Thursday 17 March 2016

किंग फ़िशर की मौत का ज़िम्मेदार कौन ?

किंग फ़िशर की मौत का ज़िम्मेदार कौन ?
विजय माल्या 2 मार्च 2016 को ही देश छोड़ कर चले गये। सोशल मीडिया में चर्चा है कि बैंकों का दस हज़ार करोड़ हज़म कर गये हैं। ख़बर है जेट एयरवेज़ की उड़ान से गये हैं, सात सूटकेस लेकर। कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ लोग कहने लगें कि सात सूटकेसों में हजारों करोड़ डालर के करेंसी नोट भरे हुए थे। पर सामान्य बुद्धिवाला भी जानता है कि जिन दस हज़ार करोड़ रुपये हज़म करने का आरोप माल्या पर चस्पाँ किया जा रहा है वह दस हज़ार करोड़ रुपया आज की तारीख़ में किस रूप में है और कहाँ है, कोई नहीं जानता है। यह भी समझना मुश्किल नहीं है कि उस दस हज़ार करोड़ का स्वरूप कुछ भी हो, पूरा का पूरा माल्या के क़ब्ज़े में तो नहीं ही है, और अगर आज की तारीख़ में उनके नियंत्रण में कुछ होगा भी तो वह उस रक़म का बहुत थोड़ा सा हिस्सा ही होगा या संभावना है कि बिल्कुल भी न हो। दस हज़ार करोड़ रुपये का आंकड़ा, आम निम्न मध्यवर्गीय चेतना में जिस चीज का बोध कराता है उसका भौतिक स्वरूप क्या है, इसको जानने में किसी की रुचि नहीं है। हर किसी की रुचि केवल इसमें नजर आती है कि विजय माल्या को भागने में किसने मदद की है और अगर सरकार विजय माल्या नाम के व्यक्ति को लाकर जेल में बंद कर दे, तो वह अपने आप बता देगा कि इस रक़म को कहां और किस रूप में रखा गया है। फिर सरकार को उस रक़म को अपने क़ब्ज़े में लेने में कोई समस्या नहीं होगी। निम्न मध्य वर्गीय शायद मानते हैं कि यह रक़म वसूलने के बाद सरकार हर एक के बैंक खाते में कुछ सौ रुपया तो जमा करा ही देगी। आख़िर बाबा रामदेव और नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार के दावे पर भी तो भरोसा किया ही था कि हर एक के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रुपये जमा हो जायेंगे। विजय माल्या को कर्ज दिलाने और भागने में मदद करने को लेकर, पक्ष तथा विपक्ष, दोनों एकदूसरे पर आरोप जड़ रहे हैं। निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी जो सोशल मीडिया के जरिए भ्रष्टाचार, शोषण तथा तानाशाही से लड़ने का भ्रम पाले हुए हैं, सरकार पर मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं।
जैसा कि लेनिन ने समझाया था कि आम जनता के हित से जुड़े किसी भी मसले को ठीक-ठीक समझने के लिए ज़रूरी है कि उस मसले की पड़ताल वर्गीय हितों के नजरिये से की जाय, किंगफ़िशर एयरलाइन्स के मसले को समझने के लिए भी तीन वर्गों के हितों के नजरिये से मसले को देखना होगा।
पहला वर्ग है पचासी प्रतिशत आबादी जो किसी न किसी रूप में भौतिक उत्पादन में अपने श्रम के जरिए योगदान देती है और उसके बदले मिलने वाली मज़दूरी से अपने तथा अपने परिवार के जीवन साधन जुटाती है। इसमें किंगफ़िशर एयरलाइंस के कर्मचारी भी शामिल हैं जिन्हें उनका बक़ाया नहीं मिला है। उनकी रुचि केवल इस बात में है कि जहाँ कहीं भी जिस किसी भी रूप में हो, यह रक़म जल्दी से जल्दी वसूली जाय ताकि कर्मचारियों के बकाये का भुगतान किया जा सके और जनता के हिस्से के पैसे को भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार आदि जैसी मौलिक सुविधाओं के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
दूसरा वर्ग है पाँच प्रतिशत संपन्न आबादी जिसके हाथों में भौतिक संसाधनों के उत्पादन तथा वितरण का नियंत्रण तथा प्रबंधन है, जो विजय माल्या की हम प्याला हम निकाला रही है और जिसकी नजर में विजय माल्या की गिनती एक दक्ष और सफल पूँजीपति की रही है। उनकी रुचि केवल इस बात में है कि विजय माल्या किसी क़ानून के उल्लंघन के दोषी न पाये जायें ताकि उनके बिज़नेस मॉडल, जो पूँजी के विस्तार के लिए आदर्श मॉडल है, को धक्का न लगे।
तीसरा वर्ग, दस प्रतिशत आबादी, उन लोगों का है जो कहलाते तो बुद्धिजीवी हैं पर वास्तव में हैं परजीवी, जिनका कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान भौतिक जीवन के साधनों के उत्पादन-वितरण में नहीं है। उपभोक्ता के रूप में उसकी भूमिका हूबहू, 'बंदर और दो बिल्लियों' वाली कहानी के बंदर की तरह है। वह पहलेवाले दो वर्गों के संघर्ष की आग में, बारी बारी से घी और पानी डालने का काम करता है। इस वर्ग में साहित्यकार, रचनाकार, आलोचक, मीडियाकर्मी, रंगकर्मी, सरकारी अफ़सर, राजनीतिज्ञ, शिक्षक आदि सभी शामिल हैं, जो विचारों, विचारधारा तथा संस्कृति के निर्माण करने और कामरेड कन्हैया कुमार के शब्दों में 'कॉमन कॉन्सेंश का क्रिटिकल ऐनालिसिस' करने का दावा करते हैं। उनकी रुचि केवल इस बात में है कि सारी बहस विजय माल्या के दस हज़ार करोड़ लेकर भाग जाने पर केंद्रित रहे ताकि जनता आरोप-प्रत्यारोप के बीच उलझी रहे और उसका ध्यान मूल समस्याओं से बँटा रहे। निम्न मध्यवर्ग का हित इसी में है कि मूल समस्या का समाधान न हो, पर समय-समय पर बोफ़ोर्स, सत्यम, टूजी, सीजी, कोलगेट, आईपीऐल, किंगफ़िशर जैसी घटनाएँ प्रकाश में आती रहें और ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के उपाय ढूँढने के लिए की जाने वाली बहसों पर जनता का पैसा बचाने के नाम पर जनता का ही करोड़ों रुपया खर्च होता रहे। मार्क्स ने लिखा था, '“……निम्न मध्यवर्गीय आनेवाली सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग होगा।” तथा “एक विकसित समाज में और अपनी परिस्थिति के कारण, निम्न-मध्यवर्गीय एक ओर तो समाजवादी बन जाता है और दूसरी ओर एक अर्थवादी, अर्थात वह उच्च वर्ग के ऐश्वर्य से चुंधियाया होता है और विपन्नों की विपन्नता से द्रवित भी।”              
विडंबना यह है कि हजारों निम्नवर्गीय बुद्धिजीवी, व्यक्तिगत नैतिक ईमानदारी के बावजूद अपनी वर्गीय चेतना के पूर्वाग्रहों से छुटकारा नहीं पा पाते हैं। वे पूर्वाग्रहों से छुटकारा पाने के लिए जिस वामपंथी आंदोलन पर निर्भर हैं, उस वामपंथी आंदोलन में, मार्क्सवाद के नाम से जाने जानेवाले, वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित सिद्धांत के, दार्शनिक आयाम की समझ दूर दूर तक नजर नहीं आती है। जो अपने आप को मार्क्सवादी नहीं मानते हैं, उनके बारे में तो समझा जा सकता है कि वे काल्पनिक समाजवाद को ही सत्य मानते हैं और उसी को हासिल करने का सपना स्वयं भी देखते रहते हैं और जनता को भी दिखाते रहते है हैं। पर जो अपने आप को मार्क्सवादी मानते हैं तथा वैज्ञानिक समाजवाद में निष्ठा रखते हैं वे भी काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद के सूक्ष्म तथा जटिल अंतर को नहीं समझ पाते हैं, और न ही समझना चाहते हैं। वे समाजवादी क्रांति करने के उतावलेपन में, मार्क्स की 'थीसिस ऑन फॉयरबाख' में दी गयी केवल आख़िरी टिप्पणी, 'दार्शनिकों ने विश्व की केवल व्याख्या की है, अनेकों तरह से; सवाल है उसे बदलने का' को पकड़ कर बैठे हुए हैं पर पूँजी के फ़्रांसीसी संस्करण की भूमिका में दी गयी मार्क्स की नसीहत, 'विज्ञान की ओर कोई राजपथ नहीं जाता है, और केवल उन्हें ही, जो उसके दुर्गम रास्ते की थकाने वाली चढ़ाइयों से ख़ौफ़ नहीं खाते हैं, उसके दैदीप्यमान शिखर पर पहुँचने का अवसर मिलता है' को पूरी तरह नजरंदाज कर देते हैं।
जिस तरह किसी डाक्टर के लिए, किसी मरीज़ की बीमारी को समझने तथा उसका निदान ढूँढने से पहले ज़रूरी है कि वह मूल रूप से शरीर के अंगों तथा कोशिकाओं की संरचना तथा प्रक्रियाओं की सही-सही समझ हासिल करे, उसी तरह सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूँढने के लिए कटिबद्ध बुद्धिजीवियों के लिए आवश्यक है कि वे मूल्य, मुद्रा तथा पूँजी, और, मूल्य तथा अतिरिक्त-मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया को सही-सही समझें।
मार्क्स लिखते हैं 'मूल्य-रूप जिसका पूरी तरह विकसित स्वरूप मुद्रा-रूप है, बहुत ही प्राथमिक तथा साधारण है। फिर भी, मानव मस्तिष्क 2000 साल तक, उसके मूल तक पहुँचने का असफल प्रयास करता रहा है, जब कि दूसरी ओर वह और अत्यंत कठिन और क्लिष्ट संरचनाओं का विश्लेषण करने में काफी हद तक सफल रहा है।' भौतिक शारीरिक संरचना को समझने के लिए कोशिकीय संरचना के अध्ययन तथा विश्लेषण के लिए माइक्रोस्कोप जैसे उपकरण और रासायनिक प्रक्रियाएं उपलब्ध हैं पर मूल्य, मुद्रा, पूंजी जैसी वैचारिक चीजों को समझने के लिए अमूर्त चिंतन का ही सहारा लेना होता है। वे आगे लिखते हैं, 'बुर्जुआ समाज में श्रम के उत्पाद का पण्य-रूप या पण्य उत्पाद का मूल्य-रूप - आर्थिक संरचना के लिए कोशिका-रूप है।'  
यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है कि विजय माल्या वापस आते हैं या नहीं, महत्वपूर्ण है यह जानना कि यह दस हज़ार करोड़ रु किस किस रूप में है और कहाँ कहां है। उसके बाद ही तो तय हो पायेगा कि उसमें से कितना हिस्सा किसको मिलता है। बोफ़ोर्स, सत्यम, टूजी, सीजी, कोलगेट, आईपीऐल आदि में लाखों करोड़ रुपये की हेरा फेरी की चर्चा रही, अपराधियों को सजा देने तथा उस रक़म को वसूलने के लिए की गयी चर्चाओं पर सैकड़ों करोड़ खर्च किये गये, पर आज तक उस रक़म के न स्वरूप का पता है, और न ये पता है कि वह कहाँ तथा किस रूप में है।
वामपंथ का गढ़ माने जानेवाले और समाजविज्ञान में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खोजें करने का दावा करने वाले जनेवि जैसे शिक्षा संस्थानों में पढ़ाने वाले प्राध्यापकों का दायित्व है कि वे मूल्य तथा मुद्रा के स्वरूप की सही-सही समझ आम जनता की चेतना तक पहुँचाएँ ताकि आम जनता द्वारा, उत्पादन-वितरण प्रक्रिया में विभिन्न व्यक्तियों के योगदान को पहचाना जा सके, सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का सही-सही आंकलन किया जा सके तथा राष्ट्र-राज्य द्वारा निर्धारित की जाने वाली नीतियों में, अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करने वाले वर्ग के हितों को सुनिश्चित करने के लिए उचित हस्तक्षेप किया जा सके। पर अफ़सोस है कि समाजविज्ञान के मूर्धन्य माने जानेवाले प्राध्यापकगण, मूल वैचारिक कोटियों की समझ को स्पष्ट करने की जगह भ्रमित अधिक करते हैं।    
कुछ माह पहले मुझे जनेवि में अर्थशास्त्र के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक प्राध्यापक, जिनका वामपंथी राजनीति में अच्छा दख़ल है, का व्याख्यान सुनने का मौक़ा मिला। विषय था, A Restatement of  the Labour  Theory of  Value. जनेवि जैसे संस्थान में प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों के बीच, मूल्य के सिद्धांत जैसे गंभीर विषय पर चर्चा सुनने के लिए बड़ी आशा और उत्साह के साथ गया था, पर मुख्य वक़्ता की आधार परिकल्पना - The  Labour  Theory  of  Value,  in  my  view,  is  concerned  basically  with the  relative  exchange  ratio  between  the  money  commodity  on  the  one  hand  and  the world  of  non-money  commodities,  taken  together,  on  the  other - सुनकर बेहद निराशा हुई और एक चुटकुला याद कर हँसी भी आई। चुटकुला इस प्रकार है।
नर्सरी कक्षा के विद्यार्थी से शिक्षिका ने पूछा - तुम कहाँ रहते हो?
विद्यार्थी - रामू के घर के सामने।
शिक्षिका - रामू कहाँ रहता है?
विद्यार्थी - मेरे घर के सामने।
शिक्षिका - और तुम दोनों कहाँ रहते हो?
विद्यार्थी - आमने सामने।
प्रश्नोत्तर काल में मैंने हस्तक्षेप किया, "मुद्रा-जिंस (money commodity) तो स्वयं अस्तित्व में तब आई जब उत्पादों का जिंस के रूप में विनिमय पूरी तरह विकसित हो चुका था। और मार्क्स ने तो मुद्रा की पहचान वैचारिक-सामाजिक वस्तु के रूप में की थी। मान लीजिये एक हज़ार रुपये का नोट है वह दसियों लोगों के हाथ से गुज़रता है और हर बार विक्रेता उसके बदले एक हज़ार रुपये मूल्य की वस्तुएँ ग्राहक को थमा देता है। अचानक पता लगता है कि नोट तो नक़ली है, और एक हज़ार रुपये के नोट का मूल्य शून्य हो जाता है। यह कैसे होता है कि एक हज़ार रुपये का मूल्य अचानक ग़ायब हो जाता है?" न केवल वक़्ता ने मेरे प्रश्न से किनारा कर लिया, बल्कि आयोजकों ने, जिनमें अन्य प्राध्यापक शामिल थे, मुझे आगे बोलने से रोक दिया। शायद मेरी अभिव्यक्ति की आजादी उनके लिए असहज स्थिति पैदा कर रही थी। जाहिर है कि सभी वामपंथी पार्टियाँ, भारतीय सामंतवादी-पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को समझने में नाकाम क्यों हैं। उनका सिद्धांत है कि जो हमारा आदर्श है उसके लिए कोई भी असहज स्थिति पैदा करे, यह स्वीकार्य नहीं है।    
पड़ताल पर आगे बढ़ने से पहले उन सैद्धांतिक बातों को समझना ज़रूरी है जो किसी विशेष परिस्थिति पर निर्भर नहीं करतीं बल्कि वे पूंजीवादी व्यवस्था की व्यापकतम परिस्थितियों की व्याख्या करने में सक्षम हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत सामूहिक चेतना में उत्पादन का मुख्य उद्देश्य अतिरिक्त मूल्य पैदा करना हो जाता है। मार्क्स ने समझाया था कि अतिरिक्त-मूल्य, उत्पाद के उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान ही पैदा हो सकता है, क्योंकि मूल्य, और इसलिए अतिरिक्त मूल्य भी, केवल मानवीय श्रम के द्वारा ही पैदा किया जा सकता है, पर अतिरिक्त मूल्य का अंतरण और पूँजी के साथ विलय, उपभोक्ता द्वारा उत्पाद का उपभोग मूल्य चुकता करने के बाद ही हो सकता है। मार्क्स ने यह भी समझाया था कि अतिरिक्त मूल्य तीन वर्गों के बीच बँटता है। भूमि-भवन आदि अचल संपत्ति मुहैया कराने वाले के लिए किराया (सरकारी टैक्स भी इसी के अंतर्गत शामिल है), पूँजी मुहैया करानेवाले महाजन के लिए ब्याज, तथा उत्पादन के साधन और श्रम जुटानेवाले पूँजीपति के लिए मुनाफ़ा। पूँजी के निर्बाध आवागमन के कारण सारा विश्व, एक वैश्विक बाज़ार, और इसी कारण से, एक वैश्विक समाज बनता जा रहा है।  
मार्क्स ने वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था की कार्य प्रणाली की विवेचना करते हुए समझाया था कि, 'The banking system, so far as its formal organisation and centralisation is concerned, is the most artificial and most developed product turned out by the capitalist mode of production. ................... The banking system possesses indeed the form of universal book-keeping and distribution of means of production on a social scale, but solely the form. We have seen that the average profit of the individual capitalist, or of every individual capital, is determined not by the surplus-labour appropriated at first hand by each capital, but by the quantity of total surplus-appropriated by the total capital, from which each individual capital receives its dividend only proportional to its aliquot part of the total capital. This social character of capital is first promoted and wholly realised through the full development of the credit and banking system. On the other hand this goes farther. It places all the available and even potential capital of society that is not already actively employed, at the disposal of the industrial and commercial capitalists so that neither the lenders nor users of this capital are its real owners or producers. It thus does away with the private character of capital and thus contains in itself, but only in itself, the abolition of capital itself. By means of the banking system the distribution of capital as a special business, a social function, is taken out of the hands of the private capitalists and usurers. But at the same time, banking and credit thus become the most potent means of capitalist production beyond its own limits, and one of the most effective vehicles of crisis and swindle.'
और लेनिन ने रेखांकित किया था, 'This typical example of balance-sheet jugglery, quite common to joint-stock companies explains why their Board of Directors are willing to undertake risky transactions with a far lighter heart than individual businessmen. Modern methods of drawing up balance-sheets not only make it possible to conceal doubtful undertakings from the ordinary shareholder, but allow the people most concerned to escape the consequence of unsuccessful speculation by selling their shares in time when the individual businessman risks his own skin in everything he does.'

अब हम कुछ तथ्यों पर नजर डाल लेते हैं जो यह समझने में मदद करेंगे कि विजय माल्या की समझौते की पेशकश भारतीय जनता के व्यापक हित में है या नहीं।
जनवरी 2014 में जब ऋणदाता बैंक समूह ने कंपनी को 6,963 करोड़ रु की वसूली के लिए नोटिस दिया था, तब कंपनी की देनदारियाँ मूल की मद में लगभग 5,000 करोड़ रु की थीं और 2,000 करोड़ रु ब्याज की मद में देय था। 15.5 प्रतिशत ब्याज दर के साथ यह राशि नवंबर 2015 में बढ़कर 9,091 करोड़ रु हो गई थी जब वित्तमंत्रालय ने बैंकों को वसूली के लिए सख़्त हिदायत दी थी। इस बीच विजय माल्या कहते रहे कि वे मूल रक़म चुकाने के लिए तैयार हैं बशर्ते कि ब्याज माफ़ कर दिया जाय। अगर सरकार समझौते के लिए तैयार हो जाती तो सारा मामला आसानी से निपटाया जा सकता था। अत्याधिक मुनाफ़ेवाले शराब के कारोबार के साथ, 50,000 करोड़ रु की परिसंपत्तियों के मालिक विजय माल्या के लिए 5,000 करोड़ रु अदा कर सकना मुश्किल नहीं होता। उन्होंने यूएई सरकार की विमानन कंपनी ऐतिहाद को, किंगफ़िशर में 48 फीसद हिस्सेदारी के बदले 3,000 करोड़ रु चुकता करने के लिए राज़ी भी कर लिया था। पर शासक पार्टी तथा अन्य राजनैतिक पार्टियों ने सरकार पर समझौते के लिए दबाव क्यों नहीं डाला इसके लिए थोड़ा गहराई में जाना होगा।
अक्टूबर 2012 में जब सरकार ने किंगफ़िशर एयरलाइंस को बंद करने का आदेश दिया उस समय उसकी देनदारियाँ लगभग 5,000 करोड़ रु थीं और उसका बाज़ार मूल्य भी लगभग इतना ही था क्योंकि यूएई की ऐतिहाद एयरवेज़ किंगफ़िशर में 48 फ़ीसद शेयर ख़रीदने के लिए 3,000 करोड़ रु देने के लिए तैयार हो गयी थी। यह मूल रक़म जनवरी 2014 में बढ़कर, ब्याज सहित, 7,000 करोड़ रु हो गयी थी।
दिसंबर 2012 में जब ऐतिहाद एयरवेज़, किंगफ़िशर में 48 फ़ीसद शेयर 3,000 करोड़ रु में ख़रीदने की इच्छुक थी, उस समय 12,000 करोड़ रु के भारी क़र्ज़े में डूबी जेट एयरवेज़ ने भी ऐतिहाद से जेट एयरवेज़ में पैसा लगाने के लिए गुजारिश की थी पर ऐतिहाद ने जेट एयरवेज़ में पैसा लगाना मुनासिब नहीं समझा था। लेकिन महीने भर में ही घटनाक्रम बड़ी तेज़ी से बदला। एक ओर तो केंद्र सरकार ने किंगफ़िशर का लाइसेंस रद्द कर दिया और सरकारी बैंकों ने क़र्ज वसूली का नोटिस दे दिया, तो दूसरी ओर केंद्र सरकार ने यूएई की सरकार को आश्वासन दिया कि जेट एयरवेज़ में उनके द्वारा लगाया गया पैसा सुरक्षित रहेगा। इस आश्वासन के अनुरूप केंद्र सरकार ने यूएई सरकार के साथ लिखित समझौता भी किया, जिसको गोपनीयता की शर्तों की दलील देकर उजागर नहीं किया गया है। केंद्र सरकार के दख़ल के बाद ऐतिहाद ने, किंगफ़िशर में हिस्सेदारी ख़रीदने के अपने फ़ैसले को रद्द कर, केंद्र सरकार के आश्वासन के बाद, जेट एयरवेज़ में 24 फ़ीसद हिस्सेदारी 2,000 करोड़ रु देकर ख़रीद ली।
जहाँ किंगफ़िशर में प्रमोटर के शेयर केवल 5 फ़ीसद और जनता की भागीदारी 58 फ़ीसद थी, वहीं जेट एयरलाइंस पूरी तरह नरेश गोयल की निजी कंपनी थी। यूएई की ऐतिहाद एयरलाइंस द्वारा जेट एयरवेज़ में 25 फ़ीसद शेयर ख़रीदने से पहले, जेट एयरवेज़ में टेल विंड्स की 79.99 फ़ीसद भागीदारी थी तथा नरेश गोयल की 0.01 फ़ीसद भागीदारी थी। टेल विंड्स लिमिटेड, नरेश गोयल के पूर्ण स्वामित्व वाली एक विदेशी कंपनी है। नरेश गोयल ऐनआरआई हैं, उनकी और उनके परिवार की 14 कंपनियाँ भारत में रजिस्टर्ड हैं और टेल विंड्स के अलावा 4 और कंपनियाँ विदेशों में रजिस्टर्ड हैं। क़ानूनी जरूरत पूरी करने के लिए टेल विंड्स ने अपने पूरे शेयर नरेश गोयल तथा उनके परिवार को बेच दिये जिसके बाद ही ऐतिहाद को शेयर बेचे जा सकते थे। कंपनी की नयी संरचना में नरेश गोयल की भागीदारी 51 फ़ीसद है, ऐतिहाद की 24 फ़ीसद तथा बाकी 25 फ़ीसद विभिन्न ऐनआरआई तथा वित्तीय संस्थानों के हाथ में है। अभी हाल ही में नरेश गोयल ने अपने पूरे शेयर पंजाब नेशनल बैंक के पास गिरवी रख दिये हैं जिसकी शर्तों के अनुसार गिरवी के बदले ली गयी रक़म चुकता न करने की स्थिति में पीएनबी उन शेयरों के किसी को भी बेचने के लिए आजाद होगा।
अब अगर हम इस मामले के सारे तथ्यों को एक विशिष्ट परिस्थिति के रूप में, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी और वैश्विक पूँजी के आम सिद्धांत की रोशनी में देखते हैं तो सारी तस्वीर साफ़ हो जाती है
- जैसा मार्क्स ने समझाया था, पूंजी का चरित्र सामूहिक हो जाने के बाद एकाकी पूंजी द्वारा कमाया गया या कमाया जा सकने वाला अतिरिक्त मूल्य महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है। वित्तीय पूँजी, कमाये जा सकने वाले अतिरिक्त मूल्य में अपना हिस्सा, ब्याज के रूप में, वायदा आवंटन के अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के बैंकिंग नियम के अनुसार, अपने खातों में पहले ही दर्ज कर लेती है, अतिरिक्त मूल्य पैदा किया जा सके या न किया जा सके। जब कि न्याय संगत यह है कि अतिरिक्त मूल्य से पहले श्रमिक की मज़दूरी का भुगतान होना चाहिये क्योंकि मूल्य तथा अतिरिक्त मूल्य तो, पूँजी द्वारा ख़रीदी गयी श्रमशक्ति के उपभोग के बाद ही पैदा होता है, और उत्पाद के उपभोक्ता के हाथ में पहुँचने के बाद ही हासिल होता है। पर श्रमिक को मजदूरी, पूंजी द्वारा उसकी श्रम-शक्ति का उपभोग करने के बाद अर्थात अतिरिक्त मूल्य हासिल हो जाने के बाद ही चुकायी जाती है, और   अगर किसी कारण अतिरिक्त मूल्य बटोरा नहीं जा सका तो सबसे पहली कटौती मजदूर के हिस्से में से ही की जाती है।
- पूँजी का चरित्र ही अंतर्द्वंद्वात्मक है। एक ओर तो वह मूल्य उत्पादन के लिए खुले बाज़ार की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देती है, तो दूसरी ओर वह अतिरिक्त मूल्य को हड़पने के लिए केंद्रीकरण को बढ़ावा देती है। भारतीय पूँजी भी एक ओर तो विदेशी पूंजी के साथ स्पर्धा में विदेशी पूंजी को कमजोर कर स्वयं को सशक्त करती है, तो दूसरी ओर अपने सशक्तीकरण के जरिए एकीकृत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी को सशक्त करती है।
- पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था का सशक्तीकरण और सर्वहारा का सशक्तीकरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और पूँजीवाद से समाजवाद में संक्रमण के लिए सर्वहारा चेतना का आम मजदूर वर्ग के बीच विस्तार आवश्यक है।
- मौजूदा दौर में राष्ट्रीय पूँजी को, एक ओर तो हमारी आंतरिक सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करना पड़ रहा है, तो दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में विदेशी पूँजी के खिलाफ।
- विजय माल्या राष्ट्रीय पूंजी का मूर्त रूप हैं, तो नरेश गोयल विदेशी पूँजी का मूर्त रूप हैं। दोनों के आपसी द्वंद्व के बावजूद दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी, जो वैश्विक बैंकिंग प्रणाली के जरिए काम करती है, के दायरे में उसके ग़ुलाम हैं, अपनी अपनी व्यक्तिगत संपत्ति के मालिक होने के बावजूद।
- किंगफ़िशर की देनदारियों में से, मूल राशि 5,000 करोड़ रु उस मूल्य को दर्शाता है जो बैंकों के कब्जे में मुद्रा के रूप में पहले से जमा होता है, जिसके मालिक आमजन होते पर जो बैंकों के नियंत्रण में होता है। बाकी 5,000 करोड़ रु जो ब्याज की मद में दर्शाया गया है, वह अतिरिक्त मूल्य है जो किंगफ़िशर के बंद होने के कारण अर्जित नहीं किया जा सका पर किंगफ़िशर के सुचारू रूप से चलते रहने पर कमाया जा सकता था।
- किंगफ़िशर का सुचारू रूप से चलते रहना और ऐतिहाद का किंगफ़िशर में हिस्सेदारी ख़रीदना, राष्ट्रीय पूँजी तथा श्रमिकों के हित में था तो, विदेशी पूँजी के हित के खिलाफ था। उसी तरह किंगफ़िशर का बंद होना राष्ट्रीय पूँजी के हितों के खिलाफ है और विदेशी पूँजी के हित में है।
गैर-मार्क्सवादी निम्न मध्यवर्गीय काल्पनिक समाजवादी तो अपनी विचारधारा और चरित्र के अनुरूप केवल सतही तौर पर चीजों को देखते हैं और इस कारण उनकी नजर में किंगफ़िशर के घाटे में जाने और बंद होने का कारण, विजय माल्या का जीने का तौर तरीक़ा है, और इसलिए घाटे की पाई पाई उसकी निजी संपत्ति को बेच कर वसूल की जानी चाहिए। पर मार्क्सवादियों को तो समझ आना चाहिए कि बुर्जुआ जनतंत्र में क़ानून संपत्तिवान को सुरक्षा देने के लिए बने होते हैं ताकि पूँजीवाद का विकास हो सके और विजय माल्या से क़ानूनी प्रक्रिया के जरिए 5,000 करोड़ रु वसूल करना लगभग असंभव है। उनके साथ समझौता करना, जिसके लिए वे तैयार हैं, एक बेहतर विकल्प है।
वैश्वीकरण के दौर में विकसित होते विमानन क्षेत्र में देश की तीन ही बड़ी कंपनियां थीं, सरकारी क्षेत्र की एयर इंडिया,  58 फ़ीसद जनता की भागीदारी वाली सार्वजनिक क्षेत्र की किंगफ़िशर तथा पूरी तरह निजी स्वामित्व वाली जेट एयरवेज़ और 2012 में तीनों ही भारी कर्ज से दबी हुई, वित्तीय मदद के लिए जूझ रही थीं। सरकारी कंपनी एयर इंडिया को तो केंद्र सरकार ने मदद कर दी पर बाकी दोनों के लिए एक यूएई सरकार की एतिहाद ही मदद के लिए हासिल थी जो एक ही कंपनी को मदद कर सकती थी। एतिहाद की रुचि किंगफ़िशर में थी और वह राष्ट्रीय हित में भी होता।
केंद्र सरकार ने दिसंबर 2012 में हस्तक्षेप कर, देशी कंपनी को समाप्त कर विदेशी कंपनी को क्यों बचाया ये तो उस समय की सरकार में बैठे लोग ही जानें। पर वामपंथी पार्टियों ने क्यों उस समय किंगफ़िशर को बचाने के लिए हस्तक्षेप नहीं किया जब कि किंगफ़िशर के बचाये जाने में न केवल कर्मचारियों का हित था बल्कि 58 फ़ीसद शेयरधारकों का भी हित था।
किंगफ़िशर के मामले में वामपंथी पार्टियों की नाकामी, चाहे उनकी ईमानदारी पर सवाल न खड़ा करती हो पर, उनकी मार्क्सवादी समझ को तो शक के दायरे में लाती ही है।

सुरेश श्रीवास्तव
16 मार्च 2016