Monday 24 April 2017

देश की, अर्धसामंतवादी-अर्धपूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पूँजीवादी विकास की ओर बड़ा क़दम

देश की, अर्धसामंतवादी-अर्धपूंजीवादी अर्थव्यवस्था का पूँजीवादी विकास की ओर बड़ा क़दम।
किसी भी सिद्धांत के बोझ से आजाद, क्रांति के आगे-आगे दौड़नेवाले अतिसक्रिय वामपंथी संशोधनवादी, या संशोधनवादी परंपरा का बोझ ढोते क्रांति के पीछे पैर घसीटते दक्षिणपंथी संशोधनवादी, पिछले 35 दिनों से जंतर मंतर पर धरने पर बैठे तामिलनाडु के किसानों के समर्थन में मीडिया में लंबे चौड़े बयान जारी करने में, किसी भी हालत में निम्नवध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों से पीछे नहीं दिखना चाहते हैं। वे महान मार्क्सवादी शिक्षकों की तस्वीरों पर माल्यार्पण करना नहीं भूलते हैं पर उनके सिखाये सबक़ों पर एक नजर भी नहीं डालना चाहते हैं। 
लेनिन ने समझाया था, ' पूँजीवादी समाज में विज्ञान तथा तकनीकी की हर प्रगति अनिवार्य रूप से, बिना किसी मुरव्वत के लघु-उत्पादन के आधार को खोखला करती है, और यह समाजवादी राजनीतिक-अर्थशास्त्री का दायित्व है कि इस प्रक्रिया, अक्सर क्लिष्ट तथा पेचीदी, की उसके सभी रूपों में पड़ताल करे और लघु-उत्पादक को दर्शाये कि पूँजीवाद के तहत उसका अपने बल पर बचे रहना असंभव है, पूँजीवादी व्यवस्था के तहत कृषक आधारित कृषि-उत्पादन का कोई भविष्य नहीं है और किसान के लिए सर्वहारा के दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है। इस प्रश्न पर संशोधनवादियों ने अपराध किया है, वैज्ञानिकता के अर्थ में, एकपक्षीय तथ्यों को चुनकर और संपूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था के संदर्भ से काट कर, सतही तौर पर सर्वव्यापक दिखा कर। राजनीतिक दृष्टिकोण से उन्होंने अपराध किया है इस तथ्य के आधार पर कि चाहे या अनचाहे उन्होंने किसानों को, क्रांतिकारी सर्वहारा के नजरिये की जगह छोटे मालिकों के नजरिये को (अर्थात बुर्जुआ नजरिये को) अपनाने का आग्रह किया।'
और हमारे वामपंथी साथी क्या कहते हैं ? -  35 दिन वे झुलसती गर्मी में जंतर मंतर पर कर्जमाफी और न्यूनतम समर्थन मूल्यों में अभिवृद्धि के लिए स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा लागू करने की मांग कर रहे थे। स्वामीनाथन कमेटी कहती है कि किसानों को उनकी फसलों का लागत से डेढ़ गुना मूल्य दिया जाना चाहिए।
इन्हें इतनी सी बात समझ नहीं आती है कि वैश्विक विनिमय आधारित बाजार व्यवस्था में लागत मूल्य किसान के कहने से तय नहीं होगा, वह तो वैश्विक स्तर पर उत्पादन तकनीक और पूँजी निवेश से ही तय होगा।
नीति आयोग, कृषि क्षेत्र के लिए नया .पी.ऐम.सी. एक्ट (Model State/Union Territory (UT) Agricultural Produce Marketing (Development & Regulation) Act), लाने जा रही है उसमें जो नये प्रावधान सुझाये गये हैं उनमें से महत्वपूर्ण कुछ ये हैं
- कॉंट्रेक्ट फ़ार्मिंग जिसके तहत छोटे बड़े हजारों किसानों की ज़मीनों पर खेती, बड़ी कंपनियों के नियंत्रण में की जायेगी, जो लागत कम करने के लिए ज्यादा से ज्यादा नई तकनीकों तथा मशीनों का इस्तेमाल करेंगी, जिस से ज्यादा से ज्यादा बटाईदार, खेत-मजदूर और छोटे बिचौलिए बेरोज़गार होकर सर्वहारा की क़तारों में शामिल हो जायेंगे।
- देश को टुकड़ों में बांटने वाले नोटीफाइड मार्केट एरिया के प्रावधानों को समाप्त कर पूरे देश को एकीकृत बाजार में तब्दील करना।'
- निजी क्षेत्र में थोक व्यापार यार्ड स्थापित करने के लिए प्रोत्साहन और सुविधाएँ प्रदान करना।
और ये प्रावधान, भारतीय कृषि क्षेत्र में बड़े पूँजी निवेश और पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के लिए द्वार खोल देंगे।
जिस शाश्वत नियम, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की पुख्ता समझ के आधार पर लेनिन सामंतवाद से पूँजीवाद में संक्रमण के प्राकृतिक नियम को पहचान सके थे, उस नियम की संशोधनवादी समझ के कारण हमारे वामपंथी साथी समझ ही नहीं पाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का चरित्र क्या है। सही हस्तक्षेप तो सही समझ के आधार पर ही हो पायेगा। 

सुरेश श्रीवास्तव 
24 अप्रैल, 2017


Monday 17 April 2017

मूल्य क्या है?


मूल्य क्या है
लंबे अरसे से मैं वामपंथी साथियों से बार बार आग्रह करता रहा हूँ कि मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी के भेद को समझिये क्योंकि इनको समझे बिना किसी भी अर्थव्यवस्था की सही सही पड़ताल असंभव है और उसके बिना शेखचिल्ली-समाजवाद तथा वैज्ञानिक-समाजवाद के बीच का अंतर नहीं समझा जा सकता है। लंबे अरसे बाद, पहली बार फेसबुक पर कुछ अतिवामपंथी संगठनों से जुड़े नौजवानों को विनिमय मूल्य तथा उपयोगी मूल्य के ऊपर विमर्श करते देखा, पर उनके बीच होने वाले वाद-विवाद से स्पष्ट है कि मूल्य के बारे उनकी समझ उसी संशोधनवादी समझ पर आधारित है जिसे वामपंथी मूर्धन्य अर्थशास्त्री नई पीढ़ी के बीच बाँटते रहे हैं। पर इन युवाओं के प्रयास की गंभीरता को देखते हुए मेरा दायित्व बनता है कि नई पीढ़ी को मार्क्सवाद की सही समझ हासिल करने में अपनी भूमिका निभाउं, इसलिए हस्तक्षेप के रूप में यह आलेख सामने रख रहा हूं।
व्यक्ति के शरीर से अलग कोई भी वस्तु जो व्यक्ति कि किसी मांग को संतुष्ट कर सकती है, उस वस्तु की उपभोग करनेवाले के लिए उपयोगिता होती है या दूसरे शब्दों में उपभोक्ता के लिए उसका उपयोगी मूल्य होता है। मूल्य का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, वह केवल एक वैचारिक वस्तु है तथा उसका अस्तित्व वैचारिक है। मानवीय चेतना के बाहर मूल्य का कोई अस्तित्व नहीं है। उसे छू सकते हैं, देख सकते हैं और इंद्रियों से ग्रहण कर सकते हैं, इसलिए मूल्य को ठीक से समझने के लिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की, तथा अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ आवश्यक है। यह मानते हुए कि इस लेख के पाठक वामपंथी ही होंगे, और उन्हें इन दोनों की मूलभूत समझ होगी, मैं सीधे मूल्य के विश्लेषण पर आता हूँ।
कोई भी वस्तु जो किसी मानवीय मांग को संतुष्ट करती है और जिसे बनाने में मानवीय श्रम लगा हो, उसे ही उत्पाद कहा जाता है और केवल उत्पाद का ही विनिमय किया जा सकता है। कोई वस्तु जो किसी मानवीय मांग को संतुष्ट नहीं करती है उसकी कोई उपयोगिता नहीं है, और इसी लिए उसका कोई मूल्य नहीं हो सकता है। अकेले उपभोक्ता के संदर्भ में उत्पाद की एक ही भूमिका होती है - उपभोक्ता की मांग को संतुष्ट करना - और इसीलिए अकेले उपभोक्ता के लिए मूल्य केवल उपयोग-मूल्य होता है। पर विनिमय के दौरान, उत्पाद की भूमिका दोहरी हो जाती है। विनिमय में एक वस्तु, जहाँ उपभोक्ता के लिए उत्पाद होती है जिसका मूल्य उसकी नजरों में उपयोगी-मूल्य होता है, वहीं उसके उत्पादक के लिए वही वस्तु माल होती है जिसकी उपयोगिता केवल विनिमय के लिए होती है तथा जिसका मूल्य उसकी नजरों में विनिमय-मूल्य होता है जिसके बदले वह अपने उपभोग के लिए दूसरा कोई और उत्पाद हासिल कर सकता है। इस तरह, एक ही उत्पाद में दो अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग मूल्य देखते हैं।  
उपभोग के बाद उत्पाद का अस्तित्व समाप्त हो जाता है और उसके साथ उसका उपयोग-मूल्य भी। उपभोग एकमुश्त भी हो सकता है और टुकड़ों में भी और उसी के अनुसार उत्पाद तथा उपयोग-मूल्य का अंत भी एकमुश्त या टुकड़ों में हो सकता है। उत्पाद का माल के रूप में विनिमय अनेकों बार हो सकता है, और तब तक जारी रहता है जब तक अंतत: वह उपभोक्ता तक नहीं पहुँच जाता है, और उपभोग के बाद उत्पाद का विनिमय-मूल्य तथा उपयोग-मूल्य दोनों समाप्त हो जाते हैं। चूँकि पड़ताल का दायरा विनिमय है इसलिए आसानी के लिए मार्क्स ने विनिमय-मूल्य के लिए मूल्य शब्द का इस्तेमाल किया है और उत्पाद के लिए माल शब्द का तथा अन्य अर्थशास्त्री भी इस शब्द का इसी रूप में प्रयोग करते हैं और यहाँ हम भी इसी रूप में प्रयोग करेंगे। चूँकि उत्पाद के उत्पादन में प्राकृतिक पदार्थ के अलावा उपयोगी मानवीय श्रम ही लगता है, इस कारण पड़ताल उपयोगी मानवीय श्रम से ही शुरू करनी होगी। 
उपयोगी मानवीय-श्रम का चरित्र दोहरा होता है। न्यूनतम स्तर पर, वह किसी प्राकृतिक पदार्थ के स्वरूप में परिवर्तन करने के लिए, मस्तिष्क से नियंत्रित माँसपेशियों के द्वारा, न्यूनतम समय तक लगाये गये बल के साथ किया गया कार्य है अर्थात न्यूनतम समय तक इस्तेमाल की गई श्रमशक्ति। माँसपेशियों द्वारा खर्च की गई ऊर्जा, परिवर्तित पदार्थ के अंदर कार्य के रूप में निहित हो जाती है। विज्ञान का हर विद्यार्थी जानता है कि शक्ति x समय = कार्य या ऊर्जा। व्यक्तिगत स्तर पर हर श्रमिक की श्रमशक्ति दूसरों की श्रमशक्ति से फर्क हो सकती है, पर व्यापक स्तर पर गणना के लिए किसी दिक काल में हर आम श्रमिक की श्रमशक्ति, उस समाज में रहने वाले सभी श्रमिकों की कुल श्रमशक्ति के औसत के बराबर ही समझी जा सकती है, और इस रूप में उसका मान निश्चित होता है, इस कारण कार्य समय के अनुपातिक हो जाता है, अर्थात किसी उत्पाद में निहित कार्य या समरूप-श्रम, उसके उत्पादन में लगे श्रमकाल के अनुपात में हो जाता है, और बहुत छोटे, क्षणिक, श्रमकाल को समरूप-श्रम की इकाई के रूप में देखा जा सकता है। इस प्रकार वस्तुओं में लगे समरूप-श्रम की तुलना उनमें लगे औसत श्रमकाल के आधार पर की जा सकती है।
वस्तु को उपयोगी बनाने में न्यूनतम औसत समरूप-श्रम की इकाई से कई गुना अधिक श्रम लगता है। न्यूनतम स्तर पर हर श्रम का परिणाम एक सा होता है, पर श्रम की मात्रा बढ़ने पर गुणात्मक परिवर्तन होने लगता है। अर्थात बराबर समय तक लगाई गई श्रमशक्ति, अलग अलग उत्पादों को अलग अलग स्वरूप प्रदान कर सकती है तथा एक ही मात्रा में खर्च किया गया श्रमकाल अलग अलग उपयोगी पदार्थ दे सकता है। इस तरह अलग-अलग उत्पादों की अलग-अलग उपयोगिता होने के बावजूद उनमें निहित श्रम-काल बराबर हो सकता है। इस प्रकार किसी उत्पाद में निहित मानवीय श्रम का चरित्र दोहरा होता है, इस रूप में, कि एक ओर तो वह समरूप-श्रम के आधार पर खर्च किया गया श्रमकाल दर्शाता है जो सभी उत्पादों में समान गुण के समरूप-श्रम की अलग-अलग मात्रा के रूप में निहित होता है, और दूसरी ओर वह अलग-अलग उत्पादों में अलग-अलग विशिष्ट-श्रम के रूप में मौजूद होता है जो उत्पादों को उनके विशिष्ट उपभोग के योग्य बनाता है। हर श्रम, समूचे रूप में उस कुशल-श्रम को दर्शाता है जो उत्पाद को उसका विशिष्ट स्वरूप प्रदान करता है, पर खंडों में वह समरूप श्रम-काल का योग दर्शाता है। 
मानवीय संरचना का एक विशिष्ट गुण है कि उसकी चेतना तथा ज्ञान का निरंतर विकास होता रहता है जिसके कारण उत्पादन प्रक्रिया के साथ श्रमिक की कुशलता भी बढ़ती जाती है अर्थात वह निश्चित समय में पहले के मुकाबले अधिक उत्पाद पैदा करने लगता है। बढ़ती कुशलता तथा श्रम के औजारों में सुधार के साथ, उत्पाद की उपयोगिता बरक़रार रहने के बावजूद उसमें लगनेवाले समरूप श्रम-काल की मात्रा घटती जाती है।
मानव नाम के जीव का एक और विशिष्ट प्राकृतिक गुण है कि एक मांग संतुष्ट होने के साथ ही नई मांग पैदा हो जाती है, चाहे वह उसके भौतिक अस्तित्व से उपजी हो या वैचारिक अस्तित्व अर्थात चेतना से उपजी हो। इसलिए समाज के विकास के साथ उत्पादों की विविधता भी बढ़ती गई और व्यक्ति एक दूसरे के बनाये उत्पादों पर निर्भर होने लगे तथा आपस में उत्पादों का आदान-प्रदान करने लगे। जब तक उत्पादक तथा उपभोक्ता पासपास रहते थे तथा भवनात्मक रूप से जुड़े हुए थे, और आवश्यकताएँ सीमित थीं, उत्पादों का आदान प्रदान, आवश्यकता तथा उपयोगिता के आधार पर हो जाता था और उनकी मात्रा की अनुपातिक तुलना की कोई आवश्यकता महसूस नहीं होती थी।
सभ्यता के भौगोलिक विस्तार के साथ, उत्पादों का आदान प्रदान परिचितों के बीच से निकल कर, दूर दराज़ के इलाक़े के अजनबी उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं के बीच होने लगा और आदान प्रदान की प्रक्रिया में गुणात्मक परिवर्तन हो गया। उत्पादों का लेन देन विनिमय के रूप में होने लगा और इसके साथ ही विनिमय में उत्पादों की मात्रा की अनुपातिक तुलना एक व्यावहारिक आवश्यकता हो गई। अलग अलग उत्पादों के रंग, रूप तथा गुण पूरी तरह एक दूसरे भिन्न होने के कारण प्रत्यक्ष में ऐसी कोई भी चीज नजर नहीं आती थी जो सभी उत्पादों में अंतर्निहित एक आवश्यक समान तत्व हो जिसके आधार पर अलग अलग उत्पादों के विनिमय में उसकी मात्राओं की आनुपातिक तुलना की जा सके। पर कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, और साथ ही सामाजिक चेतना व्यक्तिगत चेतना से भिन्न होती है। इसी के अनुसार व्यावहारिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए उत्पादों की मात्राओं की आनुपातिक तुलना सामूहिक रूप से स्वत: ही एक ऐसी समान चीज के आधार पर होने लगी, जिसकी, अलग अलग उत्पादों में अलग अलग मात्रा निहित होती है पर प्रत्यक्ष होने के कारण व्यक्तिगत स्तर पर उत्पादक तथा उपभोक्ता दोनों ही उससे अनजान थे। और अगले तीन हज़ार साल तक ये समान चीज चिंतकों तथा विचारकों के लिए एक पहेली बनी रही, जब तक चीज़ों की सही-सही पड़ताल की वह पद्धति और ज्ञान विकसित नहीं हो गया जो भौतिक जगत तथा वैचारिक जगत दोनों के ऊपर एक साथ लागू की जा सकती है। और उस पद्धति के आधार पर प्रकृति के सर्वव्यापी शाश्वत नियम और सिद्धांत जिसे हम द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नाम से जानते हैं, को उद्घाटित करने का श्रेय जाता है कार्ल मार्क्स को।       
विनिमय की प्रक्रिया में दो व्यक्ति होते हैं और दो उत्पाद होते हैं। विनिमय के संदर्भ तथा उत्पादों के सापेक्ष दोनों व्यक्तियों की मानसिकता तथा चेतना अलग अलग होती है। आसानी के लिए हम व्यक्तियों को नाम दे लेते हैं तथा और उनके उत्पादों के नाम क्रमश: तथा ख। विक्रेता के रूप में उत्पादक अपना उत्पाद बेचना चाहता है और बदले में उत्पाद ख़रीदना चाहता है। के लिए अपने उत्पाद का कोई उपयोग-मूल्य नहीं है, वह उसकी उपयोगिता केवल विनिमय योग्य उत्पाद अर्थात माल के रूप में देखता है जिसे वह के साथ विनिमय कर सकता है। तथा की मात्रात्मक तुलना के लिए वह में केवल लगाया हुआ समरूप श्रमकाल देखता है जिसके आधार पर वह किसी अन्य उत्पाद में लगे समरूप श्रमकाल के सापेक्ष अपने उत्पाद की विनिमय मात्रा तय कर सके। दूसरी ओर उत्पाद में वह उस विशिष्ट श्रम को देखता है जो को उसका उपयोगी-मूल्य प्रदान करता है। अपनी मानसिकता के अनुरूप वह के विशिष्ट श्रम में उसके समतुल्य उस समरूप श्रम-काल को देखता है जो उसके आंकलन में उसे खर्च करना पड़ता, अगर कुशलता के निम्नतर स्तर पर वह स्वयं उसका उत्पादन करता। इस तरह उत्पादक , बेचे जानेवाले अपने उत्पाद की एक इकाई में लगे हुए समरूप श्रमकाल की मात्रा को सापेक्ष-मूल्य के रूप में देखता है तो, ख़रीदे जानेवाले उत्पाद की समतुल्य इकाइयों में या इकाई के भाग में लगे हुए विशिष्ट श्रमकाल की मात्रा को समतुल्य-मूल्य के रूप में देखता है। दूसरी ओर उत्पादक , बेचे जानेवाले अपने उत्पाद में सापेक्ष-मूल्य देखता है तो, अपने द्वारा खरीदे जानेवाले उत्पाद में वह समतुल्य-मूल्य देखता है। मूल्य के ये दो स्वरूप उत्पादों में अंतर्निहित श्रम के दोहरे चरित्र, जो उत्पाद को एक साथ उपयोगी तथा विनिमय योग्य बनाता है, के कारण नजर आते हैं, पर मूल्य के ये दोनों स्वरूप विनिमय की विशेष परिस्थिति पैदा होने पर ही उजागर होते हैं। (यूनिटी एण्ड स्ट्रगल ऑफ़ अपोसिट्स)
कुशलता तथा उत्पादकता के निम्नतर स्तर पर किसी उत्पाद के सापेक्ष-मूल्य तथा समतुल्य-मूल्य बराबर होते हैं, पर कुशलता तथा उत्पादन प्रक्रिया में सुधार के साथ उनके बीच अंतर बढ़ता जाता है। दो उत्पादकों के बीच उनके अपने अपने उत्पादों का विनिमय एक ही समय पर एक दूसरे के साथ होने के कारण उनके समतुल्य-मूल्य तथा सापेक्ष-मूल्य का अंतर महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है और उनकी तुलनात्मक मात्रा का आंकलन अनजाने और स्वत: ही, प्रत्यक्ष में दोनों उत्पादों के समतुल्य-मूल्य, परंतु परोक्ष में सापेक्ष-मूल्य के आधार पर होने लगता है।
उत्पादकता तथा उत्पादों की विविधता बढ़ने के साथ, विनिमय के दायरे का भौगोलिक विस्तार होने के कारण दो नई समस्याएं पैदा हो गईं। एक तो यह कि बेचनेवाले तथा ख़रीदनेवाले की रुचि, एक ही समय पर एक दूसरे के माल में नहीं होती है। अर्थात ख़रीदनेवाले की रुचि, बेचनेवाले के उत्पाद में तो हो पर, की रुचि के माल को खरीदने में हो। दूसरा कि बेचने वाले को अपने माल का ख़रीदार तो मिल रहा हो, पर उसे जिस उत्पाद की जरूरत हो उस उत्पाद का बेचनेवाला आसपास हो ही नहीं। इन दोनों समस्याओं के समाधान के लिए एक ऐसे उत्पाद की जरूरत महसूस हुई जो सभी उत्पादों के मूल्य का मानक बन सके ताकि उसके साथ हर माल का विनिमय किया जा सके तथा उसकी मात्रा के रूप में हर उत्पाद का मूल्य प्रदर्शित किया जा सके। और इस आवश्यकता को पूरा किया सोना चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं ने। दूसरे एक ऐसे व्यक्ति की भी जरूरत थी जो स्वयं तो उत्पादक था और ही उपभोक्ता, पर जो उत्पादों को उत्पादक से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए आवश्यकतानुसार क्रेता तथा विक्रेता दोनों की भूमिका अदा कर सके। और इस आवश्यकता को पूरा किया बिचौलिए ने। 
कालांतर में विनिमय के माध्यम के रूप में सोने चाँदी की का स्थान, सिक्कों के रूप में राज्य द्वारा सत्यापित मुद्रा ने ले लिया, और बिचौलिए का स्थान व्यापारी ने ले लिया। 
आगे बढ़ने से पहले यहाँ रुक कर हम एक बार फिर से मूल्य को ठीक से समझ लें। आम तौर पर, अमूर्त चिंतन के अभाव में अर्थात वैचारिक जगत को, मस्तिष्क की, भौतिक जगत के, इंद्रियों द्वारा संज्ञान की प्रक्रिया के परिणाम के रूप में देख सकने के कारण, लोगों के लिए यह समझाना मुश्किल होता है कि मूल्य का कोई भौतिक स्वरूप नहीं है। मूल्य पूरी तरह एक वैचारिक वस्तु अर्थात विचार है जो किसी भौतिक वस्तु के संज्ञान की प्रक्रिया का परिणाम है, और जाहिर है कि प्रक्रिया का परिणाम, कर्ता अर्थात संज्ञान लेनेवाले व्यक्ति की मनःस्थिति के उपर निर्भर करेगा। 
विनिमय प्रक्रिया के दौरान उत्पादक तथा उपभोक्ता के मस्तिष्क में, एक ही उत्पाद अलग अलग विचार पैदा करता है और इसीलिए वे उसमें अलग-अलग मूल्य देखते हैं। उत्पादक उसमें सापेक्ष-मूल्य अर्थात खर्च किया गया समरूप श्रमकाल देखता है, परंतु उपभोक्ता उसमें समरूप श्रमकाल देखकर, समरूप श्रमकाल का आंकलन समतुल्य-मूल्य के आधार पर करता है क्योंकि वह उसमें अपने लिए उपयोग्य-मूल्य देख रहा होता है।
मुद्रा के रूप में सिक्के पर दर्शाये गये मूल्य का, उसके अपने उत्पादन मूल्य अर्थात उसके उत्पादन में खर्च किये गये समरूप श्रमकाल से कोई संबंध नहीं होता है। दर्शाया गया मूल्य, राज्य द्वारा सत्यापित होने के कारण, सभी को आश्वस्त करता है कि जिस किसी के हाथ में वह सिक्का है, वह व्यक्ति उस सिक्के पर दर्शाये गये मूल्य का मालिक है और उतने मूल्य के किसी भी उत्पाद के साथ उसका विनिमय किया जा सकता है। मुद्रा के अस्तित्व में आने के बाद हर उत्पाद का मूल्य, मुद्रा के सापेक्ष दर्शाया जाने लगा अर्थात हर माल का मूल्य कीमत के रूप में दर्शाया जाने लगा, और सामाजिक चेतना में कीमत ही मूल्य का पर्याय बन गई। अधिकांश वामपंथी, मार्क्सवाद की पुख्ता समझ के अभाव में, श्रम के दोहरे चरित्र और इस कारण मूल्य के दोहरे चरित्र को समझकर, कीमत को ही मूल्य समझते रहते हैं। इसीलिए वे तो अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन और विनियोजन (शोषण) को समझ पाते हैं और ही शेखचिल्ली समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद के अंतर को समझ पाते हैं।
बिचौलिए की भूमिका, उत्पादक तथा उपभोक्ता से भिन्न होती है। विनिमय में किसी भी उत्पाद के बरक्स उत्पादक तथा उपभोक्ता की भूमिका निश्चित होती है। किसी उत्पाद का उत्पादक किसी भी परिस्थिति में उस उत्पाद का उपभोक्ता नहीं हो सकता है, अपने ही बनाये उत्पाद का ख़रीदार। इसी तरह उपभोक्ता भी जिस उत्पाद को ख़रीद रहा है उसका उत्पादक नहीं हो सकता है। पर बिचौलिया या व्यापारी किसी वस्तु का उत्पादक होता है और ही उपभोक्ता। उसके लिए हर उत्पाद माल होता है। वह हर माल में उस उत्पाद के, समतुल्य-मूल्य तथा सापेक्ष-मूल्य के अंतर, को देखता है। व्यापारी, उत्पादक से उसका उत्पाद ख़रीदते समय उत्पाद के सापेक्ष-मूल्य के बराबर कीमत अदा करता है। उसी उत्पाद को बेचते समय व्यापारी उपभोक्ता से समतुल्य-मूल्य के बराबर कीमत वसूलता है। समतुल्य-मूल्य तथा सापेक्ष मूल्य के अंतर अर्थात अतिरिक्त मूल्य को, बेचने तथा खरीदने की कीमत के बीच के अंतर अर्थात मुनाफे के रूप में, व्यापारी हड़प लेता है।
किसी चीज को पूरी तरह समझने के लिए उसकी अंतर्वस्तु तथा अधिरचना को ठीक-ठीक समझना जरूरी है। मूल्य की अंतरवस्तु या मूल क्या है तथा उसकी अधिरचना क्या है इसको समझे बिना, अधिशेष मूल्य को समझ पाना असंभव है। अधिकतर वामपंथी समझ ही नहीं पाते हैं कि अधिशेष मूल्य पैदा करना मानवीय श्रमशक्ति का प्राकृतिक गुण है पर अधिशेष मूल्य की मात्रा, उत्पादन प्रक्रिया पर निर्भर करती है। उत्पादन की पद्धति तथा अधिशेष के विनियोजन की पद्धति, अर्थव्यवस्था की पद्धति को निर्धारित करती है, और सारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था की दिशा अधिशेष के विनियोजन की पद्धति से तय होती है।  हमारे वामपंथी साथी समझ ही नहीं पाते हैं कि सामंतवादी अर्थव्यवस्था या पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अधिशेष का विनियोजन किस प्रकार होता है। इसलिए जब वे मजदूरों तथा किसानों को संगठित करने के लिए शोषण से मुक्ति का दावा करते हैं तो है मजदूर मानने को तैयार ही नहीं होते हैं, कि बाजार की दर पर या उससे अधिक दर पर मजदूरी मिलने के बाद उनका शोषण किस प्रकार हो सकता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था को मैं अर्ध-सामंतवादी अर्ध-पूँजीवादी व्यवस्था के रूप में परिभाषित करता हूँ तो संगठित वामपंथी मुझे पूरी तरह ख़ारिज कर देते हैं। और अगर मैं उनसे मूल्य तथा अधिशेष के सृजन की प्रक्रिया के ऊपर विमर्श के लिए कहता हूँ तो वे हर तरह के संशोधनवादी तथा प्रतिक्रांतिकारी विशेषण मेरे ऊपर चस्पाँ कर विवर्श से किनारा कर जाते हैं। 
सुरेश श्रीवास्तव
17 अप्रैल, 2017