अपने लिए ऊँचे-से-ऊँचे लक्ष्य तय करने तथा हासिल करने, में सक्षम हो गई। हर पीढ़ी के साथ श्रम स्वयं भिन्न, अधिक निपुण, अधिक विविध हो गया। शिकार तथा पशुपालन के साथ कृषि भी जुड़ गई, फिर कातना, बुनना, धातु कर्म, कुम्हारगिरी और नौकायन भी। व्यापार तथा उद्योग के साथ अंततः कला और विज्ञान का भी जन्म हो गया। कबीलों से विकसित हुए राष्ट्र तथा राज्य। क़ानून तथा राजनीति भी अस्तित्व में आये, और उनके साथ आया मानवीय चीज़ों का मानवीय मस्तिष्क में  असाधारण प्रतिबिंब - धर्म। सर्वप्रथम मानवीय मस्तिष्क के उत्पाद के रूप में प्रकट हुई इन रचनाओं, जिन्होंने लगता है मानव समाज पर क़ाबू कर रखा है, के रू-ब-रू कामकाजी हाथ के अधिक सरल उत्पाद नेपथ्य में चले गये, और भी अधिक इसलिए क्योंकि मस्तिष्क जो श्रम प्रक्रिया की योजना बनाता है, पहले ही सामाजिक विकास के शुरुआती दौर में ( उदाहरण के लिए साधारण परिवार में ही) इस योग्य था कि वह अपने हाथों की जगह दूसरे हाथों से वह श्रम करवा पाये जिसकी योजना उसने बनायी थी। सभ्यता के त्वरित विकास का श्रेय मस्तिष्क के नाम कर दिया गया, मस्तिष्क के विकास तथा क्रिया कलाप के नाम। मनुष्य अपने कामों की व्याख्या अपनी भौतिक जरूरतों ( जो किसी न किसी रूप में प्रतिबिंबित होकर मस्तिष्क के अंदर चेतना में पहुंचती हैं) की जगह अपने विचारों के आधार पर करने के आदी हो गये, और इसीलिए समय गुज़रने के साथ अस्तित्व में आया वह भाववादी दृष्टिकोण जिसने, ख़ासकर प्राचीन विश्व के पतन के बाद से, मानव मस्तिष्क को क़ाबू में कर रखा है। वह अभी भी उन पर इस हद तक हावी है कि डार्विन की धारणा माननेवाले सर्वाधिक भौतिकवादी प्रकृति वैज्ञानिक अभी भी मानव की उत्पत्ति के बारे स्पष्ट धारणा बनाने में नाकामयाब हैं, क्योंकि इस भाववादी प्रभाव के तहत वे उसमें श्रम के द्वारा निभायी गई भूमिका को नहीं पहचानते हैं।
जैसा पहले दर्शाया जा चुका है, जानवर भी अपने बाहर की प्रकृति को अपने कर्म से बदलते हैं, ठीक उसी तरह जैसे मनुष्य करते हैं, उस हद तक चाहे न भी हो, और जैसा हमने देखा है, उनके द्वारा अपने वातावरण में किये गये बदलाव, पलटकर उन पर प्रतिक्रिया करते हैं और बदलाव करनेवाले को बदल देते हैं। क्योंकि प्रकृति में कुछ भी विलगन में नहीं होता है। हर चीज़ दूसरी सभी चीज़ों को प्रभावित करती है और प्रभावित होती है, और आमतौर पर क्योंकि यह बहुआयामी गति और अंतर्व्यवहार नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है, हमारे प्रकृति वैज्ञानिक छोटी से छोटी चीज़ों को साफ़-साफ़ देखने से वंचित रह जाते हैं। हमने देखा है कि यूनान में, सेंट हेलेना के टापू पर बकरियों ने कैसे जंगलों को पुनर्जीवित होने से रोका है, सबसे पहले आनेवालों द्वारा लायी गईं बकरियां तथा सुअर, द्वीप पर पुरानी वनस्पति को लगभग पूरी तरह ध्वस्त करने में सफल रहे, और इस प्रकार बाद में आने वाले नाविकों तथा औपनिवेशकों द्वारा लाये गये पौधों के विस्तार के लिए ज़मीन तैयार की। पर अगर जानवर अपने परिवेश पर स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं तो वह अनजाने में होता है, और जहाँ तक जानवरों की स्वयं की बात है तो वह एक अनायास घटना होती है। जितना अधिक आदमी पशुओं से दूर होते जाते हैं उतना ही उनका प्रकृति पर प्रभाव पहले से ज्ञात एक निश्चित उद्देश्य को हासिल करने की दिशा में किये गये सोचे समझे योजनाबद्ध कार्य का रूप लेता जाता है। पशु किसी स्थान की वनस्पति को बरबाद करता है बिना यह जाने कि वह क्या कर रहा है। आदमी बरबाद करता है इस तरह ख़ाली हुई ज़मीन पर खेती की फ़सल बोने के लिए, या पेड़ या लतायें लगाने के लिए, यह जानते हुए कि वे बोई हुई मात्रा से कहीं अधिक पैदावार देंगे। वह उपयोगी फलों तथा पालतू जानवरों को एक देश से दूसरे देश में स्थानांतरित करता है और इस प्रकार सारे महाद्वीप की जैविक संपदा को परिवर्तित कर देता है। इससे भी अधिक, कृत्रिम खेती के तहत पौधे और जानवर दोनों ही मानव के हाथों इस तरह परिवर्तित हो जाते हैं कि वे पहचानने लायक नहीं रह जाते हैं। जिनसे हमारे अनाज की प्रजातियां उपजी हैं उन जंगली पौधों की आज खोज बेकार हो रही है। जिस जानवर के वंशज, स्वयं ही एक दूसरे से इतने भिन्न हमारे कुत्ते या उसी तरह अनेकों नस्लों के हमारे घोड़े हैं, उसकी पहचान अभी भी विवादास्पद है।
फिर भी किसी भी तरह से हमारा इरादा, जानवरों की नियोजित तथा सोच-समझ कर कार्य करने की क्षमता पर विवाद खड़ा करना नहीं है। इसके विपरीत भ्रूण में, जहाँ प्रोटोप्लाज्म यानी जीवित प्रोटीन मौजूद है और प्रतिक्रिया करता है, अर्थात निश्चित बाहरी उद्दीपन के फलस्वरूप निश्चित, चाहे बहुत साधारण सी ही सही, हरकतें करता है, नियोजित कार्य प्रणाली मौजूद होती है। इस प्रकार की प्रतिक्रिया वहाँ भी होती है जहाँ अभी कोई कोशिका भी नहीं है, स्नायविक कोशिका तो बहुत दूर की बात है। इसी तरह जिस तरीक़े से कीटभक्षी पौधे अपने शिकार को पकड़ते हैं, वह भी एक प्रकार से नियोजित कार्य मालूम होता है, हालाँकि बिल्कुल चेतनाविहीन तरीक़े से किया हुआ। जानवरों में चेतन, नियोजित कार्य करने की क्षमता स्नायु तंत्र के विकास के साथ-साथ बढ़ती है और स्तनपायियों में वह काफ़ी उच्च स्तर हासिल कर लेती है। इंग्लैंड में लोमड़ी का शिकार करते समय आप आसानी से देख सकते हैं कि हर रोज़ लोमड़ी किस प्रकार बिना कोई ग़लती किये जानती है कि इलाक़े के बारे में अपनी बेहतरीन जानकारी का इस्तेमाल अपना पीछा करने वालों से बचने के लिए किस प्रकार करना है, और वह जमीन के सभी लक्षणों को कितनी अच्छी तरह जानती है और गंध में विघ्न डालने के लिए इस्तेमाल करती है। मनुष्य के साथ संपर्क के कारण अत्याधिक उन्नत हमारे पालतू जानवरों के, ठीक हमारे बच्चों के स्तर के चालाकी भरे कर्तब, रोज़ देखे जा सकते हैं। माँ के गर्भ में स्थित मानवीय भ्रूण का इतिहास, हमारे पाशविक पूर्वजों के, कृमि से लेकर लाखों सालों के दौरान हुए, शारीरिक विकास के इतिहास की संक्षिप्त पुनरावृत्ति है, इसलिए मानव शिशु का मानसिक विकास इन्हीं पूर्वजों, विशेष कर बाद के दौर वालों, के बौद्धिक विकास की और भी छोटी पुनरावृत्ति भर है। लेकिन सभी जानवरों के सभी नियोजित कार्यों की परिणति कभी भी प्रकृति के ऊपर उनकी इच्छा की छाप छोड़ने में नहीं हुई है। इस के लिए ज़रूरी था मानव।
संक्षेप में जानवर बाहरी प्रकृति का केवल इस्तेमाल करता है, और उसमें परिवर्तन केवल अपनी उपस्थिति के द्वारा दर्ज करता है; मानव अपने परिवर्तनों के द्वारा उद्देश्यों की पूर्ति करता है, उस पर नियंत्रण करता है। यह मानव तथा जानवर के बीच निर्णायक तथा आवश्यक भेद है, और एक बार फिर यह श्रम ही है जो यह भेद पैदा करता है।
फिर भी प्रकृति पर मानवीय विजय के लिए हमें अपनी पीठ नहीं थपथपाना चाहिये। क्योंकि ऐसी हर विजय हम से अपना बदला लेती है। यह सच है कि पहले चरण में उनमें से हरएक का नतीजा हमारी अपेक्षा के अनुरूप होता है, पर दूसरे और तीसरे में वह बिल्कुल अलग होता है, अकल्पनीय असर जो अधिकतर पहले वाले नतीजे को ख़ारिज कर देता है। जिन लोगों ने मेसोपोटेमिया, यूनान, एशिया माइनर में, और जगहों पर भी, खेती की जमीन के लिए जंगलों को नष्ट कर दिया, उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि वे जंगलों के साथ जल एकत्रण के केंद्रों तथा जलाशयों को भी ख़त्म कर इन देशों की आज की उजड़ी हुई हालात की नींव रख रहे हैं। जब आल्प्स के इतालवी लोगों ने पहाड़ के दक्षिणी ढलानों पर के देवदार के जंगलों, जो उत्तरी ढलानों पर इतनी सावधानी से सँजोए जाते हैं, को ख़त्म कर दिया, उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि ऐसा कर के वे अपने क्षेत्र के दुग्ध-उद्योग की जड़ें ही काट रहे हैं, उन्हें इससे भी कम अंदाज़ा था कि साल के अधिकांश समय वे अपने पहाड़ों के चश्मों को पानी से महरूम कर रहे हैं, और जिसके फलस्वरूप बारिश के मौसम में वे बाढ़ की और भी अधिक प्रचंड धाराएँ प्रवाहित करेंगे। जिन्होंने यूरोप में आलुओं का प्रसार किया, उन्हें नहीं पता था कि वे उसी समय भयंकर स्क्रोफुला नामक बीमारी भी फैला रहे थे। इस प्रकार हमें हर क़दम पर याद दिलाया जाता है कि हम प्रकृति के ऊपर उस प्रकार शासन नहीं करते हैं जिस प्रकार एक विजेता विदेशी लोगों के ऊपर करता है, इस प्रकार जैसे कोई प्रकृति के बाहर हो - लेकिन हम हाड़-माँस तथा मस्तिष्क के साथ प्रकृति का हिस्सा हैं और उसी के बीच रहते हैं, और हमारा उसके ऊपर सारा प्रभुत्व इस तथ्य में निहित है कि और सारे जीवों की तुलना में हमें नियमों को जानने और सही तरीक़े से लागू कर पाने में सक्षम होने का फ़ायदा है।
और वास्तव में हर गुज़रते दिन के साथ हम इन नियमों को और सही तरीक़े से समझना सीख रहे हैं, और प्रकृति के पारंपरिक मार्ग में हस्तक्षेप करने के, बहुत निकट और बहुत दूर भविष्य, दोनों में होने वाले परिणामों के बारे में जानने में सक्षम होते जा रहे हैं। ख़ास कर हालिया शताब्दी में प्रकृति विज्ञान में हुए ज़ोरदार विकास के बाद हम कम से कम अपनी अधिक साधारण उत्पादन गतिविधियों के कारण बहुत दूर भविष्य में होने वाले प्राकृतिक परिणामों को जानने में ज़्यादा से ज़्यादा सक्षम होते जा रहे हैं और इस कारण नियंत्रण करने में भी। लेकिन जितना ही अधिक यह होता है उतना ही मनुष्य न केवल महसूस करेगा बल्कि प्रकृति के साथ अपनी एकात्मता को जानता जायेगा और इस प्रकार विचार तथा पदार्थ, मानव तथा प्रकृति, आत्मा तथा शरीर के बीच असंगति का अर्थहीन तथा अप्राकृतिक विचार जो कि पारंपरिक पुरातन के अवसान के बाद यूरोप में उभरा था और जिसने ईसाइयत में अपना सर्वोच्च विस्तार पाया है, असंभव हो जायेगा।
पर अगर उत्पादन के उद्देश्य से किये गये अपने कार्यों के दूरगामी प्राकृतिक परिणामों का आंकलन कुछ हद तक करना सीखने के लिए हमें हज़ारों सालके श्रम की ज़रूरत पड़ी, तो दूरगामी सामाजिक परिणामों के मामले में और भी अधिक मुश्किल रहा है। हमने आलू और परिणाम स्वरूप फैली स्क्रोफुला बीमारी का ज़िक्र किया। लेकिन मज़दूरों के आलू की खुराक पर निर्भर कर दिये जाने का सभी देशों में आम लोगों के रहन-सहन की परिस्थितियों पर पड़े प्रभाव, या आलू की बीमारी के परिणाम स्वरूप आयरलैंड में 1847 में पड़े अकाल जिसने पूरी तरह या लगभग पूरी तरह से आलू पर पले दस लाख आयरिश लोगों को ज़मींदोज़ कर दिया और बीस लाख को समुद्र पार पलायन के लिए मजबूर कर दिया, के मुक़ाबले स्क्रोफुला क्या है? जब अरबों ने अल्कोहल का आसवन करना शुरू किया, उन्हें विचार भी नहीं आया होगा कि ऐसा करके वे उस समय तक अनखोजे अमेरिकी महाद्वीप के मूल निवासियों का नामोनिशान मिटानेवाले मुख्य हथियारों में से एक का निर्माण कर रहे थे। और उसके बाद जब कोलंबस ने अमेरिका को ढूँढ निकाला उसे नहीं पता था कि ऐसा करके वह ग़ुलामी, जिसे बहुत पहले यूरोप में समाप्त किया जा चुका था, को नई ज़िंदगी प्रदान कर रहा था और नीग्रो ग़ुलामों की तिजारत की नींव रख रहा था। जिन लोगों ने सत्रहवीं तथा अठारहवीं सदी में भाप का इंजन बनाने में मेहनत की, उन्हें नहीं मालूम था कि वे एक ऐसा औज़ार तैयार कर रहे थे जो सारे विश्व में सामाजिक परिस्थितियों में किसी और के मुक़ाबले कहीं अधिक क्रांतिकारी परिवर्तन करने जा रहा था, विशेषकर यूरोप में अधिकांश जनता को संपत्तिविहीन करते हुए दौलत का चंद हाथों में एकत्रीकरण करके। इस औज़ार की नियति थी कि पहले बुर्जुआ के हाथों में सामाजिक तथा राजनैतिक आधिपत्य सौंपना और फिर बुर्जुआ तथा सर्वहारा के बीच वर्ग संघर्ष को जन्म देना, जिसकी परिणति केवल बुर्जुआ की बेदख़ली तथा सभी प्रकार के वर्गभेदों की समाप्ति में ही हो सकती है। पर इस क्षेत्र में भी लंबे और अक्सर तकलीफदायक अनुभवों के ज़रिए और ऐतिहासिक सामग्री को इकट्ठा कर और उसका विश्लेषण कर हम धीरे-धीरे अपनी उत्पादन गतिविधियों के अप्रत्यक्ष, सुदूर परोक्ष सामाजिक प्रभाव का परिदृश्य साफ़-साफ़ देखना सीख रहे हैं, और इसीलिए इन प्रभावों को अधिकार तथा नियंत्रण में रखने की संभावना भी हमारे हाथ में है।
इन नियंत्रणों को लागू करने के लिए केवल जानकारी से ज़्यादा कुछ और की भी आवश्यकता है। इसके लिए ज़रूरत है हमारी अब तक की उत्पादन व्यवस्था और उसके साथ हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था में भी, क्रांतिकारी परिवर्तन की।
अब तक की सारी उत्पादन व्यवस्था का उद्देश्य रहा है, श्रम के सर्वाधिक उपयोगी नतीजे को एकदम तुरंत हासिल करने का। आगे के सभी परिणाम, जो बाद में प्रकट होते हैं और शनै शनै तथा इकट्ठे होकर प्रभावी बनते हैं, पूरी तरह नज़रअंदाज़ किये गये। ज़मीन का आदिम सामूहिक स्वामित्व, एक ओर तो मानवों के विकास के स्तर जिसमें उनकी दृष्टि आमतौर पर उस तक ही सीमित थी जो उसी समय हासिल था, और दूसरे हासिल ज़मीन की एक निश्चित बहुलता के अहसास, के अनुकूल था, जो इस आदिम जंगल आधारित अर्थव्यवस्था के संभावित बुरे परिणामों को सही करने के प्रति एक लापरवाही बरतने की आज़ादी देता था। जब यह अतिरिक्त ज़मीन चुक गई तो सामूहिक स्वामित्व भी घटने लगा। लेकिन उत्पादन के उन्नत तरीक़े आबादी के विभिन्न वर्गों में विभाजन की ओर अपनी प्रगति करते रहे और साथ ही शासक और शासित के अंतर्विरोध की ओर भी। लेकिन इसी की बदौलत शासक वर्ग का हित उत्पादन का चालक अवयव बन गया, इस हद तक कि उत्पादन शोषित वर्गों के जीवन यापन के न्यूनतम साधनों तक सीमित नहीं रह गया था। यह अपने पूर्णत्व को प्राप्त हुआ है, पश्चिमी यूरोप में व्याप्त आज की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में। व्यक्तिगत पूँजीपति जो उत्पादन तथा वितरण को नियंत्रित करते हैं, अपने कार्य के केवल तात्कालिक उपयोगी परिणाम से सरोकार रखते हैं। और वास्तव में यह उपयोगी परिणाम - जहाँ तक उत्पाद जिसका उत्पादन तथा वितरण किया जा रहा है, की उपयोगिता का सवाल है - ठीक पीछे नेपथ्य में चला जाता है, और बेच कर हासिल किया गया मुनाफ़ा मूल प्रेरणा बन जाता है।
बुर्जुआ समाज विज्ञान, पारंपरिक राजनैतिक अर्थशास्त्र, मुख्यत: उत्पादन तथा वितरण से संबंधित मानवीय क्रियाकलापों के केवल सीधे अपेक्षित परिणामों से सरोकार रखता है। यह पूरी तरह उस सामाजिक संगठन के अनुरूप है जिसकी यह वैचारिक अभिव्यक्ति है। जब व्यक्ति के रूप में पूँजीपति उत्पादन वितरण में तुरंत मुनाफ़े के लिए संलग्न होते हैं, तो सबसे पहले केवल तुरंत, हाथ के हाथ नतीजों को ही ध्यान में रखा जा सकता है। जब उत्पादक या वितरक के रूप में व्यक्ति उत्पन्न किया गया या ख़रीदा गया उत्पाद केवल साधारण छोटा सा मुनाफा कमा कर बेच लेता है तो संतुष्ट हो जाता है, और उसे इससे सरोकार नहीं होता है कि उसके बाद उत्पाद का क्या होता है या उसके ख़रीदार कौन हैं। उन्हीं कार्यकलापों के प्राकृतिक परिणामों पर भी यही बात लागू होती है। स्पेनी खेतिहारों, जिन्होंने क्यूबा में पहाड़ी ढलानों पर जंगलों को जला दिया और राख से अत्याधिक मुनाफ़ेवाले कॉफी के पेड़ों की एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त उर्वरक हासिल कर लिया, को इससे क्या लेना था कि बाद में उष्णकटिबंधीय बारिश ऊपरी सतह की अब अनारक्षित मिट्टी को बहा ले जायेगी और पीछे छोड़ जायेगी नग्न चट्टानें। समाज की तरह ही प्रकृति के संदर्भ में मौजूदा उत्पादन व्यवस्था का सरोकार मुख्य रूप से पहली भौतिक सफलता से होता है, और उसके बाद आश्चर्य प्रकट किया जाता है कि इस उद्देश्य के लिए किये गये काम का दूरगामी परिणाम बिलकुल ही अलग हो जाता है, विशेष कर कभी बिलकुल उलटा; कि मांग और आपूर्ति का समन्वय उनके द्विध्रुवीय विरोध में बदल जाता है, जैसा कि हर दस साल के बाद औद्योगिक चक्र में होता है, और जिसकी थोड़ी शुरुआती अचानक गिरावट का अनुभव जर्मनी ने भी किया है, कि व्यक्तिगत श्रम पर आधारित निजी स्वामित्व अनिवार्य रूप से कामगार की संपत्ति-विहीनता में बदल जाती है जब कि ज़्यादा से ज़्यादा दौलत ग़ैर-कामगारों के हाथों  में सिमट जाती है, कि ................। (मौलिक पांडुलिपि यहाँ अचानक समाप्त हो जाती है।)     

(एंगेल्स की महत्वपूर्ण पुस्तिका 'प्रकृति के द्वंद्व' के अंतिम अध्याय का हिंदी अनुवाद)
अनुवादक                 
सुरेश श्रीवास्तव
26 सितंबर, 2013

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ मार्क्सवाद को समझने में नाकाम क्यों हैं?

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ मार्क्सवाद को समझने में नाकाम क्यों हैं?
मार्क्स की मृत्यु के बाद किसी ने एंगेल्स से पूछा, "आप मार्क्सवादी किसे कहेंगे?" एंगेल्स ने उत्तर दिया, "मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके। मार्क्सवादी वह है जो हर परिस्थिति में उसी तरह सोचे जिस तरह उस परिस्थिति में मार्क्स ने सोचा होता।" एंगेल्स द्वारा दी गई मार्क्सवादी की परिभाषा को पूरी तरह समझने के लिए यह समझना पड़ेगा कि वह क्या 'तरीका' है जो मार्क्स अपने सोचने में अपनाते थे, और कि दो व्यक्ति, अपनी मानसिकता के अनुरूप किसी एक परिस्थिति में एक ही तरह सोच सकते हैं पर किसी दूसरी परिस्थिति में भिन्न-भिन्न तरीक़े से सोच सकते हैं। किसी व्यक्ति की मानसिकता उसकी विचार प्रक्रिया के ऐतिहासिक विकास का परिणाम होती है, और निरंतर परिवर्तनशील है। इस प्रकार एक व्यक्ति किसी एक समय पर मार्क्सवादी हो सकता है और किसी और समय पर मार्क्सवादी नहीं भी हो सकता है। इसलिए कोई भी मार्क्सवादी अपने व्यक्तित्व के कारण नहीं होता है, बल्कि किसी एक समय पर किसी एक परिस्थिति में अपनी सोच के कारण होता है। ऐंटी ड्यूहरिंग की अपनी प्रस्तावना में एंगेल्स ने लिखा था, ‘लेकिन सैद्धांतिक चिंतन एक जन्मजात गुण है केवल प्राकृतिक क्षमता के रूप में। इस प्राकृतिक क्षमता को विकसित तथा परिष्कृत किया जाना चाहिए, और इसमें सुधार का अभी तक और कोई तरीक़ा नहीं है सिवाय इसके कि पिछले दर्शन को पढ़ा जाय।
क्योंकि लोग मार्क्सवाद के दार्शनिक आधार को नहीं समझते हैं इस कारण किसी और के कुछ विचारों के आधार पर उसके मार्क्सवादी होने के दावे को स्वीकार कर लेते हैं, और फिर जब व्यक्ति की पहचान मार्क्सवादी के रूप में हो जाती है तो लोग उसके सभी विचारों को सतही तौर पर मार्क्सवाद के रूप में स्वीकार कर लेते हैं तथा उसके विचारों की अंतर्वस्तु में निहित अंतर्विरोध को पहचानने में नाकामयाब रहते हैं। जब ऐसा व्यक्ति ओहदे पर होता है और लोगों के भौतिक जीवन को प्रभावित करने की स्थिति में होता है, तो वह गैर-मार्क्सवाद को मार्क्सवाद समझने वाले पिछलग्गुओं की एक दब्बू जमात खड़ी कर लेता है।
यहाँ उठाये गये प्रश्न का सही उत्तर पाने के लिए, हमें पूरी तरह समझना होगा कि 'सोचने का मार्क्सवादी तरीक़ा' क्या है और लोगों का नज़रिया ऐसा कैसे बन जाता है कि वे मार्क्सवाद को पूरी तरह समझने में नाकाम रहते हैं।
मानवीय मस्तिष्क की सोचने की प्रक्रिया दो प्रकार की सूचनाओं का प्रक्रम करना है, एक तो इन्द्रियों से प्राप्त सूचना और दूसरी पुराने प्रक्रम के फलस्वरूप ज्ञान के रूप में पहले से मस्तिष्क में जमा सूचना। प्रक्रम भी दो स्तरों पर होता है - ऐच्छिक या साभिप्राय  तथा स्वतः या अनभिज्ञ। मस्तिष्क में पहले से जमा सूचना तय करती है कि नई सूचना का प्रक्रम और भंडारण किस प्रकार होगा। प्राकृतिक रूप से प्रक्रम के बाद नई सूचना जमा सूचना का ही हिस्सा बन जाती और भविष्य में बाद में आने वाली सूचना के प्रक्रम में भूमिका निभाती है। यह एक अनवरत प्रक्रिया है जो मानवीय मस्तिष्क के जन्म से लेकर मस्तिष्क का जीवन समाप्त होने तक चलती रहती है।
शुरुआत में पहले से जमा कोई भी सूचना नहीं होती है और कुछ वर्षों तक प्रक्रम केवल अनभिज्ञ स्तर पर ही होता है, एक स्वतः प्रवृत्त प्रक्रिया जो न सिर्फ़ जैविक है बल्कि सामाजिक भी है क्योंकि मस्तिष्क निरंतर उस सामाजिक परिवेश से सूचना पा रहा होता है जिसमें व्यक्ति पल और बढ़ रहा होता है। कालांतर में जैसे ही मस्तिष्क का स्नायु तंत्र विकसित होता है सूचना का प्रक्रम ऐच्छिक स्तर पर भी काम करने लगता है और व्यक्ति अपने विचारों तथा धारणाओं का संज्ञान लेने लगता है। अब सूचना के ऐच्छिक प्रक्रम के बीच में आ जाने के कारण अभी तक की सीधी-सादी चिंतन प्रक्रिया अधिक क्लिष्ट हो जाती है, और चिंतन प्रक्रिया केवल एक साभिप्राय दृग्विषय (जैसा कि आम तौर पर लोग सोचते हैं) नहीं रह जाता है बल्कि साभिप्राय तथा स्वतः दृग्विषयों का संयोजन हो जाता है।
आगत तथा पहले से मौजूद सूचनाओं की प्राप्ति, छँटनी तथा प्रक्रम अनभिज्ञ स्तर पर होना ही दिमाग़ की आदत या व्यक्ति की मानसिकता होती है। सोद्देश्य ऐच्छिक प्रयास की ग़ैरमौजूदगी में मानसिकता ही चिंतन प्रक्रिया तय करती है और यही व्यक्ति की मानसिकता की जड़ता का कारण होता है। केवल व्यक्ति स्वयं का सोद्देश्य ऐच्छिक प्रयास ही इस जड़ता से पार पाकर उसकी मानसिकता में बदलाव ला सकता है।
जीवन के साधनों के व्यक्तिगत तथा सामूहिक उत्पादन के द्वारा अपने जीवन की निरंतरता, और प्रजनन तथा सामाजिक परवरिश की मिली-जुली प्रक्रिया के द्वारा अपनी प्रजाति की निरंतरता, के सहजबोध से उपजे लोगों के जुड़ाव से निर्मित, मानव समाज एक 'सामाजिक-आर्थिक संरचना है। चेतना से लैस मानवों, जो कि भौतिक रूप से नहीं वैचारिक रूप से जुड़े होते हैं, से गठित मानव समाज एक जैविक संरचना है जो केवल चेतना है, एक वैचारिक स्वरूप अपने स्वयं के भौतिक स्वरूप के बिना। (आम तौर पर सैद्धांतिक चिंतन में नाकाबिल होने के कारण लोग यह समझने में नाकाम रहते हैं कि चेतना इस जैविक संरचना की अंतर्वस्तु है और लोगों का समूह केवल उसकी अधिरचना है। यह जैविक संरचना भौतिक नहीं है, वैचारिक संरचना है।) मानवीय चेतना के अवचेतन तथा चेतन पहलुओं की भाँति ही सामाजिक-चेतना के भी दो पहलू होते हैं, भौतिक-सामाजिक-चेतना तथा वैचारिक-सामाजिक-चेतना।
मानवीय-चेतना तथा सामाजिक-चेतना एक दूसरे का पूरकीकरण (complementing) करते हुए निरंतर एक दूसरे के ज्ञान को विकसित तथा समृद्ध करते रहते हैं। अनवरत बढ़ता ज्ञान निरंतर उत्पादक शक्तियों में इज़ाफ़ा करता रहता है और बढ़ी हुई उत्पादकता के साथ व्यक्तिगत माँगें भी द्विगुणित (multiply) होती जाती हैं, शारीरिक तथा वैचारिक दोनों स्तरों पर। पर इन माँगों का आधार भौतिक परिस्थितियाँ ही होता है, सामाजिक भी उतनी ही जितनी कि व्यक्तिगत। ऐतिहासिक कारणों से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की भौतिक परिस्थितियां अलग-अलग हो जाती हैं और इसीलिए माँगें भी। इन माँगों की पूर्ति के लिए साधन जुटाने के प्रयास में लोग अपने आप को गुटों तथा समूहों के रूप में चाहे-अनचाहे संगठित करना शुरु कर देते हैं। वृहत्तर समाज के अंदर ही ये समूह भी जैविक संरचना ही हैं। यहाँ भी साझा उद्देश्य हासिल करने का विचार ही समूह या संगठन की चेतना का आधार होता है और सभी चेतन ऐच्छिक प्रयास इसी साझा उद्देश्य को हासिल करने के लिए होते हैं।
कोई भी व्यक्ति जाने-अनजाने अनेकों समूहों तथा संगठनों का हिस्सा होता है जिनमें अनेकों के परस्पर विरोधी हित हो सकते हैं। एक व्यक्ति ऐच्छिक रूप से अलग-अलग समय पर अलग-अलग कार्य चुन सकता है, पर अपने किसी भी कार्य के बावजूद अवचेतन स्तर पर वह संगठन का हिस्सा बना रहता है जो मूलभूत साझा उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्यरत रहता है। इस रूप में संगठन किसी भी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं रहते हैं, नेताओं पर भी नहीं जैसा कि आम तौर पर विश्वास किया जाता है। संगठन अपनी ज़रूरतों के अनुसार अपने नेता स्वयं पैदा करते हैं, चुनते हैं और ख़ारिज करते हैं।
समाज की उत्पादकता बढ़ने के साथ लोग उससे अधिक पैदा करने लगे जितना कि उनकी जरूरतें पूरा करने के लिए चाहिए था। दूसरे शब्दों में वे अतिरिक्त उत्पादन करने लगे। अतिरिक्त उत्पादन के साथ, सामूहिक उत्पादन की प्रक्रिया और अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उत्पाद के आपस में बँटवारे में, लोगों के परस्पर विरोधी हित पैदा हो गये। एक था अपने लगाये हुए श्रम के अनुसार हिस्सा प्राप्त करना और दूसरा था औरों के द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त उत्पाद को हड़पना। लोगों के व्यक्तिगत जीवन और अस्तित्व से संबंधित होने के कारण ये परस्पर विरोधी हित, व्यक्ति की चेतना को चेतन स्तर की तुलना में अवचेतन स्तर पर कहीं अधिक प्रभावित करते हैं। इन परस्पर विरोधी हितों ने समाज को दो वर्गों में बाँट दिया है, एक कामगारों का वर्ग, उत्पादन के लिए श्रम मुहैया कराने वाला, और दूसरा परजीवियों का वर्ग, अतिरिक्त उत्पादन को हड़पने वाला। दो परस्पर विरोधी भौतिक-सामाजिक चेतना के आधार पर दोनों वर्ग विचारों तथा तिलस्मों की अपनी-अपनी वैचारिक-सामाजिक-चेतनाएँ  विकसित कर लेते हैं जो उनके वर्ग हितों से असंबद्ध नज़र आती हैं। अलग-अलग उत्पादन के तरीक़ों की वजह से दोनों वर्ग अनेकों अलग-अलग समुच्चयों तथा समूहों में बंट जाते हैं। इन अलग-अलग समुच्चयों तथा समूहों की वैचारिक-सामाजिक-चेतनाओं में फर्क नज़र आ सकता है पर उनका आधार हमेशा ही दो वर्गों में से किसी एक वर्ग की भौतिक-सामाजिक-चेतना ही होता है। भौतिक उत्पादन में परस्पर विरोधी हितों के कारण, दोनों वर्गों की गतिविधियाँ वर्ग संघर्ष का रूप ले लेती हैं। एंगेल्स ने लिखा था, "इस समाज ने अपने आप को न सुलझ सकने वाले अंतर्विरोधों में उलझा दिया है और असंगत अंतर्विरोधों के बीच दो फाड़ हो गया है जिन पर पार पाने में वह असमर्थ है। पर कहीं ये अंतर्विरोध, विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्ग अपने आप को तथा समाज को एक निष्कर्षहीन संघर्ष में न झोंक दें, संघर्ष को हल्का करने और 'व्यवस्थित' रखने के लिए एक ऐसी शक्ति आवश्यक हो गई जो समाज से ऊपर नज़र आए, और समाज में से उभरी लेकिन अपने आप को समाज के ऊपर स्थापित करती और निरंतर अपने आपको समाज से बेगाना करती हुई, यह शक्ति ही 'राज्य' है। इस तरह राज्य अस्तित्व में आया। समय के साथ, न्यायिक की भूमिका निभाते निभाते राज्य, सर्वाधिक शक्तिशाली संस्था बन कर उभरा है, और वर्गसंघर्ष में राज्य पर नियंत्रण करना सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य बन गया है।
मध्यकाल में परजीवियों (मध्य वर्ग) की आर्थिक गतिविधि उत्पादों का व्यापार करने तक सीमित थी, लेकिन उत्पादक शक्तियों के आगे विकास के साथ, इस वर्ग ने उत्पादन के साधनों को भी हासिल करना और उत्पादन बड़े स्तर पर करना शुरु कर दिया। हस्तशिल्पियों का छोटे स्तर का उत्पादन बुर्जुआ वर्ग के बड़े स्तर के उत्पादन से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता था और हस्तशिल्पियों को जीवित रहने के लिये अंततः अपने उत्पादन के औज़ारों को बेचना पड़ा। इसने हस्तशिल्पियों को उत्पादन तथा जीविका के साधनों से महरूम कर दिया और उनके पास बची थी केवल उनकी श्रम शक्ति जो उत्पाद की तरह बेची जा सकती थी। यह मानवजाति के इतिहास में एक गुणात्मक परिवर्तन था जिसने दो नये वर्गों को जन्म दिया, पूँजीपति और सर्वहारा।
श्रमशक्ति की ख़रीद के ज़रिए अतिरिक्त उत्पाद को हथियाने में रुचि रखने के कारण पूँजीपति वर्ग ने अपनी भौतिक तथा वैचारिक चेतना विकसित की, सच्चाई को मिथकों का जामा पहनाने के लिए,- 'क़ानून के सामने सब की बराबरी' सबसे प्रमुख मिथक।
सर्वहारा अपनी भौतिक परिस्थितियों के कारण इस सच को समझ जाता है कि समाज का भौतिक जीवन केवल सामूहिक मानवीय श्रम के द्वारा ही पैदा होता है और एक नई भौतिक-सामाजिक-चेतना पैदा होती है - सभी मिथकों के बिना सत्य को देखने की, 'वैज्ञानिक वैश्विक दृष्टिकोण'।
दोनों परस्पर विरोधी वर्गों के वर्ण-संकर के रूप में और उनके बीच प्रतिरोधक की स्थिति में निम्न-मध्य वर्ग अपनी भौतिक-सामाजिक-चेतना के साथ एक लंबे समय तक अस्तित्व में बना रहता है। निरंतर विस्तृत होती पूँजी अनेकों निम्न-मध्य वर्गीयों को सर्वहारा की पाँतों में धकेलती रहती है। इस वर्ग के लोग निरंतर पूँजीपति या सर्वहारा वर्गों में छितराते रहते हैं और दोनों वर्गों की संकर वैचारिक-सामाजिक-चेतना, 'काल्पनिक समाजवाद' के वाहक होते हैं।
  मार्क्स का अवतरण तब हुआ जब पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था और सारी उत्पादन व्यवस्थाओं के ऊपर हावी हो चुकी थी, पूंजी राज्य की सीमाएँ लाँघ रही थी तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी का रूप ग्रहण कर रही थी और पूँजीवाद साम्राज्यवाद के रूप में अपनी उच्चतम अवस्था में पहुँच रहा था। निम्न-मध्यवर्गीय-चेतना में पगे हुए मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी, मानवजाति के क्लेशों के कारणों को समझने तथा उनसे निजात पाने के रास्तों की तलाश में दर्शन तथा राजनैतिक-अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में विचारों को खंगाल कर नये-नये विचारों को प्रस्तुत कर रहे थे। दर्शन की अपनी वैज्ञानिक समझ के कारण मार्क्स प्रकृति के द्वंद्वों को सही-सही पहचान सके और मानव समाज रूपी सामाजिक-आर्थिक-संरचना की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना की सही समझ ग्रहण कर सके। उन्होंने सर्वहारा वर्ग की भौतिक तथा वैचारिक सामाजिक-चेतना का सारांश 'वैज्ञानिक वैश्विक दृष्टिकोण' के रूप में निकाला और लिपिबद्ध किया। मार्क्स सर्वहारा वर्ग की इस चेतना को 'मार्कसवाद' का नाम दिये जाने के सख़्त ख़िलाफ़ थे और 30 सालों तक विरोध करते रहे पर अंततः 1872 में इंटरनेशनल की हेग कांग्रेस से पहले उसे 'मार्क्सवाद' नाम दिये जाने पर सहमत हो गये।
पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था में वयस्क मताधिकार आधारित जनवादी-जनतंत्र राजसत्ता का उच्चतम स्वरूप बन कर उभरा है क्योंकि यह इस मिथक, कि सभी बराबर हैं, को सर्वमान्य बनाता है। लोकसभा के नियंत्रण के जरिए राजसत्ता पर नियंत्रण पाने के लिए अनेकों समूह अपने आप को राजनैतिक पार्टियों के रूप में गठित करते हैं।
किसी राजनैतिक पार्टी के गठन तथा कार्यप्रणाली के सही विश्लेषण तथा समझ के लिए इस संरचना की अंतर्वस्तु तथा अधिरचना को ठीक-ठीक समझना होगा। यह आवश्यक है कि संरचना को व्यक्तियों के भौतिक जमावड़े के रूप में न देखा जाय, बल्कि सामाजिक-संरचना, एक चेतना जो उसके सदस्यों के चेतन तथा अवचेतन दिमागों में बसती है, के रूप में देखा जाय।। वह एक संगठन है जो उसके सदस्यों, जो राजनैतिक संस्थानों पर क़ब्ज़ा कर शासनतंत्र पर नियंत्रण हासिल करने के साझा उद्देश्य से बँधे होते हैं, के सजग प्रयास द्वारा गठित किया जाता है। क्योंकि सदस्य व्यक्ति होते हैं जिनकी चेतना चेतन और अवचेतन दोनों स्तरों पर काम करती है, इस कारण संगठन की चेतना भी दो स्तरों पर कार्यरत होती है। सामूहिक उद्देश्य की प्राप्ति के अपने प्रयास में सदस्य अपनी रणनीति उस विचारधारा के अनुसार बनाते हैं जिसमें वे विश्वास करते हैं। क्योंकि विश्वास सदस्य के अवचेतन स्तर पर सक्रिय होता है, इस कारण विचारधारा संगठन की चेतना के अवचेतन भाग या अंतर्वस्तु का निर्माण करती है, और सभी सायश प्रयास संगठन की चेतना के चेतन भाग या अधिरचना का निर्माण करते हैं।
पूँजीपति वर्ग का हित पूँजी तथा मजूरी-श्रम के बीच उत्पादन संबंधों की निरंतरता में होता है और वह बाज़ार-अर्थव्यवस्था में किसी भी प्रकार की दख़लंदाज़ी नहीं चाहता है। इसलिए पूँजीपतियों की राजनैतिक पार्टियों की मार्गदर्शक विचारधारा है मुक्त व्यापार और अपनी कार्यप्रणाली वे संपूर्ण आज़ादी की नीति का अनुकरण करते हैं। निम्न-मध्यवर्गीय अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण एक साथ ही समाजवादी भी होता है और अर्थवादी भी। इसी लिए निम्न-मध्यवर्गीय पार्टियाँ 'काल्पनिक समाजवाद' स्थापित करना चाहती हैं और हितकारी राज्य की अवधारणा 'गरीबों की सहायता करने के लिए अमीरों से कर वसूलना, उत्पादन संबंधों को बदले बिना' उनका मार्गदर्शन करती है। अपनी निम्न-मध्यवर्गीय विचारधारा के अनुरूप उनकी पार्टियाँ अपनी कार्यप्रणाली में नियंत्रित आज़ादी, दूसरे शब्दों में आज़ादी नेतृत्व की इच्छा के अनुरूप, की नीति का अनुसरण करती हैं
सर्वहारा वर्ग की रुचि अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण, उत्पादन संबंधों को बदल कर वैज्ञानिक समाजवाद के रास्ते से वर्गहीन समाज बनाने में होती है। इसलिए सर्वहारा की पार्टी का मार्ग दर्शक सिद्धांत है मार्क्सवाद और अपनी कार्य प्रणाली में सर्वहारा की पार्टी को स्पष्ट विचार और विचार तथा व्यवहार में पूर्ण समन्वय के साथ एक संरचना की तरह व्यवहार करना चाहिए। कम्युनिस्ट पार्टी एक सामाजिक संरचना है जिसके सदस्य शासनतंत्र पर नियंत्रण करने, ताकि भौतिक परिस्थितियां पैदा की जा सकें जो एक वर्ग विहीन समाज की ओर ले जायें, के सामूहिक उद्देश्य से बँधे होते हैं। मार्क्सवादी अवधारणाओं के अनुसार एक कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग के संघर्ष में उसका हरावल दस्ता समझी जाती है, और उसे मज़दूर वर्ग की जागरूकता विकसित करने तथा उनके संघर्ष में उनकी सफलता के लिए निरंतर आंदोलन चलाना चाहिए।
अपने उद्देश्य तथा भूमिका के अनुरूप फ़ीडबैक हासिल करने के लिए, रणनीति बनाने के लिए और जन-आंदोलनों का संचालन करने के लिए, कम्युनिस्ट पार्टी को कामगारों की पाँतों और व्यापक समाज के साथ जीवंत रूप से अंतर्व्यवहार करना चाहिए। अपने वर्ग-संघर्ष में शत्रुतापूर्ण वातावरण के कारण यह अत्यंत आवश्यक है कि कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य पूरे तारतम्य और एकजुटता के साथ सोचें और कार्य करें। यह तभी संभव है जब सदस्यों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो और उनका पथप्रदर्शक हो एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित विचारधारा अर्थात मार्क्सवाद। लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी का गठन करते समय मार्क्सवाद के पुख़्ता ज्ञान तथा समझ के आधार पर 'जनवादी केंद्रीयता' की नीति और रीति विकसित की जिसमें पार्टी के सदस्य मार्क्सवादी विचारधारा से अच्छी तरह परिचित होते हैं, पार्टी के अंदर अधिकार तथा कर्त्तव्य के केंद्र समन्वित होते हैं और विभिन्न केंद्रों के बीच संबंध जनवादी होते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण न होने पर न तो नीति निर्धारण और अधिकार वितरण में जनवाद हो सकता है और न ही सदस्यों में आत्मानुशासन।
भारत में 1857 के विद्रोह के कुचल दिये जाने के बाद, पूरे 50 साल तक कोई हलचल नहीं थी, और बीसवीं सदी के आरंभ में अंग्रेज़ी राज से छुटकारा पाने की ज़रूरत ने भारतीय नौजवानों की कल्पना में घर करना शुरु कर दिया था। भारत में औद्योगिक विकास तथा पूँजीवाद शैशवकाल में थे। इसलिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में वर्चस्व तथा उसका नियंत्रण निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के हाथ में था। भारत में यह वह काल था जब निम्न मध्य वर्गीय युवा, काल्पनिक समाजवाद से रुमानी तौर पर प्रभावित और विश्व भर के राष्ट्रीय क्रांतिकारी शहीदों की कहानियों से  अभिभूत, अपने आप को मजलूमों के मसीहा और मुक्तिदाता के रूप में देख रहा था।
प्रथम विश्व युद्ध तक भारतीय बुर्जुआ बुद्धिजीवी यूरोप तथा अमेरिका के अनेकों आंदोलनों से प्रेरित थे, और शुरु में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में, भारतीय समाज की द्वंद्वात्मक समझ के बिना, व्यक्तित्व पूजा से उपजीं, दो मुख्य धाराएँ थीं। एक प्रेरित थी अब्राहम लिंकन और प्रजातंत्र की अवधारणा से और राज के साथ शांतिपूर्ण समझौते की नीति का अनुकरण करती थी। दूसरी गैरीबाल्डी और मेजिनी जैसे राष्ट्रवादियों से प्रभावित थी और नये राष्ट्र राज्य की किसी भी अवधारणा के बिना राज को हिंसक तरीक़े से उखाड़ फेंकने में विश्वास करते थे।
प्रूधों की पुस्तक 'दरिद्रता का दर्शन' के ऊपर टिप्पणी करते हुए पी अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र, में मार्क्स ने रेखांकित किया था कि, 'एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर अर्थवादी, दूसरे शब्दों में वह उच्च मध्य वर्ग की संपन्नता से चुंधियाया होता है और विपन्नों के दुखों से द्रवित होता है।' ' वह एक ही समय पर सरमायेदार और आमजन दोनों होता है।'
सन 1902 में अपने प्रसिद्ध पर्चे 'क्या किया जाय' में लेनिन ने रेखांकित किया था, 'जो हमारे आंदोलन की वास्तविक स्थिति से थोड़ा भी परिचित है, वह मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट देखे बिना नहीं रह सकता है। आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा व्यावहारिक सफलता के कारण काफ़ी तादाद में लोग बहुत थोड़ी, यहाँ तक कि नदारद सैद्धांतिक ट्रेनिंग के साथ आंदोलन में शामिल हो गये हैं।'
प्रथम विश्व युद्ध के बाद रूस में समाजवादी क्रांति की सफलता के साथ, निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों ने आदर्श के रूप में सोवियत यूनियन की ओर देखना शुरू कर दिया था जैसा कि भगत सिंह के लेखन से स्पष्ट है, और काल्पनिक समाजवाद के विचार, जैसा कि 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोशिएशन' का नाम बदल कर 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपबब्लिकन आर्मी' करने से ज़ाहिर है, के साथ एक तीसरी धारा भी उभरने लगी थी। अक्टूबर क्रांति की सफलता से अभिभूत और काल्पनिक समाजवाद से रोमांचित, मध्यवर्गीय कुछ बुद्धिजीवियों के समूह ने अंग्रेज़ी राज्य को उखाड़ने और भारत में सोवियत क्रांति करने के उद्देश्य से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखने का फ़ैसला किया और 1920 में  ताशकंद में अपने आप को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में (CPM के अनुसार) गठित किया। CPI का दावा है कि 1925 के कानपुर सम्मेलन से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की नींव पड़ी। इन बुद्धिजीवियों की मानसिकता का सही चित्रण मार्क्स तथा लेनिन के अवलोकन से, तथा पुष्टि भगत सिंह की अपनी शहादत से ठीक पहले की गई स्वीकारोक्ति ('उस समय तक मैं केवल एक रूमानी भाववादी क्रांतिकारी था' और 'मैंने अॅनार्किस्ट नेता बाकुनिन का अध्ययन किया था, कुछ थोड़ा कम्युनिज्म के प्रणेता मार्क्स का पढ़ा था') से होता है। इन मध्यम वर्गीय बुद्धीजीवियों ने मार्क्सवादी सिद्धांत की सतही या नगण्य समझ के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया था और इस कारण जीवन के अंतिम दौर में उनमें से अधिकांश मार्क्सवाद से भटक गये।
यह समूह उन सदस्यों से बना था जो काल्पनिक समाजवाद की स्थापना के लिए राजसत्ता हासिल करने के मक़सद से एकजुट हुए थे और जिनका मार्ग दर्शन उनकी निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता करती थी। दुर्भाग्यवश दुनिया भर में कम्युनिस्ट आंदोलन में हमेशा ही संशोधनवाद व्याप्त रहा है और दूसरे विश्वयुद्ध के छह सालों ने संशोधनवाद को पनपने तथा जड़ पकड़ने के लिए पर्याप्त आधार और समय प्रदान किया। CPI भी अपनी संशोधनवादी समझ को सही मार्क्सवादी सिद्धांत होने के दावे के साथ बेझिझक कामगारों और किसानों को संगठित करने में लगी रही। उस गलत समझ को ठीक करने के किसी भी चेतन प्रयास के अभाव में, संशोधनवाद अधिक से अधिक पुख़्ता तौर पर पाँतों-क़तारों की चेतना में घर कर गया, जिससे, निम्न मध्यवर्गीय चेतना के पूरी तरह अनुरूप, व्यक्ति-पूजा को बढ़ावा मिला।
साठ के दशक में अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन के बाद, तथा नेहरूवादी समाजवाद के साथ, CPI को आंतरिक तथा बाहरी दोनों माहौल ऐसे मिल गये जो उसकी निम्न मध्यवर्गीय चेतना और व्यक्ति पूजा की निरंतरता के लिए उपयुक्त थे। साठ के दशक में और उसके बाद CPI तथा कम्युनिस्ट आंदोलन में अनेकों विभाजन हुए, लेकिन सभी केवल अहं तथा नेतृत्त्व के लोगों के आपसी मनमुटाव के कारण हुए न कि सैद्धांतिक मतभेदों के कारण और इसी कारण वे 50 साल बाद भी अपने मतभेदों को दूर नहीं कर पाये हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि दो मुख्य गुट, CPI तथा CPM राजनैतिक ताक़त के लिए लड़ाई तथा सभी संघर्ष वाममोर्चे के तौर पर एक साथ करते आ रहे हैं पर वे एक पार्टी के तौर नहीं जुटना चाहते हैं।
बिलकुल शुरु से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्त्व मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के हाथ में रहा है जिनकी मार्क्सवाद की समझ में दार्शनिक अवयव पूरी तरह नदारद था। दावों के विपरीत पार्टी की सैद्धांतिक समझ मध्य वर्गीय चेतना पर आधारित है और आचरण सिद्धांतहीन कार्यशीलता पर। चाहे मज़दूर वर्ग के आंदोलनों को चलाने में हो या पार्टी के आंतरिक ढांचे की बात हो, उसका ज़ोर हमेशा केवल कार्यक्रम पर रहा है न कि मार्क्सवाद की सही समझ विकसित करने पर। बुर्जुआ प्रभावों के कारण 'जनवादी केंद्रीयता' की नीति व्यवहार में जड़ अनुशासन बन कर रह गई है। पार्टी के सदस्यों से अपेक्षा की जाती थी कि वे केंद्रीय नेतृत्त्व के आदेश को बिना पूछे स्वीकार लें। समय के साथ पार्टी एक ऐसे चक्रव्यूह में फँस कर रह गई है जिससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा है।
जब कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की गई थी, पूँजीवाद भारत में अपने शैशवकाल में था और मज़दूर वर्ग की चेतना पर सामंती तथा निम्न मध्य वर्गीय चेतना हावी थी। पार्टी निम्न मध्य वर्ग से सदस्यों को शामिल करती थी जिनके लिए नेताओं का मार्क्सवादी होना मानी हुई बात थी। आगे चल कर पार्टी ने पिछलग्गुओं की जमात पैदा की जिन्होंने चापलूसी को पुख़्ता किया। आज़ादी के पचास साल बाद भी 80% से अधिक आबादी सामंतवादी या निम्न मध्यवर्गीय आर्थिक वातावरण में रह रही है। इसने पार्टी या उससे निकले गुटों को, मज़दूर वर्ग के हरावल दस्ते यानि अत्याधिक प्रबुद्ध तथा राजनैतिक तौर पर जागरूक मार्क्सवादियों की कम्युनिस्ट पार्टी की जगह चापलूस अनुयायियों तथा अहंकारी नेताओं के संगठन में बदलने के लिए पूरी तरह माक़ूल आंतरिक था बाहरी वातावरण मुहैया कराया।
150 साल पहले एंगेल्स ने लिखा था, 'राज्य की उच्चतम अवस्था, जनवादी गणतंत्र, .........  राज्य का वह स्वरूप है अकेले जिसमें ही सर्वहारा तथा बुर्जुआजी के बीच अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है - जनवादी गणतंत्र आधिकारिक तौर पर संपत्ति के भेद को स्वीकार नहीं करता है।' 'और अंत में संपन्न तबक़ा सीधे आम मताधिकार के ज़रिए शासन करता है। जब तक पीड़ित वर्ग - हमारे मामले में सर्वहारा वर्ग - जब तक अपनी स्वतंत्रता के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, उस समय तक बहुमत में मौजूदा निज़ाम को ही एकमात्र सामाजिक व्यवस्था मानता रहेगा और राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला बना रहेगा, उसका अतिवाम पक्ष बना रहेगा। पर जिस हद तक वह अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होता जाता है, उसी के अनुसार वह वह स्वयं को अपनी पार्टी के रूप में संगठित करता जाता है, और अपने प्रतिनिधियों को चुनता है, न कि पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को। इस प्रकार सार्विक मताधिकार मज़दूर वर्ग की परिपक्वता का पैमाना है। मौजूदा राज्य में वह इससे अधिक कुछ और नहीं हो सकता है और न कभी होगा; लेकिन यही काफ़ी है। उस दिन, जब सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर मज़दूरों के बीच उबाल का स्तर दिखाएगा, वे और पूँजीपति भी जान जाएँगे कि वे कहाँ खड़े हैं।'
इस प्रकार, मार्क्सवाद का दम भरनेवाले सभी गुटों की मूल चेतना निम्न मध्यवर्गीय है और इसीलिए व्यवहार में वे सभी 'राजनैतिक तौर पर पूँजीवाद का दुमछल्ला, उसका अतिवाम पक्ष' बने रहेंगे और सर्वहारा वर्ग को अपनी आज़ादी के लिए परिपक्व होने में मदद नहीं कर सकेंगे।
रूस के कम्युनिस्ट आंदोलन में व्याप्त संशोधनवादी रुझानों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लेनिन ने अपने मशहूर पर्चे 'क्या किया जाय' में रेखांकित किया था, 'लेकिन विभ्रम तथा ढुलमुलपन जो रूस के पूरे समाजवादी जनवाद  के इतिहास के इस सारे दौर का विशिष्ट  लक्षण है ............. और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि हम कोई भी प्रगति नहीं कर सकते हैं जब तक हम इस पूरे दौर का अंत नहीं कर देते हैं।' उनका आंकलन आज भारतवर्ष के 90 साल के कम्युनिस्ट आंदोलन, जो शुरु से ही दक्षिणपंथी तथा वामपंथी संशोधनवाद में फँसा हुआ है, के लिए उतना ही प्रासंगिक है, और कुछ भी नहीं किया जा सकता है जब तक इसका पूरी तरह अंत नहीं कर दिया जाता है।
समय की मांग है एक ऐसे समूह की जिसका एकमात्र उद्देश्य मार्क्सवाद की सही समझ लोगों के बीच पहुँचाने के लिए प्रबुद्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को एकजुट करना हो। मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुरूप इस समूह का एकमात्र काम होगा मार्क्सवाद की सही समझ विकसित करना और फैलाना। इससे अधिक यह समूह न कुछ कर सकेगा न उसे करना चाहिए। एक बार मार्क्सवाद की सही समझ लोगों के बीच व्याप्त हो जायेगी, तो सर्वहारा चेतना को धारण करने वाले काफ़ी तादाद में हासिल होंगे और वह होगा मज़दूर वर्ग के मुक्तिदायक हरावल दस्ते का प्रस्थान बिंदु।

Suresh Srivastava

15 June 2013